अगर हिंदी का कोई गणतंत्र है तो वे उसकी राजधानी हैं. वे हिंदी के विकेंद्रीकरण के सबसे बड़े प्रतीक हैं. वे हिंदी के भोपाल हैं, पटना हैं, रायपुर हैं, जयपुर हैं, मुम्बई हैं नागपुर हैं. वे हिंदी की संकुचन के नहीं विस्तार के प्रतीक हैं. वही अशोक वाजपेयी आज 74 साल के हो गए. अशोक वाजपेयी की बात करना उनकी कविताओं, उनकी आलोचना को याद भर करना नहीं हैं. यद्यपि वे हिंदी की दूसरी परम्परा के सबसे बड़े कवि हैं, जिनकी कविताओं में मनुष्यता की सच्ची आवाज सुनाई देती है, विचारधारा की झूठी टंकार नहीं. तकरीबन 50 साल पहले उन्होंने आलोचना की एक ऐसी पुस्तक लिखी जो आज तक ‘फिलहाल’ बनी हुई है. हिंदी आलोचना के ऐसे सूत्र दिए जो आजतक परिसर विस्तार के सन्दर्भ बने हुए हैं.
लेकिन अशोक जी का योगदान एक लेखक से भी विराट उस हिंदी सेवी का है जो जहाँ भी गए हिंदी अपने साथ लेकर गए. भाषाओं के बीच आवाजाही ही नहीं, कलाओं के साथ हिंदी के संवाद के महती काम में जीवन भर लगे रहे. बिना इस बात की परवाह किये कि हिंदी वाले इस परिसर विस्तार में अपनी जगह बना पाएंगे या नहीं. यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि उन्होंने हिंदी को हीनता की भाषा की छवि से उबारकर गर्व की भाषा के रूप में स्थापित करने का काम किया. हम हिंदी वालों की आदत है कि हम हर बड़े प्रयास को अपनी क्षुद्रताओं से छोटा बनाने में लगे रहते हैं. अशोक वाजपेयी हमेशा क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर गुणीजन संगम बनाने में लगे रहे. एक ऐसा पब्लिक स्फियर जो हो तो हिंदी का अपना लेकिन जो सीना तान कर, आँख में आँख डालकर दुनिया के साहित्य से, कला के विराट संसार से सहज संवाद स्थापित कर सके.
उन्होंने हिंदी को हिंदी विभागों की मुर्दा दुनिया से निकालकर एक सार्वजनिक जीवंत भाषा के रूप में स्थापित करने का अनथक काम किया. उनकी भाषा बौद्धिक जरूर है लेकिन वह संवादधर्मी बौद्धिक भाषा है. उनके चिंतन के केंद्र में कविता जरूर हो सकती है लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने खुद विपुल गद्य लिखा है, हमारी भाषा को अछूते विषयों पर लिखते हुए समृद्ध किया है. अशोक वाजपेयी होना सम्पूर्णता में अपनी मातृभाषा से जुड़ना है. यह बाद ध्यान रखने की है कि सेंट स्टीफेंस कॉलेज से अंग्रेजी पढने के बाद उन्होंने उन्होंने अंग्रेजी लेखन की धारा में बह जाने की लोकप्रिय सहूलियत का चुनाव नहीं किया, बल्कि अपनी भाषा को अंग्रेजी के मुक़ाबिल समृद्ध करने का महती बीड़ा उठाया. उनकी यह यात्रा आज भी जारी है.
आज मुझे नहीं लगता है कि युवाओं के सामने हिंदी का कोई दूसरा व्यक्तित्व ऐसा है जो इतना प्रेरक हो, जो हमें निरंतर नया लिखने की प्रेरणा देता हो. आज हमारी भाषा के कितने बुजुर्ग लेखक हैं जो नियमित रूप से लिखते हों, बहसों के केंद्र में बने रहते हों? निजी आरोपों-प्रत्यारोपों में नहीं बल्कि वैचारिक बहसों में अपने को अपडेट रखते हों. अशोक वाजपेयी के अलावा दूसरा कोई नाम ध्यान में नहीं आता है. आज इस मुबारक अवसर पर हम यही कामना करते हैं कि वे दीर्घायु हों, निरंतर हमें प्रेरणा देते रहें, हिंदी के परिसर विस्तार में योगदान देते रहें. उनके होने में हमारा होना है. उनके शब्दों में हम हिंदी वालों को अपना अक्स दिखाई देता है.
प्रभात रंजन
मॉडरेटर जानकी पुल
Height of Sycophancy and Toadyism!