चंद्रा गुरुंग नेपाली भाषा के कवि हैं। बहरीन में रहते हैं और मूल रूप से नेपाली भाषा में लिखने के अलावा दूसरी भाषाओं से नेपाली में अनुवाद भी करते हैं। प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ- मॉडरेटर
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परदेश
हमेशा गगनचुंबी सपने देखने वाली
रातदिन काम करते हाथों को लाया हूँ
नाप रहे हैं पैर नये चतार-चढ़ाव ।
जो मुस्कुराता है कभी कभार ।
दिलों में नाचती हैं उमंगें
जीवन में खिली हैं मुस्कुराहटें
समय के हाथों लगी हैं सुख-सुविधाएँ ।
सब कुछ हिफाजत से संभालने वाला दिल
मरुस्थल : एक मृगतृष्णा जीवन
एक लकीर चमकीली मुस्कुराहट की खिँची नहीं है
गालोँ में खुशी की तितली उड़ी नहीं हैं
सारी सुन्दरता मुरझाए बगीचे के जैसा
चारोँ ओर सूखे हुए पत्ते हैं
हवा के शुष्क हाथ यौवन सहलाने आते हैँ
आँखोँ में मृत उमंगोँ को संभाले
उठ रहा है अकेलेपन का टीला ।
दिनभर नयन लड़ाती है अल्हड धूप
अपने यौवन से किसी बटोही को बहलाने का मन है
हाव–भाव से किसी को दीवाना बनाने की चाह है
प्रेमिल आलिंगन के इन्तजार में
जी रही दुल्हन के सपनों जैसा है मरुस्थल ।
छाती पे खजूर के हरे पेड़ सजे हैं
कानोँ में लगाया है जवान नागफनी
शामिल है इच्छाओं के लम्बे कैनवास में
बागों के सौन्दर्य को लूटने
किसी आततायी के जैसे घुस आई आँधी को
कान से पकड़कर दिल में रखो
बातें कर सकते हैं इस अन्धेरे समय से ।
आँखों के किनारे से गिरते आँसू को
आँसू गिर रहे उस जमीन पर धूल उठे
ऐसे हाथ उठा सकते हैं असहमति में ।
गालों पे फिसलते उन मुस्कुराहटों का
सुन्दर चित्र दिल के कैनवास में सजाओ दोस्त
मुस्कुराहट का यह पंछी इच्छाओं के पंख फैलाए
भर सकता है स्वतन्त्र उड़ान ।
मृत घोषित गीतों में फिर से नया प्राण भरो
ध्वस्त स्वप्न महलों को फिर से खड़ा करो
पेड़ों को सुस्ताने दो, थके हैं तूफान से जुझते
पहाड़ के ऊपर पहुँचे सूरज को मत रोको
उग सकती है कल फिर नई सुबह ।
थकान मिटाने के लिए घर-आँगन में आए हैं
घोंसलों को आते पंछी फिर छुएँगे नये क्षितिज
उजियाले को मन के लैंपपोस्ट में लटकाकर
बात कर सकते हैं इस अन्धेरे से ।
छोटी-मोटी खुशियाँ गिनो, जोड़-घटाव करो
चाहत की तरंगें उठे घावों को दरकिनार करके
हिम्मत का एक नया पौधा उग आए
. . . जीवन इसी तरह जीना है ।
भूकंप में टूटे हुए घर की खिड़की पर
उजाड़ बाग में उजियाला पोतकर जाती है धूप
जंगल में सुगन्ध फैलाए उड़ती है हवा
कहीं कुछ न हुआ जैसी बहती हैं नदियाँ
झूमते रहते हैं पेड़-पौधे ।
क्षितिज के चमकीले आइने में
हिमनद से टूटा अपना चेहरा देखता है हिमालय
किसी बीमार बच्चे को खुश करने जैसा
अन्धेरे में टिमटिमाते हैं तारे
अन्धेरी शाम, थके मजदूर को रास्ता दिखाने
आ पहुँचता है आसमान में चमकीला चाँद ।
उड़ते रहते हैं उमंगों के पंछी
सूखे दिलों में बढ़ती रहती हैं चाहतों की कोपलें
गुब्बारे वाले के चारों ओर बच्चों की भीड़ जैसा
पलकों के आसपास जमा होते हैं उजियाले ।
छाती के अन्दर जोशीली हवा के झोंके आते हैं
आँसू की बर्षा में भी समय नयाँ लक्ष्य चलाता है
सूखे पहाड़ियों पर सजता है इन्द्रधनुष
अकेले पहाड़ को आलिंगन में बाँधने
दूर देश से आता है प्रेमी बादल का झुण्ड ।
पर हरेक सुबह उम्मीद का नया सूरज उगता है
दावानल से जले कुन्दे पर बैठे एक पंछी जैसा
दो आँखें चाँद-तारों सी चमकती है
आत्मविश्वास का एक पतंग उड़ता रहता है
आफत विपत के आँधी तूफान से जुझते
खिलते रहते हैं आर्किड और गुराँस ।
हर सुबह नया दिन का बोझ उठाने
जो शाम को दुःख की लकीरों को छिपाए
खुशियों की छोटी–छोटी पोटलियाँ उठाए
आते हैं उजियाला बनाते हुए घर आँगन ।
संसार पढ़ने वाली आँखें छोटी है
आत्म सम्मान उठाए खड़ी नाक दबी सी है
सुख-दुःख फिसलन खेलते गाले झुर्रीदार हैं
मुस्कुराहट लैफ्ट-राईट करते होठों पर दरार पड़ गई हैं
धूप से झुलसा है मंगोल पहिचान ।
“तेरा चेहरा, बिल्कुल तुम्हारे बाबा का जैसा !”
मेज पर रखे गुलाब को दिल में सजाओ
कि सुगंधित बने हमारा प्रेम ।
हम बैठेंगे, कुछ आत्मीय पल बिताएंगे
वाइन की बोतल और दो गिलास भी रख देना
जीवन के कुछ अंशों को जिएंगे।
अनाथ मालूम होती किताबें, कलम और पन्ने
लावारिस लाश की तरह पड़े हुए सिगरेट के टुकड़े
तुम्हारे एक स्पर्श का इन्तजार।
तुम आ पहुंची हो मेरी दहलीज पर अकेली
दौड़ रहीं हैं लहरें प्रेम की।
दिलों की आकाशगंगाओं में सपनों का धूमकेतु दिखा था
विचारों के पहाड़ों पर नई उम्मीदों का सूरज उगा था
क्षितिज में उड़े थे खुशी के अस्त–व्यस्त पंछी।
आया था मां का तन ढकने का फरिया
आई थी भाई की आवाज निकालती चप्पल।
रास्ते के किनारों पे धूल से ढक गए हरे पेड़-पौधे
छत पे खड़ा हो गया टीवी एन्टेना का चोटी
उल्लू की तरह ताकता था बिजली का बल्ब।
मोटर गाडी आकर भी बहुत साल तक
नहीं आया गांव के घाव में मलहम लगाने वाला अस्पताल
नहीं आया परदेश से प्रियजन का सन्देश लाने वाला डाक घर
नहीं आया गांव की आंखों को खोलने वाला स्कूल।
फैला सचिव की जगह का क्षेत्रफल, लेकिन नहीं फैली सड़क
बढ़ी ठेकेदार के घर की ऊंचाई, पर नहीं बढ़ी सड़क
बना मन्त्री आवास में ‘बार और स्पा’, नहीं बनी सड़क
उठा इंजीनियर का नया घर, नहीं बनी टूटी सड़क।
पहली मोटर गाड़ी आने के बाद
थोड़ा लड़खड़ाता हुआ, थोड़ा रास्ता छोड़ता हुआ
बेहतरीन कविताएं।
■ शहंशाह आलम
नायाब …बेहतरिन और बेहद उम्दा
शुक्रिया भाइ मेरे ।
सुन्दर कवितायें प्रिय चन्द्रजी कि । यिनका नाम चन्द्र गुरूङ है । चंद्रा नही । हाे सके ताे सुधार करें । बहुत धन्यवाद तथा आभार जनकी पुल !