जोगेंद्र पॉल उर्दू के जाने माने लेखक थे. . हाल में ही उनका देहांत हुआI उनके उपन्यास ”नादीद ‘ ‘का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ है’ब्लाइंड’ नाम से. अनुवाद सुकृता पॉल कुमार और हिना नंदराजोग ने किया है. अनुवाद की समीक्षा सरिता शर्मा ने की है – मॉडरेटर
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जोगेंद्र पॉल उर्दू के बहुचर्चित कथाकार हैं जिन्होंने अपने उपन्यासों, कहानियों और लघु कथा संग्रहों से उर्दू साहित्य को समृद्ध किया है। उनकी अधिकांश पुस्तकों के अनुवाद हिंदी और अंग्रेजी में किये गये हैं। उन्हें सार्क लाइफटाइम अवार्ड, इकबाल सम्मान, उर्दू अकादमी पुरस्कार, अखिल भारतीय बहादुर शाह जफर पुरस्कार, शिरोमणि पुरस्कार तथा गालिब पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। जोगेंद्र पॉल अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताते हैं-‘पता नहीं किसी ने सचमुच कभी हथेली पर पहाड़ उठाया था कि नहीं, किन्तु सृजनाकार को इसके बगैर कोई चारा ही नहीं कि अपनी हथेली पर दो जहान का फैलाव पैदा कर पाये। किसी कुशल और फौरी अनुभव में भाषाई बहुतात से घुटन का वातावरण पैदा होने लगता है। कलाकारों का यह इसरार बड़ा अर्थपूर्ण है कि बोलो मत, दिखाओ।’
जोगेंद्र पॉल के उर्दूमें लिखे गए उपन्यास ’नादीद’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘’ब्लाइंड’ सुकृता पॉल कुमार और हिना नंदराजोग ने किया है।उपन्यास लिखने का विचार लेखक के मन में तब उपजा जब वह नैरोबी में अंध गृह में गये थे– ‘’अफ्रीकी चेहरों की दृष्टिहीन आँखें मेरे दिल में उतर गयीं।’ उपन्यास के अंत में तीन अध्यायों में उपन्यास के बारे में सुकृता पॉल कुमार के नोट्स, उनका जोगेन्दर पॉल के साथ साक्षात्कार और जोगेन्दर पॉल द्वारा स्वयं के लिए लिखा मृत्युलेख है। अनुवादकों के लिए जादुई यथार्थवाद और अमूर्त प्रसंगों वाली खूबसूरती से लिखी किताब को अनुवाद करना चुनौतीपूर्ण था। सबसे पहले शब्दशः अनुवाद, उसके बाद मुहावरों और शैली का अनुवाद किया गया तथा अंत में अनुवाद को सहज बनाकर पठनीयता और प्रवाह पर ध्यान दिया गया। यह उपन्यास राजनैतिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और नैतिक अधोपतन से विकलांग हो चुके समाज की पड़ताल करता है। इसमें क्षेत्रीयता और सीमाओं, राजनीतिक सत्ता के लिए संघर्ष, रिश्ते और निहित स्वार्थ, भ्रष्टाचार, हमारे द्वारा अपनी कमजोरी को स्वीकार करने और खुद के बारे में सत्य की खोज करने जैसे मानव अस्तित्व से जुड़े सवालों को उठाया है । अंध गृह पूरे देश और समाज का एक सशक्त रूपक है।
उपन्यास के पात्र जीवंत और वास्तविक लगते हैं। लेखक का मानना है – “मेरे पात्र अक्सर मेरे प्रतिबिंब लगते हैं। मुझे यकीन है कि जब मैं नहीं रहूंगा, तब भी मैं अपने पात्रों के माध्यम से जीवित रहूंगा।” उपन्यास में बाबा, शरफू, भोला, रोनी और कुछ गौण पात्र हैं। पात्रों के प्रति लेखक का नजरिया बहुत उदार और मानवीय है। उनका मानना था कि जीवन किसी भी दर्शन से बढ़कर है। चूंकि दृष्टिहीनों की दुनिया बहुत सीमित है और वे बोल कर और छू कर ही स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं, उनके लिए नैतिक मानदंड बहुत कड़े नहीं रखे गये हैं। रोनी के बाबा, शरफू, भोला –तीनों ही के साथ संबंध हैं मगर उसकी शादी शरफू के साथ होती है। वह नाराज होकर अंध गृह से बाहर निकलती है मगर कठोर परिस्थितियों की शिकार हो कर अपनी बच्ची के साथ लौट आती है। बाबा देख सकने के बावजूद दृष्टिहीन बने रहने का अभिनय करता है क्योंकि उसे अपने साथियों की बहुत फ़िक्र है। वह अंतर्राष्ट्रीय आसूचना संगठन के चंगुल में फंसकर उनके हाथों कठपुतली बन जाता है और साम्प्रदायिक दंगे करवाता है। उसे पद्म विभूषण मिलता है और राज्य सभा में संसद सदस्य भी बन जाता है। उसे प्रधान मंत्री द्वारा यू. एन. ओ. द्वारा दृष्टिहीन लोगों के कल्याण हेतु आयोजित की जाने वाली सभा की अध्यक्षता की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। मगर आसूचना संगठन उसे विदेश मंत्री समेत विमान के अन्य यात्रियों को बम से उड़ाने का आदेश देता है जिनमें उसके अंध गृह के पांच साथी भी होते हैं। अंततः बाबा की अंतरात्मा जाग जाती है और वह आत्महत्या करने से पहले अपने अपराधों को स्वीकार करते हुए पत्र लिखकर उन लोगों की जान बचा लेता है।
दृष्टिहीन लोगों के बारे में लिखना बहुत कठिन है क्योंकि उनकी अँधेरी दुनिया में सबसे ज्यादा समय अपने बारे में सोचने और मन ही मन में बतियाने में निकल जाता है। अंध गृह में रहने वाले लोग अपने- अपने तरीके से देख सकते हैं। शरफू उंगलियों के माध्यम से देखता है जिनसे वह सुंदर टोकरी में बांस के तंतुओं से बुनाई करता है। उसके बारे में बाबा काव्यात्मक ढंग से कहता है- ‘किसी को टोकरी की जिन्दगी जीनी हो तो निश्चिन्त होकर खुद को शरफू के हाथों में सौंपकर मर सकता है।’ रोनी अपनी इच्छाओं से अंधी होते हुए भी, अपने प्रेमियों के माध्यम से देखती है। भोला अंतर्ज्ञान और छल के माध्यम से अपने दोस्तों पर सतर्क नजर रखता है। जब बाबा को एक दुर्घटना के बाद दिखाई देने लगता है, तो उसे दुनिया भ्रष्ट और अवनति की ओर जाती हुई नजर आती है। बाबा कहता है-‘जब मैं अँधा था, तो मैं अपने बस में था। मगर जैसे ही मुझे दिखने लगा, मैं खुद से दूर हो गया।’ उपन्यास में दृष्टि और अंतर्दृष्टि तथा देखने और न देखने के बीच अंतर बढ़ता जाता है। अंधापन विभिन्न स्तरों पर व्याप्त है। यह अंध गृह से शुरू हो कर पूरे देश की समस्या से जुडा हुआ है। दूसरे स्तर पर यह विश्व के किसी भी देश की कहानी कहता है। अंत में दृष्टिहीन देखना नहीं चाहते हैं क्योंकि वे अपने आस- पास की बुराई नहीं देखना चाहते हैं। ’सिर्फ आँखों वाले सीमा निर्धारण करते हैं। दृष्टिहीनों के लिए कोई भी स्थान, देश या घर उनका अपना हो सकता है।’
प्रभात रंजनजी शुक्रिया. इस बहुस्तरीय और महान पुस्तक को पढना और समझना अनूठा अनुभव रहा. जोगेन्द्र पॉल की अन्य पुस्तकें बहुत दिलचस्प और मजेदार लगीं थी. इसमें अंधगृह से लेकर देश भर की समस्याओं को काव्यात्मक शैली में समेटा गया है. दृष्टिहीन पात्र इतने जीवंत और अलग-अलग पहचान वाले हैं कि कहीं भी दया के पात्र नहीं लगते हैं. कोई पहेलियाँ बुझाता रहता है तो कोई अपने पिछले जन्म के कल्पित किस्से सुनाता रहता है. प्रवाह के बावजूद पाठक कई जगह रुक कर सोचने पर मजबूर हो जाता है.