‘तुम बताओ, क्या करुं?’
‘चले जाओ यहां से।’
‘क्या?’
‘हां, और क्या? जब नौकरी नहीं कर सकते, तो जाने में भलाई है।’
‘दूसरी नौकरी कहां।’
‘फिर घिसटते रहो। ताले की हालत कर ली तुमने अपनी। चाबी रह रहकर ताले की ऐसी-तैसी करने में लगी है।’
‘चाबी तोड़ दो या ताला।’
‘तुम तैयार हो।’
‘चाबी लेकर तो अजय है तुम्हारे पीछे।’
‘हां, लेकिन चाबी का आकार हर बार बड़ा होता जा रहा है।’
‘तभी कहता हूं, छोड़ दो सब और आराम करो घर पर।’
‘क्या? नौकरी न करुं।’
‘करो, लेकिन यहां तो चाबी घूमेगी ही, नहीं तुम इस स्तर पर पहुंचो कि तुम चाबी घुमा सको।’
मैं विजय की आंखों में झांकता रहा और वह चुपचाप सामने दीवार पर टकटकी लगाये हुए था। पराजित हो चुका था एक इंसान जो कल तक खुद को विजेता मानता था। उसका नाम भी तो विजय था। वो कहते हैं न, कि नाम में क्या रखा है। आज वह साबित हो गया था। नाम में कुछ नहीं था, न वजन, न ताकत और न जस्बा। था तो सिर्फ खालीपन, अधूरापन, टूटा हुआ हौंसला। वह खुद को कोस रहा था। अपनी किस्मत को उससे भी ज्यादा।
‘मैं खत्म हो रहा हूं।’ वह बोला।
‘ऐसा नहीं हो सकता।’ मैंने उसके कंधे पर विश्वास भरे स्नेह से हाथ रखा। उससे जरुर उसे राहत मिली होगी। मैं उसे इस तरह नहीं टूटने दूंगा। मेरा मित्र नहीं था वह, न हो सकता क्योंकि भावनाओं को मैं खुद पर हावी होने से बचाता हूं, लेकिन वह ऐसा था जिसकी मैं फिक्र कर सकता था और उसे निराशा के भंवर से परे करने में सहायता कर सकता था।
‘तुम इतने अच्छे क्यों हो?’ उसकी आंखें गीलीं थीं। भावनायें उधलपुथल कर पिघली थीं। विजय की आंखों में बूंदे बनकर बिखरने के लिए तैयार थीं।
मोती बिखर गये, टप-टप!
उसने मेरे दोनों हाथों को कसकर जकड़ लिया था। वह रो रहा था। हमारा विजय रो रहा था।
‘ओह, तुम….क्या हुआ इसे।’ तारा ने उसके बालों में हाथ फेरा। स्पर्श नर्म था, लेकिन तारा ने उसे दोहराया। वह स्वयं भावुक हो गयी थी।
‘बच्चा है यह।’ मैंने तारा की ओर देखा।
‘आंसू पोंछो और मुंह धोकर आओ।’ तारा ने कुछ निगलते हुए कहा। उसने दोनों गालों को मानो पिचका लिया था। फिर तेजी से गुब्बारे की तरह मुंह फुलाया और हवा को बाहर छोड़ा।
कुछ सवाल मेरे जेहन में बार-बार कौंध रहे थे। समय की ताकत और हमारी ताकत में फर्क होता है। हम क्यों रोजी-रोटी के लिए खुद को दांव पर लगाते हैं? क्या हम कुछ ऐसा नहीं कर सकते जो हम ताला और चाबी के खेल से बरी हो जायें? क्यों बार-बार चाबी घुमायी जाती है? कौन मजबूर करता है ताले में चाबी को?
कुछ बातें जो मैंने पहले दिन के चंद घंटों में सीखीं कि जिंदगी आम नहीं होती, न किसी तरह से खास। काम का बोझ नहीं होता, वह तो लादा जाता है। गधा कोई नहीं होता, चार पैर इंसान नहीं जानते लेकिन उनके सामने रास्तों का अभाव हो तो हाथों को ऐसा करने पर मजबूर करना पड़ता है जो बहुत हद तक सही भी है।
उदासी और मायूसी कहीं से खरीद कर नहीं लायी जाती वह स्वयं हममें उपजती है। उसे दूर करने के विकल्पों पर विचार किया जा सकता है। विचार अनूठे हों तो ही चलेगा क्योंकि रटी-रटायी बातें समय के साथ कदमताल नहीं करतीं; प्रायः उनमें होती हरकतें जबाव दे जाती है।
घिसती हुई जिंदगी आसान नहीं होती।
रात को मैंने खुले आसमान को बहुत देर तक देखा, देखता रहा। ग्यारह बजे तक सोच में उथलपुथल हुई, कुछ बातें अनोखी, मन के कोने से गुजरीं, कुछ ने आने से मना कर दिया लेकिन मैं जागता रहा। पुतलियों को उलझाता रहा कि शायद अनुभवों की गहराई के किसी कोने में कोई राज छिपा है जो निकल कर सामने आयेगा.