एजाज अहमद का नाम 90 के दशक में थ्योरी, आलोचना के सन्दर्भ में खूब लिया जाता था. आजकल गंभीर विमर्शों, आलोचना से नई पीढ़ी विमुख हो रही है. लेकिन वैभव सिंह का लेखन इसका अपवाद है. वे लगातार गंभीर लेखाकं कर रहे हैं और हिंदी आलोचना को समृद्ध कर रहे हैं. उनका यह लेख एजाज़ अहमद के लेखन, उनकी आलोचना को लेकर है- मॉडरेटर
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एजाज अहमदवामपंथी चिंतक और साहित्यालोचक के रूप में देश-विदेश के गंभीर प्रबुद्ध लोगों में व्यापक ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। वे भारत में जन्मे लेकिन विभाजन के समय उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। अपने उत्कृष्ट बौद्धिक जीवन में उन्होंने भारत समेत कनाडा और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया। भारत में जेएनयू (नई दिल्ली) में विजिटिंग प्रोफेसर रहे और जामिया मिलिया इस्लामिया में खान अब्दुल गफ्फार खान चेयर पर प्रोफेसर के तौर पर शोध किया। तीन मूर्ति पुस्तकालय में विजिटंग फेलो के तौर पर भी कार्यरत रहे। भारत, पाकिस्तान और यूरोप के समाजों के आंतरिक अनुभवों के आधार पर उन्होंने विभिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं, महाद्वीपों के बौद्धिकसंबंधों और उससे पैदा हुए वर्चस्वों के बारे में सघन विश्लेषण किए हैं। एक‘पब्लिक इंटलेक्चुअल’को कई बार पूर्वग्रहों से मुक्त होकर निर्मम और तटस्थ विश्लेषण करने पड़ते हैं। एजाज बड़ी ईमानदारी से, अक्सर ही अतिवाद की सीमा तक जाकर, या फिर साहित्यिक कृतियों के पूर्वनिर्धारित मनमाने अर्थ निकालने का आरोप लगने के खतरे उठाकर भी ईमानदारी से यह काम करते हैं। उनकी बौद्धिक बेचैनियां उनकी पुस्तकों में मुट्ठी तानकर हर पंक्ति, हर पृष्ठ और हर उद्धरण में चहलकदमी करती प्रतीत होती हैं। उन बेचैनियों में अपने पाठकों को भी संक्रमित कर देने का भरपूरा उत्साह और साहस है। वे भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के मध्य रहने की अपनी नियति को भी रेखांकित करते हैं और इसे अपनी ज्ञानमीमांसा के विकास का लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी मानते हैं। उनकी प्रमुख पुस्तके हैं- ‘इन थ्योरी- क्लास, नेशन, लिटरेचर’, ‘लिनिएज आफ द प्रेजेंट’, ‘इराक अफगानिस्तान एंड इंपीरियलिज्म आफ अवर टाइम’, ‘इन अवर टाइम- एंपायर, पालिटिक्स एंड कल्चर’, आन कम्युनलिज्म एंड ग्लोबलाइजेशन आदि।
पाठक सहज ही देख सकता है उनकी पुस्तकों के शीर्षक में ‘प्रेजेंट’और ‘इन अवर टाइम’ जैसे शब्दों का भरपूर प्रयोग होता है और यह इसका संकेत है कि एजाज अहमद वर्तमान में विश्व में चल रही ऐतिहासिक-राजनीतिक प्रक्रियाओं और कला-साहित्य पर पड़ने वाले उनके प्रभावों के आलोचक हैं। उनकी स्थापनाएं दिलचस्प ढंग विवादास्पद भी हैं और उन्हें अकादमिक मान्यताओं को लेकर पैदा होने वाले विवादों से कोई परहेज भी नहीं है। उन्होंने रचना और समाज के संबंधों के आधार पर साहित्यिक सैद्धांतिकी को निर्मित करने का प्रयास नहीं किया है। इसके स्थान पर सैद्धांतिकियों के निर्माण और उत्पादन के पीछे सक्रिय परिस्थितियों, खासतौर पर यूरोप-अमेरिकी की सामाजिक स्थितियों व उनसे जन्म लेते अकादमिक दृष्टिकोणों को अपनी विवेचन सामग्री के रूप में उपयोग किया है।
उनकी विभिन्न पुस्तकों मे‘इन थ्योरी’ (1994) को साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में विशेष रूप से महत्त्व प्राप्त हुआ। इसमें एजाज अहमद ने उपनिवेशवाद, बुर्जुआ संस्कृति के विकास, तीसरी दुनिया की अवधारणा, प्रव्रजन और समाजवाद के विशेष संदर्भों में साहित्यिक सिद्धांतों के विकास का विश्लेषण किया है।विश्लेषण के क्रम में उन्होंने‘थर्ड वर्ल्ड लिटरेचर’ की धारणा का तार-तार कर देने वाला विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इसमे उनकी मुख्य मान्यता यह है किपश्चिम में तीसरी दुनिया की रचनाशीलता की स्वीकृति का संबंध प्रवास औरआव्रजन (immigration) की स्थितियों के साथ जुड़ा हुआ है। बीसवीं सदी में पश्चिम में, खासकर 60 के दशक के बाद पश्चिम में भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक-जातीय समुदाय के लोग एकत्र होते रहे हैं जिनका चरित्र उन लोगों से अलग था जो अमेरिका में केवल गुलामी के लिए लाए जाते थे। विदेश जाकर बसने वाले नए किस्म के निवासियों में सत्ता व मध्यवर्गीय नौकरियों में हिस्सा मांगने वाले लोग भी थे और इस प्रक्रिया ने ‘थर्ल्ड वर्ल्ड लिटरेचर’ की धारणा को स्थापित किया। इसी प्रकार दूसरे महायुद्ध के बाद अमेरिका में अश्वेतों के आंदोलन में तेजी आई जिसने अश्वेत साहित्य यानी ‘ब्लैक लिटरेचर’को जन्म दिया। इसी अश्वेत साहित्य के मूलभूत चरित्र और इसी के आधार पर ‘थर्ल्ड वर्ल्ड लिटरेचर’ की वैश्विक साहित्य-अवधारणा को निर्मित करने में मदद मिली। एजाज अहमद का यह भी मानना है कि अमेरिकी विश्वविद्यालयों की बहुअनुशासिकता, उदारता और लोकतंत्र की आत्मछवि रही है और इस आत्मछवि का उपयोग कर, उसपर दबाव डालकर तीसरी दुनिया के साहित्य की अवधारणा को विश्वविद्यालयों में प्रवेश दिलाया गया। इस प्रकार प्रव्रजन की प्रक्रिया और अमेरिका में अश्वेत साहित्य के उदय ने तीसरी दुनिया की रचनाशीलताको एक भिन्न वर्ग में रखकर देखने की पृष्ठभूमि मुहैया कराई।एजाज अहमद ने यह भी माना है कि थर्ल्ड वर्ल्ड लिटरेचर तब अस्तित्व में आया जब खुद अमेरिका में बौद्धिकों पर वाम का प्रभाव कम होने लगा था। रेडिकल किस्म के सिद्धांतों की लोकप्रियता घटने लगी थी। ऐसे ही ऐतिहासिक दौर में अस्मिता-विमर्श का एक नया दौर उभर रहा था जिसके कलोनियल डिस्कोर्स एनालिसिस (colonial discourse analysis) के नाम से पुकारा गया और इसका गहरा जुड़ाव तीसरी दुनिया की साहित्यिक अवधारणा से था।
तीसरी दुनिया के साहित्य को बंधक बनाने, अधीन करने और उसकी सुविधाजनक परिभाषाएं गढ़ने का काम भी तेजी से हो रहा था। जिस प्रकार तीसरी दुनिया की नियति को साम्राज्यवाद से अलग करके देखना असंभव माना जाता था उसी प्रकार से उसके साहित्य को भी साम्राज्यवाद के असर से अलग कर के नहीं देखा जा सकता है। तीसरी दुनिया के औपनिवेशिक अतीत का हवाला देकर उसके साहित्य को उपनिवेशवाद से अनिवार्य रूप से नत्थी कर दिया गया और उसके बहुत सारे आंतरिक तनावों को पाठ-व्याख्या से लेकर पाठ्यक्रम बनाने तक हाशिए पर डाला जाने लगा। लेमिंग, चिनुआ अचेबे, गार्सिया, मार्क्वेज और सलमान रुश्दी आदि के लेखन को भी तीसरी दुनिया के राष्ट्रीय संकट, राष्ट्रवाद या राष्ट्र के प्रतिनिधित्व के तौर पर प्रस्तुत करना बड़ी स्वाभाविक सी बात मान ली गई। समानांतर रूप से पश्चिमी विश्वविद्यालयों में ‘कल्चर थ्योरी’का जोर तेजी से बढ़ रहा था और इसने भी तीसरी दुनिया के देशों की संरचना को राष्ट्र व राष्ट्रवाद से असंबद्ध करके देखना मुश्किल बना दिया। इसके असर से साहित्य-सिद्धांत मुक्त रहते तो दुनिया का आठवां आश्चर्य नहीं होता!ऐसे में ही एजाज अहमद का मत था कि इस कारण से समाज में जेंडर, वर्ग, क्षेत्र या जाति के आधार पर जारी शोषण या अत्याचार की जो तस्वीर साहित्य में प्रकट होती थीं, उन्हें सच्ची तस्वीर मानने से इनकार कर दिया जाता था। सच्ची तस्वीर का मतलब हो गया केवल राष्ट्र के रूपक और राष्ट्रीय संकट।एक अनोखा आयाम यह भी था कि राजनीतिक अर्थव्यवस्था की तुलना में साहित्य, दर्शन और रेडिकल नृतत्वशास्त्र को ज्यादा अहमियत प्राप्त होने लगी।
विकसित देशों में तीसरी दुनिया के बुद्धिजीवियों की मौजूदगी जैसे-जैसे बढ़ी है या प्रकाशन जगत में उनकी किताबों की मांग बढ़ी तो उसने भी साहित्य के मूल्यांकन में औपनिवेशिकता (coloniality)को अनिवार्य संदर्भ की तरह इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित किया। उनके बारे में एजाज अहमद लिखते हैं- ‘वे अब सरलता से उन अन्य लोगों के प्रतिनिधि बन सकते थे जिन्हें उपनिवेशवाद का सामना करना पड़ा। वे उत्तर औपनिवेशिक अन्य (Post- Colonial Other)लोगों में भी गिने जा सकते थे।इस प्रकार से पूरब का फिर जन्म हुआ और उसे तीसरी दुनिया यानी थर्ड वर्ल्ड के रूप में विकसित किया गया। उसे जानना व व्याख्यायित करना कैरियर की तरह हो गया और इस बार यह काम खुद पूर्वी देशों से आए लोग कर रहे थे जो पश्चिमी परिवेश में खुद को स्थापित कर चुके थे।’
एजाज अहमद ने फ्रेडरिक जेमसन, सलमान रुश्दी और एडवर्ड सईद की जो आलोचनाएं प्रस्तुत की हैं, वे खासतौर पर ध्यान देने योग्य है। तीसरी दुनिया के देशों में जो भी नए सिद्धांत 60 के दशक के बाद पश्चिम में गढ़े जा रहे थे, वे स्वयं किस प्रकार से तीसरी दुनिया के साहित्य की अधूरी लेकिन एकरूपता की समस्या से ग्रस्त समझ को बढ़ावा दे रहे थे, इसको एजाज अहमद ने बहुत ही बारीक विवेचन के माध्यम से समझाने का प्रयास किया है। जेमसन का प्रसिद्ध निबंध है- ‘थर्ड वर्ल्ड लिटरेचर इन द एरा आफ मल्टीनेशनल कैपिटल’ जिसमें उन्होंने अपनी यह प्रसिद्ध मान्यता प्रस्तुत की है कि तीसरी दुनिया का समस्त साहित्य अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय रूपक (national allegory) होता है। उपरोक्त बातें इस संदर्भ में याद रखनी चाहिए जिसका संबंध तीसरी दुनिया के साहित्य की पश्चिम में एक अलग श्रेणी बन जाने से है। एजाज अहमद ने तीसरी दुनिया के लेखन को केवल राष्ट्रीय रूपक की तरह पढ़े, समझे या विखंडित किए जाने की चेष्टाओं के मूल वैश्विक कारणों की सघन पड़ताल की है। एजाज अहमद भारत में जन्में और उर्दू भाषा में भी लिखा जिसे अमेरिकी बुद्धिजीवी प्रायः समझते नहीं हैं। इसीलिए उन्हें गहरा आश्चर्य भी हुआ कि भारत या अन्य देशों की कई भाषाओं को जब पश्चिमी बुद्धिजीवी समझते नहीं हैं तब वे उन भाषाओं के साहित्य के बारे में ऐसे सामान्यीकृत सिद्धांतों का किस प्रकार से निर्माण कर सकते हैं?चूंकि पश्चिम में बैठे इन धुरंधर विद्धानों को अपनी भाषा संबंधी सीमाओं का ज्ञान होता है, इसीलिए वे इस झंझट में ही नहीं पड़ते कि हिंदी, बंग्ला, गुजराती, उर्दू या चीनी भाषा के साहित्य को मूल रूप से पढ़ें या उनका अनुवाद कराने का श्रम करने के बाद किसी नतीजे पर पहुंचे। वे आसान रास्ता अपनाते हैं। आसान भी नहीं बल्कि छोटा रास्ता जो उन्हें उसी तीसरी दुनिया से ही दूर ले जाता है जिसके साहित्य को वे लोकतांत्रिक स्वीकृति प्रदान करने की उदारता का परिचय देना चाहते थे।वे तीसरी दुनिया के लेखन को समझने के लिए तीसरी दुनिया के अंग्रेजी भाषी लेखकों को अत्यधिक बढ़ावा देते हैं। अंग्रेजी के लेखन के ही तीसरी दुनिया के समाजों का प्रतिनिधि करने वाला लेखन मान लेते हैं। अंग्रेजी के अलावा पुर्तगाली, स्पेनी आदि भाषाएं में लिखे साहित्य पर भी नजर डाल लेते हैं जिनका संबंध यूरोप से रहा है। पर यह तरीका कितना हास्यास्पद हो सकता है इसका उदाहरण भी एजाज देते हैं। उन्होंने सलमान रुश्दी की किताब ‘मिडनाइट चिल्ड्रन’ की न्यूयार्क टाइम्स में छपी समीक्षा का उल्लेख किया है। जब यह उपन्यास छपा था तब अमेरिका के इस बड़े अखबार ने बड़ी भद्दी और बेवकूफी से भरी टिप्पणी की थी। अखबार की ओर से कहा गया कि ‘आखिर एशिया को अपने बारे में लिखने वाला रचनाकार मिल गया।’ यह किसी को भी सिर पीटने के लिए विवश कर सकता था। अभी तक एशिया बेआवाज था और पूंजीवाद की ऐश्वर्य से भरी दुनिया में कोई उसका प्रतिनिधि बनने योग्य तक न था। जब हम जागे तभी सुबह भी होगा। यह बात आश्चर्य में डालती है कि अंग्रेजी लेखन को ही महाद्वीप का प्रतिनिधित्व करने वाला लेखन माना जा सकता था और ऊपर से तीसरी दुनिया के साहित्य को स्वीकारने व उसे स्थापित करने का अहसान अलग से। इस बात को छोड़कर वापस जेमसन की ओर लौटते हैं। जेमसन का मानना था कि तीसरी दुनिया के देश उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के अपने अनुभव के आधार पर अपनी अलग पहचान का निर्माण करते हैं। जेमसन के मुताबिक, तीसरी दुनिया में चूंकि उपनिवेशवाद का विरोध करते हुए राष्ट्रवाद का विकास होता है इसीलिए उनके समस्त साहित्य का राष्ट्रीय रूपक के तौर पर पढ़ा तथा समझा जाना चाहिए। एजाज अहमद ने दुनिया को पहले, दूसरे या तीसरे खाने में रखने वाले विभाजन पर भी प्रश्न खड़े किए हैं। एजाज के अनुसारपहली दुनिया यानी पूंजीवादी देशों और दूसरी दुनिया यानी समाजवादी देशों कोउत्पादन व्यवस्था के आधार पर विभाजित किया गया। पर तीसरी दुनिया के देशों की श्रेणी तैयार करते समय उनकी भौतिक दशा, उत्पादन संबंधों की ऐतिहासिक अवस्था आदि को भुला दिया गया। तीसरी दुनिया की श्रेणी बनी केवल उपनिवेशवाद से उनके अनुभव के आधार पर।
एजाज मानते हैं कि वर्तमान में भारत जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों में पूंजीवाद का गहरा असर है और वे अपने पुराने औपनिवेशिक अतीत से दूर चले आए हैं। वहां बड़ी मात्रा में समाजवादी साहित्य भी रचा गया है जिसमें वर्ग विषमता और समानता के मुद्दों को ध्वनित किया गया है। इसलिए भारत जैसे देशों की औपन्यासिकता या अन्य साहित्य को केवल राष्ट्रीय रूपक के तौर पर प्रस्तुत करना एक खास तरह का चयनवादी रवैया है या फिर बौद्धिक नादानी के सिवाय और कुछ नहीं है।जेमसन जैसे बौद्धिक तीसरी दुनिया के साहित्य को मात्र राष्ट्रीयता से जोड़ने की वकालत करते हैं या फिर मानते हैं किअब राष्ट्रवाद के बाद अंतिम विकल्प है। लेकिन बाद में चोर दरवाजे से या चुपचाप यह भी मांग कर बैठते हैं कि तीसरी दुनिया उपनिवेशवाद के अनुभव के बाद कोई अन्य रास्ता न पकड़े बल्कि अमेरिका की उत्तर आधुनिकता की संस्कृति को अपना ले। किसी अन्य तरह का विकल्प जैसे कि समाजवाद या समाजवादी सिद्धांत से जुड़ने के विकल्प को समाप्त घोषित कर दिया जाता है। लेकिन साहित्य को राष्ट्रीय रूपक की तरह मानने के बावजूद इसपर भी कम ध्यान दिया गया कि एशिया से लेकर अफ्रीका तक विभिन्न देशों में अलग-अलग राष्ट्रवाद रहे हैं। ईरान का राष्ट्रवाद रहा है जो मुस्लिम फंडामेंटलिज्म में समा गया। इसलिएहम साहित्य को राष्ट्रीय रूपक की अवधारणा से ही समझने लग जाएंगे तो अनिवार्य तौर पर तीसरी दुनिया के साहित्य के प्रगतिशील चरित्र को समेटने में नाकामयाब होते चले जाएंगे। जेमसम की तीसरी दुनिया के साहित्य के बारे में राष्ट्रीय रूपक की सैद्धांतिकी समूची तीसरी दुनिया के लेखन को अन्य या अन्यपन (otherness) के खाते में डालती है। इसी पर एजाज अहमद लिखते हैं- ‘संसार में जिस प्रकार से हर देश में, हर स्थान पर पूंजी और श्रम के मध्य जो प्रधान संघर्ष चल रहा है उसमें ऐसा बहुत सारा साहित्य रचा जा रहा है जो केवल पहली, दूसरी या तीसरी दुनिया की सीमाओं को ध्यान में रखकर नहीं समझा जा सकता है। जेमसन का लेखन केवल पहली दुनिया का लेखन नहीं है और न मेरा केवल तीसरी दुनिया का। हम एक-दूसरे के सभ्यतागत अन्य (civilizational others) नहीं हो सकते हैं।’
एजाज अहमद अपनी आलोचना में एक और बिंदु यह भी उठाते हैं कितीसरी दुनिया के ही देशों जो एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में फैले हैं, उनमें ऐसी सांस्कृतिक या परिस्थितिगत समानताएं नहीं हैं जिनके आधार पर उनके साहित्य के बारे में सामान्य सिद्धांत का हम निर्माण कर सकें। पहली दुनिया के देशों में कई देशों का साझा इतिहास है जैसे जर्मन व फ्रांस। या फिर ब्रिटेन और अमेरिका। पर तीसरी दुनिया के भारत और पेरु जैसे देशों का कोई साझा इतिहास नहीं है और न ही औपनिवेशिकता संबंधी उनके अनुभवों में कोई खास समानता है। इसलिए मैक्स वेबर के नक्शेकदम पर चलकर ‘आदर्श प्रारूप’ तैयार करना अंततः तीसरी दुनिया की सच्चाई और उसके साहित्य की जटिलताओं को अनदेखा करने का प्रयास हो जाता है। यह एक तरह की बौद्धिक-अकादमिक चतुराई का भी परिचय होता है जिसमें तीसरी दुनिया के रचनाकार पर यह दबाव डाला जाता है कि अगर तुम्हें अपने लेखन को स्वीकृति दिलानी है तो इस प्रकार लिखो कि तुम्हारा लेखन राष्ट्रीय रूपक की कसौटियों पर खरा उतर सके। परिणामतः लेखन अपने समाज की वाचिकता तथा लिंग-वर्ग के संघर्ष आदि से कट जाता है। जेमसन का यह भी मानना है कि तीसरी दुनिया का लेखन ‘नान कैनोनिकल’ है यानी वह अमेरिकी साहित्य-अध्ययन की मुख्यधारा में ठीक से अपनी जगह नहीं बना सका है। उन्हें लगता था कि तीसरी दुनिया के लेखक अभी उसी प्रकार से उन विधाओं में लिख रहे हैं जिसे कभी पश्चिम ने विकसित किया था पर जिसे अब उसी ने त्याग दिया है। इसके जवाब में एजाज ने नेरुदा, वलोजो, आक्टोवियो पाज, बार्गसा, मार्क्वेज, अचेबे और सलमान रुश्दी के नामों की सूची प्रस्तुत की है जो अब अंग्रेजी समाचार पत्रों से लेकर पश्चिमी विश्वविद्यालयों में सम्मानजनक उपस्थिति रखते हैं। इसलिए एजाज के शब्दों में- यह कहना कि तीसरी दुनिया के लेखकों को ‘कैनन’स्वीकार नहीं करता है, यह बुर्जुआ सांस्कृतिक कर्मों की गलत व्याख्या करना है।एजाज ने फ्रेडरिख जेमसन की सैद्धांतिकी को 60 के दशक के बाद की ऐतिहासिक-राजनीतिक स्थितियों की उपज बताया है जब उत्तर आधुनिकता के लक्षणों का आगमन होने लगा था और भिन्नता, स्थानीयता व सांस्कृतिक सापेक्षिकता को पहली दुनिया के सिद्धांतकार बढ़ावा दे रहे थे ताकि तीसरी दुनिया के साहित्य को समाजवादी खेमे में जाने से रोका जा सके और ती
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