नसरीन मुन्नी कबीर किताबों की दुनिया की ‘कॉफ़ी विद करण’ हैं. फ़िल्मी-संगीत की दुनिया की हस्तियों से बातचीत के आधार पर किताब तैयार करती हैं. जावेद अख्तर, लता मंगेशकर पर उनकी किताबें खासी मकबूल हुई हैं. इस बार तबलानवाज़ जाकिर हुसैन के साथ उनकी किताब हार्पर कॉलिन्स प्रकाशन से आ रही है. किताब जनवरी 2018 में आएगी- दिव्या विजय
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अल्लाह रखा कुरैशी एक फ़ौजी पिता के पुत्र थे जो सेना से लौटकर रोज़ी-रोटी के लिए किसान हो गए परन्तु मुक़द्दर में लिखा भला कौन बदल पाया. अपने पिता के विरोध के बाद भी बारह वर्ष की उम्र में तबले की आवाज़ के वशीभूत होकर घर छोड़कर भागने वाले अल्लाह रखा कुरैशी साहब आज भी तबले के लैजेंड माने जाते हैं. इन्हीं की लैगेसी को चरमोत्कर्ष पर ले जाने वाले इन्हीं के सुपुत्र ज़ाकिर हुसैन से आज कौन परिचित नहीं है. संगीत इनकी रगों में बहता है इसीलिए मात्र सात साल की उम्र में अपने पहले ही सार्वजनिक प्रदर्शन के पश्चात् इन्हें विलक्षण प्रतिभा से युक्त बालक का तमग़ा मिल गया था.
बहुत ही कम अवस्था में जब ज़ाकिर ने तबला वादन के क्षेत्र में क़दम रखा, तब ये वो दौर था जब भारतीय शास्त्रीय संगीत ने अमीर लोगों की प्राइवेट महफ़िलों से बाहर निकलकर साँस लेना शुरू ही किया था। पंडित रविशंकर विदेशों में भी अपनी कला का लोहा मनवा रहे थे पर ज़ाकिर का साज़ यानी तबला बस सितार या किसी गायक के साथ बजने वाला ऐसा साज़ था जो संगत-भर ही के लिए जाना जाता था। जब तबला ही अपनी मुख्य जगह व पहचान तलाश रहा था तब उसे बजाने वाले को तो कौन ही जानने में रुचि लेता होगा। संगीतज्ञ भी तबला वादक को मरे हुए की चाम बजाने वाला मानकर बस अपने इशारों पर रखते थे। उस समय ज़ाकिर हुसैन ने तबले को नेपथ्य से सामने लाकर उस साज़ के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया जिसके बाद में अपने नाम पर कॉंसर्ट होने लगे। ज़ाकिर हुसैन के नाम से शोज़ होने लगे, अब तबले को किसी और के लिए नहीं बल्कि दूसरे साज़ों को तबले के साथ जुगलबन्दी करनी थी। तबले के रिकॉर्डस बिकने लगे, लोग इस ओर भी आकर्षित होने लगे। ज़ाकिर ने इस भारतीय साज़ को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी। तबला और ज़ाकिर एक-दूजे के पर्याय बन गये। इनकी अल्बम को ग्रैमी अवॉर्ड से भी नवाज़ा गया। देश में भी सर्वोच्च सम्मानों से ये सम्मानित हुए। ख़ुद ज़ाकिर कहते हैं कि अमेरिका में शराब परोसे जाने की वैध उम्र से पहले ही मैंने न्यू यॉर्क में पंडित रविशंकर के साथ कॉंसर्ट में संगत की थी।
बचपन में घर की रसोई के बर्तनों पर दही बिलोने की मथानी बजाने से लेकर कैसे एक बच्चा अपनी संगीत तपस्या के बूते विश्व पटल पर छा गया, इसी कहानी की बेसब्री से प्रतीक्षा है। ज़ाकिर की संगीत साधना का बखान तो इस किताब में अपेक्षित है ही पर क़िस्सों के शौकीन पाठकों को ज़ाकिर से जुड़े रोचक क़िस्सों का भी इंतज़ार है। एक घटना मुझे याद आती है जो बताती है कि कैसे ज़ाकिर बचपन से ही प्रतिभावान थे और तबला वादक बनने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ थे। वे घर में अकेले अंग्रेज़ी के जानकार थे और अपने गुरू-पिता के लिए आई चिट्ठियों के जवाब लिखा करते थे। एक बार पिता के लिए पटना के सेरा फ़ेस्टिवल में आमंत्रण के जवाबी ख़त में ज़ाकिर ने लिखा कि उस्ताद जी तो नहीं पर उनका बेटा उपलब्ध है। फ़ेस्टिलव आयोजकों ने भी उन्हें बुला भेजा और ज़ाकिर 12 वर्ष की अवस्था में बिना घरवालों को बताए रेल में सवार हो गये। पटना पहुँचने पर आयोजक स्कूली ड्रेस में आए एक बच्चे को देख अवाक् रह गये, तब तक घर वाले भी पुलिस में शिकायत कर चुके थे। आयोजक ने तुरंत उनके घर तार भेज कर ज़ाकिर के सकुशल होने की सूचना दी। इसी फ़ेस्टिवल में प्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ ने ज़ाकिर को तबला बजाते देख अपने साथ संगत के लिए चुन लिया था। घर लौटने पर माँ का ग़ुस्सा दो सौ रु की पेमेंट देख कर शांत हो गया।
कौन जानता था कि तीन साल की शैशवास्था में अपने पिता से पखावज सीखने वाले हिंदुस्तानी बालक के नाम पर कालांतर में अमेरिका फ़ेलोशिप प्रदान करेगा. ज़ाकिर हुसैन साहब ने दुनिया में हिन्दुस्तानी वाद्य संगीत के लिए नया मार्ग प्रशस्त किया. उन्होंने पहली बार भारतीय साज़ तबले को जैज़ और विश्व संगीत से परिचित करवाया. स्वनामधन्य ख्यातिलब्ध अंतरराष्ट्रीय संगीतज्ञों के साथ ज़ाकिर की जुगलबन्दी के तो क्या कहने। एक चाय के विज्ञापन की मशहूर टैगलाइन के अनुसार ज़ाकिर हुसैन को देख-सुन बस एक ही बात मुँह से निकलती है – “वाह! उस्ताद वाह”