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कविता शुक्रवार 15: हृदयेश मयंक की कविताएं बसंत भार्गव के चित्र

इस बार की प्रस्तुति में हृदयेश मयंक की कविताएं और बसंत भार्गव के चित्र शामिल हैं। हृदयेश मयंक का जन्म 18 सितम्बर 1951को जौनपुर जिले के एक किसान परिवार में हुआ था। उन्होंने एम ए हिन्दी मुंबई विश्व विद्यालय से किया है। उनके कई कविता संग्रह और गीत संग्रह प्रकाशित हैं। जिनमे प्रमुख हैं-
‘सायरन से सन्नाटे तक’, ‘युद्ध में शामिल नहीं थीं चिड़ियाए’
‘ठहराव के विरुद्ध, ‘अभी भी बचा हुआ है बहुत कुछ’, ‘अपने हिस्से की धूप’ इत्यादि हैं। वे ग़ज़ल और आलोचना भी लिखते रहे हैं। उन्हें कई पुरस्कार भी मिले हैं, जिनमें
महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी का संत नामदेव पुरस्कार, राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी का अन्ना भाऊ साठे राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, भारतीय सद्विचार मंच का डॉ राममनोहर त्रिपाठी सम्मान, प्रियदर्शनी एकेडेमी पुरस्कार, भारतीय प्रसार परिषद् का भारती गौरव सम्मान
आदि है।
वे ‘चिंतनदिशा’ त्रैमासिक पत्रिका का संपादन करते हैं।
उन्होंने स्वरसंगम फाउंडेशन की स्थापना की और महानगर नगरपालिका द्वारा प्रदत्त विरुंगला केन्द्र का संचालन करते हैं। वे जनवादी लेखक संघ की महाराष्ट्र इकाई के कार्याध्यक्ष व केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में विगत बीस वर्षों से कार्यरत हैं।

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 ढहना 
                   

ढहना मात्र एक क्रिया भर नहीं
यह एक प्रक्रिया है जो
होती रहती है अनवरत
ढह जाता है
एक पुराना मकान
जर्जर होते ही ढहा भी दिया जाता है
पुनर्निर्माण के लिए
ढह जाती हैं
इच्छाएं पक कर झर जाती हैं
पुराने पीपल की पत्तियां
नई कोपलों के लिए
मकान का ढहना
ढहना एक इतिहास का भी है
जिसे रचा रहता है पुरखों नें
सदियों सदियों की मशक्कत के बाद
ढहना कथाओं का भी होता है
जो नींव पड़ते ही पल्लवित हुईं थीं
और पुष्पित फलित हुईं थीं
मकान की चहारदीवारी में
उम्मीदों का ढहना
एक टेढ़ी और कठिन क्रिया है
दूसरों की बनिस्पद
पर ढहती हैं उम्मीदें भी
फिर फिर पनप जाया करती हैं
उम्मीदें,मनुष्य की जिजीविषा के साथ
यही होता रहा है
आदिम दिनों से आज तक
शायद होता भी रहे
युगों युगों तक
बनते ढहते रहने से ही
बनता बिगड़ता रहता है इतिहास
और आकार लेती रहती है क्रिया, प्रतिक्रिया
घर में 
घर में
सबकुछ ठीक ठाक था
एक भरोसे को छोड़कर
जो धीरे-धीरे टूट रहा था
घर में
बहुत कुछ चीजें थीं
जिन्हें होना था
कुछ कायदों को छोड़कर
जो धीरे-धीरे कमजोर पड़ रहे थे
घर में
ऐसा कुछ नहीं था
जिसे नहीं होना था
कुछ विचारों को छोड़कर
जो धीरे-धीरे जगह बना रहे थे
घर में
जो खिसक रहा था
वह पुराना था
जो जुड़ रहा था वह नया था
एक पीढ़ी से दूसरी में ऐसा ही होता आया है
घर को
नये सिरे से रचने व
संवारने की जरूरत है
दीवार पर टंगा सितार 
जब तक दीवार पर
टंगा था सितार
लोग याद करते रहे नाना को
धुन टेरते और सितार बजाते
नाना कइयों के प्रिय थे
अब नाना नहीं हैं
दीवार भी नहीं जिस पर
टंगा रहता था सितार
पर धुनें अभी भी बसीं हैं स्मृति में
स्मृति से सितार का
और सितार से नाना का रिश्ता
ठीक वैसे ही है
जैसे घर से दीवार का
और दीवार का उस जगह से
जहां टंगा रहता था सितार
सितार का न होना
कोई बड़ी बात नहीं
पर स्मृतियों का न होना
बहुत ही घातक है
पूरे समाज के लिए
बंजारन 
कंधों पर
गृहस्थी का बोझ
कमर की गठरी में
बंधा हुआ भविष्य
नथुनों में जली हुई
रोटी की गंध तलाशती
एक बंजारन उतर रही है कविता में
कविता की पतीली में
उबल रहे हैं चावल
चूल्हे में धधक रही है भूख
अभी तक नहीं लौटा है बंजारा
वह बाजार गया था लकड़ियों के गट्ठर के साथ
शायद ले आये मछलियों के कटे-फटे टुकड़े
उसी को निहार रही है बंजारन
शब्दों के बाज़ार में खरीदे और बेचे जा चुके हैं
अनमोल कहे जाने वाले बहुत से जीवन मूल्य
बंजारन को
जीवन बचाने के लिए चाहिए
कुछ मछलियां
बच्चे के लिए दूध
और दूध के लिए पैसे
उसकी छाती  को बेध रही है आंच
मुंह चिढ़ा रहा है खाली पड़ा कनस्तर
आंखों में है कल की सुबह की चिंता
जल्दी सोयेगी तो शुरू हो पायेगी
आगे की यात्रा
उसे डर है
कहीं मछली और दूध की जगह
बंजारा उठा कर न ले आये
अपने हिस्से का अपमान और
ढेर सारी ग्लानि ।
 
पिता ने कहा था
पिता नें कहा था
रास्ता तय करते हुए
बार-बार  पूछना मत
कि कितनी दूर है गंतव्य
चलते -चलते
जब थकने लग जांय पांव
तनिक रुकना किसी पेड़ या
किसी बट की छाँव
खा लेना गुड़,पी लेना शीतल जल
और शुरू कर देना तुरंत यात्रा
चलते-चलते
कम होती जायेंगी दूरियां
कट जायेगा रास्ता
तुम्हें लगने लगेगा कि
मैं तो नाहक घबरा रहा था दूरी से
बेटे चलते रहने से आसान हो जाती है राह
और लड़ते रहने से फ़तह हो जाता है युद्ध
युद्ध चाहे जीवन का हो या
फिर किसी दुश्मन का रोपा हुआ
बस्ता
बस्ते में
किताब हैं,कापियां हैं
पेंसिल,रबड़ और स्केल भी
गिनती के सारे अक्षर
ए से जेड तक कई-कई प्रकार
वक़्त  बेवक़्त बस्ते में
पड़ी रह जाती हैं गाड़ियां
तरह-तरह की पिस्तौलें
एक अदद गन भी प्लास्टिक की
बच्चे के लिए बस्ता तिजोरी है
जिसमें भरा रहता है
उसका माल अस्बाब
कई सिक्के और गोटियाँ भी
बस्ता एक भंडार लगता है
उसमें से झरते हैं ज्ञान के स्रोत
बार-बार उलटते पलटते
बच्चा अपने को समृद्ध करता है
एक दिन स्कूल जाते वक़्त
वह रखता है टिफिन
पानी का बाटल और साथ में
अपने आप भर जाता है माँ का प्यार
बच्चा,बस्ते की कीमत समझता है
और उसे रखता है बड़े जतन से
ईंट की आत्मकथा 
किस मिट्टी से बनीं है ईंट
कौन सी नदी की है रेत
इसमें लगा है किसका श्रम
आती है किसके खून पसीने की गंध
जुड़ाई कर रहे कारीगर को क्या पता
उसे तो यह भी पता नहीं कि
कहां से आई थी पथिहारिन
कौन था उसकी आमद का स्रोत
वह ठेके पर आई थी या रोज़ी पर
ईंट को भला कैसे पता होगा
कि वह लगेगी किसकी नींव में
वो शिवालय होगा या कि
किसी मस्जिद का गर्भगृह
या कि उसे दफ़्न कर दिया जायेगा
किसी क़त्लखाने में या कब्रगाह में
वह तो तपी थी भट्ठे की गर्म आंच में
निकली थी लाल-लाल ख़ूबसूरत
नम्बर एक का मिला था ख़िताब
उसे टनटना कर देखा और
सजा -सजा कर खड़ा किया गया था
 मन भावन आकार ,उसके आकर्षण के केंद्र थे
हर बार ग्राहकों की आंख में
बसती गई थी ईंट
यदि नींव में लगी तो
बुलंद करेगी इमारत
ईंट यदि दरवाजे पर लगी तो
कई-कई छबियां उभरेंगी उसमें
ईंट को निहारेंगे लोग बार बार
पर उसके भूत की कैसे होगी किसी को ख़बर
उसे तो बस जानती है पथिहारिन
जिसने दिया था आकार
या कि वह भट्ठा,जिसनें तपा कर
निखारा था रूप, एक नम्बर बनाया था
तपना ज़रूरी होता है
ईंट, सोना, मानुष तीनों के लिए
बिना तपे भला कैसे हासिल होगा
ख़िताब एक नम्बर का
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बसंत भार्गव : गणित नहीं, कला में विश्वास
— राकेश श्रीमाल
 
होना तो शायद यह चाहिए था कि एक गणित के प्राध्यापक के घर जन्में किसी बेटे को गणित में ही आजीवन रुचि रहती, लेकिन जीवन का समीकरण, उसके गुणा-भाग और उसकी सांख्यिकी कुछ अलग ही होती है। अपने स्कूली शिक्षा की पढ़ाई खत्म करते-करते ही पिता समझ गए थे कि यह गणित के लिए नहीं बना है। इसकी रुचि को वे वर्षो से देख-समझ रहे थे। खेलने के लिए आए कैरम बोर्ड को उसने तरह-तरह के रेखांकनों से भर दिया था और ओलंपिक का प्रतीक चिन्ह अप्पू उसने सैकड़ो तरीके से जगह-जगह बना लिया था। हालांकि घर में पढ़ाई और अनुशासन का परिवेश था। बसंत के पिता ने तय किया कि उसे कलाकार ही बनना है, जैसा कि उसकी रुचि भी थी। उस समय तक भोपाल भले ही कला की राजधानी बन गया था, लेकिन एक अदद फाइन आर्ट्स कॉलेज वहाँ नहीं था। अन्य कॉलेज थे, लेकिन उसमें भी तीन कॉलेज केवल लड़कियों के लिए थे। सिर्फ हमीदिया कॉलेज ही एकमात्र विकल्प था, और वही चुना गया।
वर्ष 1998 में ड्राइंग से बसंत ने एम. ए. कर लिया। कॉलेज के एक शिक्षक एल एम भावसार को वे अब भी याद करते हैं। बहुत पहले से वे भारत भवन जाते रहते थे, अपने स्कूली दिनों से ही। उन पर कला को देखने का अबोध प्रभाव तो पहले से ही था। नब्बे के दशक में ही जब उन्होंने भारत भवन में एक बड़ी प्रदर्शनी देखी, तो कला के प्रति उनकी जिज्ञासा और अधिक बढ़ गई थी। उस प्रदर्शनी में हुसैन, रामकुमार, जैराम पटेल इत्यादि नामी चित्रकारों के काम देखना एक नए संसार को देखने की तरह ही था।
कला शिक्षा के उपरांत उन्होंने चित्र बनाने शुरू किए और कलाकारों की सोहबत उन्हें रास आने लगी। अपने आसपास के परिवेश को, घटनाओं को और व्यवहार को देखने का उनका नजरिया बदलने लगा। वे कहते हैं- “मैं अक्सर अपने आसपास की चीजों को, घटनाओं को अपने नजरिए से देखता हूँ। मुझे लगता है कि मैं जो देख रहा हूँ, वह सहज ही होने जैसा है। इसमें देखने की कोई बाध्यता या कोई शर्त नहीं है और मैं इससे पूर्णतः मुक्त भी हूँ। शायद इसीलिए मेरे चित्रों की आभासीय दुनिया स्मृतियों के कोष से निकली है, किसी स्थान विशेष पर प्रत्यक्ष रूप से नहीं।”
उन्होंने ग्रुप शो में हिस्सेदारी लेना शुरू कर दिया। लेकिन उनकी पहली एकल प्रदर्शनी वर्ष 2004 में हुई। उनके चित्रों में प्रकृति के साथ गहरा सम्बंध देखा जा सकता है। वे मानते हैं कि प्रकृति अपने आप में अमूर्त है। किसी जंगल में जाकर, किसी उबड़-खाबड़ पहाड़ की ऊँचाई चढ़ते हुए या समुद्र के अंतहीन फैलाव में पानी की अठखेलियों को वे अमूर्त की तरह ही देखते हैं। ऐसा अमूर्त, जो स्थिर नहीं, बल्कि गतिशील है, बदलता रहता है। चित्र बनाने के साथ-साथ वे रेखांकन भी बनाते रहे। यद्धपि इन रेखांकनों को वे अपने चित्रों का ‘उप अध्याय’ ही समझते हैं और उन्हें उसी तरह रचते भी हैं।
मुंबई में इस दशक में उनकी दो सफल एकल प्रदर्शनी हुई है। ये आर्ट एंड सोल और जहाँगीर गैलरी में थी। वे रेखांकन कभी प्रदर्शनी के लिए नहीं बनाते थे। लेकिन मित्रों के आग्रह पर उन्होंने केवल रेखांकनों की एकल प्रदर्शनी भी की। उनके कुछ रेखांकनों में बनारस की वे छवियाँ हैं, जो उन्होंने देखी नहीं। वे बनारस कभी गए भी नहीं। इस पर वे कहते हैं कि-
“कुछ दिन पहले एक चित्रकार मित्र ने मेरे चित्रों पर बात करते हुए मुझसे कहा कि मुझे अगली सीरीज में बनारस पर काम करना चाहिए। किंतु मैं तो कभी बनारस गया नहीं, जैसे मैं और भी अन्य शहरों में नहीं गया। तो मैं भला कैसे बनारस को पेंट करूँ। जिसे देखा ही नहीं। उसकी स्मृतियों के होने जैसा कैसे मैं किसी से साझा करूँ। बनारस कोई एक पहाड़ भी नहीं, जिसे देखे बिना मैंने कई बरस पहले बना लिया था। अभी तक तो मैंने इस अविमुक्त शिव नगरी को मंदिरों और घाटों के दृश्य रूपकों में रामकुमार के दृश्य चित्रों के साथ ही देखा है। जिसमे दृष्टि प्रज्ञा है किंतु इसके आगे का देखना तो अभी मेरे अंतस में पड़े दृश्य विधान में शेष है। सोचता हूँ, इस दिव्य मोक्ष प्राचीन वैभव और इस नगर की सांस्कृतिक आत्मा को, इसकी बसाहट को, बिना स्पर्श के कभी किसी दिन अदेखा सा बनाने की शुरुआत करूँगा, अपने किसी याद शहर में।”
बसंत भार्गव सीधे-सीधे दो टूक बोलने में यकीन रखते हैं। हालांकि वे जानते हैं कि कला में ‘एकला चालो रे’ लम्बी दौड़ के लिए सहायक नहीं रहता। कुछ ऐसा भी चुनना हो सकता है, जो नापसन्द हो। वे कहते हैं– “कम से कम कुछ बातों को लेकर अपनी प्रतिबद्धता होनी चाहिए। या तो मैं किसी काम को कर सकता हूँ या नहीं। अवसर के मायनों में उपलब्धता या हर जगह खुद को बरतने के पक्ष में मैं कभी नहीं रहा। यही वजह है कि मैंने अन्य माध्यमों जैसे ग्राफिक्स, सेरेमिक, शिल्प या अन्य विकल्पों में कभी भी बेवजह ज़ोर आजमाइश नहीं की। मुझे राष्ट्रीय, प्रदेश या अन्य पुरस्कारों को लेकर भी कभी कोई लालसा नहीं रही। कुछ शुरुआती वर्षों को छोड़कर लगभग पिछले 18 वर्षों से मैंने किसी प्रतियोगिता हेतु कोई काम नहीं दिया। मेरे अभी तक के करियर में इस तरह का कोई अवॉर्ड नहीं है और न ही मुझसे आज तक किसी ने इस सम्बन्ध में कभी पूछा। आए दिन इन पुरस्कारों को लेकर उपजे विवादों को देखता हूँ, तो अपने निर्णय पर मन में संतोष रहता है। मैं ईमानदारी से काम करने में हमेशा यकीन रखता हूँ और बेबाक अपनी बात कहता हूँ।”
बसंत भार्गव ने पढ़ने के लिए गणित में रुचि नहीं रखी, यह कहना शायद पर्याप्त नहीं होगा। चित्रकार बनने की राह तय कर लेने के बाद उन्होंने कला के गणित, यानी उसके समीकरण, जोड़-घटाव, गुणा-भाग या प्रतिशत निकालने में भी कोई दिलचस्पी नहीं रखी। वे कला-गणित के बाहर रहकर अपनी रचनात्मकता में गुम रहते हैं। हालांकि पूर्णतया ऐसा सम्भव नहीं हो पाता। ऐसे में वे अपने रंग-रेखा के बीज गणित से काम चला लेते हैं। कला में गुटबाजी के स्तर पर हो रही आपसी निरर्थक प्रतिस्पर्धा को वे कला के लिए ही नुकसान का सौदा मानते हैं और इस मंडी में वे बेचने वाले की तरह नहीं, केवल एक कलाकार की तरह शामिल होना पसंद करते हैं।
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलावार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
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10 comments

  1. बहुत बढ़िया प्रस्तुति।

  2. जानकी पुल पर, हृदयेश मयंक जी की बहुत अच्छी कविताएं. उन्हें इन कविताओं के लिए बधाई एवं आगे भी उनकी निर्बाध सृजनशीलता हेतु हार्दिक शुभकामनाएं!
    — शिव कुमार पराग, वाराणसी

  3. Salut Claire ! Comment ça mon article ne t’a pas beaucoup aidé ?« Ayez un tapas dont vous puissiez être fier. » Ça fonctionne non ? Ahah ! 😉

  4. Fantastic post but I was wondering if you could write a litte more on this topic?I’d be very thankful if you could elaborate a littlebit further. Bless you!What’s up everyone, it’s my first pay a visit at this webpage, and piece of writing is actually fruitful in support of me, keep up posting these articles.I really like reading a post that will make men and women think.Also, thank you for permitting me to comment!

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