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कहानी चर्चा : चोर-सिपाही

अनिमेष जोशी जोधपुर में रहते हैं। वहाँ इन्होंने अपने प्रयासों से लेखकों और गम्भीर पाठकों को एकजुट किया है। हर महीने इनकी मंडली एक चर्चा आयोजित करती है जहाँ ये विभिन्न विषयों पर विमर्श करते हैं। अधिकतर गोष्ठियों में अब भी पुरानी कहानियों पर संवाद होता है उसके बरअक्स इनकी गोष्ठियों में नयी कहानियों को तरजीह दी जाती है। पिछले हफ़्ते हुई चर्चा का केंद्र थी मो. आरिफ़ की कहानी चोर सिपाही। आइए पढ़ते हैं अनिमेष जोशी की रपट – दिव्या विजय
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रिपोर्ट

हमारे समय को टटोलने के लिए किसी भी कहानी पर बात करना अपने आप में एक चुनौती हैं! क्योंकि समय और स्पेस हमें विचलित ज्यादा करते है..वनिस्पत गुद्गुगाने के. ख़ासकर जब हम उन कहानियों को अपनी चर्चा में शामिल करते है जो किसी मुद्दे को हाईलाइट करती है. यहाँ मुद्दे से जुड़ें सम और विषम तो मौजूद रहते ही है…साथ ही लेखक की ओब्जेक्टिविटी भी पता चलती हैं कि वो वस्तुगत चीजों के प्रति कितना सजग है. या और एक नई बाइनरी खींच रहा हैं… जिसके धागे इतनी महीन हैं कि हमें आसमान साफ़ रहते हुए भी कुहासे का भ्रम होता हैं…

बहरहाल, गत रविवार यानी- 7 मई, 2017 को जोधपुर शहर के नेहरू पार्क में हमने मो. आरिफ़ की कहानी ‘चोर-सिपाही’ पर चर्चा रखी. आज के समय में हिंदी साहित्य में नई कहानियों पर बातचीत न के बराबर होती है..उनकी लोंगिविटी को एक पल के लिए आप भूल भी जाए…यहाँ नए की ग्रहणशीलता आसना नहीं. मो.आरिफ़; हल्के-फुल्के टोन में अपनी बात रखते है. आप उनकी कोई भी कहानी उठा कर देख ले..सरल शब्दों में ही कथ्य होता है. भाषा की जादूगरी से अपने आपको दूर रखते है…लेकिन, उसमें भी एक तरह की गंभीरता दिखाई देती है. जब हम कहानी की भीतरी परतों को समझने की चेष्टा करते है. कहानी की पृष्ठभूमि आज का अहमदाबाद है. जो 2002 के गुजरात दंगों के बात सदा ही चर्चा के केंद्र में रहता है..यहाँ 2008 में जो बम धमाके हुए थे. उसको एक तरह का रिफरेन्स पॉइंट मानते हुए सारा तानाबाना बुना गया है..डायरीनुमा शैली में लिखी गई है कहानी. जहाँ सलीम नाम के बच्चे की आँख से हम उस परिवार को जान रहें है जो धमाकों के बाद भय में जी रहा है…जो खुद को माइनॉरिटी कहता है..और हर बार अपनी आइडेंटिटी के बारे में सोचता है..! अपने एग्जाम के बाद नानी के यहाँ बिताए गए इनदिनों को सलीम कभी भुला नहीं पाएगा.

इस कहानी पर बात करते हुए एक मत सभी दोस्तों ने माना कि मानवीय संवेदनाओं को इसमें बखूबी दर्शया गया है. उसकी वजह से कहानी में अरिरिक्त पठनीयता झलकती है. इसका डायरी शैली में होना इसके लिए प्लस पॉइंट भी है. जहाँ हम कुछ बातों को अगर कथ्य में dillute भी कर दे…तो भी पूरी पिक्चर सम टोटल में हमें भावनाओं के हिलोरे से ओत-प्रोत नजर आती है..जैसा कि हमारे मित्र विकास कपूर को लगा. मुझे और उनको इस कहानी के अंत से थोड़ी शिकायत भी है..जहाँ लेखक ने खुद को सेफ रखा है..चीजों को छोड़ दिया है..किसी प्रकार के समाधान की ओर न जाकर..पुरे परिवार का पलायनवादी रवैया थोडा अखरता हैं…जब वो शहर को छोड़ना चाहते हैं. साथ ही जब मानसुख पटेल अपने दल के साथ इस्मायल मामू को मारने के इरादे से आते है..वो इंसिडेंट इस तरह से अंत होता है कि मानों लेखक को फेड आउट करने की जल्दी रही हो…चीजों के ऊपर पर्दा डाल दिया जाए. और हम कुछ और ही सोच बैठते है. शुरुआत में भी जो भूमिका लेखक बांधता है. वहां भी थोडा सा चीजों के प्रति एक थर्ड पर्सन रवैया दीखता है. कि सलीम के द्वारा वो उन सारे कोनों का जिक्र कर रहें है जो ढके रहें तो ही अच्छा है.. वरना लेखक के स्टैंड पर एक सवालिया निशान लग सकता हैं..डायरीनुमा शैली की फॉर्म के कारण कुछ मित्रों को एन फ्रैंक की मशहूर किताब- ‘द डायरी ऑफ़ अ यंग गर्ल’ की याद हो आई..नवनीत नीरव और उपासना को ये कहानी मानवीय पहलू के कारण ज्यादा भाई..उनके हिसाब से दंगाइयों का कोई चेहरा नहीं होता है..और हम खुद को बिना वजह किसी प्रपंच में डालना नहीं चाहेंगे..और इसी वजह से एक हिन्दू लडके पराग से किया गया गुलनाज के प्रेम की कोई वैल्यू नहीं हैं..क्योंकि इस माहौल में पराग को अपना प्रेमी मानना सबके सामने खतरे से ख़ाली नहीं हैं.. कोई भी आप आदमी अगर ऐसी सिचुएशन आन भी पड़े जहाँ उसे अपनी जान बचानी हैं तो इस्मायल की तरह अपने बचपन में दोस्त को ‘तुम’ की जगह ‘आप’ कहने में समझदारी रखेगा! जो डर और हेल्पलेसनेस में फंसे इन्सान का अंतिम विकल्प होता है…साथ ही नवनीत ने गुजरात दंगों पर बनी कुछ फिल्मों का उल्लेख भी किया, जिसमें राहुल ढोलकिया की ‘परज़ानिया’ प्रभुख थीं…पी.के. शाह ऐसे आईडिया ऑफ़ इंडिया की बात करती कहानी मानते है. साथ ही उदय प्रकाश की ९० के दशक में आई बहुचर्चित कहानी –‘और अंत में प्रार्थना’ से उस लेवल पर साम्यता पाते है. जहाँ ह्यूमन सेंटिमेंट को उजागर किया गया है. भले ही दोनों का विषय वस्तु और ट्रीटमेंट भिन्न हो…इस कहानी में पठनीयता गजब की है ऐसा राजकुमार चौहान ने पाया..यहाँ उन्होंने कृष्ण चंदर की कहानी ‘गद्दार’ का जिक्र किया..इसको पढ़ते समय ये कहानी उनके दिमाग में घूमती रहीं. राजेंद्र चारण ने सीकर में हुआ एक हादसे का उल्लेख किया..जहां कैसे उनके पढ़े लिखें मुस्लिम दोस्त ने उनसे होटल छोड़ने की बात कही. क्योंकि वो एरिया दंगे के बाद सेफ नहीं था! वहीं संजय व्यास ने होलोकास्ट पर बनीं उन सारी फिल्मों की याद दिलाई.  चर्चा में एक बात पर सबकी सहमती बनी कि इस कहानी में किस्सागोई कमाल की है…जिसकी बजह से इसकी कमजोरियाँ उतनी नहीं अखरती…

मेरी टिप्पणी

वो सारी रंगबिरंगी पतंगे खुला आसमाँ चाहती हैं! जो किस छत से सार्थक होगा, इसका पता नहीं चल पा रहा है. डायरी में दर्ज सारे ब्यौरों को हम कितना विश्वशनीय समझ रहें है…! जिसका लेखक अपनी तरह से खंडन कर रहा है. कुछ पल के लिए ये मान भी ले कि अपने को बचाते हुए जो कुछ बतला रहा है वो कपोल-कल्पना पर आधारित है.. लेकिन, उसका इम्पैक्ट इस हद तक गहरा नजर आ रहा हैं कि उन सारी धटनाओं का मोंटाज हमारी आखों के सामने से होकर गुजरता हुआ प्रतीत हो रह है…जो कालान्तर में उस स्थान पर घटित हो चुकी है. जो शहर इस कहानी का सेंटर पॉइंट हैं…यहाँ परिवेश और जातीय अस्मिता वाला कार्ड भी नजर आ रहा है. उसकी खुरचन से सलीम, गुलनाज और पराग तीनों ही जुड़ें है. क्योंकि शोर का कोई चेहरा नहीं होता. …और मुखौटा लगाएं व्यक्ति को पहचानना बड़ा ही मुश्किल हैं! एक लहर से सब कुछ जुड़ा है. जहाँ अफवाहों को बाय एंड लार्ज सच साबित करने की जुगत बैठाई जाती हैं…

जिस प्रकार दिल्ली और नागपुर अपनी-अपनी मुख्तलिफ़ वजह से हमेशा चर्चा के केंद्र में रहती है. ठीक उसी तरह अहमदाबाद भी फैशन और राजनीति का प्रभुख सेंटर पॉइंट शुरू से रहा है…जहाँ तक सांप्रदायिक विघटन को टटोलने की बात है. हमें थोडा पीछे जाकर चीजों को समझना पड़ेगा. आज पूर्वी अहदाबाद का जो हिस्सा है..जो हर समय रेडार पर रहता है. वहाँ बसे मुश्लिम समुदाय की आबादी के कारण…

60 का दशक बड़ा ही महत्वपूर्ण रहा है. इस दशक में कुछ घटनाएँ इस तरह हुई हैं कि जिसके तार आगे चलकर ‘गोधरा’ जैसा बड़ा हादसे से जुड़े हैं…टेक्सटाईल मिलों की वजह से बड़ी संख्या में मुस्लिमों का बसना अहमदाबाद में शुरू होता है. उसी के चलते छोटी-छोटी गैरकानूनी कालोनियाँ का निर्माण होता हैं…इन पलायनवादी लोगों का दलित व वंचित तबके से मनमुटाव शुरू होता है… जो और बढ़ता है जब कुछ टेक्सटाईल मिल सूरत शिफ्ट कर दी जाती हैं.. कामगारों का एक तबका बेरोजगारी की चपेट में आ जाता है.. फिर आए दिन दोनों कोमों में कहा सुनी चलती रहती हैं…उसी समय आग में घी का काम करता है- (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) के अध्यक्ष गोलवलकर का वो भाषण; जहाँ वो हिन्दू राष्ट्र की माँग कर डालते है.. अहमदाबाद में एक रैली के दौरान! फिर अहमदाबाद में आए दिन वारदात का सिलसिला चल पड़ता है…और 18 सितम्बर 1969 को उर्स के दिन जमालपुर इलाके में दंगा भडकता हैं.. जो कि आजादी के बाद दोनों समुदायों के बीच सबसे बड़े दंगे के रूप में देखा जाता हैं…

मो. आरिफ़ की कहानी का नाम ‘चोर सिपाही’ बहुत बड़े रूपक की तरह देखा जाना चाहिए. क्योंकि कब चोर एक साफ़ सुथरा सिपाही बन जाए. इसका आकलन कर पाना बड़ा ही मुश्किल है. यहीं बात ‘सिपाही’ पर भी लागू होती है…यहाँ सलीम के द्वारा हर किरदार का वो चेहरा भी हम देखते है जो बाहर से हमें दिखाई नहीं पड़ता… भय में जी रहें उस समुदाय का डर भी दिख रहा..जो इसलिए और ज्यादा परेशान है कि बम धमाकों में एक भी मुस्लिम हताहत नहीं हुआ… ये कितनी बड़ी आयरनी कही जा सकती हैं! जिसकों लेखक ने बड़ी ही खूबसूरत ढंग से डायरी नुमा फॉर्म में दर्ज किया है… हर दिन के साथ टेंशन बढती जाती है. मानों कब हमारा अस्तित्व खत्म कर दिया जाए…मामू जान की घर के अंदर दीवार पर जो फोटो टंगा है. जहाँ मामू और उनके दोस्त मानसुख पटेल एक ही आइस क्रीम को खाते नजर आ रहें है. इस फोटो में दर्शया गया प्रेम उतना ही मौकापरस्त है.. जितना कि चुनाव से पहले कम्युनल हारमनी की एक लहर पैदा की जाती हैं… ताकि मूल मुद्दे हवा हो जाए, और जनता उस एंगल से चीजो को महसूस करे. जो कागजों में दर्ज हैं…यहाँ छोटे मामू का किरदार उस युवक की बात कर रहा, जिसे आसानी से बरगलाया जा सकता है. हर मैले और ताजियों के समय भीड़ ऐसे ही लोगों से जुटती है जो चंद रूपयों की आड़ में कोई भी नारा बुलंद कर सकते है..इस कहनी में काम वाली (दाई) का किरदार समुदाय की शिक्षा व्यवस्था पर चोट करता दिखाई देता. जब वो कहती हैं,’ पिछले दंगों में वो सब बच गई थी जिन्हें महिना चढ़ा था…’ गुलनाज़ का प्रेमी पराग मेहता का किरदार मुझे 2013 में आई ‘काई पो छे’ फ़िल्म के ओमी की याद दिलाता है… वो फिल्म, 2002 की गुजरात दंगों पर पूरी तरह से आधारित तो नहीं रही. फिर भी कुछ शेड्स थे उसमें. फिल्म में ओमी का मामा उसे मोहरा बनाता है.. जिस कारण तीनों दोस्तों में मनमुटाव पैदा होता हैं. ओमी का राजनीति से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं. यहाँ भी पराग मेहता उसी तरह एक मोहरे में तबदील हो जाते है..और फिर सारा घटनाक्रम तेजी से बदलता है.

इस कहानी की उपयोगिता आने वाले समय में भी बरकरार रहेंगी…क्योंकि अभी भी चीज़े उतनी ही धुंधली है. जहां गुलनाज जैसे कितने ही लोग है. जिन्हें एक अदद कोना की तलाश है. जहां वो अपने मित्र या प्रेमी से बात करते समय (फ़तिमा कालिंग) नाम का सहारा लिए बिना बात कर पाए…साथ ही सलीम जैसों की एस्पिरेशन भाप न बन जाए. जहां उन्हें शिक्षा की उपयोगिता पर शक होने लगता है…क्योंकि क़िताबे उड़ रही हैं…!

 
      

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