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गाँधी जी ने जातिवाद का अंत करने के लिए कुछ भी नहीं किया?

गाँधी जी को चतुरत बनिया कहे जाने के बाद से बहस चल पड़ी है. अनुवादक-लेखक मनोहर नोतानी ने अपनी इस टिप्पणी ने एक सवाल तो अच्छा उठाया है कि गांधी जी जाति व्यवस्था की चूलें नहीं हिला पाए- मॉडरेटर

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गांधी बनिये तो थे ही – आधिकारिक रूप से वे Modh Bania थे और रामचन्द्र गुहा अपनी पुस्तक गांधी बिफोर इंडिया में भी एक जगह उन्हें Fastidious Bania कहते हैं। और ‘चतुर’ तो वे थे ही क्योंकि उस वक्त के चतुरे हिन्दुत्ववादियों से निपटने के लिए ‘चतुरा’ होना अपरिहार्य था। आज़ादी के आंदोलन को बोस और भगतसिंह जैसे आक्रामक तत्वों सहित बाकी सबों से ‘हथिया’ लेने के लिए भी चतुराई एक आवश्यक गुण था जिसमें वे सफल भी रहे। गांधी ‘चतुर’ ज़रूर थे पर काइंया नहीं जैसा कि अमित शाह उन्हें बताने का प्रयास कर रहे हैं।

इसके अलावा गांधी समय के साथ आत्ममोही (narcissist) और महत्त्वोन्मादी (megalomaniac) भी होते चले गये। पर उनके इरादे नेक थे। वे जानते थे कि किसी भी कीमत पर वे अपनी वाली मनवा सकते हैं। वे इतने चतुर थे कि उन्हें पता था कि निजी सम्पत्ति आदि का त्याग उन्हें वह सत्ता दिलाएगा जिसका कोई तोड़ नहीं; पैसे का तो अन्त हो सकता है लेकिन सत्ता (वह भी अनधिकृत और अनौपचारिक) बेहिसाब है। इस त्याग की छिछली और हल्की झलक सोनिया गांधी के सत्ता त्याग के समय हमने देखी। मोदी ने भी घरेलू, पारिवारिक और अन्य सम्पत्तियों को त्याग दिया है। इस प्रकार का ‘त्याग’ आपको एक ‘नैतिक दबदबा’ दिलाता है। देखियेगा, बनती कोशिश मोदी आर्थिक रूप से ईमानदार रहे आएंगे। अन्य प्रकार के सत्ता-केन्द्री भ्रष्टाचार (मसलन योगी को मुख्यमंत्री बनाना) ज़रा कम दिखाई देते हैं क्योंकि वे तो सत्ता प्रदत्त विशेषाधिकार हैं।

ख़ैर गांधी जी पर लौटें। गांधी का अच्छा गुण यह था कि वे हमेशा work in progress रहे आये। कुछेक बुनियादी मसलों को छोड़ वे ‘निश्चित’ कभी न हो पाये। अनिश्चितता, सदाशयता और संदेहवादी होना सद्गुण हैं। घोर रूप से निश्चित लोग ख़तरनाक होते हैं। त्याग प्रदत्त नैतिक आभा ने गांधी को पूजनीय बना दिया। और वे स्वयं भी इस आभा की लपट की लपेट में आने से न बचे।

गांधी इतने चतुर तो थे ही कि जानते थे कि उनकी स्लाइस किस ओर से मक्खन लगी है, सो जातिव्यवस्था की क्रूरता जानने के बावजूद जाति सम्बन्धी अपने विमर्श में वे हरिजन की हद तक सीमित रहे आये। क्योंकि वे जानते थे कि यहाँ अगर वे क्रांतिकारी बने तो सगरे सेठों की धन थैलियों का मुंह बंद हो जाएगा। ऐसे में फिर आज़ादी के आंदोलन की इंजन का ईंधन कहाँ से आएगा?

गांधी इतने शक्तिशाली तो थे ही कि चाहते तो अपनी पहल और बूते जाति व्यवस्था की ताबूत में अन्तिम कील वे खुद ही ठोंकते, पर अफसोस, इस मामले में वे अपने समाज, अपने पूर्वाग्रहों से पार न पा सके। यहाँ वे समाज के अधीन ही रहे आये। उन्होंने बस कुछ नैतिक सामान्योक्तियां ही दीं जिनमें और जिनसे कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं आता। आज भी उन्हें यह अफसोस होगा (क्योंकि आत्मान्वेषी तो वे थे ही) कि जाति व्यवस्था को तोड़ सकने का सुनहरा अवसर उन्होंने गंवा दिया जिसके लिए वे पूरी तरह से सक्षम थे।

गांधी जी अगर जाति व्यवस्था की गहरी जड़ें नष्ट कर देते तो आज अपना देश कहीं बेहतर स्थिति में होता।

 
      

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