सुधीर चन्द्र की इतिहासपरक पुस्तक पर एक टिप्पणी युवा लेखक सुरेश कुमार की- मॉडरेटर
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प्रथम अध्याय में सुधीर चन्द्र ने रख्माबाई के मुकदमे पर विचार किया है। वे बहुत गहराई में जाकर इस मुकदमे जानकारी देते हैं । इस मुददमे पर आने से पहले रख्माबाई के संबंध में जाना जाए। रख्माबाई जयन्तीबाई और जर्नादन पांडुरंग की बेटी थी। जब रख्माबाई केवल ढ़ाई साल की थी। तब उनके पिता जर्नादन पांडुरंग की मृत्यु हो गई थी। जर्नादन पांडुरंग ने मृत्यु से पहले अपनी सम्पति रख्माबाई की मां के नाम कर गए थे। रख्माबाई कीमां ने समाज में चली आ रहीं परम्परा को चुनौती देकर, अपने पति की मृत्यु के छह वर्ष बाद सुखराम अर्जुन नाम के एक विधुर व्यक्ति से पुर्नविवाह कर लिया। उन्होंने पुर्नविवाह करने से पहले अपनी सारी सम्पति अपनी बेटी रख्माबाई के नाम के कर दी थी।
भारतीय समाज स्त्री को लेकर परंपरा और प्रथाओं की खान रहा है। इन पराम्परा और रुढ़ियों के चलते स्त्रियों का जीवन क़ब्रगाह बनकर रह गया है। देखा जाए तो रख्माबाई भी इन रुढ़ियों से बच नहीं सकी। वे बाल विवाह जैसी कुप्रथा का षिकार हो गईं। जब वे ग्यारह साल की थी तब उनका विवाह दादाजी भीका जी से कर दिया गया। रख्माबाई के सौतले पिता ने दादाजी भीकाजी से विवाह इस षर्त पर किया था कि दादाजी भीकाजी पढ़ लिखकर अच्छा इंसान बनेगा। भीकाजी की पढ़ाई-लिखाई का खर्च वे स्वमं उठाएगे। लेकिन दादा भीकाजी का पढा़ई में मन नहीं लगा। वे रख्माबाई का घर छोड़कर अपने मामा नारायण धर्मा के साथ रहने लगे। इतना ही नहीं भीका जी रख्माबाइ के पिता पर यह दबाव डालने लगे कि रख्माबाई को उनके साथ भेज दिया जाए।लेकिन, रख्माबाई के पिता ने जब रख्माबाई को भीकाजी के घर नहीं भेजा गया। इस के बाद भीकाजी ने मार्च,1884 को अदालत का दरवाजा खटखटा दिया।
रख्माबाई और भीकाजी के विवाह के ग्यारह साल बीत चुके थे। अब रख्माबाई बाइस साल की हो गई थी। भीकाजी की तरफ से कई कानूनी पत्र न उनके पिता को भेजवाए गएं। इन पत्रों में यह जिक्र होता था कि पत्नी को उस के पास भेज दिया जाए। सुधीर चन्द्र लिखते हैं,‘19 मार्च को उसने अपने वकीलों -मैसर्स चाॅक एंड वाकर के मघ्यम से सखाराम अर्जुन को पत्र भेज का मांग की कि ‘मेरी पत्नी को मेरे पास आकर रहने की अनुमति दी जाए’, क्योंकि मेरा ख्याल है कि परीक्षण की अवधि काफी लम्बी खीच गई है’।’ सखाराम ने पत्र के उत्तर में लिखते हुए यह मांग की कि मैनें रख्माबाई को आप के मुवक्विल की मांग या इच्छा के विरुद्ध नहीं रखा है। यदि मुवक्विल अपनी पत्नी के लिए एक उपयुक्त घर का प्रबंध कर के अपनी पत्नी के ले जाए। गौरतलब है कि भीकाजी के पास अपना घर नहीं था। भीकाजी ने रख्माबाई को आपने पास आने के लिए एक दल भेजा। सुधीर चन्द्र लिखते हैं,‘ एक दिन बाद 25,मार्च को ,उसे दादाजी के पास लेने के लिए कुछ लोगों का दल भेजा गया। इस दल में नारायण धर्मा जी के साथ-साथ दादाजी का बड़ा भाई दमोदर भीकाजी और वकीलों के फर्म का मुषीं ,गणपतिराव राव जी ,भी समिल थे।’ इस दल के साथ रख्माबाई जाने से माना कर दिया। वे अपने पति के घर क्यों नही जाना चाहती ? इसके कारण भी बताए। सुधीर चन्द्र लिखते हैं,‘रख्माबाई ने यह कह कर उनके साथ चलने से इनकार कर दिया कि दादाजी उसके लिए एक उपयुक्त घर और भरण-पोषण की व्यवस्था करने की स्थिति में नहीं था।’यही से औपनिवेषिक भारत में रख्माबाई की स्त्री स्वतंत्रा की लड़ाई का बिगूल बजता है। यह औपनिवेषिक भारत की बड़ी धटना थी कि जिसने पति सत्ता का दंभ और गुरुर को चकनाचूर कर के रख दिया। जब पति के सामने जिस समय स्त्रियों को बोलने का अधिकार नहीं था, उस दौर में रख्माबाई एक निठल्ले पति के साथ आने से माना कर दिया था। यह बात पति सत्ता के बर्दाश्त के बाहर की रही होगी कि उसकी पत्नी ने उसके साथ रहने से माना कर दिया।
रख्माबाई के मुकदमे की शुरुआत हो चुकी थी। रख्माबाई की ओर से इस मुकदमे की पैरवी एफ.एल. लैथम और के.टी. तैलंग कर रहे थे। ये तीनों अपने समय के बड़े कानून विद् माने जाते थे। दादा भीकाजी के वकीलों ने इस मुकदमे को वैवाहिक अधिकारों की पुर्नस्थापना का मुकदमा बनाना चाह रहे थे। गौरतलब है कि यह मुकदमा कोई तलाक का मुकदमा नहीं था। इस मुकदमे की शुरुआत हो चुकी थी। रख्माबाई के वकीलों तीन मुददे उठाए । सुधीर चन्द्र लिखते हैं, 19 सित्मबर 1885 को मुकदमे की सुनवाई षुरु हुई। रख्माबाई के वकीलों तीन मुददे उठाए। इनमें सबसे पहला मुद्दा थाः‘ क्या वादी को मुकदमा दायर करने का अधिकार था।…. दुसरा मुकदमे के गुण-दोष से सम्बधित था। ‘क्या वादी प्रतिवादी को रहने के लिए घर और गुजर-बसर के लिए खर्च दे पाने की स्थति में था?’… इन मुद्दों मे से जो एक तीसरा मुद्दा भी निकलता था वह थाः क्या वादी जिस रहत का दवा कर रहा है उस राहत या उसके किसी अंष का अधिकारी है,?’ इस मुकदमे की सुनवाई जज पिनी कर रहे थे। दोनो पक्ष को सुनने के बाद इस मुकदमे का एताहासिक निर्णय सुना दिया। यह निर्णय था- कानून के अनुसार ,मै वादी को उसके द्वारा मांगी गई राहत प्रदान करने के लिए, और इस बाइस वर्षीय महिला को उसके साथ उसके घर में रहने का आदेष देने के लिए- तकि उक्त महिला के साथ उसके मसूम बचपन में हुए अपने विवाह को परिणति तक पहुचा सके बाध्य नहीं हूँ।’
अब रख्माबाई स्त्री अधिकारों की सबसे बड़ी लड़ाई जीत चुकी थी। जज पिनी के इस एतिहासिक फैसले की प्रतिक्रिया पुरे भारत में हुई। रुढ़िवादी विचारकों ने इस फैसले को विवाह संस्था और पितृसत्ता पर कुठाराघात के रुप में देखा। कुछ विद्वानों इस निर्णय को स्त्री मुक्ति से जोड़कर देखा। इस निर्णय से कई स्त्री प्रष्न उभर कर आए थे।
दादाजी भीकाजी ने जज पिनी के निर्णय को चुनौती देते हुए बम्बई उच्च न्यायालय में याचिका दयार कर दी। इस मुकदमे की सुनवाई न्यायधीस सर चाल्र्स सर्जेट और सर लिटिलटन होल्योक बेली ने की । इन न्यायधीसों ने जज पिनी के निर्णय के पलट दिया। इस के बाद यह मुकदमा जज फैरन के पास गया। जज फैरन ने रख्माबाई को आदेष दिया कि वे अपने पति के घर जाकर रहे। लेकिन, रख्माबाई ने जज फैरन के आदेश को स्वीकार नहीं किया। वे अपने पति के घर जाने से जेल जाना अच्छा समझा।अततः रख्माबाई और दादाजी भीकाजी समझौता हुआ। इसके बाद मुकदमे का एक नाटकीय अन्त हुआ। सुधीर चन्द्र लिखते हैं,‘ इस बीच ,जुलाई,1888 में, दादाजी और रख्माबाई के बीच एक समझौते ने इस एतिहासिक मुकद्दमे का नाटकीय अन्त कर दिया। दादाजी ‘सभी खर्चों’ की सन्तोषजनक भरपाई के रुप में रख्माबाई से दो हजार रुपया लेकर उसके खिलाफ डिकरी को लागू न करवाने के लिए राजी हो गए।’ इस प्रकार रख्माबाई ने दो हजार रुपया देकर अपनी आजादी खरीदी थी। गौरतलब है कि 1888 में यह कीमत बहुत रही होगी। दादाजी भीकाजी को पैसे मिलने के बाद तुरन्त दुसरी शादी कर ली।
सुधीर चन्द्र ने औपनिवेषीय भारत की इतिहास के पन्नों में एक ऐसी स्त्री को खोज निकला, जो स्त्री स्वतंत्रा और उसके अधिकारों की लड़ाई लड़ रही थी। रख्माबाई का संघर्ष स्त्री मुक्ति का संघर्ष है। यह किताब स्त्रियों के प्रति पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता और पूर्वग्राह को उजागर करते हुए, हिन्दू और ब्रिटिष कानून की विसांगतियों का खुलसा करती है। रख्माबाई का पति सत्ता के खिलाफ विद्रोह किसी भी स्त्री के लिए प्रेरणा हो सकता है। इस मुकदमे से यह सवाल उठता है कि आज भी कानून के पास बुरे पति या पत्नी से छुटकारा दिलाने के लिए कोई ठोस विकल्प नहीं है। स्त्रीवादी लेखिकाओं के लिए यह किताब स्त्री विचारों की थाती है। एक ऐसी थाती जिस पर स्त्री वैचारिकी खड़ी हो सकती है । आज की लेखिकाओं को रख्माबाई के चिंतन पर विचार -विमर्श जरुर करना चाहिए।
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पुस्तक का नाम-रख्माबाईः स्त्री अधिकार और कानून
लेखक –सुधीर चन्द्र
अनुवाद-युगांक धीर
प्रकाश क-राजकमल प्रकासन प्रा.लि.
1-बी नेताजी सुभाष मार्ग़, नई दिल्ली-110002
मूल्य -400, सजिल्द
संस्करण -2012
68, बीरबल साहनी
शोध छात्रावास, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ, पिन कोड – 226007
मो0 नं0 8009824098
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