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वंदना राग की कहानी ‘अम्मा की डायरी’

आज मदर्स डे है. समकालीन दौर की सबसे संवेदनशील कथाकार वंदना राग की यह कहानी पढ़िए. पढ़ते पढ़ते मुझे अपनी माँ से मिलने का मन हो गया.  मन पर गहरी छाप छोड़ने वाली कहानी- मॉडरेटर

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मेरी अम्मा को लिखना नहीं आता था. फिर भी वह डायरी लिखती थी. एक करिश्मे की तरह वह अक्षरों को संजोती जाती थी और उन्हें ताड़ के पत्ते जैसे किसी पीले कागज में रचती रहती थी. फिर वह अपने लिखे हुए को एक काठ के बड़े से बक्से में बंद कर देती थी. मैं जब कौतुहल से भर उसे ताकती तो वह एक ऐसी मुस्कान मुझ पर फेंक देती, जिसका मतलब होता था- यह एक रहस्य है बाबू  खुलते- खुलते खुलेगा.

जब कभी मैं उसके काठ के बक्से को देखने की जिद करती वो मुझे अन्य कामों में उलझा देती.मेरी बढ़ती ज़िद पर वह मुझे ऐसे हट्ट करती कि मैं रूआंसी हो जाती और घर के सारे बड़े मुझे दुलार करने आ जाते. लेकिन वह फिर भी नहीं पसीजती. उलटे कई बार ज़ोर से मेरी कलाई पकड़ मुझे दालान में ईया के पास पटक आती.

 पांच- सात साल की उम्र तक मैंने बेअदबी और चालाकी नहीं सीखी थी और अम्मा की बातों को बिना संदेह मान लेना ही सलाहियत समझती थी. बाबूजी हमेशा मुझे अपने स्कूल की अच्छी बातें बताया करते थे. वे हमारे गाँव से पांच कोस दूर गाँव के हाई स्कूल के बच्चों को पढ़ाने जाते थे, अपनी चकमक करती काली सायकल पर सवार हो शान से घंटी टुन टुनाते हुए.उस घंटी में बहुत ताकत थी. उसकी आवाज़ के डर से जंगली भैंस भी बाबूजी के लिए रास्ता खाली कर देते थे.बाबूजी जब सायकल पर अपने पांव से पेडल चलाते थे तो उनकी आँखें ख़ुशी से चमकती थी और उनका ललाट आसमान जैसा लगता था.मैं बाबूजी की इस अदा को देख बड़ा ऊँचा महसूस करती थी.बाबूजी मुझे बड़ी बातें बताया करते थे. उन दिनों गाँव के जिस स्कूल में मैं पढने जाती थी वह पाकड़ के पेड़ तले लगता था.वहाँ समूचे गाँव के पढने वाले छोटे बच्चे आते थे. मेरे पड़ोस के घर में रहने वाला झमकू भी मेरे साथ ही पढने जाता था.वह रोज़ स्कूल जाने से पहले मेरे घर आता था और दरवाज़े पर खड़ा चिल्लाता था- ए लीलावती! चलबू की ना हो? देरी होखे से मास्टर साहेब मरहियें!

   तब अम्मा मेरी चोटी जल्दी- जल्दी बनाने लगती थी फिर भी देर होती चली जाती थी.झमकू और मैं जब स्कूल पहुँचते थे तो झमकू को मास्टर साहेब देर से आने के लिए एक छड़ी लगाते थे और झमकू ‘आही दादा’ का विलाप कर किसी खाली जगह पर जाकर बैठ जाता था.उसके बाद मास्टर साहेब मेरी ओर प्यार से देख कर कहते थे- माई जईसन बने के बा बबूनी की बाबूजी जईसन? इसपर क्लास में उपस्थित सारी लड़कियां शर्मा कर हंस देतीं थी और लड़के टेर लगाते थे – माई जईसन …माई जईसन . इसके बाद वे तरह- तरह की खाना बनाने ,झाड़ू करने और सजने की नक़ल बनाने लगते थे. मुझे बहुत बुरा लगता. यह तो मेरी  आड़ में अम्मा का मजाक उड़ाना था.

अम्मा ऐसी क्यों है कि सब उसका मज़ाक उड़ायें? मैं झमकू से घर लौटने के रास्ते में पूछना चाहती लेकिन पूछ नहीं पाती. वह अपनी धुन में गाता चलता.उसे  बड़े होकर गाँव से भाग जाने का मन था. वह कहता था, कलकत्ता मे जा कर ,पढ़ लिख कर वह ऑफिस का बाबू या पुलिस बनना चाहता है .उस वक़्त मैं सोचती थी क्या मैं यहीं रहूंगी हमेशा, गाँव में, वही सब करते हुए जैसा क्लास के लड़के कह कर चिढाते हैं?

 माई जईसन?

तभी झमकू पेड़ पर पत्थर मार आम की बौर से छोटा सा टिकोला गिरा देता और कहता -ले खा.

खाते हुए मैं सोचती अम्मा को ऐसा ही होना चाहिए. टिकोले जैसा प्यारा. खट्टा  लेकिन बहुत प्यारा. जी करता दौड़ कर चली जाऊं और उस प्यारी अम्मा की  गोदी में घुस कर बैठ जाऊं.खूब शिकायत करूँ मास्टर साहेब की और क्लास के लड़के लड़कियों की. लेकिन ऐसा होता नहीं कभी. घर जाती तो अम्मा कभी जांता पीस रही होती कभी अदहन खदका रही होती. झमकू मेरे चेहरे की खीज देख लेता और कहता- पाठ याद कर ना …उहे जेमे लिखल बा, “पिता आसमान होते हैं और माँ धरती.” इसपर मुझे हंसी आ जाती. झमकू और मैं आपस में देर तक खूब हँसते और इस नतीजे पर पहुँचते – अम्मा बाबूजी से अलग है.वह बाबूजी या आसमान की तरह साफ़ और चमकदार कत्तई नहीं बल्कि धरती की तरह खुरदुरी और दरारों से भरी हुई ही है.

झमकू कहता- माई का रोग तुम्हारा रोग है हमको कोई फिकिर नहीं, माई जो   नहीं. फिर वह पागल हंसी हँसता, जिसमें रास्ते में कुदक लगती,बाछे की तरह बौराना होता और बरहम बाबा पर बैठे चिल्लम खींचते साधू बाबा लोगों की तरह झूमना भी होता.मैं भी लोटपोट हो घर पहुँचती और अम्मा की मार खाती.जब मार खाने पर मैं सुबकती तो ईया मुझे चुप कराती. हथेली में भर- भर मिठाई देकर.

 मुझे ईया अच्छी लगती और अम्मा नंगे खीस से भरी डायन. ईया ने ही सुनाई थी गाँव में रहने वाली डायन की कहानी जो बच्चों को खा जाती है. ईया कहती थी ‘तुम्हारी अम्मा पर डायन का ही असर है देखो कैसे दांत पीसती है.’ ईया की बोली सुघड़ थी. वह अम्मा की तरह आधे वाक्यों में बात नहीं करती थी.वह शुद्ध हिंदी बोलती थी. जैसा स्कूल के पाठ में लिखा रहता था वैसी हिंदी. अम्मा की तरह आधी हिंदी और आधी भोजपुरी नहीं.

जैसे- जैसे मैं बड़ी होने लगी, मुझमे बड़ों वाले गुण भरने लगे थे. मैं अपनी ईया की तरह दिखने लगी थी जो बाबूजी की माँ थी और बाबूजी की तरह ही दीखती थी. गाँव में सब हम तीनों को खानदानी नाक के कारण ऊँचा कहते थे. हम तीनों की नाक एक जैसी थी. खड़ी और नोकदार. हम तीनों छरहरे बदन के थे. हम तीनों की लिखावट सुन्दर थी. हम शुद्ध हिंदी में बात करते थे.

अम्मा हमसे अलग थी. उसकी नाक फैली हुई थी.वह दिन भर काम करने के बावजूद मोटी होती जा रही थी. उसकी लिखावट मैंने कभी नहीं देखी थी.वह मेरे बड़े होने और पटना और फिर दिल्ली पढ़ने जाने के बाद भी कभी शुद्ध हिंदी में बात नहीं कर पायी थी.

मुझे झमकू के लिए दुःख होता ,उसकी ईया ही उसकी माँ है. झमकू के तो बाबूजी भी नहीं.उसकी ईया कहती चिढ़ कर’,सब मऊत(मौत) के लीला हअ’. वह कभी मेरी ईया की तरह सबकुछ को ठाकुर जी की लीला नहीं कहती थी.झमकू के घर में ठाकुरजी को कभी नहीं देखा मैंने. जबकि मेरी ईया का दिन ठाकुरजी को नहलाने धुलाने से शुरू होता था. बड़े सुन्दर ठाकुरजी थे ईया के. उनकी आँखों की काली पुतलियां  इतनी सुन्दर थीं कि लगता था कि वे हमें ही देख रहीं हैं और अभी हमारे हाथ जोड़ते ही, हमसे बात करने लगेंगी. ईया से जब मैंने पूछा था ठाकुरजी इतने उजले क्यों हैं, तो ईया बोली थी, पत्थर के जो हैं.

मतलब? क्या पत्थर से बने लोग ही उजले होते हैं? मैंने ईया,और अम्मा को बारी बारी देख पूछा था.

 ईया बहुत गोरी थी और अम्मा कम गोरी. मेरा सवाल सुन अम्मा मुस्कुरा दी थी लेकिन ईया तड़प कर बोली थी, पढाई- लिखाई में मन लगाओ बबुनी माई जईसन बनना है क्या?यह सुन अम्मा ने जल्दी- जल्दी आँगन में पसारे गए कपड़े चपेतने शुरू कर दिए थे और उन्हें ले अपनी कोठरी में चली गयी थी. ईया ने भी वही बात कह दी थी जिससे मैं चिढ़ती थी .. मेरे कान में आजकल रातदिन, बार-  बार वही बात गूंजती रहती थी …

 “माई जईसन?”

वह जाड़े की दुपहरी थी. सब लोग आँगन में घाम में बैठे थे.अम्मा धीरे- धीरे अपने पैरों में कडुआ तेल मल रही थी.मैंने गौर से देखा उसके पैर फटे पुराने लग रहे थे. उसके हाथ पैरों में शायद बहुत दर्द हो रहा था. लेकिन वह किसी से कुछ नहीं कह रही थी.बस उसके चेहरे पर कभी- कभी कोई खिंचाव सा होता था और वह अपने दांत भींच लेती थी.ईया उस वक़्त अख़बार का कोई टुकड़ा उठा कर जोर -जोर से पढ़ रही थी. इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री होगी ऐसा कहा जा रहा था.झमकू की ईया भी मेरी ईया के पास बैठ सर हिला रही थी. उसके चेहरे से लग रहा था की वह इस खबर से बहुत खुश है. जैसे प्रधान मंत्री वही बन गयी हो.मैं उस वक़्त तक प्रधान मंत्री का मतलब समझने लगी थी.ईया ने खबर पढ़ते वक़्त मेरी ओर भी आँखों में आशा भर देखा था.मैं भी यह समझने लायक हो गयी थी कि ईया के मन में मेरे भविष्य को लेकर एक नन्हा सपना जन्म ले रहा है.लेकिन अम्मा को अखबार बांचने, सुनने और प्रतिक्रिया देखने के बीच किसी ने न देखा, न जाना था. अम्मा ने भी किसी की ओर नहीं देखा था. वह उसी तरह अपने कुरूप पैरों में तेल मलती जा रही थी. भर भर अंजुरी. कड़वा तेल.मुझे अम्मा का इस तरह दृश्य से कट जाना अखर गया था. इसे कुछ भी समझ में नहीं आता है क्या? झमकू की ईया से भी गयी गुज़री है ये ? मुझे उसपर बहुत क्रोध हो आया. मैं चुप- चाप उठकर उस ठंडी अंधियारी कोठरी में चल दी थी जहाँ अम्मा का काठ का बक्सा रखा था और जिससे दूर रहने की अम्मा की हिदायतों का मैं अब तक पालन करती आई थी . इसलिए नहीं कि अब मुझमे कौतुहल ख़त्म हो गया था, या मैं अम्मा की इज्ज़त करने लगी थी और उसे बेज़ार नहीं करना चाहती थी ,बल्कि इसलिए क्योंकि ईया ने बताया था कि डायन के दोस्त सांप होते हैं और वो उसके सामानों की रक्षा करते हैं. मैंने ईया की बातों के मायने समझ लिए थे.अम्मा के दोस्त ही होंगे सांप तभी तो..

मैं सांप से बहुत डरती थी. एक बार खपरैल वाले ईंटों के पाखाने में मुझे सांप सरसराता हुआ दिख गया था. उसके बाद से अम्मा मेरे जाने से पहले पाखाने का मुआयना करने जाती थी.

 सब ठीक है बाबू! जब वह कहती थी तभी मैं उस पाखाने में घुसती थी.उन दिनों  मुझे कभी- कभी लगता था कि कोई और यह काम क्यों नहीं करता था मेरे लिए?  क्या अम्मा को साँपों से वाकई कोई डर नहीं लगता था? क्या वह सचमुच सापों की दोस्त थी?या उसे अपनी जान की परवाह नहीं थी? ईया कहती थी कुछ जानों की कीमत नहीं होती. क्या अम्मा के भी जान की कोई कीमत नहीं थी? हमारे घर में क्या अम्मा का किसी से कोई बंधन नहीं था? क्या वो किसी दूसरे लोक से आई थी?

 एक बार मैंने खूब सोचा था और बाबूजी से पूछा था, क्या आप अम्मा की चिंता करते हैं? ईया ने उसी वक़्त बाबूजी को गर्मागर्म गाय का दूध स्टील के बड़े गिलास में भर पकड़ा दिया था और बोली थी- अब बबुनी को बाहर पढने भेज दो, नहीं तो बर्बादी होगी. बाबूजी ने सिटपिटाते हुए सर हिलाया था और अम्मा को नज़र घुमा इधर उधर ढूँढने की कोशिश की थी. बाबूजी अम्मा को नहीं ढूंढ पाए थे लेकिन मैंने अम्मा को बाबूजी को ताकने की चोरी में पकड़ लिया था.अम्मा अपनी कोठरी की खिड़की से बाबूजी को ताक रही थी.बहुत बहुत प्यार से, मानो वो बाबूजी को अपने हाथों से दूध पिला रही हो, उनके मुँह पर लगा दूध अपने आँचल से पोंछ रही हो, उनके गालों को अपने हाथों से सहला रही हो. अम्मा का हाथ बाबूजी के गालों पर ही था तभी मैंने उनको यह सोचते पकड़ लिया था. मेरी ऑंखें अम्मा पर ही थीं.अम्मा मुझे देखते देख अजीब सी हो गयी थी. मारे शर्म के उसका माथा खिड़की की लोहे की सरिया से टकराया था लेकिन उसने अपनी आदत अनुसार बिना आवाज़ किये अपने होंठ भींचे थे और लुक गयी थी. शायद पलंग के पायताने. अगले दिन उसके माथे पर एक तिरछा कटा निशान दिखलाई दिया था, जिसपर सूख गए खून की खोंटी थी.दूर से देखने पर भी पता चल रहा था कि वहाँ ज़ोर की चोट लगी है. निशान के बारे में बाबूजी ने मेरे सामने ही अम्मा से पूछ लिया था और अम्मा ने घबरा कर मुझे देखा था कि कहीं मैं उनका राज न उगल दूँ. वैसे तो अम्मा को बचाने की मेरी कोई मंशा नहीं थी लेकिन उस दिन मैंने बाबूजी की छाती में अपना सर गड़ा लिया था और अम्मा को उस दृश्य से निर्ममता से काट दिया था. यूँ अम्मा का दृश्य से कट जाना अब आम घटना हो गयी थी और धीरे- धीरे ये सबकी आदत में शुमार हो गया था कि अम्मा को  किसी भी काम के लिए न पाए जाने पर उन्हें याद न किया जाये.सभी काम उनके बिना होने लगे थे.ईया कहती थी, क्या करेंगे उसे यहाँ अपने साथ बैठा कर? जब लिखत पढ़त से कोई वास्ता नहीं. समझती भी चार आना ही है. इतना कम किसी की समझदारी होती है क्या? ईया का यह कहना बाबूजी को अटपटा नहीं लगता था. धीरे -धीरे मैं भी उसकी आदी हो गयी.

अम्मा गाँव की औरतों से भी अब बहुत कम मिलती थी. उसने बताया था कि उसका मन खाना पकाने और घर की साफ़ सफाई में ही ज्यादा लगता है.उसके पास मिलने जुलने वालों से बात करने के विषय नहीं हैं. वह अक्सर लोगों के आने पर कह देती थी’काम है’ और अपनी कोठरी में चली जाती थी. लेकिन मैंने अपनी आँखों से देखा था, लोगों के चले जाने के बाद अम्मा घर के अन्दर अब कम रहती थी. अब वह बगीचे के किसी कोने में, या गाय की सानी के पास ,या झमकू के दुआरे बैठ कर पीले कागजों पर कलम चलाती रहती थी.अक्षर ज्ञान तो था नहीं फिर जाने क्या लिखती थी? जाने कैसे? ईया ने एकबार उसे ऐसा करते देख अपनी रामायण की किताब निकाली थी और ज़ोर- ज़ोर से बांचने लगी थी. लेकिन बांचने के पहले बोली थी ‘काम धाम नइखे —एही लेखन बईठ चिपरी पाथेली.’

अरे! ईया कैसे भोजपुरी में बोल गयी थी?मैं हैरान थी. मेरे सामने ईया ने पहली बार शुद्ध हिंदी में बात नहीं कही थी.

  अम्मा ने ईया की बात को सुन लिया था और दौड़ कर अपनी कोठरी के अंधियारे कोने के बक्से में अपना लिखा हुआ झोंक दिया था.मैंने उस दिन बाकायदा उसका पीछा किया था.

उसके बाद ही घाम वाला दृश्य घटा था.वही जब सब इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री होने की खुशियाँ मना रहे थे.मेरी ईया, झमकू की ईया और मैं. उसी दिन जिस दिन मुझे अम्मा के इस खबर से कट जाने पर क्रोध हुआ था. उसी दिन, जिस दिन मेरे लिए बेगानी हो गयी थी अम्मा हमेशा के लिए..

 उसी दिन ,मैं सबको आँगन में छोड़ अम्मा के काठ के बक्से को खोलने निकल पड़ी थी.मैंने बड़ी मुश्किल से उसके भारी लोहे के कुंदे को उठाया था और इसके पहले की अन्दर झाँक कर उस रहस्यलोक के दर्शन कर पाती अम्मा मेरे पीछे आ खड़ी हुई थी.वह आनन फानन में मेरी चोटी बेदर्दी से खीँच मुझे ज़मीन पर पटक चुकी थी. अम्मा… मैं दर्द से दहाड़ रही थी और अम्मा जो कभी चिल्लाती नहीं थी, बस गुम्म हो, दांत पीस, क्रोधित होती थी चिल्ला पड़ी थी ज़ोर-ज़ोर से. अपनी तब तक की ज़िन्दगी में पहली बार उसकी चिल्लाहट मैंने सुनी थी. पूरे घर ने भी पहली बार सुनी थी.घर का गोबर मिटटी से लीपा आँगन भी पहली बार अपने भीतर अम्मा के लफ़्ज़ों को समेट रहा था.

अम्मा चिल्लाकर बोली थी,’ख़बरदार ,जो इस बक्से को खोला. ये हमारा बक्सा है, सिर्फ हमारा. तुमलोग के पास तो बहुत कुछ है, खेलो उसके साथ. लेकिन इसको छूने की इजाज़त तुममे से किसीको नहीं है. हमारे मरने के बाद खोल लेना लेकिन हमारे जीते जी नहीं.समझी?’

 यह कैसी अनोखी बात थी -अम्मा उस दिन पूरे वाक्यों में बोल रही थी चिल्लाकर- शुद्ध हिंदी में, जैसे ईया बोला करती थी. वह पहली और आखरी बार था जब अम्मा इस तरह बोली थी और ज़ोरदार हल्ला मच गया था.

इतना हल्ला!

इतना हल्ला हुआ उस दिन! इतनी देर तक चलने वाला हल्ला कि आँगन की  पताका भी फहराना भूल गयी. लुंज पुंज हो ,सिमट कर उस गोबर मिटटी से लीपे सूने आँगन को देखती रही जिसमें  निस दिन बैठने वाले लोग अजीब सी उलझनों में फंस गए थे और उससे निकलने की राह ढूंढ रहे थे. उस दिन हम सब अपनी- अपनी ज़िन्दगी के लेखा –जोखा में बझ गए थे.

घर की पुश्तैनी मिटटी सबकुछ अपने भीतर दफ़न कर रही थी.

 इस घटना के कुछ दिनों बाद ईया के सुन्दर ठाकुर जी अपनी लीला दिखाने लगे.  अम्मा ने बहुत वक़्त नहीं लगाया हमें छोड़ कर जाने में.मेरे दिल्ली पढने जाने के कुछ ही दिन बाद वह अपनी गुम्मा ज़िन्दगी की तरह एक गुम्मा मौत मर गयी. ईया और बाबूजी ने मुझे न कभी उसकी कमी पहले महसूस होने दी थी न आज देते हैं. ईया तो बिस्तर से लग गयी है लेकिन बाबूजी और मेरे साथ दिल्ली रहने आती नहीं. गाँव का घर भी अब 20 साल पुराने गोबर और मिटटी वाले आँगन का  घर नहीं रहा. बाबूजी ने रिटायर होने के बाद इसे पक्का कर दिया. बिजली आ गयी और गैस चूल्हे पर खाना बनने लगा है. अपने बचपन के घर को बदलते हुए  मैं नहीं देख पाई थी. एक तो मेरा गाँव जाने का मन नही करता था, दूसरे मेरे काम बहुत बढ़ गए थे. मैं नौकरी करने लगी थी, बड़ी वाली. रुतबे वाली. पैसे वाली.

 लेकिन इस बार छठ के समय जब बाबूजी ने मुझसे कहा ‘चलो लीला तुम्हारी ईया को देख आयें, चाचा कह रहें हैं अब बस चला- चली की बेला है’तो मैं गाँव जाने से मना नहीं कर पाई.

 बाबूजी के दुःख को बखूबी समझ पटना के लिए फ्लाइट बुक कर ली.

कई साल बाद आयी हूँ गाँव इस बार. देखती हूँ झमकू का घर पक्का हो गया है. झमकू ने अपना सपना पूरा किया और कलकते में पुलिस हो गया है. उसके घर में उसके पट्टीदार लोग रहते हैं.

ईया अपने कमरे में जर्जर हालत में लेटी हुई है.आसपास के घर की कुछ औरतें मुँह में आँचल ठूंसे खुस- पुस कर रहीं है. वे मुझे छू छू कर देख रहीं हैं. बचपन में  सब मुझे बहुत दुलार करती थीं. सब ईया की रामायण कथा सुनने आतीं थीं.ईया उनसे अपना ज्ञान बाँटती थी. उन्हें पढना लिखना भी सिखाती थी.

मैं बाबूजी को ईया के सिरहाने छोड़ घर के बिसरा गए कोनों को ढूँढने लगती हूँ. अचानक अम्मा भी याद आती है.इतने सालों में कभी याद ही नहीं आई.यह गजब की बात है. एकलौती बेटी को उसकी माँ याद ही न आये इतने दिन? न किस्से कहानियों में ऐसा देखा मैंने न किसी सिनेमा में.

अम्मा ने ही मुझे दूर किया अपने से.

झूठ.

सफ़ेद झूठ.

 मैंने दूर किया उसे अपने से.

 मुझे उसपर शर्म आती थी. मेरी अम्मा को लिखना तक नहीं आता था.

फिर मुझे याद आई अम्मा की डायरी. वो जो अम्मा लिखती रहती थी और छुपाती थी अपने उस रहस्मय काठ के बक्से में ? वह क्या था? मेरे मन में फिर गुस्सा उमड़ने लगा. क्यों अम्मा ने उस दिन कहा था मेरे मरने के बाद खोलना यह बक्सा और खट से मर गयी थी?मुझपर एहसान कर रही थी क्या? मेरी सुविधा बढ़ा रही थी? क्या एक बक्से को दिखाने के लिए उसका मरना ज़रूरी था? क्या ज़िन्दा रहते नहीं दिखा सकती थी वह? कितने अहं से भरी थी! कितना कठोर व्यहवार था उसका.मेरी सहेलियों की माएं कितनी अलग थीं उससे. सब पढ़ी लिखी.सब अपनी बेटियों को छाती से लगा कर रखने वाली.और एक मेरी अम्मा….

 याद करते हुए गुस्से से फिर भर जाती हूँ मैं.दिल से उसके खिलाफ की तुर्शी अलग ही नहीं होती.

आज जब देख रही हूँ तो काठ का बक्सा कितना छोटा नज़र आता है.इसका कुंदा कितना हल्का.आज इस कमरे में बिजली का बल्ब भी है. बाबूजी के पट्टीदारों ने लगवा दिया होगा सोच, बबुनी कहीं देखना चाहे अपनी अम्मा की कोठरी. रौशनी कर दो उसके अम्मा की जगह पर.

अम्मा की जगह. अम्मा का यह बक्सा.

 अम्मा का बक्सा आज मेरे अख्तियार में था.आज़ादी के एहसास के साथ मैं उसे खोलती हूँ. पहली नज़र में मुझे बक्से में पीले पड़े कागज़ तुड़ी मुड़ी अवस्था में पड़े दिखलाई पड़ते हैं. मैंने बचपन के दिनों से यह जाना है कि ये अम्मा की डायरी के हिस्से हैं.इनमें उसके जीवन के किस्से हैं.उसके अपने किस्से. उस निजी जीवन के किस्से जिसमें हमारा दखल नहीं था. ऐसा हमने मानना स्वीकार किया था, क्योंकि उसमें बड़ा सुभीता था.

 दूसरी नज़र में समझ में आता है कि बक्से में पड़े कागज़ किसी चीज़ को या तो ढकते हैं या उनपर कुछ चीज़ें सजा कर रखी गयी हैं. मैं देखती हूँ, एक कोने में रखे कागज़ पर एक लकड़ी का सिन्होरा,रखा हुआ है. उसे खोलने पर नारंगी  भभरा सिन्दूर रखा दिखलाई पड़ता है.जो कागज़ सिन्होरा के नीचे रखा है उसपर थोडा सिन्दूर गिर गया है. उसे झाड़ कर देखती हूँ,लिखा है- ख़ुशी.

दूसरा कागज़ जो मैं देखती हूँ उसपर एक बहुत सुन्दर बेना रखा हुआ है. बेना पर सुन्दर कटिंग की झालर लगी हुई है जिसपर खूबसूरत मोती टाँके हुए हैं.उसमें से इतने सालों बाद भी लौंग की तीखी गंध उठ रही है.लौंग की एक पूरी लड़ी ही है जो उमग रही है उस बेने पर. उसके नीचे के कागज़ को उठाने पर देखती हूँ लिखा है –हुनर.

एक तीसरा कागज़ जो मेरे हाथ में आता है उसपर एक कांसे का छोटा लोटा रखा हुआ है.लोटे को उठाने पर कागज़ के अक्षर मेरी आँखों में गड़ने लगते हैं लिखा है-झूठ.

तभी कोठरी में लगा नया बल्ब भुकभुका कर बंद हो जाता है, मैं आवाज़ लगाती हूँ,अभी नहीं, अँधेरा नहीं .. कुछ करो.. बल्ब जलाओ  ..उजाला चाहिए.

लोग सोचते हैं मैं डर गयी हूँ. बहुत सारे कदम दौड़ कर मेरे पास आते हैं. उनके हाथ में टार्च है. वे मुझे असमंजस से देखते हैं.

‘पुराना बक्सा है,इसमें कुछ नहीं है’

‘बबुनी.. कुछु हेराइल बा का?’

मैं दो टार्च ले लेती हूँ और सबको मुस्कुरा कर विदा करती हूँ.मैं ठीक हूँ वाला भाव है मेरे चेहरे पर. मैं बहुत साहसी हूँ वाला भाव है मेरे अन्दर.सब आश्वस्त हो चले जाते हैं.

सबके जाने के बाद ही फिर बक्से के अन्दर कागज़ टटोलती हूँ.

अब बस एक कागज़ बचा है जिसपर कुछ लिखा हुआ है.

अरे ..

यह कितना अजीब है. यह जो चीज़ कागज़ से ढकी है उसके नीचे से उजले पत्थर के ठाकुर जी निकलते हैं.उनकी आँखों के पत्थर की चमकती काली पुतलियों की जगह कुछ भी नहीं है अब. उन आँखों की पुतलियाँ कहाँ गायब हो गयीं? एक चादर ओढा दी गयी हो जैसे, वैसे ही ढक दिया था ठाकुर जी को उस कागज से. उठा कर देखती हूँ लिखा है-उदासी.

 इसके बाद मैं बक्सा उलट- पलट करती हूँ. कुछ भी नहीं मिलता. बस चार चीजें –चार कागज़. इतने में कोठरी का बल्ब जल उठता है. जेनेरटर चला दिया गया है लगता है.

मैं तो हमेशा से जानती हूँ कि अम्मा को लिखना नहीं आता था. फिर अम्मा ने इतने भारी भरकम शब्द कैसे लिखे हैं उन चार कागजों पर? बस,चार कागज़ और चार सामान.इतनी ही थी अम्मा के बक्से की थाती.चार मौसमों की तरह.बेतरतीब चार रंगों से रंगे किस्से. उनसे बना जीवन.

 मुझे याद आता है,अम्मा का बाबूजी को हसरत से निहारना और चोट खाना.ख़ून और सिन्दूर का रंग एक हो जाना.

 मुझे याद आता है जेठ की दुपहरी में ईया का हल्ला मचाना कि उसका कोई लोटा खो गया है कहीं.फिर रामायण बांच कर,ईया का इस नतीजे पर पहुंचना कि अम्मा ने ही उसके लोटे को चुराया है. बाबूजी का अम्मा को ज़ोर से डांटना और अम्मा का सिर्फ कांप कर रह जाना.न रोना न जवाब देना.अपने नैहर से लाया हुआ लोटा ईया को सौंप देना. फिर ईया के लोटे का वहीँ से मिलना जहाँ से खोया था और बाबूजी का अम्मा के हाथ में अम्मा के नैहर वाले लोटे को नज़रें नीची कर लौटना.

 खूबसूरत बेना से बाबूजी और मुझे अम्मा का पंखा झलना. झमकू की ईया का अम्मा के नैहर से लाये बेनों की तारीफ़ करना, यह सुनते ही ईया की छाती में दर्द का उखड़ना, बाबूजी का ईया को संभालना और तल्खी से झमकू की ईया को जवाब देना, ‘ये सब किसी करम की चीज़ें नहीं हैं.जितना बताया गया था उतनी भी पढ़ी लिखी होती चिट्ठी पतरी बांच लेती तो भी काम चल जाता.’

ईया का अम्मा को बार- बार कहना, ठाकुर जी की सेवा करो एक लड़के का आशीर्वाद मांगो .एक लड़का तो हो. इतने पर ही खानदान को रोक दोगी क्या? लेकिन उस घटना का कभी न घटित होना और खानदान का लीलावती उर्फ़ लीला पर ही रुक जाना.अम्मा का दृश्यों से लगातार कटते जाना और हमारा उसे काटते जाना. हम सबका उसे देख कर ,उसे अपने पास पाकर शर्म की गलीज़ नदी में डूब जाना और बदले में उसका अपनी डायरी के साथ एक बक्से में सिमट जाना.

 कुछ खटर पटर होती है. देखती हूँ ,बाबूजी धीरे धीरे घूमते हुए, अम्मा की कोठरी के नजदीक आ गए है. एक बारगी मुझे वहाँ देख वे धक से रह जाते हैं.फिर मन्त्रबिद्ध बक्से के नजदीक जाते हैं. मेरी तरह वे भी उसे खोलते हैं पूरी आज़ादी से. वे भावविहीन हैं.अम्मा की चीज़ों के प्रति उनके अन्दर कभी उत्सुकता नहीं दिखी मुझे. वैसे सोचा जाए तो अम्मा के प्रति कौन सी बड़ी उत्सुकता रही कभी?

 मैं बक्से की ओर इशारा कर कहती हूँ- बाबूजी यह अम्मा की डायरी है.यही ..हाँ यही.

डायरी ? वे कुछ समझते नहीं. हैरान हो बक्से में जमा सामान को देखते हैं. सामानों के नीचे रखे कागजों में अक्षर ढूंढते हैं और निराशा से भर जाते हैं.

 वे कहते हैं ‘कुछ भी तो नहीं लिखा है.. क्या कह रही हो?’

 मैं कहती हूँ- ठीक से देखिये बाबूजी ..सबकुछ लिखा तो है.

 वे देखते हैं और कागज़ उठा हवा में लहराते हैं… कहाँ ?

 मैं भी दोबारा देखती हूँ, उन कागजों पर अक्षर नहीं हैं. सब जाने कहाँ उड़ गए? फिर मैंने कैसे देखे? क्या अम्मा के रहस्यलोक का कोई जादू देख ही लिया था आखिर मैंने?

बाबूजी अब सामान छू रहे हैं. एक- एक कर. उनका शरीर अब हिलने लगा है. ठीक वैसे जब बिना सूचना के भूकंप आने पर होता है. अप्रत्याशित वेग से धरती ही डोलती है. हम गिरने लगते हैं यहाँ वहाँ.. हर जगह.

 बाबूजी पहले सिन्होरा ही उठाते हैं.वे सिन्होरा को हाथ से सहलाते हैं.उस वक़्त वे मुझे उदास बादल जैसे दिखलाई पड़ते हैं. मैं चाहती हूँ सब टूट कर बिखर जाये. बादल फट ही जाएँ एक बार तो अच्छा है. बाबूजी सिन्होरा के अलावा कुछ और  नहीं उठा पाते हैं. शायद वे दूसरी चीज़ें उठाना ही नहीं चाहते हैं.

ईया के कमरे से गाँव की औरतों की खुसपुस की आवाज़ अब सुबकने में बदल चुकी है. जल्द रुदन होगा, परंपरा अनुसार.

बाबूजी दोहरे रुदन में पता नहीं कहाँ जायेंगे? बच पाएंगे कि नहीं यह सवाल मुझे परेशान कर रहा है .एक बार फिर इस घर का आँगन कुछ दर्ज कर रहा है. अजीब वक़्त हो रहा है. न शाम ख़त्म हो पाई है न रात आई है.पशोपेश के अपने रंज हैं.हम रंजिशों के हन्ता और शिकार. आँगन में दुबारा दफ़न होने को तैयार हैं.

मैं गुम्मा हो गयी हूँ.

अम्मा की तरह.

“माई जईसन”

लेकिन अब शायद बहुत देर हो चुकी है.

‘मौत का एक दिन मुअइयन है’.

सचमुच.

========

कुछ शब्दों के अर्थ ;

बेनाहाथ पंखा

चिपरी पाथना भोजपुरी कहावतव्यर्थ के काम करना.

मौत का एक दिन मुअइयन है शेर का हिस्सा मिर्ज़ा ग़ालिब

 

 
      

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11 comments

  1. मुकुल कुमारी अमलास

    हृदय को छू लेने वाली कहानी। वंदना जी की संवेदना को नमन।

  2. सत्येंद्र

    इस कहानी को पढ़ कर मैं इतना हीं कहूंगा ” माँ ” इसे हमने शब्दों में तो बांध दिया है किंतु यह शब्दातीत है अवर्णनीय है ………. ” माँ “

  3. Really Very Nice story

  4. वन्दना आपकी कहानी ने मेरे गांव के कई स्त्री पात्रों को सामने खड़ा कर दिया…जीवन जी लेना ही जैसे एक तप हो… क्या कहूं ? इतनी सुंदर कहानी के लिए बधाई !!

  5. वन्दना आपकी और रचनाएं पढने की उत्सुक्ता है कृपया मार्गदर्शन करें …

  6. Bahut sundar Abhivyakti
    Badhri

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