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बिकने वाला आर्ट अलग, इतिहास में जाने वाला आर्ट अलग!

गीताश्री के लेखन से मेरा परिचय उनकी रपटों को पढ़कर ही हुआ था. नवभारत टाइम्स से आउटलुक तक. बहुत दिनों बाद पटनीटॉप के कला शिविर को लेकर उनकी रपटें एक के बाद एक पढने को मिल रही हैं. यह तीसरी क़िस्त है- मॉडरेटर

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आपको अपने सभी सिद्धांतों और विचारों को  “विषय” के सामने भूल जाना चाहिए। आप कितना इन्हें समझते हैं, या इन सिद्धांतों और विचारों का कितना हिस्सा आपमें आत्मसात है यह इससे पता चलेगा कि विषय ने आपके अंदर जो भावनाएं जगाई हैं, उनकी अभिव्यक्ति आप कैसे करते हैं।
– हेनरी मातिस

कला शिविर में शामिल कई चित्रकार थीम की समस्या जूझ रहे हैं. उनके सामने पूर्व निर्धारित विषय है और उन्हें उन पर दो दो पेंटिंग बनानी है. कुछ चित्रकार थीम से असहज महसूस कर रहे हैं. पहली बार कला शिविर में उनके सामने विषय है – बकरवाल ट्राइब्स .
और वे उलझन में हैं. इसलिए नहीं कि वे उन पर चित्र बना नहीं सकते या बनाना नहीं चाहते. उनके सामने थीम एक चुनौती की तरह है. कला शिविरों में पूरी आज़ादी होती है कि वे अपनी मर्जी से काम करें, अपनी पूरी मौलिकता के साथ पेंट करें. अब यहाँ थीम चुनौती की तरह खड़ी है, ख़ासकर उनके सामने जो सिर्फ एब्सट्रैक्ट ( अमूर्त) में काम करते हैं. जो रियलिस्टिक काम करते हैं उनके सामने संकट नहीं. उन्होंने जो देखा, वैसा बना देना है. एक खास समुदाय के जीवन , रहन सहन को ज्यों का त्यों पेंट करना उनके लिए आसान है. सबकुछ आँखों के सामने है.दिक्कत उनकी है जो पिकासो की तरह सोचते हैं. पिकासो ने कहा था –
“मैं चीज़ों को वैसे पेंट करता हूँ जैसा मैं उनके बारे में सोचता हूँ, वैसे पेंट नहीं करता , जैसा मैं उन्हें देखता हूँ.”
भोपाल से आए वरिष्ठ चित्रकार पदमाकर संतापे अमूर्तन में काम करते हैं. वे भी इस बात पर जोर देते हैं कि हम पर थीम कभी थोपना नहीं चाहिए. हमारे लिए विषय उतना मायने नहीं रखता कि उसे लेकर एक पूरी कहानी लिख दें. हमें आज़ाद छोड़ देना चाहिए. क्योंकि हम चित्रकार जब तक रंग और रुपाकारों से न खेलें, मज़ा नहीं आता. कहाँ ब्रश को रोकना है, यही कला है.
पदमाकर ने कैनवस पर थीम को पकड़ने की कोशिश अपनी शैली में की है. उन्होंने शैली से समझौता नहीं किया, अपने अंदाज में बकरवाल समुदाय की जिंदगी को पेंट किया.
कोलकाता से आए मृणाल डे भी इसी संकट से गुज़र रहे. खुद को बँधा बँधा -सा महसूस करने के वाबजूद उन्होंने पहाड़, जंगल और जनजीवन को पेंट किया. एक तरफ बकरवाल समुदाय की सजी धजी युवती है तो दूसरे कैनवस पर जंगल , घाटी , देवदार और लाल रंग के पैच .. जिसके ज़रिए उन्होंने आतंक को दिखाने की कोशिश की है.
पूर्व निर्धारित थीम के कारण असहजता सबको नहीं हुई. रेणुका सोढी , अपर्णा जैसी चितेरियो ने रियलिस्टक काम किया मगर उसमें अपने हिसाब से फ़ार्म्स को डेस्ट्रॉय भी किया. बकरवालों की मूल पहचान , उनके घर, बकरियाँ, भेड़ें, सबकुछ पेंट किया, अपनी शैली में. आम प्रेक्षक आसानी से उन्हें पहचान भी सकता है और उसमें कलात्मकता भी दिखेगी. इन्होंने कैलेंडर आर्ट बनने से बचाया है अपनी पेंटिंग्स को.
जम्मू के युवा चित्रकार साहिल ने पहले भी बकरवालों पर काम किया है. वे इस थीम के साथ बहुत सहज हैं. वे खुश हैं कि खास समुदाय को क़रीब से देखने, अध्ययन करने और उन्हें पेंट करने का मौक़ा मिला. साहिल कहते हैं- “थीम कोई भी हो, हम उसे अपने तरीक़े से मोड़ सकते हैं, अपनी शैली में अभिव्यक्त कर सकते हैं. कला के माध्यम से हम उनका जीवन दुनिया तक पहुँचा सके, ये छोटी बात है क्या?”
कला और साहित्य का यह संघर्ष पुराना है. ख़ासकर आधुनिक कला के शुरुआती दौर से कलावादियो का झुकाव काल्पनिकता पर अधिक रहा. इसे अधिक जीवंत, बहुरंगी और भावात्मक माना गया. इस तरह के चित्रों को पश्चिमी आलोचक “फॉविज्म” कहते थे. ये लोग रियलिस्टिक काम को सही नहीं मानते थे. ये बहस आज भी जारी है. कलावादी मानते हैं कि रियलिस्टिक काम करने वालों के पास कला का हुनर है, क्राफ़्ट है मगर सोच-विचार नहीं. वे बाज़ार में खूब बिकते हैं, बस कला जगत में उनकी कोई वैल्यु नहीं. बिकने वाला आर्ट अलग होता है. जिनकी कला में जगह है, वे कम बिकते हैं.
पदमाकर दो टूक कहते हैं- “बिकने वाला आर्ट अलग , इतिहास में जाने वाला आर्ट अलग ! दोनों एक साथ नहीं हो सकते.”
इतिहास में दाख़िल ख़ारिज की बहस लेखन में भी खूब है. कला जगह अछूता नहीं.
पिकासो के सामने भी ऐसा संकट आया होगा. अपनी आँखों के सामने यूरोप की दुर्गति देखी, विश्व युद्ध में देशों को तबाह होते देखा . तभी गुएर्निका जैसी विश्व प्रसिद्ध पेंटिंग बना पाए. उसमें भी थीम है. मगर वैसी नहीं जैसी पिकासो ने देखी , वैसी है जैसा उन्होंने उसके बारे में सोचा.
गुएर्निका पेंटिंग की ख्याति इतनी फैली थी कि जर्मन पुलिस उनके स्टूडियो में जवाब तलब करने आ गई थी.
पुलिस अधिकारी ने पूछा -“ ये आपने किया है ?”
पिकासो ने शांति से उत्तर दिया – “जी नहीं, ये आपने किया  है.”
चित्रकारों के पास पिकासो की तरह जवाब होना चाहिए. बीसवीं सदी के क्रांतिकारी यूरोपियन चितेरे मातिस का कथन भी ध्यान देने लायक है जिसमें वे विषय के साथ खेलने का गुर सीखाते हैं. यथार्थ को आभासीय सत्य में बदलने के लिए जिस आंतरिक दृष्टि की जरुरत होती है उसे  अर्जित करना पड़ता है. वहीं से सेमी एब्सट्रैक्ट ( अर्द्ध अमूर्तन) शैली बनती है. थॉमस मॉर्टन की बात पर ग़ौर करना चाहिए कि कला एक ही समय में खुद को पाना और खो देना है.
पा लेना कला का आभासीय सत्य और खो देना यथार्थ !

– गीताश्री

 
      

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