प्रतिभा चौहान बिहार न्यायिक सेवा में अधिकारी हैं लेकिन मूलतः कवयित्री हैं. उनकी कवितायेँ लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. जानकी पुल पर पहली बार प्रकाशित हो रही हैं. उनकी कुछ कविताओं पर उर्दू नज्मों की छाप है कुछ हिंदी की पारंपरिक चिन्तन शैली की कवितायेँ हैं. वे उनकी कविताओं में एक मुखर सार्वजनिकता है और उसकी चिंता है. पढ़िए कुछ चुनी हुई कविताएँ- मॉडरेटर
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आत्ममंथन
विचारों की आकाशगंगाओं में
डुबकी लगाते वक्त तुम्हारे लिए
पहली पूर्व शर्त थी -आत्ममंथन,
दूसरी- तुम्हारा मानवीय होना
हो सकता है इन शर्तों पर
तुम्हारा अधिकार ना हो
तो तुम्हें लांघनी होंगी
सीमाओं में बंटे भूखंडों की कतारें
तुम्हारे ऊपर जो
सहस्रों वर्षों से पड़ा है
पंथ युक्त लबादा -उतारना होगा,
जिनमें तुम कुछ ना होते हुए भी
सब कुछ होने का अभिमान रखते हो
यह जानते हुए भी कि तुम भी
ब्रह्मांड के क्षुद्र प्राणी हो
तुमने देखा है ?
अनादि काल से चला आ रहा कालचक्र
अपनी सीमाओं को नहीं लांघता
सूरज ने अपनी गर्मी नहीं त्यागी
न चंद्र ने शीतलता
न वृक्ष ने छाया
न ही नदी-समुद्र ने तरलता
तो तुम्हारे भीतर रक्त के हर कण में
बसी मानवता
जिसे माना जाता है आकाशीय परोपकार
उसे तुमने अपने आपसे कैसे निकाला
चीत्कारों में धूमिल हुई
तुम्हारे अच्छे नागरिक होने की शर्तें
विश्व जब दंश झेल रहा होता है
तब तुम्हारी समस्त विधाएं छीन ली जानी चाहिए
प्रकृति की ओर से
ऐसा मेरा मानना है
तुम चाहो तो अपनी उम्र बढ़ा सकते हो
प्रकृति पुत्र बनकर
अन्यथा युगों तक चलते चलते
पथों को घिसने का कार्य
प्रकृति शुरु कर देगी
अंततः !
तुम्हें माननी ही होगी
मानवता की परमसत्ता
और अपना सिर झुकाना ही होगा
प्रकृति के सम्मुख।
बेहतर है कुछ समय का मौन
अनकहे शब्दों की खामोशी
उलझती जा रही है
अपने खोने पाने के दस्तूर से
जो चालाकियां सीखते रहे उम्र भर
उस को चांद के तकिए पर टांग देना
बसा लेना कोई बस्ती बचपन की खिलखिलाहट की
और कर लेना गुफ्तगू बहते पानी से
अगर रुठे हुए दरिया में
हाल को पढ़ने का सलीका होगा
तो यकीनन सुलझेगी कोई उलझी हुई लट
यह मुमकिन नहीं कि हर कोई तुम्हें शरीफ समझे
बेहतर है कुछ समय का मौन
वे अक्सर खामोश रहते हैं
जो भीतर से गहराई में समंदर होते हैं
ख्वाहिशों की बारिश है
ख्वाब नम हैं
राहें कठिन है
असबाब कम हैं
क्यों ना चलो बना लें , चांद को अपनी मंजिल
और खो जाएं तारों की महफिल में
जो कुछ कह दिया तुमने
वही बन गयी मेरे यकीं की बुनियाद
फिर चाहें बात जिंदगी की उदास हंसी की ही क्यों न हो
ज़द्दोज़हद के मद्देनजर
हम उदास होना भी भूल गए हैं शायद
एक औरत के काम करते वक़्त के बंधे जूड़े में घुसी पिन की तरह
हमने जमा दिया
कभी न हिलने वाला अस्तित्व
उदासी की सलीब पर
ज़माने की
सबसे महंगी चीज है मुस्कराहट
और खरीदने चले हैं हम
उदासियों के कुछ सिक्के जेब में डालकर।
मेरी मुस्कराहट का तर्क है
ये जमीं पर की चांदनी
सूरज की फैली हुई ओढ़नी
सुकून का दरिया और उसमें पड़ी हुई
यादों की रौशनी
जैसे रिसता है लावा
जलता है पर्वत
उठता है धुआँ
वैसे ही तपता है दिन
जलती है आग
उबलता है लहू
बुझती है आग
ये जीवन की तीन फांक के अलग अलग पक्ष हैं
सूक्ष्म से भी सूक्ष्म
कतरा से भी कतरा
से शुरू होकर समुद्र बन जाने की
ललक लिए जीवन का अस्तित्व
तपाया जाता है
गर्म होता है
बह जाता है प्रकृति में
जम जाता है अस्तित्व सा
धरती की पीठ पर कड़ी परत के रूप में।
बहुत बढ़िया।
बेहतर है कुछ समय का मौन
वे अक्सर खामोश रहते हैं
जो भीतर से गहराई में समंदर होते हैं.
——बहुत गहरी बात कही आपने। बहुत सुंदर कविता।