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तुम अगर हो तो तुम्हारे होने की आवाज़ क्या हो- नवीन रांगियाल की कविताएँ

मार तमाम लिखा जा रहा है फिर भी कुछ नया ताज़ा पढ़ने को मिल ही जाता है। नवीन रांगियाल की कविताओं, शैली ने बहुत प्रभावित किया। इंदौर निवासी इस कवि की कुछ कविताएँ आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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सारी दुनिया उसकी लिखी हुई एक साज़िश है
 
आमतौर पर मैं नहीं लिखता, लिखना चाहता भी नहीं, क्योंकि लिखने का एफ़र्ट मेरे दिन और रात दोनों को बर्बाद कर देता है।
 
मैं कई घण्टों तक या दिनों तक लिखने के बारे में सोचता रहता हूँ, प्रतीक्षा करते रहता हूँ- और फिर एक दिन लिखने के मेरे सारे एफर्ट मेरे जिंदा रहने के एफ़र्ट में गल जाते हैं। दुनिया में बने रहने की मेरी भूख में सड़कर नष्ट हो जाते हैं। ख़बरें अक्सर कविताओं का शिकार कर लेती हैं।
 
फिर एक शाम मैं अपनी बंधी हुई रूटीन जिंदगी में धकेल दिया जाता हूँ। लिखने की जुगत को भुलाकर, बेलिहाज़ होकर सो जाता हूँ। यह सोचकर कि अब कई महीनों तक लिखने की नाकामयाब कोशिशों से बचा रहूंगा। अब कुछ दिन या हफ्तों तक लिखने और नहीं लिख पाने के बीच की अवस्था से मिलने वाली यातना नहीं भोगना पड़ेगी मुझे। लिखने की प्रतीक्षा नहीं करना होगी।
 
फिर किसी रात जब मैं नींद की आखिरी तह में डूब चुका होता हूँ, जब करवट के लिए भी कहीं कोई जगह नहीं बची होती है। ठीक उसी वक़्त, आधी रात को कोई अज्ञात अंधेरी गहरी सुरंग चाबुक मारकर मुझे जगा देती हैं। शब्दों का एक पूरा बाज़ार मेरी आत्मा को लालच में लपेट लेता है। फिर भी, मैं नींद में उन अक्षरों, वाक्यों के सिरे पकड़कर सिरहाने में दबोच कर रखे रखता हूँ। सोचता हूँ, बाद में इत्मिनान से किसी ख़ास गोश्त की तरह बचाकर खाऊंगा। मैं नहीं जागूँगा। मैं कोशिश करता हूँ नहीं उठने की। लेकिन शब्दों का एक जादुई सिरा मेरी नींद को मरोड़कर बिस्तर पर ही उसका गला घोंट देता हैं। पूरी रात का दम घुट जाता है। इसके बाद मेरी नींद एक बहुत ही खूबसूरत भूरे कबूतर में तब्दील हो जाती है। मेरी रात एक सफेद कागज़ का टुकड़ा बन जाती है। उस कागज के टुकड़े पर मैं एक किताब की तरह हो जाना चाहता हूं। एक कविता बनकर बिखर जाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि इस रात में एक बोझिल सा निबंध बन जाऊं। या कभी न खत्म होने वाला एक घोर धीमा, ठहरा हुआ और लंबा नॉवेल।
 
फिर सोचता हूँ।
 
कृष्णबलदेव वैद अभी क्या लिख रहे होंगे।
निर्मल वर्मा होते तो क्या लिखते।
काफ़्का अपने कॉफ़िन में क्या सोच रहा होगा।
अल्बेर कामू अपनी कब्र में क्या कर रहा होगा।
जिन सिमेट्रियों में दुनिया के लेखक मरे दफ़्न पड़े हैं, वहां क्या आलम होगा।
 
क्या लेखकों को उनकी मृत्यु के बाद भी लिखने और नहीं लिखने के बीच का अभिशाप भोगते रहना पड़ता है। -या उन्हें इससे निज़ात मिलती होगी। या नहीं लिख पाने का अभिशाप मृत्यु के बाद भी जारी रहता है।
 
इस आधी रात की नींद को धक्का मारकर मैं गहरी खाई में पटक देता हूँ। मैं एक ऐसे घोड़े पर चढ़ जाता हूँ जो मुझे मेरी महबूबा के पास पहुंचाएगा।
मैं देखता हूँ कि यहां पहले से सबकुछ लिखा हुआ है
सुबह- सुबह कुछ दुकानदार गुलाब के फूल लिख रहे हैं। मोगरा और चमेली लिख रहे हैं
कुछ लोग जाने के लिए रास्तें लिख रहे हैं
कुछ लौटना लिख रहे हैं
रात अंधेरा लिख रही
झींगुर आवाजें
कमरे नींद और करवटे लिखते हैं
दोपहरें उबासियाँ लिखती हैं
औरतें मसालों का छौंक लिखती हैं
बच्चे स्कूल लिखते हैं
अख़बार हत्याएं लिख रहे हैं
अंधेरा अपराध लिखता है
चौकीदार ऊंघ रहे हैं
 
कुछ अस्पताल सायरन लिख रहे
चारदीवारी चीखें लिखती हैं
देवता आधी रात को आँखें फाड़कर जाग रहे हैं
 
हाथ लकीरें लिख रहे
उंगलियाँ की- बोर्ड लिखती हैं
 
मन अतीत
आँखें प्रतीक्षा लिखती हैं
 
दिल प्रेम
देह नष्ट होना लिखती है
 
होंठ प्रार्थनाएँ लिखते
उम्र मृत्यु लिख रही है
 
मंदिर धूप- बत्ती
मज़ारे इत्र- खुश्बू लिख रही हैं
 
मैं देखता हूं कि ईश्वर दफ़ा 302 के अपराध में बंद है
उसे आजीवन कारावास है
 
अधिकतर ख़ुदाओं को दुनिया की कैद हो गई है
मैं यहाँ उसकी याद लिख रहा हूँ
वो वहाँ आँखों में सुबह काजल
शाम को नमी लिख रही होगी
 
मैं देखता हूँ कि मेरी ज़मानत मुश्किल है
सारी दुनिया उसकी लिखी हुई एक साज़िश है
– नवीन रांगियाल
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1. तुम्हारे होने की आवाज़ क्या हो
 
पत्थर दुनिया की सबसे ईमानदार स्थिति
नींद सबसे धोखेबाज़ सुख
 
तुम मेरी सबसे लंबी प्रतीक्षा
मैं तुम्हारी सबसे अंतिम दृष्टि
मौत सबसे ठंडी लपट।
 
रात सबसे गहरा साथ
छतें सबसे अकेली प्रेमिकाएं
 
पहाड़ बारिशों के लिए रोए
तो रोने की आवाज़ क्या हो
मैं हूँ तो मेरा होना क्या हो
तुम अगर हो तो तुम्हारे होने की आवाज़ क्या हो।
 
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2. किसी अज्ञात सुर की तलाश में
 
 
कानों मे पिघलने लगती है ध्वनियाँ
तबला… तानपुरा…
बिलखने लगते है कई घराने
साधते रहे जो सुरों को उम्रभर
 
 
मै गुज़ार देता हूँ सारे पहर इन्टरनेट पर
और डाउनलोड कर लेता हूँ कई राग
 
भैरवी
आसावरी
खमाज
 
साँस बस चल रही है
मैं ख़याल और ठुमरी जी रहा हूँ
 
कबीर हो जाता हूँ कभी
कुमार गन्धर्व आ जाते हैं जब
“उड़ जायेगा हंस अकेला
जग दर्शन का मैला “
 
ख़याल फूटकर तड़पने लगता है
बनारस की सडकों पर
पंडित छन्नूलाल मिश्र
“मोरे बलमा अजहूँ न आए “
छलक पड़ती है ग़ज़ल
 
रिसने लगती है कानों से
“रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ”
यह अलग बात है कि तुम अभी भी
वेंटिलेटर पर सुर साध रहे हो मेहदी हसन।
 
गन्धर्व का घराना भटकता है सडकों पर
देवास
भोपाल
होशंगाबाद
मुकुल शिवपुत्र
किसी अज्ञात सुर की तलाश में
इस बेसुरी भीड़ के बीच …
……………………………………………….
3. इश्क़ में कौन मरता है!
 
धरमपेठ के अपने सौदें हैं
भीड़ के सर पर खड़ी रहती है सीताबर्डी
कहीं अदृश्य है
रामदास की पेठ
बगैर आवाज के रेंगता है
शहीद गोवारी पुल
अपनी ही चालबाज़ियों में
ज़ब्त हैं इसकी सड़कें
धूप अपनी जगह छोड़कर
अंधेरों में घिर जाती हैं
घरों से चिपकी हैं उदास खिड़कियाँ
यहां छतों पर कोई नहीं आता
ख़ाली आँखों से
ख़ुद को घूरता है शहर
उमस से चिपचिपाए
चोरी के चुंबन
अंबाझरी के हिस्से हैं
यहाँ कोई मरता नहीं
डूबकर इश्क़ में
दीवारों से सटकर खड़े साये
खरोंच कर सिमेट्री पर नाम लिख देते हैं
जैस्मिन विल बी योर्स
ऑलवेज़
एंड फ़ॉरएवर …
दफ़न मुर्दे मुस्कुरा देते हैं
मन ही मन
खिल रहा वो दृश्य था
जो मिट रहा वो शरीर
अँधेरा घुल जाता है बाग़ में
और हवा दुपट्टों के खिलाफ बहती है
एक गंध सी फ़ैल जाती हैं
लड़कियों के जिस्म से सस्ते डियोज़ की
इस शहर का सारा प्रेम
सरक जाता है सेमिनरी हिल्स की तरफ़।
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4. सुसाइड नोट
 
एक सुसाइड नोट
हवा में उड़ रहा है
थ्रिल में बदलकर
एक कविता बनकर
क्या टेम्पटेशन है
आत्महत्या का एक नोट
पढ़ना चाहते हैं
जिसे सब छूना चाहते हैं
जिस पर लिख गया है
समबडी शुड बी देअर
टू हैंडल ड्यूटीज़ ऑफ़ माय फ़ैमिली
आई एम लीविंग
टू मच स्ट्रैस्ड आउट
फ़ेडअप!
 
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5. पहाड़गंज
 
अपनी दिल्ली छोड़कर
मेरी सुरंगों में चले आते हो
पहाड़गंज तुम।
मैं इन रातों में
आँखों से सुनता हूँ तुम्हे
मरे हुए आदमी की तरह।
ट्रेनें चीखती हैं तुम्हारी हंसी में
मैं अपनी नींद में जागता हूँ।
मेरे सपनों में तुम उतने ही बड़े हो
जितने बड़े ये पहाड़ हमारे दुखों के।
मैं देखता हूँ
तुम्हारी कमर की लापरवाहियां
और उस शहर के रास्ते
जिसके पानी पर चलते – चलते
थक गए थे हम।
मैं एक सांस खींच लेता हूँ तुम्हारी
जीने के लिए।
कमरें सूंघता हूँ होटल के
उस गली में
धुआं पीता हूँ तुम्हारे सीने से
मैं भूलना चाहता हूँ
तुम्हारी दिल्ली और अपना पहाड़गंज
जिसके नवंबर में
तुम्हारे होठों की चिपचिपी आग से
सिगरेट जला ली थी मैंने।
तुम धूप ठंडी करते थे मेरी आँखों में
मैं गुलमोहर के फूल उगाता था तुम्हारे हाथों में।
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6. नमक पर इतना यक़ीन ठीक नहीं
 
निश्चित नहीं है होना
होने का अर्थ ही है- एक दिन नहीं होना
लेकिन तुम बाज़ नहीं आते
अपनी जीने की आदत से
 
शताब्दियों से इच्छा रही है तुम्हारी
यहाँ बस जाने की
यहीं इसी जगह
इस टेम्पररी कम्पार्टमेंट में
 
तुम डिब्बों में घर बसाते हो
मुझे घर भी परमानेंट नहीं लगते
 
रोटी, दाल, चावल
चटनी, अचार, पापड़
इन सब पर भरोसा है तुम्हे
 
मैं अपनी भूख के सहारे जिंदा हूँ
 
देह में कीड़े नहीं पड़ेंगे
नमक पर इतना यक़ीन ठीक नहीं
 
तुम्हारे पास शहर पहुंचने की गारंटी है
मैं अगले स्टेशन के लिए भी ना-उम्मीद हूँ
 
तुम अपने ऊपर
सनातन लादकर चल रहे हो
दहेज़ में मिला चांदी का गिलास
छोटी बाईसा का बाजूबंद
और होकम के कमर का कंदोरा
ये सब एसेट हैं तुम्हारी
मैं गमछे का बोझ सह नहीं पा रहा हूँ
 
ट्रेन की खिड़की से बाहर
सारी स्मृतियां
अंधेरे के उस पार
खेतों में जलती हैं
फसलों की तरह
 
मुझे जूतों के चोरी होने का डर नहीं लगता
इसलिए नंगे पैर हो जाना चाहता हूँ
 
सुनो,
एक बीज मंत्र है
सब के लिए
हम शिव को ढूंढने
नहीं जाएंगे कहीं
 
आत्मा को बुहारकर
पतंग बनाई जा सकती है
या कोई परिंदा
 
हालांकि टिकट तुम्हारी जेब में है
फिर भी एस-वन की 11 नम्बर सीट तुम्हारी नहीं
इसलिए तुम किसी भी
अँधेरे या अंजान प्लेटफॉर्म पर उतर सकते हो
 
नींद एक धोखेबाज सुख है
तुम्हारी दूरी मुझे जगा देती है
 
समुद्री सतह से एक हज़ार मीटर ऊपर
इस अँधेरे में
मेरा हासिल यही है
जिस वक़्त इस अंधेरी सुरंग से ट्रेन
गुज़र रही है
ठीक उसी वक़्त
वहां समंदर के किनारे
तुम्हारे बाल हवा में उलझ रहे होंगे
 
इस शाम की संवलाई चाँदनी
में बहता हुआ
तुम्हारे आँचल का एक छोर
भीग रहा होगा पानी में
 
डूबते सूरज की रोशनी में
तुम्हारी बाहों पर
खारे पानी की तहें जम आईं होगी
कुछ नमक
कुछ रेत के साथ
तुम चांदीपुर से लौट आई होगी
 
और इस
तरह
तुम्हारे बगैर
मेरी एक शाम और गुजर जायेगी ।
 
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7. पेड़ कुल्हाड़ियों के तरफ़ होते हैं
जंगल समझते थे
पेड़ उन्हीं के होते हैं
असल में
पेड़ कुल्हाड़ियों के होते हैं
 
पेड़ समझते थे
उनके फूल-पत्ते होते हैं
और कलियाँ भी
दरअसल
उनकी सिर्फ आग होती है
सिर्फ ख़ाक होती है
 
अक्सर पेड़ खुद कुल्हाड़ियों की तरफ़ होते हैं
उनकी धार की तरफ़ होते हैं
 
जैसे आदमी, आदमी की तरफ़ होता है।
 
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8. अकथ नाम
 
 
मनुष्य जन्मता कुछ भी नहीं
मरता गांधी है
गोडसे और लोहिया मरता है कभी
 
इस बीच
कभी कभार
क, ख, ग, भी
 
बिगुचन का एक
पूरा संसार आदमी
 
मैं वही मरूँगा
जो रोया था
नवंबर में
एक प्रथम पहर
 
अकथ नाम
 
गांधी नहीं
लोहिया भी नहीं
क, ख, ग, तो कतई नहीं
 
या फिर
अंत तक
या अंत के बाद भी
उस पार
अपनी अंधेरी गली में
प्रतीक्षा करूँगा
स्वयं की।
 
 
 
 
      

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12 comments

  1. बहुत बेहतरीन कविता

  2. एक सुुुधी कवयित्री के ध्‍यानाकर्षण पर जानकीपुल की ये कविताएं पढीं। निश्‍चय ही
    कविताएं कवि के सामर्थ्‍य का परिचायक हैं और एक अनभ्‍यस्‍त काव्‍यशब्‍दावली में इनमें एक खास तरह की नवीनता हैैै । प्राक्कथन का तो कहना ही क्‍या। वह खुद में एक कविताख्‍यान है। सतत सनातन कविता के मध्‍य सुकून की सांसें खोजता हुआ।
    नवीन रंगियाल के आगामी काव्‍यप्रयत्‍नोंं पर मेरी निगाह रहेगी। बहुत बहुत बधाई और कवि जीवन की शुभकामनाएं।
    जानकीपुल को भी साधुवाद।

  3. Prabhat Milind

    बहुत अच्छी कविताएँ हैं. अपने कथ्य और प्रस्तुति दोनों में बिल्कुल अलहदा और ताज़ा. कई मेटाफ़र्स तो विस्मित करते हैं. ज़ाहिर सी बात है, कवि ने विश्व साहित्य के विस्तृत अध्ययन से स्ट्रक्चरल लेवल पर एक समृद्धि अर्जित की है और जो अर्जित किया है उसे बहुत सोच-समझ कर खपाया है. पारंपरिक और स्टीरियोटाइप कविताओं के इस दौर में इन कविताओं को पढ़ना एक नई पाठकीय अनुभूति से होकर गुज़रना है. कविता के इस वितृष्णा-काल में ये कविताएँ ठोस आश्वस्ति की तरह है. कविता पढ़ने का पाठकीय सुख उनको एकाधिक बार पढ़ने में है. ये निश्चितरूपेण ऐसी ही कविताएँ हैं. कवि को बधाई और उससे स्वाभाविक अपेक्षाएं भी.

  4. बहुत शुक्रिया आपका सर, बहुत आभार

  5. बहुत शुक्रिया बहुत आभार सर

  6. राहुल कुमार"देवव्रत"

    परंपरा तोड़ दीं आपने । मगर टूटते देखना अच्छा लगा । बिना टूटे चीजें कब सुंदर हुई हैं भला ??

    शुक्रिया

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