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अंबपाली, बाँसुरी वादक और वीणा वादक

गीताश्री वैशाली की प्राचीन कहानियाँ लिख रही थीं लेकिन इन कहानियों में अंबपाली नहीं आई थी अभी तक। अंबपाली के बिना वैशाली की कोई कहानी हो सकती है क्या भला? ख़ैर, उनकी इस नई कहानी में वैशाली है, अंबपाली और स्त्री मन का एक सनातन द्वंद्व- क्या कोई स्त्री एक समय में दो पुरुषों को समान भाव से प्रेम कर सकती है? पढ़िए-

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वैशाली का वसंत। अमराईयों में बौर आने लगे थे। अंबा, अपने आम्रवन का भ्रमण करके लौटी ही थी। मन उचाट-सा था। उसके भ्रमण के लिए कुछ ही स्थल थे, जहां अपने एकांत को प्रकृति के साथ बांटा करती थी। एकांत-चिंतन किया करती थी। अपनी सूनी दोपहरिया में उसे कोई साथी नहीं चाहिए था। अपना एकांत जिसमें वह रम सके। कभी किसी निर्जन सरोवर के पास जाकर बैठ जाती, अमराई के सघन वन में छुप जाती।

मदलेखा कहती थी- “देवी, इन दिनों आप एकांत-रम्या हो गई हैं।“

“देखो मदलेखा, वैशाली में बसंत हमेशा बाहर बाहर ही आता है, भीतर प्रवेश नहीं करता…”

मदलेखा बातों का आशय समझ कर मौन रह जाती।

“तुम भी मौन-रम्या हो मदले…”

“जी देवी, आपके साहचर्य का प्रभाव है, कौन अछूता रहेगा।“

दोनों हंस पड़ती। दोनों उस समय एक दूसरे के अटट्हास में बसंत ढूंढने का असफल प्रयास करतीं।

“मदले… एकांत को सुना है कभी, जैसे मौन बोलता है, वैसे ही एकांत बोलता है, वे सारी बातें जिससे हम बचते हैं, स्वंय को कर्णभेदी शोर में डूबो देते हैं, मेरा एकांत मुझसे ऐसे प्रश्न पूछता है, जिसे पूछने का किसी को साहस नहीं।”

मदलेखा उन्हें स्निग्ध नेत्रों से देखती रही।

“मेरा एकांत मुझे अपने बाल्यकाल में ले जाता है, आनंदग्राम की स्मृतियों में…जहां एक नन्ही बालिका कुलांचे भरा करती थी। जिसे अपने अभावों में ही परम आनंद आता था। जो बांसुरी की टेर पर नृत्य कर उठती थी।“

“वो देखो, बांसुरी की तान सुनाई दे रही है…कौन है ये बालक…ओह…वृज्जि कुमार… बजाओ न, रुक क्यों गए…ये मेरी आत्मा का संगीत है। दिवस-रात्रि, अर्द्धनिद्रा में भी, स्वप्न में भी इसे सुनती हूं… बजाओ न…”

अंबा के नेत्र दूर क्षितिज में अटक गए थे। इस सघन अमराई में किसी शुक-सारिका की चहचहाहट आ रही थी।

हौले से अंबा के सुसज्जित कंधे पर हाथ रखते हुए मदलेखा बोली-

“बहुत सुरीला है आपका एकांत वृज्जि कुमारी, जो ये देता है, कोई नहीं दे सकता आपको…”

“आह…फिर से कहो…वृज्जि कुमारी… तुम भी तो हो…हम दोनों हैं, हमारे भाग्य में कितना अंतर है”

पीछे हाथ ले जाकर मदलेखा का हाथ थाम लिया अंबा ने। मदलेखा की हथेलियों स्नेहिल उष्मा से भरी हुई थी। अंबा को दीर्घ सांस खींची।

अनचाहे, अत्यधिक ऐश्वर्य, वैभव और आवभगत से ऊब चुकी थी देवी अंबा। रात दिन उनके आगे पीछे छह, सात दासियां घूमा करती थीं। उनकी एक इच्छा पर सारी दासियां न्योछावर हो जाया करती थी। अंबा का श्रृंगार करने में उन्हें आनंद आता। और अंबा को…

प्रतिदिन श्रृंगार और मनोरंजन । सारे दर्शक, वाह वाह करने वाले, मुद्राएं लुटाने वाले, उसके साथ नृत्य के लिए मतवाले, एक झलक पाने को व्यग्र सामंतों और श्रेष्ठियों के पुत्रों के आगे नृत्य करती, उनका मन बहलाती अंबा व्यथित रहने लगी थी। नित्य नये अभ्यागत आते, उसकी एक झलक पाने के लिए, निहाल हुए जाते। उसे ये सब अरुचिकर लगने लगा था। सबकुछ कृत्रिम, दुखदायी और बनावटी।

आह…कोई नहीं समझता उसे। उसके मन-प्राण को। उसे क्या चाहिए। वह अपने प्रासाद की बंदी होकर रह गई है। उसे वापस चाहिए अपने बाल्यकाल का आनंदग्राम। बांसुरी की टेर, कोई अदृश्य पुकार…अंबा…अंबा…

वहीं बैठे बैठे पलट गई अंबा, मदलेखा से लिपट गई। मदलेखा ने उसे हौले से उठाया, रथ पर बिठा कर उसके विलास –भवन तक ले चली। एकांत-रम्या के भीतर एकांत ठोस होता चला जा रहा था। बाहर का प्रकाश आत्मा के अंधेरे को प्रकाशमान नहीं कर सकता। बाहर का शोर, भीतर के सूनेपन को नहीं भर सकता। एकांत मनुष्य को अनेक प्रकार के विचारो से संपन्न अवश्य कर सकता है।

मदलेखा सिर्फ अपना कर्तव्य निभा सकती थी। कोई सलाह देने की स्थिति में नहीं थी। उसका काम था, सुरा परोसना। अंबा के पात्र वही भरती थी। अंबा की आहें भी तब वही सुनती थी। अपने प्रासाद तक पहुंचते पहुंचते अंबा ने निर्णय ले लिया। उसने मुनादी करवा दी कि आसपास के ग्रामीण कलाकार उसके प्रासाद के प्रांगण में जुटे, उनकी कला का प्रदर्शन हो, कुछ वह भी अपना मनोरंजन करे, ग्रामीण कलाकारो को बढ़ावा मिले, उन्हें उचित पुरस्कार दे। अंबा ने वैशाली के बाहर का संसार नही देखा था। लोक कलाकारो के बहाने वह आसपास और दूरदराज के जनपदों की कलाओं से परिचित होना चाहती थी।

भांति-भांति के लोक कलाकार जुटने लगे। अंबपाली के निमंत्रण को भला कौन ठुकराता। जिसके सौंदर्य का आलोक कई जनपदों में फैल चुका था। वहां के युवक, राजे-महाराजे तक लालयित हो उठे थे। जब वह नगर की वीथिकाओं से गुजरती तो द्वार-कोष्ठों से , वातायनों से कुल-ललनाएं, कुवधूएं झांका करती थीं। कई नगरो में अंबपाली विख्यात हो चुकी थीं। वह अन्य सभी गणिकाओं में सर्वश्रेष्ठ थी। वह कुलवधू तो न बन सकी, मगर जनपद कल्याणी, नगर कल्याणी बन कर अवश्य प्रतिष्ठा प्राप्त कर पाई। वह इसलिए भी सम्मानित हुई कि उसे अपना कौमार्य संभाले रखने का पूरा अधिकार प्राप्त था। उसे अन्य गणिकाओ की तरह दैहिक संबंधों के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता था। उसे अपने हृदय से चयनित पुरुष के साथ प्रेम करने की भी छूट मिली हुई थी।

फिर भी अंबा का हृदय सूना पड़ा था, आकाश की तरह। एक अलौकिक नगरी पर उत्सर्ग हो जाने वाली अलौकिक रुपवती अंबा का जीवन कितना सूना। लोक कलाएं भर देंगी उसके सूनेपन को।

कलाकार आने लगे थे, दूर दराज से। प्रासाद का प्रांगण भरने लगा था। भिन्न भिन्न कलाओं का नियमित प्रदर्शन भी होने लगा था। अंबा नित्य सुबह, दोपहर इसका आनंद लेने लगी थी। मन फिर न बहलता था। नियमित सुबह वह प्रागंण में आकर अपने उच्च स्थान पर बैठ जाती। मनोरंजक कलाएं भी उसकी चिरउदासी दूर नहीं कर पा रही थीं। ऐसी ही एक उदास दोपहरी में वह बैठी कलाकारो को सुन रही थी।

दूर से वंशी की धुन सुनाई देने लगी। आह…कौन बजा रहा है चयनिके, तनिक पता तो करो। कलाकार को मेरे सम्मुख लाओ। वह दूर क्यों है।

वंशी की धुन समीप आती चली गई। हृदयबेधक वंशी की धुन सुन कर अंबा की आंखों से अश्रुधार बहने लगे। रोम रोम पुलकित हो उठा। आनंदग्राम की वंशी की ध्वनि स्मृति में कौंधने लगी।

“कौन है, इस बेला में जो करुणा की धारा बहा रहा है अपनी वंशी से…सामने आओ वंशीवादक…”

जनपद कल्याणी के सामने आनंदग्राम का वही वंशी वादक मदन कुमार खड़ा था। सामने आकर उसने अंबा के सामने सिर झुकाया और फिर होठो से वंशी लगा ली। क्षण भर को नेत्र मिले, युगों युगों तक की बातें हो गईं।

ये कैसा हो गया मदन, बाल सखा…कौशौर्य वयस का हृदय-पुरुष। कहां गए इसके घुंघराले केश, जिनमें मेरी ऊंगलियां उलझ जाया करती थीं। कहा गयी वह देह, बलिष्ठ भुजाएं, आह, ये कांतिविहीन तरुण कोई और तो नहीं… कैसा रुप बना लिया है मदन…

क्षण भर पहले जो उदासी भंग हुई थी,हृदय उत्फुल्ल हुआ था, फिर से विषाद से भर गया था। अपने प्रथम पुरुष को , जिसने उसके हृदय में प्रेम का प्रथम राग बजाया था, वह आज इस अवसन्न अवस्था में। वंशी की धुन पहले से ज्यादा कारुणिक हो गई है। उसमें अब पुकार नहीं बसती, हाहाकार है, रोदन है, विलाप है और अभाव है।

“बस करो कलाकार…”

हाथ उठा कर रोक दिया अंबा ने। मदन ने आंखें ऊपर उठाई। उनमें सूनी पड़ी आम्रवाटिका की परछाई तैर रही थी।

अंबा, मानसिक रुप से वहां से अनुपस्थित होने लगी थी। वहां पहुंचने लगी थी जहां मदन की वंशी बजा कर उसे पुकार रहा था। वह कुंलांचे भरती हुई दौड़ लगा रही थी। तीव्र गति से पहुंच कर मदन से वंशी छीन ली।

फिर शुरु हुई दोनों की छीन-झपट। हास-परिहास। वंशी जहां मौन होता है, वहां धड़कन, श्वांस गाती हैं।

या वहां वीणा सुनाई देती है…वंशी के बाद वीणा के तार किसने छेड़ दिए।

“देवी…”

कोई मीठी पुकार उसे एक युग पीछे से वर्तमान में खींच लाई थी।

मदन कुमार को पीछे करके सम्मुख एक सुदर्शन कला-पुरुष आ खड़ा हुआ था। हाथ में वीणा थी।

चपल नयन, घनी, जुड़वा भौंहे, मधुर स्मिति को छुपाती हुई मूंछे। अज्ञात कला-पुरुष की मनमोहक छवि अंबा के हृदय में धंस गई।  उसका परिचय जानने को उत्सुक हो उठी, संकोच ने सहसा होठ सिल दिए। वीणा वादन ने उसे मोहपाश में लिया या उस पुरुष की कलात्मक भंगिमाओ ने। अंबा के हृदय से अनभिज्ञ वह कलाकार वीणा बजाता रहा। उसकी ऊंगलियों में जैसे बिजली-की सी चपलता भर गई थी। जैसे जैसे वह बजाता जा रहा था, वातावरण में मोहकता पसरती जा रही थी। उसकी ऊंगलियां जैसे स्वंय वीणा के तार बन गई थीं। सुंदर-सुघड़ ऊंगलियां जैसे थिरक रही थीं। चकित, मोहाविष्ट अंबा कभी उंगलियों को देखती तो कभी कला-पुरुष को। दोनों को लेकर वह चकित कि किस पर मोहित हो उठी है। उसके व्यक्तित्व पर या कला भंगिमा पर। दोनों में अदभुत आकर्षण है। कौन है ये कलाकार, किस जनपद से आया है।

बाहर वीणा का तूफान, हृदय में आवेग का तूफान। प्रीति –सी जगने लगी थी। संगीत का ऐसा वैभव उसने पहली बार महसूस किया था। इसकी ध्वनि में वेदना नहीं, अनुराग है। आमंत्रण है, थोड़ी देर पहले जो वेदना थी, वो अपदस्थ हो चुकी थी।

वह वीणा की धुन में खोती जा रही थी। रक्तमज्जा में वीणा की ध्वनि पैठने लगी थी। उसमें कुछ पा लेने का उल्लास भरा था। किसी तिलिस्म को तोड़ देने जैसा उत्साह छलक रहा था। उसके अंग-अंग में स्फुरन होने लगी थी। उसे लगा कि कही हवा में तरंग बन कर विला न जाए।

सहसा धुन बदल गई। कानों में फिर वंशी की वही कारुणिक पुकार आने लगी थी। स्वर धीमा था, मगर वंशी बज उठी थी। वेदना का प्रवाह फिर से उसके हृदय तक होने लगा था। वह संगीत के इस संचारी भाव से उद्दीप्त हो उठी। क्षण भर में प्रीति, क्षण भर में वेदना का प्रवाह। एक तरफ उजड़ा हुआ, अपदस्थ अतीत, दूसरी तरफ अदम्य आकर्षण वाला कलात्मक वर्तमान। दोनों उसे खींच रहे थे। एक हृदय, दो अदृश्य मुठ्ठियां उसे भींज रही थीं। वेदना एक तरफ कराह रही थी, दूसरी तरफ प्रीति उसे खींच रही थी। उसने दोनों हाथ अपनी छाती पर रख लिए। हथेलियां धड़कनें सुनती भी हैं, प्रथम बार उसने महसूस किया। हथेलियों में वंशी और वीणा दोनों बज उठी थीं। एक तरफ अतीत का उजाड़, दूसरी तरफ वर्तमान का वैभव पुकार उठा था। वह संगीत की लिपियां पढ़ सकती थी, सुन सकती थी उसकी भाषा को। उसे दोनों चाहिए। वेदना होगी तो कला में और निखार आएगा। प्रीति होगी तो विलास-भवन में उल्लास का उत्सव होगा। उसे किसकी सबसे अधिक आवश्यकता है। आह…क्या हो रहा है उसके साथ।

“मदलेखा…मुझे सुरा पिलाओ…मुझे विस्मृति चाहिए…”

“विस्मृति कई बार स्मृति से ज्यादा सुखद होती है। विस्मृति में आनंद है। स्मृति में मरण है।“

 मदलेखा ने कहां सुना। वहां का वातावरण संगीतमय हो उठा था। एक तरफ वंशी बजैया, दूसरी तरफ वीणा वादक। एक हृदय को विदीर्ण कर रहा था, दूसरा विकल कर रहा था। किसे थामे देवी।

इस वंशी से तो बहुत पहले मुख मोड़ चुकी थी। अब पुन: क्यों उसे अपनी ओर खींच रही है। आनंदग्राम की वंशी का उसके राजप्रासाद में क्या काम। वंशी तो आनंदग्राम में ही छूट गई थी। उसके विलास ग्राम में वीणा का स्थान बचा हुआ है।

इतना सोचते ही अंबा की सुधि लौटी। तत्क्षण वह भूल गई कि वह अपने विलास-भवन में नहीं, अपने प्रासाद के प्रांगण में खड़ी है। अपने स्थान से उठी और वीणा वादक के अत्यंत समीप जाकर नृत्य करने लगी। उसे कुछ न स्मरण रहा। सिर्फ नृत्य था, वीणा थी और हजारों लोक कलाकार, जो इस अविस्मरणीय दृश्य को देख कर मुग्ध हो उठे थे। दो कलाओ का वहां उत्कृष्ट प्रदर्शन अनमोल था। अंबा को ध्यान न रहा, कब उसके कांधे से वांसती बसन किधर गिरा। स्वर्णआभूषण कब उलझ गए आपस में ही। वहां सिर्फ धुति कौंध रही थी। स्वर्ग की कोई अप्सरा साक्षात उतर आई हो, कोई देव वीणा बजा रहे हो, जिसकी धुन पर शुक्रतारा चमक रहा हो। वीणा वादक भी अपने में खोया हुआ था। धुन बदलने के लिए जैसे ही वीणा वादक ने सिर ऊपर उठाया तो पूरा दृश्य देख कर अचंभित रह गया। अचकचा कर उसने चारो तरफ देखा, सारी आंखें उन्हें ही चमत्कृत होकर देख रही थीं। उनकी धुन पर देवी अंबपाली बेसुध नृत्य कर रही थी। उसने ऊंगलियां रोक ली। अंबापाली के आगे नतमस्तक हो गया। अंबा का नृत्य भी थम गया। वीणा वादक ने एक बार जोर से ऊंगलियों से तार को छेड़ा। अंबा ने उन्हें एक बार निहारा , उन्हें हाथ जोड़ा और पलट कर तीव्र गति से अपने भवन की तरफ चलती चली गई। सारी दासिया उनके पीछे पीछे। देवी ने आज उन्हें साथ चलने का आदेश नहीं दिया था। एक दासी उनका बासंती बसन लेकर दौड़ी उनके पीछे। अंबा को मानो कोई सुधि न हो।

अलौकिक समारोह संपन्न हो चुका था। लोक कलाकार अपने सौभाग्य को सराह रहे थे कि उन्हें देवी अंबा का नृत्य देखने को मिला। किसी ने लक्ष्य नहीं किया कि वंशी वादक कब वहां से प्रस्थान कर गया।

लोक कलाकारो की विदाई की घड़ी आ गई थी। सबको यथोचित उपहार, पुरस्कारादि देकर विदा करने का प्रावधान किया गया था। अंबपाली अपने हाथों से इसे संपन्न करना चाहती थी। उस दिन की घटना के बाद वे सामान्य मनस्थिति में नहीं रह गई थीं और बाद के दो दिवस चलने वाले समारोह में वे अनुपस्थित रहीं। इस दो दिवस वे दुविधा में जीती रहीं। एक तरफ वंशी वादक, उनका प्रथम प्यार, मदन कुमार, जिसके साथ कुलवधू बनने के स्वप्न देखे थे। दूसरी तरफ एक अज्ञात वीणा वादक। किसे भूले, किसे स्मरण रखे। किसे त्याग दे, किसे अपनाए। वंशी की करुणा की उपेक्षा नहीं कर पाएगी, वीणा का राग उसके रक्त में प्रवेश कर चुका है। उसे दोनों चाहिए।

“कैसे संभव है ?”

अपने श्रृंगार कक्ष में लगे बड़े से दर्पण के पास खड़ी होकर स्वंय से पूछ रही हैं अपना मंतव्य। क्या चाहिए उन्हें। उन्हें अपना साथी चुनने की स्वतंत्रता है लेकिन दैव ने उन्हें किस दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां वे तय नहीं कर पा रही हैं कि किधर जाए। कभी वंशी बज उठती है तो कभी वीणा के तार झनझना उठते हैं। ऐसी वंशी संसार में कोई नहीं बजा सकता, न ही ऐसी वीणा कोई बजा सकता है। दो अनोखे कलाकार उसके हृदय में बस गए हैं। दोनों को अपने पास रोक लेना चाहती है। दोनों को एक साथ अपना लेना चाहती है। एक के साथ रोना तो दूसरे के साथ हंसना चाहती है। ये दोनों एक ही भाव तो हैं। कब रोते रोते हंसी आ जाए, कब हंसते हंसते अश्रु निकल आए, किसे पता। करुणा की छाया में हर्ष-विभोर होने की कल्पना मात्र से वह सिहर उठी। परंतु क्या वे दोनों मान जाएंगे। चलते समय वीणा वादक को निहारा था, नितांत अपिरिचित चेहरा था। वैशाली जनपद का तो नहीं था। कौन है ये अज्ञात कलाकार। मामूली तो नहीं जान पड़ता। चेहरे पर जो तेज है, जैस वेशभूषा है, वो राजसी मालूम पड़ती है। कैसे पता करे। दासियां कहीं उसका भेद खोल न दें। वीणा वादक से एकांत में मिलने को व्यग्र हो उठी थी।

विदा की घड़ी में चाह कर भी अंबा , मदन कुमार से कुछ न बोल पाई। वह आया, देवी अंबा से विदा उपहार लेकर चला गया। मदन ने देखा- अपने वैभव के बोझ से दबी, जाने किस बात पर कसमसाती हुई अंबा के नेत्रों में उसके लिए सिर्फ सहानूभूति झलक रही थी।

जब विदा की बारी आई वीणा वादक की। देवी अंबा ने शांत स्वर में पूछा- “आपका शुभ नाम, स्थान इत्यादि जानने की अभिलाषा रखती हूं।“

“देवी, क्या एक कलाकार को भी अपना परिचय देने की आवश्यकता होती है। अपरिचय के रहते ही आपने मुझ जैसे अज्ञात कलाकार के साथ नृत्य करके जो मुझे गौरव प्रदान किया, वह अपरिमित, अपरिभाषित, अव्याख्येय है। हमें परिचय की क्या आवश्यकता। हमारी कला ही हमारा परिचय हुई न देवी।“

“मैं तो स्वंय से अभी अपरिचित हूं देव, मैं ये हूं ही नहीं, जिसे आपने जाना या पाया…”

अंबा के रक्तिम अधरों पर ये बातें कांपती रहीं।

वीणा वादक ने मुस्कुराते हुए अंबा को देखा।

“तो फिर आप मुझे अपनी कला का गोपन ही समझा दें”

अंबा हठ कर उठी थी। वीणा वादक ने देखा- अंबा, उच्च कलाकार होते हुए भी मायाजाल में उलझी हुई नारी है, जो अपने वैभव-विलास के अंधेरे में भटक रही है। जो स्वंय को न समझ पाए, वह बड़ा दुर्भाग्यशाली होता है।

“कला का गोपन रहस्य यही है कि सर्वप्रथम हम स्वंय को समझना होता है। अपने समीप आना और स्व सुख के लिए होता है देवी।“

अंबा उलझ गई, इन गूढ़ बातों में।

“ये स्व सुख क्या होता है देव ?”

“आत्मसंतोष और आत्मतृप्ति देवी, मैने वीणा बजायी, आपने नृत्य किया, हम दोनों अपनी कला से सुखी हुए, स्वंय को तृप्त किया।“

“परंतु ये तो स्वार्थ का मार्ग है, स्व सुख, स्वंय को सुख पहुंचाने के लिए कला को माध्यम बनाना”

“देवी, कोई भी ज्ञान पहले स्वानूभूत ही होता है फिर विश्व को उसकी अनुभूति कराता है। प्रथम तो हम अनुभूत करते हैं उसे, फिर उसे जनकल्याणकारी बनाते हैं। दूसरो की चेतना जगाते हैं। दूसरो को जाग्रत करने से पहले स्वंय को जाग्रत करना आवश्यक होता है …ये सामान्य-सा नियम आप अवश्य जानती होंगी देवी..मैं आपको व्यर्थ में बताने की कुचेष्टा कर रहा हूं या आप मेरी परीक्षा ले रही हैं। “

“देवी, हम तो माध्यम हैं दूसरो की चेतना जाग्रत करने के। आप एकांत में नृत्य करतीं , मैं एकांत में वीणा बजाता, तो ये सिर्फ स्व सुख के निमित्त होता। हम दोनों ने एक दूसरे के सम्मुख नृत्य किया और वहां उपस्थित समुदाय ने उसका आनंद लिया। देवी के अलौकिक नृत्य से निं:सदेह उनकी चेतना जाग्रत हुई होगी।“

“आप अलौकिक वीणा वादक हैं देव, आपका परिचय भी अलौकिक ही होगा”

अंबपाली की आवाज में कोमल आग्रह फूट रहा था। वीणा वादक को आभास हो चला था कि देवी उन्हें रोकना चाहती हैं। देवी अगर उन्हें जान गई तो उनका जाना असंभव हो जाएगा।

वीणा वादक के कदम लड़खड़ाए, थोड़ा आगे बढ़े और उदास अंबपाली को खींच कर अपनी बलिष्ठ भुजाओं में भर लिया। अंबा ने अपना सिर उनकी चौड़ी छाती पर टिका दिया। वैसे ही युगो तक आंखें मूंदे रहना चाहती थी। कोई आवाज उसका स्वप्न भंग न करे। वह उस क्षण वीणा हो जाना चाहती थी , वादक उसके तारों के साथ खेले, उसे छेड़े, कोई स्थायी राग बना दे उसे।

अंबपाली का कपाल चूमते हुए कहा- “मुझे यहां आपकी कला खींच लाई थी, मुझे मेरा कर्तव्य बुला रहा है। मुझे लौटना होगा। मैं विवश हूं…”

अंबा ने अपनी पदम् पुष्प-सी हथेली से उनका मुंह बंद कर दिया।

“संगीत ही हमारा परिचय बना रहे तो उचित। एक कलाकार के लिए अतृप्ति आवश्यक होती है देवी।  व्यग्रता बनी रहनी चाहिए, कुछ खोज की लालसा भी बनी रहे। जीवन को समतल नहीं होना चाहिए। देव, हमें कुछ विस्मृति और कुछ स्मरण, दोनों का अपने जीवन काल में आनंद उठाना चाहिए।“

इतना बोलते हुए अंबपाली उनसे अलग हुई, जैसे पात, अपने तरुवर से अलग होते हैं।

अंबपाली के माथे पर अपने हाथ फिराते हुए वादक ने आशीष दिया और विदा हो गया। मूर्तिवत खड़ी अंबा उसे जाते देखती रही। सांध्य के धुंधलके में उसके चिन्ह दिखाई देने बंद हो गए थे।

अंबा बड़बड़ाई- “मैं, एकांत-रम्या, आदि वियोगिनी, अतृप्त होने के लिए अभिशप्त हूं देव “

“विस्मृति और क्षमा । एक साथ दो पुरुषों से प्रेम में विस्मृति और क्षमा के सिवा कोई उपाय नहीं मेरे सम्मुख। यह भी एक कला है देव“

मदलेखा पीछे से आकर सांझबाती जला गई। अंबा देवी के प्रसाधन और सांध्य समारोह का समय हो चला था।

मदन कुमार ने जो बताया था, वो देवी को बता कर वीणा वादक के सम्मोहन को नष्ट नहीं करना चाहती थी। उचित समय देख कर रहस्य को खोलेगी देवी के सामने ।

तब आप विस्मृति की गुफा में जा चुकी होंगी, तब बताऊंगी या आने वाले समय में आप खुद जान जाएंगी कि ग्रामीण वेश में कौन आया था, और ये भी कि इस पृथ्वी पर कौशांबीपति उदयन से बढ़ कर कोई वीणा वादक नहीं है।

 
      

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5 comments

  1. Anil Kumar Singh

    Very nice

  2. बेहद शानदार कहानी , प्रवाह जिज्ञासा भाषा सब जैसे उस काल में ले गए । सब साक्षात सामने हो रहा हो जैसे। अद्भुत । अपने काल से परे जा ऐसे समय का लिखना जो अब है ही नहीं और अपने साथ सबको उसमें प्रवेश करा लें जाना यह वाकई अद्वितीय है । बहुत साधुवाद आपको दीदी ।

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