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पंखुरी सिन्हा की नई कविताएँ

पंखुरी सिन्हा एक अच्छी कथाकार रही हैं। हाल के दिनों में उन्होंने कविताएँ लिखी हैं। हर पत्र पत्रिका में उनकी कविताएँ छपती रही हैं। ये कविताएँ उनके सद्य प्रकाशित कविता संग्रह ‘प्रत्यंचा’ से ली गई हैं- मॉडरेटर

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मेरे हर रिश्ते में

 

मेरे हर रिश्ते में

क्यों

बचपन से पंच थे

और पंचायत की राजनीति

बचपन यानी सब शुरूआती मित्रताओं में

और शुरूआती प्रेम में भी

जब वह परवान चढ़ रहा था

और उम्र की सीढ़ियाँ भी

दुबारा होता है या नहीं प्रेम

क्यों थीं ऐसी सैद्धांतिक बहसें

और सच हो जा सकता है

जानलेवा साबित हुआ था

यह सिद्धांत और यह ज्ञान भी

उसके भग्नावशेषों तले

जो बचती थी

रिश्तों की नींव डली ज़मीन

उसके कागज़ उठाये

और उन बुनियादी बातों के भी

जिनसे बनती थी

हमारी मुस्कराहट

और बनते थे हमारे आँसू भी

उनकी भी परिभाषाएँ उठाये

उठाये व्याकरण के नियम और जीवन के भी

पिछले दरवाज़े से घुसती चली आ रही प्रेतात्माओं का

ऐसा स्वागत

ऐसा प्रवेश कैसे है

मेरे घर में?

 

प्रेम और समाप्ति

 

प्रेम समाप्त नहीं होता

रिश्ते टूटते हैं

आदमी जितनी पुरानी है

रिश्तों की राजनीति

आवभगत की

उससे भी गहरी

उपेक्षा, अनादर का विरोध सहज

पर अति समर्पण की मांग

खड़ी करती है दिक्कतें

जहाँ कोई नहीं होती

ये किस पितृ सत्ता की लड़ाई में

उलझती जा रही हूँ मैं ?

 

 

 

 

 

 

ज़िन्दगी में ऊब और उठापटक

 

 

ये जो खामख्वाह की

उठापटक में

लपेटने का दाँव पेंच है

क्या है हासिल उससे किसे

और क्या इतनी है

उनकी ज़िन्दगी में ऊब

या आखिरी रहे

बहस में उनके शब्द

ये ज़िद?

 

 

 

किसी  की ओर से बोलने वाले

 

ये जो किसी एक की ओर से

बोलने वाले लोग हैं

बोलने आने की तबियत रखने वाले

ये जो घरों में घुसकर

ज़िन्दगी के सिद्धांत बघारने वाले लोग हैं

जीने की सब नीतियां

सारे तरीके बता देने वाले लोग

ऊँची बातें छाँटने वाले लोग

क्या ये मेरी जाति, मेरी नस्ल से बाहर के लोग हैं

मेरे वर्ग, मेरी सोच से भी बाहर के लोग

क्या ये इतने ऊँचे हैं कि इनसे कहा नहीं जा सकता

कैसे है मेरा दमन यों, और फिर बातें ज्यों की त्यों?

 

आईने, ग्राहक, वक्ता और भाव यात्राएं

 

ये तो पता था

कि चूड़ी, बिंदी की दुकान में जाने पर

एक आइना होता था

खरीददार की मदद को

और अब भी होता है

अब तो आईनों से पट गयीं हैं दुकानें

अपना चेहरा देखते, देखते

थक और पक जाते हैं लोग

पर यों आगे कर देना आइना

दीवार से उठाकर

ठीक सामने

ऐन चेहरे के आगे

जिसमें केवल चेहरा नहीं

दिखती हो समूची भावयात्रा

कई बार गलत पढ़ी भी

दिखता हो दिन भर का क्रिया कलाप

दिखती हों लम्बी गहरी सोच की सब छायाएं

दिखते हों चिंता के सब निशान

सारे चिन्ह प्रकट हो जाएं आतुरता के

कातरता के, कायरता के, भीरुता के

और कहे आईना

कि अब मुखातिब हो उनसे

और कहो दो शब्द……………

 

आक्रोश और मुस्कुराहटों की हदें

 

किसी पुरुष के आक्रोश सा

उबाल ले रहा था

मेरा आक्रोश

मेरा जवान बेटा होता

तो मैं उसे समझाती

लेकिन नामुमकिन थीं खुद से बातें

इतनी दूरी बन गयी थी

खुद से बातों की भी

और इतने बेकाबू थे

सब मुद्दे, सब लोग

वो सब महिलाएं

जो सब्र, मुस्कुराहटों, बर्दाश्त की हदों

चौखटों और सिन्दूर की डिब्बियों की बातें कर रही थीं

अचानक नहीं

कुछ समय से

लग रहा था

इन सबके पास दरअसल

अपनी ज़िन्दगी थी

मेरे पास

सिर्फ कविता……….

 

स्मृतियाँ, धर्म और आज की शांति

 

स्मृतियाँ या तो जीवित होती हैं

या मृत

प्रिय या अप्रिय

हाँ, कुछ लोग रखते हैं

साड़ी में तह लगाने की तरह

स्मृतियाँ, और उनके पास

साड़ियों के बारह हाथ

नौ गज की माप की तरह

स्मृतियों की भी माप तौल होती है

उनकी खराश, उनकी मिठास की

ये अलग बात है

धरोहर भी होती हैं स्मृतियाँ

ताकत भी

एक समूची सभ्यता

पगलाई हुई हो

स्मृतियों से निजात पाने में

प्रेम से भी निजात पाने में

बनने को कट्टर

इसतरह कि प्रेम में न पड़ना

धर्म हो

और जहाँ तक स्मृतियों से उबरने का सवाल है

बस स्थितियों की बात है

प्रेम की ऐसी कोई स्मृति नहीं होती

जो दंश बन जाए

प्रेम की वह प्रकृति नहीं

वह कुछ और है

और दो धर्मों के लोग रह सकते हैं

साथ, साथ, पास पास

बराबरी में

यह आधुनिकता का तकाज़ा।

 

 

 

————- बिहार राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत सद्यः प्रकाशित कविता संग्रह ‘प्रत्यंचा’ से कुछ कवितायें

 

———- पंखुरी सिन्हा

 

 

 

 
      

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