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अभिषेक रामाशंकर की तीन कविताएँ

मैं जब सोचता हूँ कि अब कविताएँ नहीं पढ़ूँगा, जानकी पुल पर कविताएँ नहीं। तभी कोई कवि आ जाता है, कोई कविता आ जाती है और सोचता हूँ एक बार और लगा लेता हूँ कविताएँ। इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे अभिषेक रामाशंकर की कविताएँ पढ़कर भी ऐसा ही लगा। आप भी पढ़कर बताइए ताज़गी है या नहीं- मॉडरेटर
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१.
एक वॉयलिनवादक रोज चर्च में संगीत देता है
मैं मंत्रमुग्ध उसे सुनता हूँ
हम शाम में चाय की दुकान पर मिलते हैं
मैं सिगरेट फूंकते उससे वॉयलिन सीखने की इच्छा प्रकट करता हूँ
वो बताता है उसने जघन्य पाप किये हैं
अपने पापों के प्रायश्चित के लिये बजाता है
क्या वो मेरे घर आकर बजा सकता है?
नहीं – वो कहता है
“संगीत एक ज़रिया है रूठे ईश्वर को मनाने का”
मैं उसकी पत्नी के बारे में पूछता हूँ
क्या वो मुझे मेरे गायन में मदद कर सकती है?
वो कहता है – वो सुंदर लड़की उसकी पत्नी नहीं है
– दोस्त है
क्या उसने भी पाप किये हैं?
हाँ – हम दोनों ने एक साथ
ये सुनकर मेरे मन में उमड़ता है एक सवाल
ऐसा कौन सा पाप है जो साथ में किया जा सके
और संगीत से धुल जाये
अगली सुबह मैं उस पाप की तलाश में भटकता हूँ
चर्च से आती हर संगीत को अनसुना कर देता हूँ
इस मुगालते में रहना कितना सुखद है कि मैंने कभी कोई पाप नहीं किया
और ख़ुद को ईश्वर मान लेना
२.
बारिश हुई थी
उग आई है घास जहाँ-तहाँ
बेतरतीब!
चर रही हैं गायें और घुटने के बल बकरियां
कुछ औरतें छील रही हैं घास…
कल फिर मारा है उसे उसके पति ने –
एक बताती है दूसरी को जिसका पति शराब और वेश्याओं का आदी है
वह कहती है उसका देवर उसे रातों को तंग करता है
सुनकर रो पड़ती है तीसरी
जिसकी बहन को लेकर उसका पति फरार है
और औरतें इकट्ठा होती हैं…
सब कोसती हैं अपने मरदों को –
गरियाती हैं – रोती हैं – कहती हैं एक दूसरे से
भाग चलते हैं कहीं दूर — बहुत दूर
अचानक बारिश शुरू हो जाती है
गायें रम्भाती हैं – बकरियां दौड़ने लगती हैं
औरतें अलग अलग लौटने लगती हैं
अपने अपने घरों को
गाते हुये अपना दुखड़ा
जिसे सुनता है सिर्फ़ उनका चूल्हा
रात होने को है अब आते ही होंगे उनके मरद
तोड़ने को रोटी और सिसकियां
औरतें नोच रही हैं घास
सदियों से
जो उग आई हैं बेतरतीब उनके अंतर्मन में
अकेले अपने अकेलेपन में
जहाँ शायद ही पहुँच सके किसी पुरुष के हाथ
३.
अँधेरा हमारे लिये एक अवसर ही रहा
सड़क पर आज इतनी भीड़ है
कि
मैं भूल भी जाऊं अपना पता
तो बहती इस भीड़ ने मुझे मेरे घर छोड़ आना है
नतीजतन
हमें विस्मरण हो चुका है
पशु और इंसान में फ़र्क
कोई भी आता है
और हमें हाँककर चला जाता है
मेरी बगल में खड़ा लड़का सिगरेट माँगते हुये मुझसे कहता है
वो इस बार यूपीएससी नहीं भरेगा
( गाली बकता है )
थक चुका है
रेलवे में घूसखोरी चल रही है
कहाँ नहीं है? हर जगह है!
बहन की शादी है
सात लाख में तय हुई
माँ का थाइरॉइड बढ़ चुका है
घर जाकर
व्यापार में पिताजी के हाथ बँटाना चाहता है
हताश है – निराश है – उदास है – परेशान है
कौन नहीं है?
मुझे अपने घर की याद आती है
मैं झटपट इस भीड़ से निकलना चाहता हूँ
मकानमालिक का किराया
दूध की उधारी
राशन का बकाया
मोबाइल का रिचार्ज
सिगरेट और चाय के पैसे
मैं कर्ज़ में डूबा हुआ अदना सा लड़का हूँ
भागता हुआ – तेज बहुत तेज
जो सारी दुनिया पीछे छोड़ देना चाहता है
मुझे रस्ते भर याद आती है
उस लड़के की बातें
मुझे सोने नहीं देगी आज उसकी हताशा
( मैं भी गाली बकता हूँ )
कमरे में अंधेरा है
बिस्तर की जगह ज़मीन पर गिर जाता हूँ
सोचता हूँ —
थाने में बैठा अफ़सर
चौराहे पे खड़ा हवलदार
नुक्कड़ का चौकीदार
दरवाजे का दरवान
कचहरी में घूमता वकील
ऊँची मेज़ से झाँकता मुंसिफ़
सरकारी दफ़्तर की खिड़की से हाथ बढ़ाता मुंशी
सचिवालय में कार्यरत क्लर्क
विश्वविद्यालय का दलाल
सब खुलकर माँगते हैं रिश्वत
रिश्वत – रिश्वत – रिश्वत
बस वो शख़्स जो खाता है शपथ उस किताब की
कहता है – मैं नहीं खाता
हमें दुहाई देता है गर्त में जाते लोकतंत्र की
मुझे वोट दो
मुझे वोट दो
मुझे वोट दो
मैं सब ठीक कर दूँगा.
वोट वोट वोट
रिश्वत रिश्वत रिश्वत
की तरह क्यों नहीं लगता?
सच है हमें कोई भी हाँककर चला जाता है
मैं रुआँसा हूँ
मुझे घर की याद आ रही है
मेरा बाप जो किसानी छोड़कर झूल गया है फंदा
माँ जो रख आई है गिरवी बहनों को जमींदारों के घर
भाई गुम गया है दिहाड़ी की तलाश में
ना जाने कहाँ?
और मैं — जिसे भेजा गया
पटना – दिल्ली, पढ़ने को
दस बाई दस के कमरे में बैठकर
लिख रहा हूँ कविता
नीचे सीढ़ियों से आ रही है आवाज़
एक बजने को है
शायद पहुँच चुका है डिलेवरी बॉय
मुझे अब जाना चाहिए
– अभिषेक रामाशंकर
पितृग्राम – सीवान ( बिहार )
दरभंगा कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक । कविताएँ पढ़ने और लिखने में रुचि ।
 
      

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6 comments

  1. A. Charumati Ramdas

    क्या बात है!…बढ़िया!

  2. अच्छी कविताये .

    शुभकामनायें नए कवि को .

  3. heljgpoct vqvcp fcqgtri vhor yttjokaivdcmkmh

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