विश्व पुस्तक मेला समाप्त हो गया। आख़िरी तीन दिनों में लगभग सभी प्रकाशकों के लिए मेला अच्छा रहा। हमेशा की तरह राजकमल प्रकाशन ने अपने पंडाल, अपने कार्यक्रमों से मेले में माहौल बनाए रखा। राजकमल की होड़ और किसी से नहीं अपने आप से ही आगे निकलने की है, और इस साल भी वह स्वयं से पिछले साल से आगे निकल गई। उसकी सोशल मीडिया टीम ने जिस तरह से काम किया उस तरह से मैंने किसी अंग्रेज़ी प्रकाशक के यहाँ भी नहीं देखा। हालाँकि, अंग्रेज़ी प्रकाशक रीच और बिक्री के मामले में बहुत आगे दिखे। हिंदी में सोशल मीडिया पर प्रचार से, मेले में लेखकों की मौजूदगी से किताबें बिकती हैं और इस बात को हिंदी प्रकाशकों में सबसे अच्छी तरह से राजकमल प्रकाशन समूह ने समझा है।
लेकिन इस दशक के पहले पुस्तक मेले में सबसे बड़ा सरप्राइज़ पैक रहा हिंद पॉकेट बुक्स। 1960-70 के दशक में हिंदी पट्टी में सस्ती किताबों को घर घर पहुँचाने में हिंदी पॉकेट बुक्स का बड़ा हाथ रहा। उसने घरेलू लाइब्रेरी योजना के माध्यम से डाक के माध्यम से घर घर ऑर्डर पर किताबें भेजने की शुरुआत की थी। उस दौर में जिन लेखकों ने भाषा की सरहदों को पार कर हिंदी बेल्ट में घर घर जगह बनाई थी उन किताबों को पेंगुइन बुक्स का हिस्सा होने के बाद हिंद पॉकेट बुक्स ने फिर से प्रकाशित किया है। अमृता प्रीतम के उपन्यास, कृश्न चंदर, राजिंदर सिंह बेदी की किताबें भी मेले में दिखी। एक ज़माने में हिंद पॉकेट बुक्स एक ही सेट में गंभीर और लोकप्रिय दोनों तरह के उपन्यासों को प्रकाशित करता था। मोहन राकेश के उपन्यास ‘न आने वाला कल’ को देखकर याद आया। साप्ताहिक हिंदुस्तान में धारावाहिक प्रकाशित यह उपन्यास मेरे लिए बहुत महत्व रखता है क्योंकि क़रीब 30 साल पहले मैंने इसका एक संस्करण ख़रीदा था। उसी कवर में दुबारा इस उपन्यास को देखना रोमांचित कर गया। इसी तरह दत्त भारती के अनेक उपन्यास इसके स्टॉल पर दिखे। दत्त भारती ने अपने दौर में आसफ़ अली रोड पर दफ़्तर ले रखा था जहां वे रोज़ाना बैठकर लिखते थे। उनकी गुम हो चुकी कई किताबें मेले में स्टॉल पर दिखाई दी। शरतचंद्र, शैलेश मटियानी के उपन्यास भी दिखाई दिए। एडिटर इन चीफ़ वैशाली माथुर ने ट्विट करके चौंका दिया था कि हिंदी पॉकेट बुक्स ने इस साल 500 से अधिक किताबें पुनर्प्रकाशित की। हिंद पॉकेट बुक्स की पहचान अपने ज़माने में किफ़ायती दरों के कारण थी। इस बार भी क़ीमतें काफ़ी कम हैं और किताबों का प्रोडक्शन पहले से बेहतर है। अगर पाठकों को थोड़ा पहले से पता होता तो शायद असाधारण बिक्री हुई होती। लेकिन पता चला कि उत्साहवर्धक बिक्री हुई।
मेले में हॉल नम्बर 12 के बीचोंबीच रेड ग्रैब प्रकाशन के बड़े स्टॉल ने सबका ध्यान खींचा। यह प्रकाशन नज़र में आया था राहत इंदौरी की जीवनी प्रकाशित करके। इस मेले में उसके लेखक कुलदीप राघव के उपन्यास ‘इश्क़ मुबारक’ की धूम रही। असल में हम जितना समझ पाते हैं हिंदी पाठकों का संसार उतना ही विविध है।जैसलमेर से फ्लाइड्रीम्स पब्लिकेशन्स व मुंबई से सूरज पॉकेट बुक्स ने सुरेन्द्र मोहन पाठक के अलावा वेद प्रकाश काम्बोज, परशुराम शर्मा समेत पुराने ज़माने के अनेक लोकप्रिय लेखकों की किताबें प्रकाशित की थी।। अंतिम दिन उन्होंने बताया कि उनकी भी सारी किताबें बिक गई। हॉल नम्बर 12 में घुसते ही एक स्टॉल था ‘बुक अफ़ेयर’ का, वहाँ पूरे मेले के दौरान भीड़ चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ती गई।
हर बार विश्व पुस्तक मेला शुरू होता है तो लगता है ठंडा है अंत होते होते पता चलता है कि अब तक का सबसे बड़ा मेला रहा। अंतिम दिनों में बड़ी तादाद में लोग आए। इस बार खाने पीने का इंतज़ाम भी पिछले साल से बेहतर रहा।
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