आज हिंदी के हरफ़नमौला लेखक मनोहर श्याम जोशी की पुण्यतिथि है। 2006 में आज के दिन उनका निधन हो गया था। आज प्रस्तुत है उनके मरणोपरांत प्रकाशित उनके उपन्यास ‘कौन हूँ मैं‘ पर राहुल सिंह की टिप्पणी-
======================
मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘कौन हूँ मैं‘, सन 2006 में उनके निधन के बाद आया। 450 से अधिक पेज, शायद उनकी सबसे भारी-भरकम कृति। कथा, प्रसिद्ध और चर्चित भवाल संन्यासी केस की है, जिस पर कई किस्से-कहानी हैं, फिल्में भी बनीं, जिनमें ताजी उल्लेखनीय और पुरस्कृत श्रेष्ठ बंगला फिल्म ‘एक जे छिलो राजा‘ है। जोशी जी अपनी इस कृति को अंतिम स्वरूप दे पाए थे अथवा नहीं? यों कमी कहीं नहीं फिर भी लगता है, विवरण देने का अनन्यध धीरज, किस्सागोई पर हावी है। सो, बारीकी और विस्तार की सफाई, बावजूद कुछ अपवाद दुहराव के, लाजवाब है। पुस्तक का प्राक्कथन ‘के? आमि‘ खास जोशी जी वाली शैली में है और यहीं वे इस उपन्यास को लिखने के पीछे अपनी मंशा तरुण भट्टाचार्ज्यां से कहलाते हैं कि ‘आपसे अनुमति लिए और परामर्श बगैर अनगिनत छोटी-मोटी पुस्तकें प्रकाशित होती रही हैं पिछले कुछ वर्षों से। मेरी इच्छा है कि आपकी सहायता से इस बार मैं कोई प्रामाणिक और साहित्यिक कृति तैयार करूँ।‘ अदालत में साबित होने वाले ‘सच-झूठ‘ के उल्लेख सहित कि ‘मेरे झूठ के साथ बिभा देबी का झूठ भी सुनते रहिएगा।‘
हिन्दी साहित्य की इस उल्लेखनीय कृति में कुछ अलग-सी बात यह भी है कि पैराग्राफ, अधिेकतर आधे-पौने पेज के हैं और कई तो भर पेज के। वाक्यों की लंबाई पर भी ध्यान जाता है, नमूना है यह एक असामान्य लंबा वाक्य- ‘इसलिए छोटोदी से सारा वृत्तान्त सुन लेने के बाद भी मेरे मन के लिए यह मान पाना कठिन हुआ कि स्वभाव से सर्वथा भीरु और अहिंसक साला बाबू ने प्रजाजन का रक्त चूसने वाले मुझ विलासी सामन्त की देह पर फूटते सिफलिस के घावों का अवलोकन करते हुए अपनी बहन को रोग की आशंका से मुक्ति दिलाने के लिए मुझे मृत्युदण्ड देने की बात न केवल सोची होगी बल्कि आशु डॉक्टर की सहायता से उसे मनसा के स्तर से कर्मणा के स्तर पर पहुँचाने का प्रयास भी किया होगा।‘
भवाल संन्यासी मामले का प्लाट उनके लिए एकदम मुआफिक था। एक व्यक्ति, दो किरदार, पहचान की समस्या, मैं कौन? जैसा विचार, इन सब पर सोचना और लिखना उन्हें बहुत भाता, दिखता है। उनके रचे (और अक्सटर बातों) में बेलाग निर्ममता ‘शैतानियत’ आती रही है, जिसके चलते अश्लीलल,¬ घटिया और बकवास, जैसी प्रतिक्रियाओं को उन्होंकने अपेक्षित ही माना, अप्रभावित रहे, शायद रस भी लेते रहे। उनके लेखन में आमतौर पर रेखांकित होते दिखता है, न इस पार, न उस पार, ‘मज्झिम पटिपदा’। दुविधा की फांक में ही कहीं सच झलकता है। आशा-आकांक्षा से मुक्त, खारिज की आशंका से बेपरवाह, यों निरस्त हो कर भी जो कुछ बचा रहे, अमूर्त ही सही, वही हासिल है। लालसा की हम पुतलियों की हरकतें, आरोपित भूमिका का निर्वाह-मात्र होती है। इसलिए सारे संदेहों के बावजूद अविचलित, अपनी स्वीुकृत, मान्यर, धारित पहचान को खारिज करने का साहस ही सार्थक हो सकता है। उन्हेंी मानों ऐसे ही किसी पात्र की तलाश थी।
उनकी कृतियों में ‘कसप’ का डीडी कितना बदल जाता है और बेबी क्या से क्यात हो जाती है। हमजाद, कुरु कुरु स्वाहा, हरिया हरक्यूलिस और यहां भी, अलग अलग ढंग से यही बहुरूप या उसका भ्रम-अनिश्च य है। यहां वे लिखते हैं- ‘सृष्टि के आरंभ से लेकर आज तक दो जीवन सर्वथा एक-से नहीं हुए हैं. और इसीलिए किन्हीं दो जनों की स्मृतियाँ एक सी नहीं हो सकतीं।‘ लेकिन एक ही व्यक्ति की स्मृति अलग-अलग हो सकती है, व्यवहार और व्यक्तित्व इतना भिन्न हो सकता है कि वह अलग मान लिया जाए, इसे वह उस आध्यात्मिक स्तर तक ले जाते हैं, जहां उसे ‘उत्तर-आधुनिक विमर्श’ की तरह भी देखा जा सकता है। लिखते हैं- ’आप जिसे आप कहते हैं वह आपकी अब तक की राम कहानी की स्मृतियों का समग्र प्रभावभर होता है।‘ या ‘स्मृति माया है और स्मृतिहीनता मोक्ष। या ‘संन्यासी को न कब की चिन्ता होती है और न कहाँ की परवाह।‘ या ‘इस मुकदमे में सबका ही चरित्र-हनन किया जा रहा है। उसके अतिरिक्त क्या उपाय बचता है सांसारिक मामलों में।‘
जोशी जी को सच-झूठ का खेल सदा लुभाता है। याद कीजिए ‘कुरु-कुरु स्वाहा‘, जिसमें वे बताते हैं कि ‘स्व. हजारीप्रसाद द्विवेदी मौज में आकर ‘गप्प‘ को गल्प का पर्याय बता देते थे। उनकी इच्छा थी कभी सुविधा से कोई ‘मॉडर्न गप्प‘ लिखने की।‘ या ‘कसप‘ में कहते हैं कि ‘तुम्हें जो कुछ लग रहा है, ठीक इन शब्दों में नहीं। सच तो यह है कि वह तुम्हें शब्दों में लग ही नहीं रहा है। शब्द मैं तुम पर थोप रहा हूं। कथा-वाचक की मजबूरी है। मेरे शब्द ही तुम्हारी व्याख्या करते हैं पाठकों से और नितांत भ्रामक है यह व्यवस्था।‘ और यहां- ‘सच होना और युक्तियुक्त होना सदा पर्यायवाची नहीं होते‘ या ‘किसी एक का सच अनिवार्य रुप से किसी और के लिए झूठ ही होता है।‘ या ‘विश्वसनीय सच कौन-सा होता है जो सर्वथा तर्कसंगत हो अथवा वह जिसमें दाल में नमक बराबर विसंगतियाँ भी उपस्थित हों।‘ या ‘सत्य बहुधा गल्प से भी अधिक अद्भुत होता है।‘ या ‘इस कथा को मात्र इस आधार पर नहीं ठुकराया जा सकता कि यह अत्यंत विचित्र और अविश्वसनीय लगती है।‘
लंबे समय बाद कोरोना ने अवसर दिया इतना बड़ा उपन्यास हाथ में लूं और दो-तीन दिन में पढ़ लूं, खुद को अपने में तलाश करने के दिन हैं ये, और तलाश स्थगित हो जाने के भी। 7/8 मई 1909 को मर कर, जी उठने वाले भवाल संन्यासी की लंबी कहानी बिभा देबी को सुहाग-दुविधा से मुक्ति देते समाप्त हुई थी 3 अगस्त 1946 को, पर फिर-फिर कहानियों को जन्म दिया और इस पूरी-अधूरी कृति, बिना प्रश्नवाचक चिह्न के ‘कौन हूँ मैं‘ शीर्षक, के साथ बहुतेरे सवालों पर जवाब के पूर्ण विराम की तरह जोशी जी अमर हुए।
|
|
5 comments
Pingback: Ventilatoare centrifugale - inalta presiune
Pingback: We Talk Business
Pingback: Hot erotic videos
Pingback: https://www.kentreporter.com/reviews/phenq-reviews-urgent-side-effects-warning-honest-customer-truth/
Pingback: Kardinal Stick