तनुज सोलंकी अंग्रेज़ी के युवा लेखक हैं और उनको अपने कहानी संग्रह ‘दीवाली इन मुज़फ़्फ़रनगर: स्टोरीज़’ के लिए साहित्य अकादेमी युवा पुरस्कार मिल चुका है। ‘नियोन नून’ नाम से उनका एक उपन्यास भी प्रकाशित है। हाल में मुझे पता चला कि वे हिंदी में कविताएँ भी लिखते हैं। उनकी कुछ चुनिंदा कविताएँ-
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अनुवादन
पिछले आधे घंटे से
‘उसने मुँह बिचकाया’ के लिए
अंग्रेज़ी में सटीक शब्द ढूँढ़ रहा हूँ।
अंग्रेज़ शायद मुँह नहीं बिचकाते थे
या अगर बिचकाते थे तो बिचकाने के लिए
जो शब्द छोड़ गए थे, वह
या तो उनके छोड़ने में
या मेरे उठाने में
कहीं छूट गए।
हालत अब ऐसी कि सोच रहा हूँ
ये मुँह बिचकाना रहने दूँ।
क्या ज़रुरत है कुछ भी बिचकाने की?
जो मुँह बिचका रही थी वो तो
वैसे भी उनमें से है
जो मेरी कहानी में हिंदी बोलते हैं
पर अंग्रेजी में बुलवा दिए जाते हैं।
जिनका अनूदित होना विदित है
जिनके अनूदित होने पर विवाद नहीं।
मेरा अंग्रेजी में उनको लिखने और न लिख पाने
या उनके मुँह को ठीक से बिचकवा भी न पाने —
इन पर कोई विवाद नहीं।
कुछ न कर पाने के सन्दर्भ में
छुप जाने का भी सन्दर्भ है :
उसने मुँह छिपा लिया।
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गोडसे-नगर
शेक्सपियर गधा—
नाम में ही तो सब कुछ है।
और वो महाभारत वाला राही
मासूम रज़ा भी गधा—
कहता था कि हिंदी के ‘बाड़े’ को
‘इमाम’ से न जोड़ो
तो मुहर्रम नहीं।
अरे हमें मुहर्रम की क्या पड़ी।
आप देते रहिये गवाही शाहजहाँ की
कि फलां तारीख को सरवट परगना तोहफ़ा किया—
“पर किसको?”—
अरे किसी को भी, हमें क्या।
होगा शाहजहाँ आपके जहाँ का शाह,
हमारा कोई और है।
पर अगर ज़्यादा पढ़ लिख गए हों आप
और पता हो कि सरवट मिला था
सईद मुज़फ़्फ़र ख़ान बरहा को
जिसके नाम के आगे
जब हिंदी का ‘नगर’ लगा
तभी वो जो कुछ भी नहीं था
मुज़फ़्फ़रनगर हुआ
तो भर लीजियेगा ये जानकारी पिछवाड़े में।
क्यूंकि हमारे जो शाह हैं
जो काफी अथाह हैं
उनकी ताक़त हैं हम भीड़-से
और उनका मुज़फ़्फ़र है गोडसे।
डेविड और उसके पापा
१
आई आई टी मेन्स,
और पापा नौं घंटे—
जिनमें मैंने गोलाएथ को नहीं हराया—
बाहर ही खड़े रहे।
लाज़मी है की अकेले नहीं थे
सैकड़ों पापा जैसे
दूसरों के पापा
थे इर्दगिर्द।
(एकाध मम्मी भी)
“हम कौन हैं जो
एक साथ यहाँ तक पहुँचे हैं?”
इस प्रश्न से लबालब
नज़रें पड़ी होंगी
रह-रह के एक-दूसरे पर।
२
‘बीमार हूँ शायद,’
निकलने पर मैंने कहा,
और हालाँकि पापा के हाथ को
बाकी संदेश मेरे माथे से मिला
पर कतराती आँखों के साथ
पहले मुझसे ‘कैसा हुआ?’ पूछा गया।
मैंने बताया कि बुख़ार
भौतिकी में तीव्र था
रसायन में ठीक-ठाक
और गणित में सौम्य।
‘भौतिकी सबसे सही हुआ,’ फिर जोड़ा,
और पापा के धैर्य को
अपने निष्पादन से मोड़ा।
३
जब दो महीने बाद
मेरे दस दस ग्यारह
से वे अचंभित नहीं हुए
तो मुझे निराशा हुई।
फिर भी दो दिन लगे उन्हें
रात को मेरे कमरे में झाँक
ये पूछने में :
‘बुख़ार की वजह से हुआ ना
जो भी हुआ?’
‘नही,
बस
बहुत
मुश्क़िल
था,’
ये मुझसे न कहा गया।
नयी शादी
हिट स्प्रे, मच्छरों वाला
हमारे फ्रिज के ऊपर
(हमारे — क्यूंकि अब मेरा जीवन
शादी के भोलेपन को भी बूझ रहा है)
उससे कुछ दूरी पर टोस्टर
टोस्टर के नीचे प्लास्टिक कवर
हमने खरीदा था वो टोस्टर
जिसके रिव्यूज़ थे औसतन बेहतर
मैं एक रूटीन ढूँढना चाहता हूँ
जैसे पहले कभी रूटीन रहे हों
विस्थापित हुई वह इस १ बी-एच-के
को फिर से परिभाषित करती है
मैं मर सकता हूँ, वो मर सकती है
हम दोनों एक-दूसरे के लिए दुष्ट बन सकते हैं
अब तो शादी को संस्था के आगे
बुलबुलेदार विशेषण लगा
मरोड़ कर
बाग़ी भी नहीं बना जा सकता
ये पहले प्यारों से अलग है
हालाँकि असफलता से वैसे ही डरती है
सुलह, स्नेह, बर्बरता —
और उम्र बीसी पार करने लगती है
मैं मर सकता हूँ, वो मर सकती है
हम दोनों एक-दूसरे के लिए दुष्ट बन सकते हैं।
सतपुड़ा के घने जंगल
सारे सतपुड़ा में फैला हुआ
सिंह जी का भयंकर विषाद।
उनका बेटा मेरा दोस्त
हमें पचमढ़ी घुमा रहा —
सिंह साब ने यहाँ तेंदुआ देखा, वहाँ बाघ
और बाइसन ढूंढने के तो वे थे घाघ।
उनके शाम के आठ पेग हमें तबाह कर जायेंगे —
आदिवासियों संग कचोरियां,
फिर आर्मी रिजेक्शन,
फिर कैसे उनका एक जिगरी सौ फीट गहरी खाई में गिरा
और एक गीली लाल गाँठ जैसा मिला।
अगले दिन धूपगढ़ की धूप में
उन्होंने तीन गाईड डाँट दिए :
“वो करुंडी नहीं है, गधों, वो करुंडी हैं।”
करुंडी क्या है, मुझे नहीं पता
जानने की इच्छा भी मर रही है।
छोटे सिंह के साथ सिगरेट पीने को अलग हुआ।
“बस पास्ट में जीते हैं,” उसने कहा।
कभी-कभी बस पर्यटक हो जाने की चाह —
क्यूंकि पर्यटन में कहानी नहीं, बस दृश्य।
गवाह हो जाने से कितना सुलभ है पर्यटन
गवाह कहानी बूझता है, गवाह में कहानी होती है।
अब मुझे भी विषाद है
क्यूँकि मुझे भी याद है
की कैसे एक वाहियात मई में मेरी जिंदगी यहाँ आयी थी
जैसे अब बुझाई वैसे ही एक सिगरेट तब पार्क के गेट पे बुझाई थी
तब उसे अपनी बीवी बता टिकटवाले को चौंकाया था
रेट भारतीयों का दस था विदेशियों का दो सौ,
“यहीं क्यूँ आ धमका?” कह अब किस मैं को कोसो।
*
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