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उषाकिरण खान की कहानी ‘नये समय पर’

हिंदी-मैथिली की वरिष्ठ लेखिका उषाकिरण खान की नई कहानी पढ़िए। समकालीन संदर्भों में इस कहानी का कुछ मतलब समझ में आएगा-

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           यहीं वह स्थान है जहाँ पुष्पा ने जन्म लिया था, यहीं इसकी पहली किलकारी गूँजी थी। यहीं अपनी माँ की तीसरी बेटी बन उपेक्षा दंश भी झेला था। पर उपेक्षा का दंश अधिक नहीं झेलना पड़ा था और जब चार साल की थी तभी उसके पीछे अम्मा ने एक भाई को जन्म दिया। सहसा यह माता-पिता की दुलारी हो गई थी। इसको कोहनी से पीछे ढकेल देने वाले पिता ने अब गोद में उठा लिया था और बड़े गौर से देखा था। फिर इसी के साथ दूसरी दो बेटियों को भी देखा। बड़ी बेटी साँवली सलोनी थी, दूसरी पिंकी गोरी चिट्टी गुलाबी रंगत लिये, सुनहरे केशों वाली है पर यह तो फूल सी खिली बिटिया है सो पुष्पा नाम रहेगा, विचारा। झाडू-पोछा लगाने वाली अम्मा की बेटियों की स्थिति भी वैसी ही थी। पिता चिंटू राय एक जेलो साइकिल पर स्टाॅकिस्ट से सामान लाकर दुकानों को पहुँचाता तथा बड़े-बड़े सपने देखता। सपनों की डींग भी मारता। अपनी बीबी तारा को भी सपने दिखाता कि यहीं इसी टोले के दलदल का एक कोना खरीदने वाला है जिस पर घर बनायेगा घर के चार कमरे होंगे, दो अपने लिए रखेगा दो किराये पर उठा देगा। बेटियों की शादी धूमधाम से करेगा। तारा जिन घरों में काम करती वहाँ से जो खाना मिलता उसी में सब मिल बाँट कर खा लेते। घर में जब बच्चे बड़े हुए तब ही रसोई बनाने लगी। तारा का अनुमान था कि चिंटू राय के पास काफी रूपये जमा होंगे। एक मालकिन ने बड़ी बेटी नीरू को अपने पास काम के लिए रख लिया था। तारा ने पिंकी पुष्पा और मुन्ना को सरकारी स्कूल में नाम लिखा दिया। बच्चों और तारा को मालिकों के यहाँ से कपड़े मिल जाते, पढ़ने-लिखने के लिए किताबें पेंसिल और काॅपी की मदद भी मिलता। फिर भी खर्चा बढ़ गया था। चिंटू राय काम के सिलसिले में अक्सर दस-बारह दिन बाहर रहता। तारा को यह कहकर सदा भरमाये रहता कि वह अधिक रूपये कमा रहा है ताकि एक घर बना सके। तारा के देखते-देखते दलदल वाली जमीन बिक रही थी लोग छोटे-छोटे घर बना रहे थे। एक घर में वह किराये में रह रही थी। एक दिन चिंटू राय ने तारा के संचित रूपयों से जमीन खरीदने की बात कही। तारा ने इस शत्र्त पर दिया कि मकान वह बनायेगा। पिंकी और पुष्पा स्कूल जाती पर शाम को आकर अपनी अम्मा के काम में हाथ भी बँटाती। मुन्ना स्कूल के नाम पर कंचे गोली खेल कर समय गुजारता।

            देखते ही देखते पिंकी बड़ी हो गई। चौदहवें साल में वह सचमुच चौदहवीं का चाँद हो गई। बड़े घर की मालकिन ने एक दिन आहें भरकर कहा था कि ‘‘तुम यही विजातीय न होती और कामवाली दाई न होती तो…..’’ पर यह सब तारा के लिए नया नहीं था। वह अपनी अम्मा और नानी के साथ घरों में काम करती आई है, अपने रूप गुण अभाव के कारण यह सब सुनती आई है। हाँ, चिंटू राय पहला ऐसा आदमी मिला जिसने पहले इसे पटाया फिर इसकी अम्मा को पटाकर गंगा किनारे के शिव मंदिर में जाकर शादी कर ली। एक कोठरी से उठकर दूसरी किराये की कोठरी में तारा आ गई। पन्द्रह-बीस दिनों के बाद ही पुराने काम पर जाने लगी।

            पिंकी अपरूप थी। उसे देखने को सचमुच गलियों में लोग ठिठक जाते। अम्मा के साथ ही काम करने वाली करने वाली संगों के आदमी ने जमीन खरीदकर दो कमरें बना लिये थे। वह राज मिस्त्री था। संगों के चार बेटे थे। वह अब काम नहीं करती थी। अपने बच्चों को संभालती थी। संगों का बड़ा बेटा गुड्डू पिंकी को प्यार काने लगा था। सोलह साल का गुड्डू चैदह साल की पिंकी को जब तक स्कूल के रास्ते में रोक कर अपने प्यार का इजहार करता था। फिल्मों में देखे सुने डायलाॅग बोला करता था। हेयर पिन और चाॅकलेट गिफ्ट में देता था। पिंकी रोने लगती। तब गुड्डू उसे अपने से सटा कर प्यार करता तथा आँसू पोंछ देता। पिंकी को यह सब अच्छा लगता। गुड्डू ने अपनी अम्मा से कहा कि वह पिंकी से शादी करेग। अम्मा को यह प्रस्ताव अच्छा लगा। उसने तुरंत जाकर तारा से बात की। आनन-फानन में दोनों का विवाह हो गया। चिंटू राय छः माह से लापता था। तारा को बेटियों के ब्याह की चिन्ता थी। बड़ी बेटी विवाह योग्य थी लेकिन वह एक सुदृढ़ वृक्ष की छाया में थी। उन्होंने कह रखा था कि उसका विवाह वह सही समय आने पर कर देंगी। पिंकी का स्कूल छूट गया। वह घर में बड़े घर की बहू की भाँति रहती। तारा को सुख मिलता। पुष्पा अब बिल्कुल अकेली हो गई। सर झुकाकर मुहल्ले की लड़कियों के व्यंग्य बाण झेलती स्कूल जाती, माँ के हाथ भी बँटाती। दसवीं की परीक्षा सर पर होने के कारण पढ़ाई में मन लगाती। पीछे वाली भाभी के घर अम्मा अपनी शादी के पहले से काम करती थी। उनसे घरऊ आत्मीयता हो गई थी। उनके छोटे देवर इंजीनियरिंग के लिए प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। बड़ी भाभी ने एक दिन पुष्पा से कहा- ‘‘तुम बबुआ से साइंस और मैथ्स क्यों नहीं पढ़ लेती? क्यों बबुआ?’’- देवर से भी पूछा- ‘‘हाँ, बताओं क्या पढ़ना है?’’ सुनील बाबू के सामने ही ये लड़की बड़ी हुई है। चड्ढी से सलवार कुरती पर आई है। पढ़ाते हुए गौर किया कि लम्बी छरहीर चुवती निकल आई है। लम्बे-लम्बे काले केश, बड़ी-बड़ी आँखें और गोल सुंदर चेहरा है। रंग खुलता हुआ गोरा हैं इसके हाथ बेहद कोमल हैं। एक दिन पोंछा लगाते वक्त टूटी काँच की चूड़ी से हाथ घायल हो गये थे। सुनील ने उसकी उंगली में बैंडेड लगाया था। हाथों की कोमलता इसको दिल में हलचल मचाने लगी थी। अनायास सुनील अपने साथ कोचिंग में पढ़ने वाली लड़कियों से पुष्पा की तुलना करने लगे। रूप गुण और शाइस्तगी में इसकी बराबरी कोई नहीं कर सकती। यह भी गौर करने लगे कि पान की दूकान के पास, मंदिर के चैतरे पर तथा सड़कों के नुक्कड़ पर शोहदों की भीड़ इस पर फंबती कसने के लिए जमा होने लगी थी। वैसे वे छोंकरे किसी को न छोड़ते। उम्रदार स्त्रियों को भी ये न बक्शते पुष्पा तो एक सुंदर किशोरी थी। पुष्पा के लिए इनके मन में मोह उपजता यह शालीन, सुन्दर लड़की यदि खाते-पीने घर की होती तो एसे सड़कों पर न चलती न उल्टे-सीधे बोल सुनती। सुनील के साथ पुष्पा एक घंटा पढ़ती, इसका मन कितना लगता यह तो पुष्पा ही जाने पर सुनील का मन पढ़ाने में बिल्कुल नहीं लगता। जब से उसकी उंगलियों में बैंडएड लगाया था तब से उसकी उंगलियों सहलाने, हाथ पकड़ने का लाइसेंस मिल गया था। पुष्पा भी हाथ नहीं खींचती एक दिन धीमे स्वर में सुनली ने कहा- ‘‘मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ पुष्पा।’’

            ‘‘यह सही नहीं है सर’’ -उसने कहा।

            ‘‘क्यों, तुम मुझे प्यार नहीं करती?’’

            ‘‘मेरी हैसियत नहीं है कि आपकी ओर भर नजर देख भी लूँ।’’

            ‘‘देखो पुष्पा, देख लो मेरी आँखों में तुम्हें सच्चाई का अंदाजा लग जायगा।’’ -उसका हाथ पकड़ कर छाती पर रखा।

            ‘‘सुन रही हो धड़कन? यह तुम्हारे लिए है।’’ -पुष्पा ने हौले से हाथ खींच लिया और काॅपी कलम लेकर चुपचाप चली गई। पर फिर दूसरे दिन आकर बैठ गई। अब ये भी उस नशे में घिरने लगी थी। विचारवान थी, अपनी स्थिति समझती थी पर प्यार तो परवश होता है। यह उसमें डूब गई। ये अवसर ढूँढ़ते एकान्त का। इन्हें मिल भी जाता। पुष्पा की अम्मा तथा बहनों ने उसके साज-सिंगार की बढ़ोत्तरी को सामान्य युवती का शौक समझा। परन्तु पुष्पा अब सुनील के लिए सब करती। सुनील इंजीनियरिंग की परीक्षा में पास होकर काॅलेज ज्वाइन करने की तैयारी कर रहे थे। पुष्पा का हृदय मिश्रित भाव में ऊब चूब कर रहा था। सुनील चला जायगा कैसे काटेगी समय? सुनील ने कहा कि वह इंजीनियर बनकर अपने पैरों पर खड़ा होगा और पुष्पा से शादी करेगा। पुष्पा उसके कथन से आश्वस्व थी। उसे अपने प्यार पर भड़ोसा था। जब भी इसने कहा कि- ‘‘हममें आप में कोई मेल नहीं सुनील बाबू?, न तो जाति, न हैसियत बेकार सपने न दिखायें जब तब सुनील कहता- ‘‘प्यार में यह सब नहीं देखा जाता; यह बस सच नहीं है।’’

            ‘‘पता नहीं भगवान की क्या मर्जी है।’’ -पुष्पा कहती।

            ‘‘उनकी मर्जी है तभी तो हमलोग एक-दूसरे के निकट आये?’’ -सुनील पुष्पा को निरुत्तर कर देता। पुष्पा सुनील के प्रति पूरी समर्पित हो चुकी थी। सुनील चले गये थे। पुष्पा की परीक्षा कि निर्विघ्न हुई। वह सदा सुनील की यादों में खोई रहती। सुनील अपनी भाभी को पत्र लिखता तो पुष्पा का हाल पूछता उसकी परीक्षा के बहाने। भाभी पुष्पा को बता देती। कई बार हँसी-मजाक के लहजे में कह देतीं -‘‘तुम अगर हमारी जाति की होती तो मैं तुम्हें अपनी देवरानी बनाती।’’ सुनकर पुष्पा की अम्मा तारा हँस देती- ‘‘तकदीर की खोटी है।’’

            पुष्पा लजा जाती। ऐसे ही सुख से भरी हुई पुष्पा गहरी नींद में सोई हुई थी कि किसी का हाथ अपने चेहरे पर महसूस किया। वह चैंकर उठ बैठी। सामने खिलखिलाती हुई पिंकी बैठी थी। गहरे गुलाबी रंग की सिन्थेटिक साड़ी में पिंकी बेहद खूबसूरत हो गई थी। दो बच्चे होने के बाद गदबदी भी हो गई थी।

            ‘‘ओह पिंकी तुम आई कैसे? सास ने आने दिया?’’ -पुष्पा ने आश्चर्य से पूछा।

            ‘‘सासु माँ साथ आई है। नीलम मौसी भी है।’’ -मुस्कुराई पिंकी।

            ‘‘अच्छा, बढ़िया मजमा जमा है। यह कैसे हुआ?’’ पुष्पा थी।

            ‘‘है कोई बात!’’ -पिंकी ने आँखें मटकाई।

            पिंकी की सास तथा बिरादरी की स्त्रियाँ मिलकर पुष्पा के लिए रिश्ता लाई थीं। नीलम की बहन पास के गाँव में ब्याही गई थीं। उनके पास खेत और ढोर-डंगर थे। वे खाते-पीते लोग थे। उनके परिवार की एक शाखा बहुत दिनों से बम्बई में काम करती है। एक भी बना रखा है। उन्हें में से एक लड़का किसी सेठ के यहाँ पियुन है। उसे कुछ न चाहिए। बस एक अच्छी सुंदर, सुघड़ लड़की चाहिए।

            ‘‘देखों तारा बहन, मेरी आँख शुरू से ही पुष्पा पर लगी थी। जैसे ही दीदी ने मुझे अभय के लिए लड़की खोजने कहा मैंने पुष्पा का फोटो आगे कर दिया।’’

            ‘‘ई कइसे? आप हमसे तो फोटू भी नहीं मांगी।’’

            ‘‘जरूरतें नहीं था। मेरे घर की शादी में इसका फोटू भी तो उतारा गया था वहीं दिखा दिये। ई तो अच्छे से चमकती है जैसे सितारों के बीच चंदा।’’ -सब समवेल रूप से उत्साह में भरकर हँस पड़ी। पुष्पा चकरा गई।

            ‘‘ये सब क्या है पिंकी?’’ -उसने चिढ़कर कहा।

            ‘‘क्या है? तुम्हारी शादी की बात है। तुम बच्ची नहीं हो। सत्रह साल की हो गई हो। मैट्रिक की परीक्षा दे चुकी हो।’’ -पिंकी ने कहा।

            ‘‘मैं अभी शादी नहीं करूँगी। आगे पढुँगी। तुम्हारी तरह इसी उम्र में बच्चे पर बच्चे पैदा नहीं करुँगी।’’ -रोष में थी पुष्पा।

            ‘‘सपने ऐसे ही देख जो पूरे हों। अकेली अम्मा तुम्हें कैसे सँभालेगी। हम कैसे बेसहारा हैं नहीं समझती?’’ -पिंकी ने समझाया।

            ‘‘मैं अम्मा के साथ कम करती हूँ और एक दो घर बढ़ा लूँ तो?’’

            ‘‘उससे क्या होगा? शोहदों और लफंगों से कौन बचायेगा? हमारे तो पापा ही गायब हो गये हैं, अम्मा क्या-क्या करेगी।’’

            ‘‘पर मैं शादी नहीं करना चाहती।’’ -बेबसी में रो पड़ी थी पुष्पा।

            ‘‘मत रो मेरी बहन, अच्छा रिश्ता आया है तुम दुल्हे के साथ बम्बई जाकर रहोगी। जीवन बदल जायगा।’’ -पुष्पा उसे पकड़कर रोने लगी दोनों बहने देर तक रोती रही। कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। पन्द्रह दिनों के अंदर आनन-फानन में पुष्पा की शादी अभय से हो गई। अभय सुंदर सुडौल भला लड़का था। थोड़ी बहुत पढ़ाई कर ली थी और बड़े सेठ के यहाँ पियुन की नौकरी कर रहा था। पुष्पा सुंदर सुघड़ बीबी साबित हुई। दोनों ने एक-दूसरे को कभी शिकायत का मौका न दिया।

            कुछ ही दिनों बाद सुनील छुट्टियों में घर आये। पुष्पा को खोजा तब भाभी ने उसकी शादी की खबर सुनाई।

            ‘‘क्या शादी? ऐसा कैसे हो सकता है?’’ -चैंक कर बोला सुनील।

            ‘‘क्यों नहीं हो सकता सुनील? उस तबके में ऐसे ही होता है।’’

            ‘‘पर पुष्पा कैसे कर सकत है भाभी, उसने तो मुझसे वादा किया था।’’

            ‘‘क्या? वादा किया था? माजरा क्या है?’’ -भाभी ने अचरज भरकर पूछा। पूछने को पूछ लिया लेकिन जान तो स्वयं गई। सुनील हारे हुए जुआरी की तरह बैठ गया।

            ‘‘सुनील, वह रो बहुत रही थी पर मुझे लगा शादी कर दूर चली जाने वाली है इसीलिए रो रही है। मुझसे कुछ कहना भी चाहती थी पर कह नही पाई।’’

            ‘‘मेरी गलती है भाभी मैंने जो नहीं कहा।’’ -सुनील थे।

            ‘‘तुम क्या कहते? यह कि उससे प्यार करते हो, शादी करोंगे? यह असंभव था। तुम्हारे घर के लोग तैयार न होते, तुम्हारी पढ़ाई पूरी होने में चार साल है; तब तक वह कहाँ कैसे रहती जरा सोचो!’’ -भाभी के समझाने या सुनील के न समझने से भी अब कुछ बदला नहीं जा सकता। सुनील चुप था। इंजीनियर बना, नौकरी की, पढ़ी-लिखी सजातिय लड़की से शादी हुई। एक सामान्य जीवन जी रहा है जैसे सारे लोग जीते हैं, जैसे पे्रम नाम का कोई कीडा कुलबुलाया ही न हो अन्तस में। सुनील ने अपने पिता के बनाये घर की छत पर अपना फ्लैट बना लिया था; नीचे दोनों भाइयों का परिवार था। अभी उसकी पोस्टिंग अपने ही शहर में थी। सटी हुई इमारत के कमरों में बहुत सारे किरायेदार थे। तारा भी उनमें से एक थी। तारा का बेटा कभी-कभी सुनील से दुआ सलाम करने आता। वह राज मिस्त्री हो गया था।

            अत्यन्त शांत वातावरण है इन दिनों, महामारी के कारण तालाबंदी, सामाजिक दूरी चल रही है। सुनील अपने घर पर गमलों के फूलों को निहारता हुआ बैठा है। सामने तारा के कमरे की बालकनी पर मोढे पर गाल पर हाथ रखे जो स्त्री बैठी है उसे देख धक् से रह गया क्या यह पुष्पा है? लम्बे घने काले बाल पीठ पर लहरा रहे थे। गोरा मुखडा चमक रहा था। हरे रंग की सलीके से पहली साड़ी से आवेष्ठित स्त्री पुष्पा ही तो है, फूलों की डाली नहीं एक गझिन गाछ सीबेचारी टिकट लेना चाहती है क्या करें? तभी उसकी पत्नी चाय के दो प्याले ट्रे में लेकर आई। वह निर्निमेष पुष्पा को ताक रहा था।

            ‘‘क्या देख रहे हैं? यह दाई माँ तारा की बेटी पुष्पा है।’’

            ‘‘आँ, हाँ’’ -सुनील चौंका।

            ‘‘बेचारी मुम्बई से आई थी अपनी सास को देखने; जाने का टिकट जब का था तब से लाॅकडाउन हो गया। फँस गई। बच्चे दोनों और पति वहाँ यह यहाँ।’’ -समाचार की तरह सुनील की पत्नी ने सुना दिया। सुली बैठकर चाय पीने लगे।

            ‘‘क्या इधर आई थी वो?’’ -पूछा सुनील ने।

            ‘‘भाभी के पास आई थीं, मुझसे भी बात हुई। बेचारी टिकट लेना चाहती है क्या करें?’’

            ‘‘अभी कौन सा टिकट?’’ -कहा सुनील ने।

            ‘‘आप पूछ लीजिये न, मैं नीचे जाती हूँ नाश्ता बनाने।’’ -कहकर पत्नी ने पुष्पा को आवाज दी; वह उठ खड़ी हुई।’’

            ‘‘लो पूछ लो पुष्पा कैसे तुम यह बाधा दौड़ पार करोगी।’’ -कहती कप समेटती नीचे उतर गई। अब सुनील और पुष्पा आमने-सामने थे पूरे सत्ताइस साल बाद। एक-दूसरे के आमने-सामने। एक फीट ऊँची छत पर सुनील और नीची छत पर पुष्पा बेहद निकट दोनों ने एक-दूसरे से कुछ न कहा। पुष्पा की आर्त दृष्टि सुनील से अपने छोटे से घर लौटने की जुगत पूछना चाहती थी सुनील बता पाने की स्थिति में बिल्कुल नहीं था; फासले पाटने का भार नये समय पर छोड़ दिया गया था।

 
      

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