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प्रमोद द्विवेदी की कहानी ‘कामरेड श्रीमान समस्या प्रधान’

प्रमोद द्विवेदी जनसत्ता के फ़ीचर एडिटर रह चुके हैं। संगीत के रसिया हैं और व्यंग्य भाषा में कहानियाँ लिखने में उनका कोई सानी नहीं। यह उनकी नई कहानी पढ़िए-

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कामरेड का यह अद्भुत और जिज्ञासापूर्ण नाम दरअसल युवा पत्रकार चंद्रकेश सिन्हा की कथाकार-कवयित्री पत्नी रागिनी सिन्हा तापसे ने रखा था। हुआ यह कि एक दिन उसांसे भरे सुबह-सुबह वे प्रगट हुए। आते ही दो बार पांच नंबरी चश्मा पोंछा और बिना भूमिका के बोले, ‘भाईसाहेब अपने आसपास गाइने की अच्छी लेडी डॉक्टर है कौनो?’ चंद्रकेश चकराया, क्योंकि कभी इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। दोनों बच्चे ननिहाल में हुए इसलिए उसे कोई समस्या लगी ही नहीं। यह तो जैसे पूरी तरह बीवी का डिपार्टमेंट था।

 बेबाक और दुनियादार रागिनी ने कहा, ‘अचानक आपको क्या समस्या आ गई?’ कामरेड टिल्लन ने सकुचाते हुए कहा, ‘समस्या वाइफ की है। फाइनल चेकअप करवाना है।’ चंद्रकेश ने कहा, ‘गुरु यह कहो घर में किलकारी के आसार बन पड़े हैं।’ कामरेड बोले, ‘सर आप को खेलबकड़ी सूझी है। वाइफ बड़े मेंटल ट्रॉमा में गुजर रही हैं। थायरायड के कारण कुछ हार्मोनल दिक्कतें आ रही हैं…। पहला मामला भी है ना…।’ कामरेड का चेहरा उदास था। क्रांति के कई विकट पड़ावों में भी ऐसी उदासी और चुनौती से उनका पाला नहीं पड़ा था।

खैर, उनकी समस्या तो सुलझानी ही थी। रागिनी ने अपने वाट्स ग्रुप में मैसेज डाल दिया। साथ ही कहा, ‘टिल्लन भाई आप टेंशन बहुत लेते हो। आप तो गूगल से भी नंबर निकाल सकते हो ?’ कामरेड टिल्लन ने बेहद मंद, मिठुआ सुर में कहा, ‘गूगल की सूचनाएं भरोसे लायक नहीं होतीं…।’

रागिनी के पास दो मिनट में निर्माण विहार की लंदन रिटर्न डाक्टर तृप्ता रोहतगी का नाम और नंबर आ गया। वे उनकी सहेली की ननद थीं। कामरेड यह नंबर लेकर चले गए।

 उनके जाते ही रागिनी ने चंद्रकेश के कान खींचते हुए कहा, ‘ऐ भाई तुम तो कह रहे थे कि ये महान बमबाज क्रांतिकारी हैं। वरवर राव के चेले हैं। छत्तीसगढ़ में एक्शन कर चुके हैं। हमें तो एकदम खिसकूदीन लगे, बल्कि इन्हें तो श्रीमान समस्या प्रधान कहना चाहिए। काहे के कामरेड टिल्लन।’ यह नया नाम सुनकर चंद्रकेश खूब हंसा और रागिनी से कहा, ‘अरे भाई यह भाजपाइयों जैसी बातें मत करो। कोई हमसे हेल्प मांग रहा है तो कुछ सोचकर ही।’

इसके बाद तो बहस ही छिड़ गई।

रागिनी बरस रही थी, ‘अरे भाई मदद का कोई लेवल भी तो हो। याद करो, कड़ाके की सर्दियों में ये भाईजान रात में पूछने आ गए थे कि अपने इलाके में एयरटेल की सर्विस अच्छी है कि बीएसएनएल की। एक बार डुप्लीकेट चाभी वाले को ढूंढ़ने के लिए स्कूटर ले गए और खंभे में भेड़ मारा, कभी पूछेंगे- होम लोन पीएनबी से लें कि एचडीएफसी बैंक से… अति कर दी! अरे भाई, यहां इंक्वायरी दफ्तर खुला है या हम एरिया अफसर हैं…ऐसे ही ढिलुवा किसिम के कामरेडों ने क्रांति का कचूमर निकाला होगा।’

चंद्रकेश मुस्कराया, ‘तुम इन पर एक कहानी लिख डालो, ‘कामरेड का कोट’ जैसी। नहीं तो कहानी का आइडिया अपने गुरुजी उदय प्रकाश जी को भेज दो। आजकल यहीं गाजियाबाद के वैशाली में रह रहे हैं।’

‘इन पर ही नहीं, तुम पर भी लिखूंगी कि कैसी निखट्टू मंडली जुटाई है।’

‘ठीक है।’ चंद्रकेश ने बाखुशी समर्पण कर दिया।

 अब बेचारे कामरेड टिल्लन करते भी क्या! जीवन के महान कष्टों, जनवादी तप के बाद उन्होंने कुछ सालों से कुर्ता-पायजामा छोड़कर ब्रांडेड जींस और शर्ट पहननी शुरू की थी। और कई बार किसी ना किसी बहाने सामने वाले बुर्जुआ को बता देते कि ‘बताइए क्या जमाना  गया है कि बारह सौ की कमीज मिल रही है। इतने में तो हमने अपने मिर्जापुर में एक खुन्नी भैंसिया खरीद ली थी।’

असल में वे पूरे अनोखे लाल थे। जीवन में एक बार भी प्रेम पर कविता नहीं लिखी, ना किसी दिलकश कन्या को कोहनियाया, पर लखनऊ में जनवादी गुटका अखबार विप्लवधारा में काम करने के दौरान ही उन्हें प्रेम हो गया। उन्होंने भगत सिंह के साथी कामरेड यशपाल और प्रकाशवती की प्रेमकहानी पढ़ रखी थी। कुछ इसी अंदाज में उनका प्रेम फर्राटेदार हुआ। उन्होंने नासिर काजमी के कुछ शेर याद कर डाले। एक दिन कामरेड टिल्लन ने सांवली-सलोनी, कजरारे नैनों वाली, निचले होठ पर तिल वाली कामरेड युक्ता पाणिग्रही से कहा, ‘ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि कामरेडों को प्रेम नहीं करना चाहिए।’ और एक दिन संसार की मुख्याधारा में शामिल होने के लिए वे लखनऊ के चारबाग से बस पकड़कर सीधे दिल्ली आ गए। कामरेड ने कनपुरिया मालिक वाला एक पूंजीवादी अखबार ज्वाइन किया और युक्ता एक पूर्व आइएएस संपत छिब्बर के एनजीओ में काम करने लगी। आजकल वह तिहाड़ के कैदियों के बीच काम कर रही थी।

 नोएडा के जिस अखबार में कामरेड वरिष्ठ उपसंपादक बनकर आए, वहां चंद्रकेश सहायक संपादक था और एडिट पेज उसके हवाले था। कामरेड को वह मिर्जापुर से ही जानता था। दोनों के पिता दोस्त थे। गाने-बजाने की बैठक में एक मंजीरा बजाते थे, दूसरे नाल पर कमाल दिखाते थे। लेकिन समय की गति ऐसी कि चंद्रकेश और कामरेड की मुलाकात पंद्रह साल बाद सीधे यहीं हुई। चंद्रकेश ने चाय-वाय पिलाकर पहले यही पूछा कि अनुवाद कैसा है। कामरेड ने अकड़कर कहा, ‘मैं अनुवादक थोड़ी ही हूं। पत्रकार हूं।’

 चंद्रकेश ने समझाया, ‘पहलवान यह लाला का अखबार है। यहां अनुवाद की जरूरत पड़ जाती है। इसे तौहीनी काहे मान रहे हो। आप टैस्ट दिए थे तो अंग्रेजी के एक पीस का अनुवाद किए थे कि नहीं…।’

कामरेड सब समझ गए। चंद्रकेश ने अपने शानदार, नीले मोबाइल में उसका नंबर फीड करते हुए, यह शेर भी सुना दिया-

हम अय्याम जमाना देखे हैं, हम वक्त पर नजरें रखते हैं,

कुछ मजबूरन कुछ मसलहतन कातिल को मसीहा कहते हैं।

कामरेड मन मारकर बोल गए- ‘ठीक बात भाईसाहेब, पापी पेटवा जो ना कराए…।’

चंद्रकेश की शान देखकर वे अभिभूत भी हुए। शक हुआ कि यह बनिया के अखबार में रहकर पक्का भाजपाई तो नहीं हो गया।

बहरहाल विचारधारा के टकराव के बावजूद चंद्रकेश ने उनकी काफी मदद की। मयूर विहार फेज 1 में घर के पास ही एक फ्लैट दिलवा दिया। कामरेड दंपति सुखद और शोषणमुक्त भारत की कल्पना करते हुए जीवन बिताने लगे। वे साथ-साथ सैर करते और आम दिल्ली वाले की तरह मदर डेयरी का दूध-दही लेकर लौटते। इंस्टाग्राम, ट्वीटर और फेसबुक ने उनकी जनप्रियता बुलंद की। कामरेड ने ठान लिया था कि बनिया के ब्राह्मणवादी अखबार में भले ही वे मोदी सरकार के खिलाफ कुछ ना लिख पाएं। पर सोशल मीडिया पर खयाली कुल्हाड़ा चलाते रहेंगे। हालांकि चंद्रकेश ने इशारा कर दिया था कि कोई टिप्पणी करने से पहले विचार कर लेना, आजकल नौकरियां जल्दी मिलती नहीं…और यह सरकार रहम एक सीमा तक ही करेगी।

कामरेड ने उपहास में ‘जी जनाब’ कहकर बात टाल दी तो चंद्रकेश समझ गया कि सरऊ जल्दी अपने पांव में कुल्हाड़ी मारने वाले हैं।

अब कामरेड टिल्लन करते भी क्या। एक शेर उन्हें भी याद था-

आदत ही बना ली है तुमने तो मुनीर अपनी,

जिस शहर मे भी रहना उकताए हुए रहना

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 चंद्रकेश ने रागिनी को सही बताया था। सचमुच कामरेड टिल्लन जन्मजात क्रांतिकारी थे। मिर्जापुर में अपना अभावों भरा बचपन गुजारने के दौरान ही वे अपने समाज सुधारक, ट्रेड यूनियन वाले पिताजी रामआसरे (उपाध्याय) की विरासत में छोड़ी रूसी-चीनी किताबें (हिंदी में) पढ़ने लगे। यहीं से क्रांति करने का इच्छा कुकुआने लगी। एकदम झिल्ला हो चुका ‘चांद का फांसी अंक’ उन्होंने कई बार पढ़ लिया और खुदीराम बोस बनने की इच्छा इतनी फड़फड़ाती कि सपने में किसी ना किसी को बम मार देते। कल्पना करते कि लेनिन की जीवनी गले में लटका कर तिहाड़ जेल में फांसी पर चढ़ गए हैं।

अभी वे सिर्फ सोलह साल के थे। अखबार में मुख्यमंत्री के नगर आगमन की खबर पढ़ते ही उन्होंने खुदीराम बनने की ठान ली। कछियाने के लौंडों से एक बम का जुगाड़ किया। सोमवार के दिन देवी दर्शन को आए मुख्यमंत्री के काफिले पर दूर से देसी बम चला दिया था। बम फटा नहीं, क्योंकि अनाड़ी हाथों ने बनाया था। माल सही था नहीं। पर बम बम ही होता है। चाहे वह सुतली वाला ही क्यों ना हो। मौके पर ही छिटंकी से दिख रहे कामरेड को पुलिस ने पकड़ लिया। कामरेड होशियार था। उसने चिल्लाकर कह दिया, ‘हम नाबालिग हैं. चाहे मेडिकल करा ल्यो।’ रिसियाई पुलिस तब तक नितंब भंजन कर चुकी थी। नाबालिग वाली बात पर दरोगा हूसेलाल यादव संभल गया।

उसने सबसे काबिल सिपाही से कहा, ‘अबे जात पूछो, नाम पूछो…’

सिपाही सिद्धनाथ मिश्रा ने पूछताछ शुरू की।

‘क्या नाम है तुम्हारा?’

‘आजाद!’

‘अबे आगे पीछे कुछ और?’

‘बस आजाद, कामरेड टिल्लन आजाद।’

हूसेलाल झल्लाया, ‘साला चंद्रशेखर आजाद की आत्मकथा पढ़कर आया है।’

‘बाप का नाम?’

‘गुलामदीन’ (वह झूठ बोला)

‘रहवास?’

…………..(चुप्पी)

‘बम काहे फेंके?’

‘क्रांति करनी है।’

‘काहे?’

‘देश बदलना है…।’

‘क्रांति और बमबाजी से पेट भर जाएगा सरऊ?’

‘हां, भर जाएगा। शोषकों का, फासिस्टों का सर्वनाश जरूरी है।’

सिद्धनाथ चकराया, ‘यादव जी, शोषक तो सुने रहे, ई फासिस्ट कौन सी जाति है?’

यादव की भी खोपड़ी घूम गई। कहने लगा, ‘इसकी मेडिकल जांच जरूरी है। पर नाबालिग लगता नहीं। चल बे पेंट उतार। तेरी नुन्नी चेक करते हैं।’

कामरेड ने कहा, ‘उतार दूंगा, ध्यान रहे लौंडेबाजी का आरोप लगाकर नौकरी खा जाऊंगा। बोलो उतारें…।’

पुलिस वाले घबड़ा गए।

सिदधनाथ ने खोपड़ी खुजाते हुए कहा, ‘सर कौन सी दफा लगेगी इस पर। 307 लगाएं कि 323…। साला सुधारगृह जाकर दुई साल में छूट जाएगा।’

 दरोगा को दया भी आई क्योंकि कामरेड चिकना था। ठीक से रेख तक नहीं आई थी। उसे पता था कि चार दिन जेल में रह गया तो छीछालेदर करवा के आएगा। जेल में कौन पूछता है चिरकुट बमबाजों, लौंडियाबाजों को।

 उसने सीओ भानुप्रताप सिंह से बात की। भानुप्रताप ने कप्तान साहब से। कप्तान साहब उदयवीर सहारन मेडिकल ग्राउंड वाले आइपीएस थे। उन्होंने बताया कि लखनऊ में गृह मंत्रालय ने इस घटना को कोई तूल ही नहीं दिया है। उन्हें लग रहा है कि टायर फटने की घटना हुई है। ड्राइवर पर ही सारी बात आ गई है, इसलिए बमकांड नाम की चर्चा ही नहीं की जाए। शाम को विज्ञिप्त भेजकर अखबारों को बता दें कि बम धमाके की कोई घटना ही नहीं हुई है।

इस तरह किशोर कामरेड से पुलिस ने मुक्ति पाई। सीओ साहब खुद भी बरेली प्रवास के दौरान छात्र जीवन में नेशनल पब्लिशिंग हाउस से दस रुपए वाली ‘दास कैपिटल’ लेकर पढ़ चुके थे। पैसे जोड़कर, दैनिक जागरण और जनसत्ता की रद्दी बेचकर उन्होंने मार्क्स-एंगेल्स की रचनाएं खरीदी थीं। उन्हें अंदाज था कि जरा-सा मन रपट जाए तो क्रांति करने का मन करने लगता है। उन्होंने नवोदित किशोर कामरेड टिल्लन को बुलाकर कहा, ‘बउवा हमने पता कर लिया है कि कोई बम धमाका नहीं हुआ। किसी ने तुम्हें फंसाने के लिए नाम ले लिया था। तुम तो भले लग रहे हो। बाभन-ठाकुर लगते हो सकल से….। कौन जात के हो?’ टिल्लन ने कहा, ‘जात ना पूछो क्रांतिकारी की…हमने जाति लगाना छोड़ दिया है। बाबा हमारे उपधिया लिखते रहे….पिता जी ने छोड़ दिया था।’

 सीओ साहब ने रहम दिखाते हुए कहा, ‘वैरी गुड लोहिया जी भी यही चाहते थे…पर जांच से पता चल गया है कि एंबुलेंस का पिछला टायर फटने से धमाके हुआ। तुमको गलत पकड़े हैं…।’

इस बयान से कामरेड को झटका लगा, ‘क्या कह रहे हैं साहब। हम क्रांति की शुरुआत किए हैं। हमें जेल भेजो चाहे, चाहे बच्चों वाली जेल में डाल दो…। हमें क्रांतिकारी बनना है। खुदीराम बोस की तरह उन्नीस साल से पहले फांसी पर चढ़ना है।’

सीओ साहब धीरे से यादव के कान में बोले, ‘यह पंडितवा बड़ा जड़ीला साइक्लॉजिकल केस है। साला मंगल पांडे बनना चाहता है…. मार-मार कर इसकी गुरिया-गुरिया ढीली करो और इसको जीप में बैठालकर रात में डाला सीमेंट फैक्टरी के आगे तक छोड़कर आओ। भुसड़िया वाला लंगड़ाते हुए पैदल लौटकर आएगा तो सारी क्रांति गंड़िहाने में घुस जाएगी।’

  इस फरमान पर बाकायदा अमल हुआ। नवोदित कामरेड टिल्लन जब घर पहुंचे तो अम्मा सुल्हर पंडित को पतरा दिखाकर पूछ रही थीं कि लड़कऊ कौन दिशा की ओर गए हैं। पंडित सबको चूतिया बनाते हुए बता रहा था, ‘एक गौर वर्ण की सुंदर, नाटी महिला, जिसने पीले वस्त्र पहने रखें हैं, उसे दक्खिन दिशा की ओर ले गई है…।’ लेकिन टिल्लन को देखते ही उसने झोला समेटा और कहा- बाकी यही बताएंगे।

 टिल्लन ने जो बताया, उसे सुनकर घर वालों के तो प्राण सूख गए। घर पर ही सेवा हुई। रात में पहरुआ का काम करने वाले भगवानदीन खटिक ने चुपचाप च्यवनप्राश के डिब्बे में भरकर सुउर की चर्बी लाकर दी। दिन में दो बार आंगन में बैठकर मालिश करती थीं अम्मा। रोती जाती थीं, ‘पुलिस का नाश हुई जाय…।’ चार महीने लग गए पुरानी काया पाने में। लेकिन चलते समय पउली अब भी किट्ट-किट्ट करती थी।

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 तो इस तरह कामरेड टिल्लन देश के सबसे युवा क्रांतिकारी बनने से बच गए। वे चाहते थे सोलह साल की उम्र में दुनिया उन्हें चारू मजूमदर, कानू सन्याल और विनोद मिश्र जैसी हस्ती माने। पर भाग्य को कुछ और ही मंजूर था। वे कइयों को बताए कि मुख्यमंत्री के काफिले पर उन्होंने ही देसी बम फेंका था। पर पुलिस मानी ही नहीं। बल्कि समझदार पड़ोसियों ने कहा, ‘बेटा बहुत बड़ी अलप कट गई समझो, जो बच गए नहीं तो पुलिस जिंदगी भर सड़वा देती। तुम ई नहीं सोचे कि इस घटना से अम्मा, भाई-बहन पर क्या बीत रही होगी।’

कामरेड टिल्लन को यह तो समझ में आ गया कि यह पाजी सिस्टम उसे खुदीराम बोस नहीं बनने देगा। विचार बना, चलो पहले कम से कम बीए कर लेते हैं। इस बीच पूरा जनवादी साहित्य भी पढ़ लेंगे और अवसर मिला तो शरीर बनाकर, बंदूक लेकर बिहार या छत्तीसगढ़ की तरफ निकल लेंगे…पर क्रांति तो करनी ही है। वैसे अभी उन्होंने घर वालों से यही वादा किया कि फिलहाल छह-सात साल तक कोई उत्पात नहीं करना।

 तो ये कामरेड के किशोरावस्था के उथल-पुथल भरे दिन थे। लेकिन कुछ साल तक शांत और अध्ययनरत रहने की उन्होंने जो शपथ ली, उससे उनकी विप्लवी लपट ठंडी पड़ गई थी। किसी बड़े नेता की हत्या कर पूरी दुनिया में मशहूर होने की महान तमन्ना भी दुबला गई थी। एक दिन उन्हें लगा कि किशोरावस्था में उन्होंने जो हरकत की थी, सचमुच बड़ी खतरनाक थी। रूसी साहित्य पढ़ चुके सीओ साहब भले आदमी थे, जो सस्ते में निपटा दिए। सोचते-सोचते वह कई बार डर जाता। यहां वह भाग्य को मानने लगता, शायद किस्मत को यही मंजूर था।

यह तो अच्छा ही हुआ कि उनका चित्त शांत हो गया और वे मानने लगे कि कच्ची उमर में ज्यादा क्रांतिकारी किताब पढ़ लो, तो भगत सिंह की तरह असेंबली में बम फेंकने की इच्छा होने लगती है। खैर, पचपन प्रतिशत नंबर से वे इंटर पास हो गए और अपने पीएसी वाले मौसिया रामकृष्ण त्रिवेदी के प्रयास से इलाहाबाद के सीएमपी डिग्री कालेज में उन्हें एडमिशन मिल गया। यहीं से इतिहास, फिलासफी, हिंदी पढ़ते पहले बीए किया। एमए हिंदी में किया। राहुल सांस्कृत्यायन पर पीएचडी करना चाहते थे, लेकिन पार्टी ने उन्हें नेतागीरी में उतार दिया और यहां भी फेल हो गए। पीएसओ के मछंदर सिंह के चेले बनकर प्रकाशन मंत्री का चुनाव भी लड़े। लेकिन ब्राह्मण-ठाकुर राजनीति के कारण उन्हें सौ वोट भी नहीं मिल पाए। हारकर वे पत्रकारिता की ओर उन्मुख हो गए और कुछ दिन दैनिक आज में काम करने के बाद पार्टी के पत्र में काम करने लगे। वे समझ गए कि उनकी प्रतिभा पत्रकारिता में ही निखर सकती है। या कहें कि उनकी समझ में आ गया कि जो कहीं कुछ ना कर पाए वह हिंदी पत्रकार तो बन ही जाता है।

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 बहरहाल विख्यात मोदी युग में कामरेड भले ही जनवाद, सामूहिकतावाद के उत्कट उपासक थे। पर मोहल्ले में वे नितांत एकांतवादी थे। समस्या यह भी थी कि उनके गली में सपनीले जनवाद ने प्रवेश ही नहीं किया था। ज्यादातर घरों में केसरिया पताका दिखती थीं और सामने के नगर निगम वाले पार्क में शाखा लगती थी। शाखा बिहार के औरंगाबाद से आए आईटी इंजीनियर शरदेंदु शांडिल्य नामक सज्जन लगवाते थे। किसी ना किसी आयोजन पर बूंदी के लड्डू बंट जाते, पर कामरेड टिल्लन के लिए शाखा वालों या मोदी भक्तों के लडडू खाना हराम था। उनका मानना था कि सांप्रदायिक ताकतों का अन्न क्या, नमक क्या, कुछ नहीं खाना चाहिए।

उन्हें सबसे खराब तब लगता, जब नाम पूछने वाला बनिया-कायस्थ पड़ोसी उनसे मिलते ही जिज्ञासु हो जाता, ‘टिल्लन आजाद के आगे तो कुछ होगा…।’ वे चिढ़ जाते, ‘आधार कार्ड दिखा दें?’

‘हमारा मतलब, पंडित, ठाकुर बनिया…?’

‘जी नहीं, हम इंसान हैं। जातिविहीन समाज बनाना है।’ कामरेड की सांस फूलने लगती।

‘वो तो ठीक है, पर पिता जी कुछ तो लिखते होंगे?’

‘अरे पिता जी गए सरग, उनको छोड़िए।’ टिल्लन तिलमिला जाते।

बात यहीं खत्म हो जाती। पर मोहल्ले में यह मशहूर गया कि ‘यह कामरेड अलग ग्रह का प्राणी है। मौका पड़ा तो कभी किसी की कटी छिंगुलिया पर नहीं मूतने वाला…।’

 इसका अंजाम कामरेड को भुगतना भी पड़ा। एक दिन युक्ता को घर लौटने में देरी हो गई। वे जल बिन मीन की तरह तड़पते हुए मोबाइल में घंटी मारते रहे। हारकर रात बारह बजे चंद्रकेश को फोन करके रुआंसे से बोले, ‘युक्ता जी का कुछ पता नहीं चल रहा। मोबाइल भी नहीं उठ रहा, आप देख लीजिए।’

रागिनी की नजर बचाकर चंद्रकेश निकलने को हुआ कि लैपटाप छोड़ रागिनी पीछे आ गई, ‘इत्ती रात कहां निकल पड़े बाबा आमटे?’

डरते-डरते चंद्रकेश ने कहा, ‘अरे भाई कामरेड टिल्लन का फोन आया था। बीवी घर नहीं पहुंची…।’

‘तो आप ढूंढने जा रहे हो?’

‘नहीं भाई, घर जाकर देख तो लूं…।’

‘चलिए मैं भी चलती हूं।’ भुनभुनाते हुए रागिनी ने कहा, ‘धरती पर बोझ ऐसे ही लोगों को कहा जाता है। अरे भाई, पहले पड़ोसी को फोन करते…।’

‘पड़ोसी से कोई वास्ता ही नहीं रखते ये लोग।’

‘ओ माई गॉड….! कैसे जिएंगे ये संसार में…?’

 खैर, वही हुआ। खोदा पहाड़ निकली चुहिया। युक्ता आखिरी मैट्रो से घर आ गई थी। असल में रास्ते में किसी ने बटुआ मार दिया, मोबाइल, आधार कार्ड और दूसरे सारे कार्ड भी चले गए। किसी तरह घर पहुंची और मातम के मारे, रो-धोकर बिना खाए, कपड़े बदले सोफे पर पसर गई। सोचा भी नहीं कि उधर उनके कामरेड पति विरह में घुल गए होंगे….।

 समस्या का हल यह निकला कि चंद्रकेश ने फौरन मोबाइल से पति-पत्नी की बात कराई। कामरेड को जैसे नया जीवन मिल गया। पर काम इतना ही नहीं बचा था। अपने मोबाइल से युक्ता का नंबर ब्लाक करवाया। बैंक के कार्ड ब्लाक करवाए। पुलिस में ऑनलाइन कंप्लेन कराईं। अपने क्राइम रिपोर्टर एके वर्मा को केस सौंपा। रागिनी ने बस इतना ही कहा, ‘अरे भाई एकआध पड़ोसी का नंबर तो शेयर करो…पड़ोसी पहले ही काम आता है।’ युक्ता ‘जी-जी’ कहकर ज्ञान को अंगीकार करती रही। खैर इस घटना का असर यह हुआ कि कामरेड टिल्लन ने ऊपर वाले पंजाबी किराएदार वरुण बधावन और उनकी पत्नी सुदेश से बात करनी शुरू कर दी। बल्कि युक्ता का उचका पेट देखकर सुदेश ने कह भी दिया, ‘सब ठीकठाक है ना…। कोई दिक्कत हो तो बतइयो….।’

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 ऐसे माहौल में कामरेड टिल्लन इतिहास में दर्ज होने वाले महान पिता बनने जा रहे थे। क्रांति की सारी किताबें पढ़ने के बाद आजकल वे उदय प्रकाश का कथा संग्रह ‘और अंत में प्रार्थना’ पढ़ रहे थे। लेकिन पत्नी ने फ्लिपकार्ट से बेबी केयर की किताबें मंगाकर उन्हें सलाह दी कि ‘कुछ दिन यह भी पढ़ लो मेरे प्रभु। हमें ही बच्चे को देखना है। अम्मा तुम्हारी गांव से आने वाली नहीं और हमारी अम्मा कटक में बैठी हैं। उनका तो आने का सवाल ही नहीं उठता।’

वैसे तो कामरेड की दो बहनें भी थीं। मगर जब घर से चले थे तो यह कहकर कि ‘आजीवन अविवाहित रहूंगा।’ बहनों ने थोड़ा हुसकाया भी, ‘भइया हमारी जरूरत तो पड़ेगी। उन्होंने कहा, रत्ती भर नहीं…। हम क्रांति के पुजारी हैं, ऐसे डिगने वाले नहीं कि कोई मोहनी चल जाए हम पर…। हमें बिस्मिल और आजाद समझो, कोई क्रांतिकारी आत्मा भटक कर हमरे भीतर आ गई है…।’

 पुरानी बात सोचकर वे बड़ा शर्माए। एक दिन युक्ता ने कहा भी कि ‘बहनें कर क्या रही हैं। शादी-वादी तो हो नहीं रही, यही ले आइए एक को। थोड़ा केयर करेगी। यहीं उसे कोई कोर्स करवा देंगे।’

 पर कामरेड नहीं माने। किस मुंह से बहनों को बुलाते। कभी राखी, भइया दूज पर याद नहीं किया। आज याद करेंगे तो हंसेंगी और।

 फिर वही कहानी दोहराई गई। कामरेड टिल्लन अपनी नई नवेली स्कूटी के साथ, जिसमें शनि मंदिर के अज्ञानी पंडित ने केसरिया स्वास्तिक बना दिया था, चंद्रकेश के घर आ धमके। रागिनी अपनी नई कहानी के अंत को लेकर चिंतामग्न थी। कामरेड को देखते ही बुदबुदाई, ‘लो आ गए आपके समस्या प्रधान जी।’ चंद्रकेश ने परेशानहाल जीव को देखते ही पहले पानी पिलाया, फिर पूछा, ‘कोई खुशखबरी!’

कामरेड बेहद धीमे स्वर में बोले, ‘युक्ता जी का थायरायड कंट्रोल हो गया है। अगले नवंबर महीने की 15 तारीख बताई है डाक्टर ने।’

‘वैरी गुड!’ चंद्रकेश ने आदतन हिम्मत बढ़ाई।

रागिनी फौरन मुद्दे पर आ गई, ‘हमारे लायक कोई सेवा हो बताइएगा।’

अब कामरेड शुरू हुए, ‘भाभी जी यहां बेबी सिटर कहां मिलेगा यानी मिलेगी…। समझ नहीं आता, युक्ताजी सर्विस कर पाएंगी कि नहीं..।’

रागिनी ने उन्हें टोका, ‘भाईसाहब अभी तो सेफ डिलिवरी की सोचिए, अच्छे नर्सिंग होम के बारे में सोचिए…आप तो काफी आगे चले गए।’

‘नहीं भाभी जी, सब पहले से ही सोचकर रखना पड़ता है…एडवांस प्लानिंग। वरवर राव जी हमेशा कहते रहे हमसे कि हर काम के लिए एडवांस प्लानिंग करनी चाहिए…।’

‘ओह माइ गॉड, यह एडवांस प्लानिंग नहीं है, आपकी यूजलेस चिंता है…तो इसका मतलब आप बच्चे का नाम, स्कूल का नाम भी सोच लिए होंगे…।’

‘हां, सोच लिए हैं, हम तथागत नाम सोच लिए हैं…।’

‘क्या आप कन्फर्म हैं, लड़का होगा…? मतलब आपने टैस्ट कराया होगा…?’

 कामरेड फंस गए। चश्मे से घुग्घू जैसी आंख नचाकर बोले,

‘नहीं, हमारी अंतरात्मा कह रही है। बोले तो इलहाम हुआ है…।’

‘आप तो आत्मा को मानते नहीं, तो अंतरात्मा कहां से आ गई? ये इलहाम और झंडूबाम अपने पास रखिए…कितनी दोहरी बात करते हैं आप लोग।’

कामरेड निरुत्तर।

‘चलिए छोड़िए। लड़की होगी तो क्या उसका नाम रखेंगे।’

‘यह तो अभी सोचे नहीं…पर आप सही कहे हैं। हर संभावना को लेकर चलना चाहिए।’

‘खैर, उनको परेशान देखकर रागिनी ने कहा, आप परेशान मत हो। उन्हें अच्छी डाइट दो, मेहनत करने दो। डिलीवरी के दिन मैं रहूंगी आपके साथ।’ कामरेड संतुष्ट होकर चले गए।

कामरेड टिल्लन भले ही युगांतरकारी परिवर्तन के हिमायती थे। पर प्रसव के मामले में प्राचीनता के संग थे। वे सीजेरियन और बेबी मिल्क पाउडर के खिलाफ थे। स्तनपान पर तो उन्होंने कई लेख पढ़ डाले। कुदरती प्रसव के बारे में तो वे साफ कहते थे कि हमारी गभनी गइया-भैंसिया तो घूमते-घूमते जाती थीं, शाम को बियां जातीं। सीजेरियन तो एक अंतरराष्ट्रीय साजिश है। यह तो डॉक्टरों का धंधा है…..।

 कामरेड की बात पूरी तरह सच्ची थी। पर जिस तरह लिंग निर्धारण और नर्सिंग होम का धंधा चला, उसमें कोई क्रांतिकारी भी कुछ नहीं कर सकता था। डॉक्टर ने समझा दिया था कि नार्मल डिलीवरी हो जाए इससे अच्छा तो कुछ भी नहीं। फिर भी, पचास साठ हजार का इंतजाम तो करके रखिए ही। मैक्स में जाकर देख लो, चीरकर रख देंगे…।

 वे तन-मन से लग गए। बैंक से कैश भी निकाल लाए। नर्सिंग होम तय किया। उसका नाम था हिंदुस्तान नर्सिंग होम। हालांकि यह किसी जैनी का था। पर कामरेड को हिंदुस्तान नाम ने आकर्षित किया। कामरेड को लगा, यह नर्सिंग होम अपने नाम की इज्जत तो रख लेगा।

 वह ऐतिहासिक तारीख भी आ गई- पंद्रह नवंबर। चाचा नेहरू के जन्मदिन के एक दिन बाद। अब चूंकि वे नेहरू से चिढ़ते थे, इसलिए संसार की अनजानी ताकत को धन्यवाद दिया कि एक दिन बाद उनके लाल धरती पर प्रगटेंगे..।

 रागिनी ने अपने दोनों बच्चों के पुराने कपड़े संभाल कर रखे थे। उन्हें धोकर रख लिया। दोनों लड़के वाले कपड़े। कामरेड की चलखुर बढ़ती जा रही थी। दिन में दो बार जूस निकलने के लिए घर से निकलते। रागिनी को फोन करके पूछ लेते कि डिलीवरी के एक दिन पहले खाली पेट होना चाहिए या भरा। वह हंसकर कहती, ‘सब नार्मल चलने दो…। बस टेंशन नहीं लेने का। उन्हें बढ़िया गाने सुनाओ। कोई अच्छी-सी धुन लगा दो। गायत्री मंत्री लगा दो, वाइब्रेशन का असर होता है।’ गायत्री मंत्र नाम पर वे कुछ नहीं बोलते…। मंत्र-संत्र पर उनकी कोई आस्था नहीं थी। इन्हें वे पंडितों का धंधा मानते थे।

लेकिन तकदीर भी कई बार अजीबोगरीब मजाक करती है। या कहें संयोग विचित्र होते हैं। उदाहरण के लिए उनके पिता रामआसरे गांधी जी को हमेशा गरियाते रहते थे। पर कामरेड टिल्लन का जन्म एकदम दो अक्तूबर को हुआ। अम्मा का पेट पिराए जा रहा था, पछाड़ें खा रही थीं और उपाध्याय जी कहे जा रहे थे, ‘बिनती जी कल तक कंट्रोल कर लो। आज रात बारह के बाद जन्म दे देना…।’ अम्मा  रोती जा रही थीं, ‘तोहार नाश होय…हमरे प्रान जा रहे हैं और…।’ उपाध्याय जी हार गए और दो अक्तूबर को शाम सात बजे ढाई किलो के  टिल्लन अवतरित हो गए। यानी  गांधी जी और शास्त्री जी के बाद वे तीसरे महान प्राणी थे जिनका जन्म आर्यावर्त में दो अक्तूबर को हुआ। यह अलग बात कि पिताजी ने कभी मन से उनकी सालगिरह नहीं मनाई। अम्मा जरूर गुलगुले बना देती थीं।

 वही कहानी फिर घटित होने जा रही थी। चौदह नवंबर की सुबह से ही युक्ता की बेचैनी बढ़ गई। उसने कहा, ‘हमें एडमिट करा दीजिए। नीचे से पानी छूटता सा लग रहा है…।’

कामरेड हिल गए, ‘अरे भाई ऐसा मत करो। कल की डेट तय है।’

युक्ता चीख पड़ी, ‘बेवकूफ हैं क्या आप… यह कोई टैस्ट मैच है जो डेट पहले से ही फिक्स थी….।’

कामरेड टिल्लन के सामने बड़ा धर्मसंकट। नेहरू वाले बाल दिवस पर बालक का जन्म…सोचा ही नहीं था। उन्हें लगा कि वक्त भी उनके साथ साजिश रच रहा है।

घबड़ाकर उन्होंने रागिनी को फोन किया, ‘भाभी जी गाड़ी लेकर आ जाइए। युक्ता को लेकर अस्पताल जाना है।’ आज रागिनी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई। आज तो मदद के लिए वह पहले से तैयार थी।

 उसने चंद्रकेश को भी फोन करके नर्सिंग होम पहुंचने को कहा। वह कामरेड के घर पहुंची तो वे स्थायी उदासी के साथ हाथ बांधे खड़े थे। युक्ता का चेहरा पीड़ा से भरा हुआ था। सहारा देकर उसे पहली मंजिल से नीचे लाया गया। कामरेड अब भी इस बात पर टिके थे कि डेट तो पंद्रह की दी गई है।

रागिनी ने समझाया, ‘अरे भाई वह डेट तो नौ महीने के हिसाब से गिनकर दे दी जाती है। इसे पत्थर की लकीर क्यों मान रहे हो। बेबी तो प्रीमेच्योर भी पैदा हो जाते हैं।’

‘मेरा मतलब है कि कल डिलेवरी होती तो अच्छा होता।’

 ‘क्यों भई?’

कामरेड असली बात को गोल कर गए। चश्मे में छिपी अपनी छोटी आंखों को और छोटी करते हुए इतना ही कहा, ‘आज आने वाले को हम रोक थोड़ी लेंगे।’

‘आप क्या कह रहे हैं, हमारी समझ में नहीं आ रहा।’ रागिनी अबूझ होकर बोली।

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  दुनिया जानती है कि नर्सिंग होम की कहानी तो सेट होती है।

 युक्ता को लेकर अंदर ले जाने वाली स्थूल नर्स ने दस मिनट बाद ही लौटकर पेशेवर फिक्र के साथ कह दिया कि ‘नाल बच्चे के गले में फंस गई है। सीजेरियन करना पड़ेगा…। और कोई ऑप्शन नही है…।’

इतना सुनते ही जन्मजात कामरेड ने बगावत कर दी, ‘गांव मे कहीं नाल फंसती है। हमारी अम्मा के भी चार बच्चे हुए, कहीं नाल नहीं फंसी। आप लूटते हो..पूरा सिस्टम ही चुरकट है…मन करता है बम फेंक दें…।’

हल्ला सुनकर मरदाने कद वाली डॉक्टर मालती गर्ग बाहर आ गई।

 ‘ बेबी की लाइफ का सवाल है, हम नेचुरल ही ट्राई कर रहे हैं। लेकिन टाइम गुजरने के साथ बच्चे की धड़कन कम पड़ती जा रही है। आपकी च्वाइस है….। एक घंटे आप इंतजार कर लो…। लेकिन लिखकर दे दीजिए कि किसी भी इंसीडेंट के लिए आप ही जिम्मेदार होंगे।’

 कामरेड माथा पकड़कर रो पड़े, ‘अरे बपई रे… कैसी डेमोक्रेसी है…’ उनकी असहायता देखकर रागिनी ने कहा, ‘थोड़ा विश्वास करना पड़ेगा। वक्त मत बरबाद कीजिए अपनी कंसेंट दीजिए।’

 काउंटर में अदालती स्टाइल में उनकी पुकार हुई- ‘सर आप पैसे जमा कर दीजिए।’

 हारे हुए योद्धा की तरह कामरेड टिल्लन ने कलेजे के टुकड़े जैसे चालीस हजार जमा किए। नैनों में नीर भरे, एक फार्म पर दस्तखत किए। रागिनी ने उनकी हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘आप हिम्मत रखिए। डाक्टरों के आगे हम कुछ नहीं कर सकते…।’

 इतने में चंद्रकेश भी आ गया। कामरेड की रुआंसी सूरत देखकर वह भी थोड़ा उदास हो गया। पर रागिनी ने कहा, ‘डोंट वरी, इतना तो होता है। आप भी अपने को याद करो।’

                   ————————————

इतिहास बनने में सिर्फ आधे घंटे लगे। सबकी नजरें उस बड़े से शीशे वाले दरवाजे की ओर टिकी थी, जहां से सिर्फ डाक्टर और नर्स ही जा रहे थे। कामरेड मन ही मन गिनती गिन रहे थे, जैसा कि अक्सर वे मैट्रो का इंतजार करते हुए गिनते थे। एक से हजार तक वे गिन चुके थे। ग्यारह सौ के पहले ही हंसमुख-सी मलयाली नर्स सफेद तौलिए में लिपटे बच्चे को लिए निकली। कामरेड की जान में जान आ गई। नर्स ने कांग्रेचुलेशन कहते हुए बच्चा रागिनी की ओर बढ़ाया तो उसने कहा, ‘ इनकी गोद में दो।’ रागिनी ने हंसकर इतना जरूर पूछा, ‘लड़का है या लड़की?’

नर्स मुस्कराई ‘प्यारा सा जापानी गोलू है, ब्वाय…।’

कामरेड उत्साहित होकर बोले, ‘हमें मालूम था लड़का होगा। ’

रागिनी ने भौहें चढ़ाईं, ‘कैसे मालूम था? आपने बेईमानी की इसका मतलब?’

कामरेड पकड़े गए। शर्माते हुए बोले, ‘एक ही बच्चा चाहिए था। तभी तो नाम भी तथागत पहले ही रख दिए थे।’

नर्स ने हंसकर कहा, ‘अब जाइए बच्चे को फीड करने का इंतजाम कीजिए। मैम आप ही बता दीजिए इन्हें….।’

 कामरेड चकराए से इधर-उधर देखने लगे, ‘बच्चे की मां कैसी है…? वही ना फीड कराएगी…?’

रागिनी ने कहा, ‘मां तो अभी एनेस्थीसिया के असर में है ना। टांके लगे हैं….। जाइए बोतल वाले वाले दूध का इंतजाम कीजिए। अभी तो आपको ही मां का रोल करना होगा…।’

दस मिनट पहले धरती पर आए तथागत को गोद में लिए कामरेड टिल्लन आजाद पहली बार पूरे सफेद दांत दिखाकर ऐसे मुस्कराए जैसे जीवन का पहला और सबसे बड़ा मोर्चा फतह करके आए हों।

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