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बारिशगर स्त्री के ख्वाबों , खयालों, उम्मीदों और उपलब्धियों की दास्तां है!

प्रत्यक्षा के उपन्यास ‘बारिशगर’ में किसी पहाड़ी क़स्बे सी शांति है तो पहाड़ी जैसी बेचैनी भी। इस उपन्यास की विस्तृत समीक्षा की है राजीव कुमार ने-

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प्रत्यक्षा का उपन्यास “बारिशगर” वैयक्तिक संबंधों के उलझे हुए अनुभव जगत का आख्यान है। विभिन्न कथा युक्तियों द्वारा उपन्यास की कहानी में ऐसे स्पेस का सृजन हुआ है जो प्रेम का आंतरिक रूप या बाह्य का बिखरा हुआ एक रेखकीय रूप ही पेश नहीं करता बल्कि बहुआयामी व्यापक शक्ल अख्तियार कर लेता है। स्त्री और उसकी चरित्र निर्मिति के जितने व्यापक आयाम हो सकते हैं प्रेम की विशद दुनिया में, उन सबों को समेटने और अद्वितीय भाषा में उसे प्रस्तुत करने का सफल प्रयास हुआ है। भाषा और कथ्य में अतिरंजना से बचने का लेखिका का सायास उपाय परिलक्षित है और कहने के रागात्मक शिल्प में लय और कथा के सुर को प्राथमिकता दी गई है।

स्त्रियों की स्वतंत्र अस्मिता के लिए कोई ज़िद नहीं यहां, न ही बरक्स कोई पुरुष पात्र या व्यवस्था खलनायक है, न ही किसी मुक्ति स्वप्न की भ्रामक स्थिति है यहां स्त्री पात्र ही अपना संसार रचती हैं और उसे चलाने के लिए श्रम और स्वतव का त्याग करती हैं । तीनों स्त्री पात्रों, इरा और उसकी दो बेटियां दीवा और सरन की कथाओं की अलग अलग गतियां और स्थितियां पुष्पित होती हैं, संवेदनात्मक विस्तार भी पाती हैं, परन्तु इस तरह मिली हुई हैं कि कब कहां किसकी संवेदना किसी दूसरे की कहानी में उतर जाती हैं और विन्यस्त हो जाती हैं पता ही नहीं चलता।  हर कोई अपनी प्रकृति, अपनी वेदना अपना सौन्दर्य लिए दूसरे की ज़िन्दगी में बहुत तेज़ आवा जाही करती हैं, नए और रिस रहे इल्जामों के साथ । सिसकियां दबे पांव आंखों में से होकर  हूक होती हुई दिल में उतरती हैं , पद चाप  नहीं सुनाई देते;  पात्रों के चेहरे पर उनके कदमों के निशान होते हैं।

सहरा में, रेत पर, बियाबान में जीवन की उम्मीद बची रहती है। नए पौधों को बढ़ने के लिए नमी चाहिए, बादल बहुत ऊंचे न जाएं ज़मीन छोड़कर  तो बूंदें बरसेंगी  और जीवन हरित होगा।  सब ओर पत्तियां लहलहा उठेंगी।  सब ओर पीले फूल खिलने हैं । घर को होना है फिर से आबाद।   असाध्य और अनवरत श्रम और संघर्ष  को जीवन बना चुकी स्त्रियां बारिशगर हैं यहां। दूर देश की सहयोगी को तमाम उलझनों के बाद भी जीवन साथी बना लेनेवाला विदेशी बारिशगर है यहां।  बरीशगर हैं कर्नल और बिलास।  कर्नल अपनी मृत्यु के बाद भी घर के रूप  में ढलकर वक़्त बदलने नहीं देता और बिलास सूक्ष्म प्यार की डोर थामे शनै: – शनै: मंज़िल तक पहुंचता है।

बारिशगर की सफल किस्सागोई में बेटियां मां को अपने संताप का गुनहगार कभी – कभी मानती हैं,   फिर सोच के ही स्तर पर भाव बदलते हैं। स्मृतियों के प्रसंग बदलते ही कभी उन्हें लगता है मैं मां के लिए बहुत अनुदार हूं।  लेखिका ने इस बारीकी को अभूतपूर्व तरीके से उपन्यास में जिया है। घटनाएं कभी बहुत तेज़ी से कभी बहुत ठहरकर व्यक्तित्व की संगति बैठाती हैं जीवन से ।  उनको भी मुख्य धारा में रखती है जो सब कुछ खो चुकीं, उन्हें भी जिन्होंने जीवन पर पकड़ ढीली नहीं होने दी है। एक अति सामान्य जीवन जी  रहे पात्रों के मनोविज्ञान से जुड़ी संवेदनाओं और प्रवृत्तियों से बेहतरीन कहानी का सृजन करती हैं लेखिका।

नायिका : अस्तित्व और ख्वाब की खोज

दीवा  उपन्यास बारिशगर की नायिका है। ज़िन्दगी और कहानी के हर उतार चढ़ाव की भोक्ता। घर छोड़ती है बुरा होने के बाद अपने को संभालते हुए, लौटती है बुरा को पीछे छोड़ने के बाद। गुजार दिए गए बुरे समय को अतीत में डाल देने के बाद दीवा घर लौटती है, जहां वह उन पन्नों को पलट सके, कुछ साक्ष्य के साथ, जहां सब कुछ है उसके बीते हुए समय के लिए, उसके लिए । दो पीढ़ियां उसका इंतज़ार कर रही हैं।   वह सब कुछ, जो छोड़कर वह अपना भविष्य खोजने गई थी, वर्षों से मुन्तजिर हो जैसे।  एक रहस्य और यूटोपिया बन गया घर, आदमी और वजह खो देने के बाद भी बची हुई है आस। मैंने घर बदला, जुबेदा आंटी छूटीं, शहर छूटा। मैंने नौकरी बदली। पुराने सब तालुकात छूटे। नए शहर में मैं लापता लिफाफा थी जिसका कोई ठौर नहीं ।  दीवा ने दिनों में अपने को संभाला है, शाम ढलते ही बिखरना शुरू होती है और देर रात तक बिखरकर ढेर हो जाती है।

दीवा की यह यात्रा लेखिका प्रत्यक्षा  की सृजन यात्रा के साथ है। ऐसा किरदार जिसके साथ लेखिका सफर पर हो जैसे और आप वृत्त चित्र देख रहे हों। प्रत्यक्ष नरेटर नहीं, भोक्ता की तरह दिखती हैं, जैसे कि वही थी जिसके साथ बूझ गई नीली रोशनी और गंध से भरा कमरा है।

अब मैं कुछ नहीं थी, बस एक अकेली लड़की, एक टूटी बिखरी हुई आत्मा। सड़कों पर भटकती दीवारों से सिर पटकती। एक बिखरा हुआ, टूटा हुआ  यायावर दुनिया में अपना खो चुका वजूद खोज रहा हो जैसे। मेरी दुनिया सरल नहीं थी , उसमें ढेर सी गांठे थीं,  एक सुलझाती दूसरी उलझ जाती।  मैं अपने मन में नहीं थी, अपने आपे में नहीं थी । मेरा समय ठहर गया था।

बारिशगर स्त्री के ख्वाबों , खयालों, उम्मीदों और उपलब्धियों की दास्तां है, जहां स्त्री होने की दबी टीस से बड़ी प्रवंचना है अपनी शर्त पर नहीं जी पाने और अपने जैसा सब कुछ नहीं रच पाने का यथार्थ – बोध । दौर है आईडेंटिटी को प्रमुखता देनेवाला और भंगिमा है नायिकाओं की फिसलती ज़िन्दगी में स्वयं की अस्मिता बचा लेने वाली। लेखिका के पास कथानक की दुहरी चुनौती है पर उतनी ही मुस्तैदी से उसका निर्वहन होता है । प्रत्यक्षा सारी लेखकीय चुनौती का सामना सफलतापूर्वक करती हैं। बारिशगर  के स्त्री पात्र अपने परिवेश को अपने निजी अनुभवों के मानकों पर ग्रहण करते हैं और उन्हीं अनुभवों के आधार पर  अन्य पात्रों और परिस्थितियों से रिएक्ट भी करते हैं।

ये  पात्र जैसे हैं, वैसा इनका होना आत्मकेंद्रित लग सकता है, समष्टि से अपने हितार्थ अभीष्ट खोजते हुए दिख सकते हैं, पर जलती बुझती जिजीविषा से सामर्थ्य ढूंढ़ लेना, अंदर तक घुस आई प्रकृति से प्राणवायु खींच लेना रेजा – रेजा;  प्रत्यक्षा के किरदार बखूबी जानते हैं। जो देर तक बेकरारी में  छत देखता खो गई नींद ढूंढ रहा हो किरदार  ; अगले ही पल बाल नायक बाबुन में ज़िन्दगी  ढूंढ लेता है।

दीवा कहती जाते है। सामने पर्दे पर एक फिल्म चलती हो जैसे। जिसका स्क्रिप्ट  सालों के परिश्रम से मढ़ा हुआ हो जैसे। लेखिका अभी अभी एक फिल्म देखकर लौटी हो जैसे । और उसने दृश्य बताना शुरू किया हो जैसे। लोगों की आंखें चुभती थी।  एवरीबॉडी थॉट आई वास अवेलेबल। एवरीबॉडी थॉट दे कुड स्लीप विद मी । यह बड़ा शहर था जिसकी चमक दमक में मैंने सोचा था कि मोरल पुलिसिंग नहीं होगी।  मैं गलत थी । सारा लिबरलिज्म सुपरफिशियल था।  जरा खरोंचों तो भीतर का पुरातन पाखंड बल बल आता हुआ बाहर आता एवरीवन जस्ट मी।  एक बहुत छोटी सकरी सी दुनिया थी जहां यह फ्री ओपेननेस था। इस बुलबुले के परे दुनिया वही सौ हज़ार साल पुरानी दुनिया थी।  मैं ही गफलत में थी, मैंने ही ज्यादा उम्मीद पाल ली थी। मुझे ही लगता था यह सब मेरी व्यक्तिगत स्पेस की बात। दूसरे कौन इसमें ताक झांक करने वाले।  लेकिन यहां सब को पड़ी थी।

प्रेम और मृत्यु की उपत्यका

पूरे उपन्यास में कर्नल की मृत्यु की प्रतिध्वनि है प्लेन क्रैश करने और कर्नल के मृत्यु के सांघातिक हाथों से छिन जाने की अनुगूंज है तो मां बेटी के रिश्तों और उचाट मौसमों में घर से बाहर देख रही आंखों और चेहरों पर उसका स्पष्ट  और प्रत्यक्ष प्रभाव।

इस मृत्यु की उपत्यका में किरदारों के घने पेड़ सृजित हैं। इस मृत्यु ने इरा को बेहद कमजोर किया है तो सरन जो मातृ गर्भ में थी उसे अपने होने और उपादेय बने रहने की बौद्धिक ज़मीन दी है। दीवा पिता की मृत्यु और उसके जीवन की उलझनों को दार्शनिक स्तर पर डील करती है, प्राणवायु ग्रहण करती है। लेखिका इस मृत्यु के कई रूपक रचती हैं, मृत्यु के बाद पिता कैसे घर में तब्दील हो जाता है, अपने आस पास होने का उम्र भर अहसास कराता है यह विलक्षण प्रतिमान उपन्यास का शिल्प संबंधी बड़ा हासिल है।

उपन्यास की सशक्त नायिका इरा मृत्यु के इस मानवीकृत और  एहसासों में पुनर्जीवित हुए स्वरूप से बार बार टकराती है, संवाद करती है।  उसे भान कराती है अगर तुम अपने  पहले स्वरूप में होते तो तुम्हें मेरी ज़िम्मेदारियों को याद दिलाते रहने का एक काम करना होता। अपने हारते जाने का अहसास है उसे, उसका संघर्ष बड़ा हो जाता है इन एहसासों की समीक्षा बीच बीच में करते रहने से और मृत्यु के बाद भी आसपास जीवित हो गए अस्तित्व से टकराकर। दीवा को इंगित करते हुए वह कहती है मैं किसी के लिए पूरी न पड़ी। न तुम्हारे लिए, न सरन के लिए। आप फेल्ड एवरी बॉडी। इरा के कंधे हिल रहे हैं आवेग से। कर्नल, मैं हार गई। कोई जिम्मेदारी ढंग से संभाल नहीं पाई।

सरन के चरित्र की उलझन कथा का सौन्दर्य भी है, मजबूत पक्ष भी। मां बेटी का प्रेम, विलास और सरन का प्रेम उलझनों के चरम बिन्दु हैं, कथा जिसे प्रवाह देती है। इरा जाने किस दुनिया में रहती है।  इरा के पास सरन के लिए कहां समय। सरन रात में सोचती है,  मैं दीवा की तरह सुंदर होती तो मां मुझे प्यार करती शायद।  मेरा रंग इतना दबा हुआ है, मैं इतनी दुबली हूं, मेरे नक्श इतने साधारण । अपने सौंदर्य को लेकर अतिशय संवेदनशीलता को सरन के चरित्र में शामिल करके लेखिका ने उसके किरदार को और अधिक निखारा है। मैं कभी इरा की तरह और दीवा की तरह सुंदर नहीं होऊंगी।

प्रेम सबसे ज्यादा जटिल, संशलिष्ट और कठिन पहेली है, जिसे सुलझाना बहुत ही मुश्किल रहा है सभ्यता की यात्रा में। इस गुत्थी को जितना सुलझाने की कोशिश करो , यह उतना ही उलझती जाती है। प्रेम अधिकार मांगता है, ज़्यादा और ज़्यादा प्रेम किए जाने का। आवेग भंग कर देता है सहृदयता और सहनशीलता को। एक प्रेम से निकलकर दूसरे प्रेम में जाना दुरूह है,  इन रास्तों पर हर जगह बिछा हुआ चक्रव्यूह है। प्रत्यक्षा की नायिका दीवा “बारिशगर” में इस चक्रव्यूह का सामना करती है। विलक्षण उलझनों और चरित्र एवम पात्रों की जटिल संरचनाओं से गुजरते हुए इस नायिका का अलग जीवन परिचय होता है।

प्रकृति का चित्रण

बारिशगर में पेड़, नमी, पत्तों का व्यक्तियों से संभाषण एक साथ है। प्रकृति उलझती है चरित्रों से और फिर सिमट कर अपने आयाम ढूंढ लेती है। घास अपने मिथकीय स्वरूप में नहीं हैं बल्कि कभी कभी कोई भूमिका अख्तियार कर लेते हैं।  घास की जमीन पर नन्हे फूलों की बरसात है। लंबे चीड़,  देवदार, बलूत चिनार, विलो और सनोबर के पेड़ हैं कुछ साल के भी । उनकी बड़े छायादार पत्तियों पर धूप बरसती है । उनके रूखे तने पर उम्र के गोल घेरे हैं,  कहीं-कहीं तने और शासकों के बीच उनका रस रिसता है। भूरे पारदर्शी बुलबुले जैसी बूंदे जिनमें मीठी कसी महक होती है। जंगल अपने में स्थिर खड़ा है।  पेड़ बोलते हैं आपस में, उनकी पत्तियां छूती हैं एक दूसरे को।  उनकी सरसराहट में एक गीत है।  पार्श्व में बजता कोई सांगीतिक धुन।  चित्तियों सी धूप घास की जमीन पर गिरती है।  समय ठहर जाता है ।  ठहरा हुआ समय निरापद नहीं करता आगे के लिए एक गति या प्रवृत्ति को जन्म देता है।

गति और आवेग प्रकृति की पूर्णता को भी रेखांकित करते हैं और सूक्ष्म स्तर पर पात्रों की सोच को भी। दूर कहीं से पानी बहने की आवाज आती है, लगातार । एक छोटा पहाड़ी झरना है जिससे सफेद झागदार पानी बहता है कल कल।  फिर इकट्ठा होता है छोटे से बंद लगभग गोलाकार घेरे में और फिर वहां नाचता घूमता एक तरफ से बाहर निकलता है। उस गहरे पानी की दुनिया में नीचे चिकने गोल पत्थर हैं पानी वाली वनस्पति है, मछलियां है , कभी-कभी  मछलियां भी पानी की सतह पर धूप और आदमी  से अठखेलियां करती हैं , पानी के गिर्द लंबी घास और जंगली फूलों की झाड़ियां हैं।  कुछ जंगली झाड़ियों के पौधे हैं जिन पर तांबे पीलापन लिए लाल के बेर लटके हैं तितलियां पतंगे और भंवरों की बकराहट से दिन नशे में धीमे डोलता है।

प्रकृति उस घर में अपना अस्तित्व बनाती है जिस घर ने अपना रूप बदला है गृह स्वामी की मृत्यु के बाद। किरदार पेड़ों और शाखों को अपने अस्तित्व में गूंथा पाते हैं और चांद को अपनी दुनिया में झांकते हुए। कहानी के कहन को प्रकृति आवश्यक रूप से प्रभावित करती है। बाहर ठंडी हवा चल रही है। चांद जरा झुककर खिड़की से झांकता है । बिस्तर पर इरा और बाबून एक दूसरे को पकड़े नींद में है। घर जरा सा शिफ्ट होता है इतने धीमे कि उनकी नींद में खलल न पड़े।  फिर उसांस भरता है कि जिम्मेदारी से घर के लोगों की हिफाजत में है ।

बारिश थम चुकी है । सिर्फ पत्तों से बूंदें अभी टप टप गिरती हैं जैसे कमरे में उदासी गिरती है। प्रकृति संगीत है यहां, उसकी आवृति धुनों का सृजन  करती है और उसके अनुपस्थित होने पर किरदारों की मनःस्थिति प्रकृति की जगह घेर लेती है। सब कुछ प्राकृतिक रूप  से चलता रहता है।

शिल्प : लयबद्ध कथ्य

पूरे उपन्यास में हर पात्र खिड़की से बाहर कुछ देखता है। यह देखना यांत्रिकी नहीं, महज एक दृश्य देखना नहीं है। दृश्यों की अवली चल रही है। श्रव्य दृश्य बिम्ब हैं, एक वॉयलिन सा बजता हुआ प्रकृति का संगीत। दृश्य बिम्ब के जरिए कथा के उस हिस्से को लेखिका अचानक सघन कर जाती हैं और बहुत सधे हुए चालाक कदमों से कहानी को गति भी देती हैं।

नए उपन्यासों में हिंदी उपन्यास का शैल्पिक संभार पूरी तरह बदला हुआ है। नवीन कथा – युक्तियों का प्रयोग करहिंदी उपन्यास की बनत को पूरी तरह बदला है। प्रत्यक्षा ने बारिशगर में नए शिल्प प्रयोगों से उपन्यास शिल्प को नूतनता प्रदान की है। उपन्यास की कथन शैली में बड़ा परिवर्तन किया है।

भाषा यहां महज मानवीय संबंध और संवाद का माध्यम नहीं, वह पात्रों की चेतना और उसकी गतिविधियों का भी माध्यम बानी है। उसकी लय कथा के लिए अनुराग उत्पन्न  करती है और पाठक इस अनुराग और उसकी अन्विती में  नम होता रहता है।

स्मृतियों की अन्विति लय में होती है। सुर और राग अपनी  पकड़ ढीली नहीं करते। संध्या और परिवेश के पेड़ इस लय को साधते हैं पात्रों के मस्तिष्क में। प्रत्यक्षा संगीत की बारीकियों से रू ब रू हैं। पाश्चात्य संगीत का भी उन्हें तह तक ज्ञान है। संगीत का अकस्मात गहन मानसिक उद्वेलन में विशेषताओं के साथ कई बार आना  कहानी को बल देता है, जैसे श्रव्य दृश्य सामग्री में संगीत पिरोया हुआ हो। संगीत के भाव पक्ष का शिरा पात्रों की संवेदना से जुड़कर पाठक की आंतरिक दुनिया से जुड़ जाता है।

उपन्यास में अपनाई गई प्रस्तुतियों, प्रविधियों और नव शिल्प की संरचना को भाषा संबल नहीं दे तो उत्कृष्टता  का संकल्प स्खलित होता है।   भाषा संकल्प  और उत्कृष्टता के आग्रह को जीवित रखती है आद्योपरांत। “दीवा की आवाज कमरे में घुल रही है, अंधेरे को ओढ़ती, कभी कांपती, कभी गहराती, कभी बारिश, कभी धुआं,  कभी भीगे शाख पर कुकुरमुत्ता, कभी तेज  भूख में ऐंठती,   कभी हल्की सेमल सी उड़ जाती, कभी बरछी सी चोट लगाती, कभी हंसी की खिलखिलाहट छुपाती खुश, कभी वेदना से टूटती। यह रात किसी सम्मोहन की रात है।  एक तिलिस्म है। घर चुप डोलता है दुख में, यह तो होना ही था। कर्नल भी सुनते होंगे आसमान से, कहीं से या इसी घर के किसी कोने सांधी से या फिर इरा और दीवा के दिल के भीतर से।”

दरअसल घर ही कर्नल है।  कर्नल कहानी में मर जाने के बाद ज़्यादा है। हर संवेदना पर जागृत , हर कोलाहल को काम करता हुआ, अंधेरा होता दिख नहीं की सीढ़ियों के अस्तित्व को एक सांगीतिक उपस्थिति देता हुआ।  इरा नहीं जानती या शायद जानती हुई नहीं जानती है । इसका ज्ञान उसकी स्मृति की तहों में दबा है । जैसे सांस लेते आपको जाहिर नहीं होता कि आप सांस लेते हैं वैसे ही।  घर इरा के साथ होता है हर दुख में हर सुख में, बिना शोर-शराबे के, बिना गाजे-बाजे के, एक शांत ठहरी हुई आश्वस्ति में।

स्मृति, अस्मिता और प्रकृति का प्रत्यक्षा ने रचनात्मक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है, जिसके साथ कहानी  स्त्री पात्रों का दामन पकड़े उस इलाके में प्रवेश करती है जहां का नक्शा उसकी बौद्धिक संरचना की व्यापकता और गहनतम स्तर पर महसूस की जाने वाली संवेदनशील अनुभूतियों को मिलाकर बना है।

अध्याय विभाजन का सहारा लिया गया है। हर अध्याय का शीर्षक उसके केन्द्रीय संवेदन का प्रकटीकरण है। कथा प्रवेश  की अधुनातन बिम्ब – विधान प्रणाली और छूट गई शिराओं का अन्वेषण नए अध्याय में होता है। जो बिम्ब  पूर्ववर्ती आख्यानों में सिरजे गए उसका विधान कहानी की गति में बातों दूसरे बिंबों और कथा उपकरणों को देते हैं। जैसे आप एक लंबे काव्य – प्रबंधन का आस्वाद लेे रहे हों।

खिड़की से बाहर किसी दृश्य के किरदार अतीत से कुछ लेकर अपनी आंखें नम कर लेते हैं, आंसू  आंखों से ढलक कर खिड़की से बाहर पेड़ पर चढ़ जाते हैं, पत्तियों से होते हुए थोड़ी और नमी लेकर दूसरे छोर पर खड़े पात्र के सीने में उतरकर जम जाते हैं, इस पूरी प्रक्रिया में दूर से आती हुई रागों की ध्वनियां गुंथी होती हैं, लेखिका इस वाचन पद्धति  के उत्कर्ष पर हैं “बारिशगर” में। बगान में उतरकर जाते हुए किरदार बात करते हैं, बारिश के आसार , हवा सिली सिली थोड़ी नम होती हुई , पाठक भींगता जाता है अंतस तक। कथा चलती रहती है। दुख का लय सांगीतिक उपस्थिति मात्र नहीं है, प्रतीक्षा इस लय का शिरा किरदारों को पकड़ाकर दूर खड़ी होती हुई संगीत निर्देशन करती हैं,   इस अचूक पार्श्व संगीत निर्देशन का क्राफ्ट कहीं लय को बाधित नहीं होने देता।

अब तक का साहित्यिक परिदृश्य यही बताता है कि पुरुष  लार्जर दैन लाइफ के रोल में जब हों तो स्त्री पात्र को उसके बरक्स खड़ा करके कंट्रास्ट रच कर  कहानी को लेखक उत्कर्ष तक लेे जा सकता है। यहां पुरुष या स्त्री कोई पात्र लार्जर दैन लाइफ नहीं पर कहानी का ताना बाना, प्रतिक्षण नवीन और संवेदी घटनाक्रम, पात्र से संबद्ध अंतर्वस्तु और  नाटकीयता को उत्कर्ष देता है। इरा, दीवा और सरन तीनों स्त्री पात्र कहीं – कहीं  अचानक कमजोर स्त्रीयोचित भावनात्मक पक्ष का प्रतिनिधित्व करती दिखती हैं ,  भेद्य और भावनात्मक हिंसा का शिकार भी दिखती हैं परन्तु अगले ही क्षण उनका विराट संघर्ष का मानस, उनका आंतरिक सौन्दर्य, उद्दाम साहस कहानी  में अपनी ज़मीन पकड़ लेता है और कथ्य और मजबूत होकर उभरता है। प्रत्यक्षा स्त्री मनोविज्ञान की साधक बन कर फिसलती ज़मीन पर उपन्यास का रास थामे चलती हैं।

बिलास, कुमुद और सरन : पहेली

बिलास भी एक बारिशगर है। उसे उजड़े हुए दयारों में खुशियों की बारिश करनी है, जीवनकाल सकता है इतने के बाद भी उसका अहसास कराना है। कर्नल जो मृत्यु के बाद घर में परिवर्तित हो गए हैं, उस घर में आया किरायेदार है  बिलास । घर बिलास में सुकून तलाश करता है। सरन भी बिलास में जीवन देखती है। कुमुद एक स्मृति के जरिए बिलास को झकझोरने अाती है। वह अतीत है, जो वर्तमान सरन को विलास के जीवनमें प्रवेश की गुंजाइश देती है। कुमुद के लिए जब सोचता है तो उसमें अतीत से विलग हो जाने का खुमार है, वह आसानी से उस खुमार से अलग नहीं होता। सारे जुनून, सारा वहशीपन, सारी बेचैनियां तुम्हारे हिस्से की थीं। सारी ठहराई ,सब इत्मीनान मेरे तरफ की थीं । कई बार तुम्हारे पागलपन पर मैं खुश होता, कई बार इतना बेजार कि भाग निकलने की इच्छा होती। ठहरना उसे था, तेजी से निस्पृह भाव से निकल जाना कुमुद को था। और तुम गई। मैं रह गया – बचा हुआ, बिखरा हुआ, टूटा हुआ। तुम मेरी दुनिया से गायब थी। और यकबयक मेरी दुनिया मुझसे गायब हुई। और फिर सरन बांहों में ले जाती है। बिस्तर पर लेटाती है, पांव से जूते खोलती है।

लेखिका बिलास और सरन के प्यार को होता हुआ खुद भी महसूस करती हैं । पाठक लेखिका की इस अनुभूति को जज़्ब करता है। विलक्षण प्रेम की अनुक्रमणिका निर्मित होती है। यह प्यार उन्हें मुकम्मल कहानी के लिए तैयार भी करता है, लेकिन अंत तक यह कहानी अवांतर  दिशा लेे लेती है। कोई  मुकम्मल बयान नहीं बन पाती है और कहानी चलते चलते मुख्य नाईका के आख्यान का हिस्सा हो जाती। है। एक  संभावना भरे प्यार की छाया पूरी कहानी में हर जगह रहती है लेकिन अपनी जगह नहीं बना पाती। उसके अब्स्ट्रैक्ट्स और छोटे कंस्ट्रक्ट कहानी को गति देते हैं, जटिलता को समझने का रास्ता आसान करते हैं।

प्रेम अव्यक्त प्रसंगों का समाहार करता है। स्पष्ट कुछ भी नहीं, और जो छुपा है वह भी दोनों को मालूम है कि हमारे बीच क्या छुपा है। रात में बीच-बीच में सरन उठ कर बिलास के कमरे में झांक आती है। कभी रजाई नीचे गिरी है और बिलास सिकुड़ कर सोया है, कभी सिर तक रजाई ताने पसीने में डूबा है, सरन उसका पसीना पोंछ देती है, चादर बदल देती है, पानी पिलाती है, फिर अपने बिस्तर में दुबक कर गहरी नींद सो जाती है।

बिलास कोशिश करता है जितना बाहर रहे । जितना सरन से दूर रहे। सरन की आंखें उसे देखती कैसी उदास आंखें हो जाती हैं। सरन मुझ तक न आओ। मुझसे कोई उम्मीद न रखो।  मैं खुद से भी कोई उम्मीद न रखता । आई एम ए नो व्हेयर मैन।

घर जैसा घर था वैसा नहीं था जो भीतर से था वही बाहर से नहीं था । भीतर वाला घर कर्नल था बाहर वाला घर विलास, अव्यक्त, अतीतजीवी, प्रेम को छुपाते हुए सहमा हुआ। बाहर से दिखने वाला घर अलग था, थोड़ा थोड़ा पहाड़ों के घर जैसा। भीतर रहकर दिखता घर कुछ और था।  जैसे सरन थी। बाहर से पतली सांवली कटे बाल वाली । भीतर से बड़ी बड़ी, बहुत बड़ी, बहुत उदार बहुत सब कुछ । इतना सब कि उसकी सांस रुक जाती सोचते।

सरन हमेशा पीछे छूट जाती है।  छूट जाना चाहती है। कपड़े के झोले में फुर्ती से सामान भरती सरन पक्की गृहस्थिन बन जाती है। सरन घर को चलाती है। अपनी मां का आधा हिस्सा है वो। मां को अपने अतीत में विचरने देती है  और भविष्य की बेहतरी का आवाहन करते करते अपनी उम्र से अधिक  की हो जाती है। अरसे बाद  धूप का निकलना शरीर में फुर्ती भर देता है बाहर नाश्ते की खटपट की जानी पहचानी आवाज़ है। कुछ ऐसी आवाजें सरन के किरदार में विन्यस्त हैं। लेखिका इन आवाज़ों को कभी कभी जीवंत किरदार बनाकर छोड़ती हैं फिर समेट लेती हैं।  आवाज को पतंग बनाती  हैं लेखिका । सरन जानती है जब तक उसका हाथ न लगे इरा दस चीजों की शुरुआत करेगी, खत्म कोई न होगा।

सरन और मां का रिश्ता बुनने में लेखिका ने नए टूल्स इस्तेमाल किए हैं। प्रतिद्वंदिता और हमेशा व्यक्तित्व को स्कैन करते रहने की कोशिश। अद्भुत प्रसंगों से सरन के किरदार को गुजारती हैं लेखिका प्रत्यक्षा । सरन एक नजर में सब देख लेती है। “उसने अब तक कोई मर्द ऐसे नहीं देखा है । उसने अब तक कोई औरत तक ऐसे नहीं देखी है । इरा चाहे जितनी बेफिक्र अलमस्त हो,  सरन ने अब तक उसके घुटने नहीं देखे हैं, उसकी नंगी बाल नहीं देखी है,  उसकी छाती नहीं देखी है।  सरन ने अब तक सिर्फ बाबुन देखा है। उसकी मीठी महक सूंघी है, उसके बचकाने सेव से नन्हे गोल-गोल मुलायम बम्स देखे हैं उसकी छोटी भोली पिप्पी देखी है । अब बाबुन भी देखने कहां देता है। इसरार करता है कि नहलाते वक्त  तौलिया लपेटे रहे। सरन को हंसी आती है । बित्ते भर का छोकरा और इतना नखरा।”

कपड़ों से ढका बिलास हरियल दुबला लगता है ।  सरन बिलास  को प्रेमी रूप में भी देखने लगी है और हमदर्द भी,  जिस पर भरोसा हो। कपड़े उसके कंधों से ऐसे गिरते हैं जैसे उनके भीतर ठोस कुछ न हो । उसके चेहरे पर दो दिन की दाढ़ी, उसकी लंबी  उंगलियां , उसका लंबा कुछ झुका  कद,  उसके बड़े बड़े डग जैसे कहीं जल्दी पहुंच जाने की बेचैनी हो,  उसका लंबे समय तक बिना बोले बिना हिले स्थिर बैठना जैसे जहां हो वहां सांस रोके इसलिए बैठा हो एक सांस भर की हलचल अगर हुई तो उसकी हड़बड़ बेचैनी उसका दम तोड़ देगी।  इन सब में सरन को वह किसी और समय का प्राणी लगता था।  जैसे उसका होना भी न होना था।  कि वह रहकर भी कहीं और का था। एल्सव्हेयर ऑलवेज। उसका शरीर उसके चेहरे के मुकाबले आश्चर्यजनक रूप से जवान था। सरन उस एक पल की हैरानी में अपने भीतर की किसी और लड़की को भी देख रही थी।

सरन की हथेली गर्म है। मुलायम है।  अपनी गरम हथेलियों से नरम पड़ गए जीवन को स्पंदित रखना चाहती है सरन।  सरन का किरदार दीवा के बरक्स एक गंभीर शख्सियत खड़ा करने की कोशिश है। शायद जीवन ऐसा ही होता होगा, नरम मुलायम शायद विलास का जीवन हमेशा रुखड़ा रहा है। ऐसी नरमी उसकी किस्मत में कम रही है।  अचानक से कुमुद के अनुपस्थित चरित्र की आवाजाही। कुमुद के दिनों में भी नहीं।  फार्म पर उसे आभास है सरन के दुलार का। कुमुद के साथ दुलार कभी नहीं था। एक आग थी, एक जुनून था, शरीर की तीखी भूख थी और उसके चले जाने के बाद आहत अहम था, रिजेक्शन की तकलीफ थी।  बिलास सोचता है – मैं इतना बर्बाद क्यों हुआ आखिर। जब कुमुद थी उसे परे हटाता,  उसकी बेकद्री करता। जब गई तो मेरे भीतर कौन सी जगह में बिना जाने सेंध लगा अाई थी । उस जगह का खालीपन भरता नहीं।

इरा : मां का सनातन संघर्ष

इरा  जिस्म नहीं देखती, रूह की यात्रा पर अकेली होती है, उसे कर्नल को घर के रूप में जीना है, उसी  घर में जीते जाना है।। बेटी केअच्छे समय की प्रतीक्षा करनी है। इरा नहीं देखती सरन को । इरा जीवन को देखती है। जीवन के विभिन्न रूपों को और मंज़िल तक के इंतजार को। इस खिड़की के बाहर आसमान के टुकड़े को देखती है, जहां बादल के फाहे हैं, चिड़ियों का कोई झुंड है, किसी बकरी का मिमियाना है। एक जीवन है जो सब तबाह हो गया है। उसमें सुख की कोई उम्मीद नहीं है, असम के जलते जंगल हैं , एक जलता विमान है जिस के टुकड़े जाने मीलों तक फैले हैं और उन सब के बीच कहीं इरा यो भटकती है, पागलों सी। जब जब स्थिर बैठी होती है, तब तब भटकती होती है।  इतना की तलुए फट जाते हैं, शरीर क्लांत हो जाता है, दिमाग सुन्न।

मां बेटी के सह जीवन की, इस दारुण दुख के सायों में, अलोम हर्षक अभिव्यक्ति हुई है बारिशगर में। मां बेटी के बीच स्वत: पैदा हो गई है एक अतिरिक्त पोजिशनिंग की मनःस्थिति। एक के व्यवहार के आकलन से दूसरी अपने को संयत करती है। सरन होती है तो मालूम नहीं होता सरन है। जब अलबत्ता नहीं होती,  तब उसके होने की कितनी अहमियत होती है। छाती में एक चीत्कार उठती है। लगता है बदन से सारी शक्ति चूक गई। सरन होती है तब एक एक्सटीरियर बनाए रखना होता है सरन के जाते ही सारे प्रिटेंस खत्म हो जाते हैं ।

इरा के भीतर का सब गुमान खत्म हो गया है। इस घर में ऐसे रहती है जैसे पूरा घर एक इंतजार हो। और बेचारी सरन जिसने बाप को सिर्फ तस्वीरों में देखा या दीवा जिसने देखा पाया और फिर जो उसके जीवन से खो गया – किसकी तकलीफ ज्यादा है ? उसकी जिसने प्यार का स्वाद ही न चखा या उसकी जो जानता है कि उसने क्या खोया। इरा लेखिका की सहानुभूति पर काबिज है पूरी कथा में।

नशा और नायिका

घर सब जानता है । घबराता है । किसे बताए? कैसे बताए? कि उस ऊपर वाले कमरे में रात को नशीला धुआं भरता है मीठा, कसा। दीवा स्कूल के दिनों से ही नशे के फिक्र में पड़ जाती है जीवन का  नशे का पहला पाठ वह स्कूल में ही सीखती है और इसे पापा के गुजर जाने के बाद के लोनलीनेस में जोड़कर देखती है।

नैतिकता को तिलांजलि नहीं देती दीवा, न ही मूल्यों को ताक पर रखती है। मूल्यों का विघटन, लड़कियों को मिली आजादी इतनी औचक और आकस्मिक है कि वे उसे संभाल नहीं पा रही हैं और उस आजादी के बहाव में बही चली जा रही हैं।

स्त्री अपनी मानसिक और दैहिक स्मृतियों को अपने चेतना तंत्र से चाहने भर से समाप्त नहीं कर सकती। जो संताप देह की विरुदा वलियां हैं, उनका परिमार्जन देश, परिस्थिति या परिवेश बदल जाने मात्र से नहीं होगा। दीवा अपना दैहिक ताप शमन करने की कोशिश में घर लौट नहीं सकी। नशे की लत ने व्यक्तित्व पर चोट पहुंचाई और फिर आकस्मिक मातृत्व ने  घर लौट सकने के रास्ते बंद कर दिए।

मानव समाज का इतिहास गवाह है कि प्रेम विभिन्न प्रकार की रूढ़ियों और वर्जना उसे मुक्ति का एक महत्वपूर्ण माध्यम पहले भी रहा है और आज भी है। इसलिए सभी समाज व्यवस्था में कलाकार प्रेम को स्वतंत्रता और सुख की खोज का माध्यम बनाते रहे हैं। साहित्य में प्रेम के वायवीय और अशरीरी रूप की अभिव्यक्ति को सब स्वीकार करते हैं उसे आत्मिक प्रेम कहते हैं लेकिन प्रेम में जहां शरीर आता है वहीं से उसका विरोध शुरू हो जाता है। ऐसा विरोध केवल आत्मवादी ही नहीं करते कुछ यथार्थवादी भी करते हैं ।  दीवा नैतिक वर्जनाओं को तोड़ती है। न सिर्फ प्रेम शरीरी है, बल्कि नशे के उन्माद में लिया गया फैसला है, मातृत्व इसका प्रतिफल। स्खलन के इन कथानक  विपर्यय वाच्यानुभूती के बाद भी नायिका का फिर से सफल जीवन को पाने का साहस  उपन्यास का हासिल है।

लेखिका स्त्री की निजी और सौन्दर्य मूलक विशिष्टताओं का लोप नहीं होने देना चाहती हैं। रिमोर्स का कंस्ट्रक्ट स्वछंद यौनिकता में शामिल है। नायिका का पश्चाताप दरअसल लेखिका का सघन मानसिक विश्लेषण  के लिए खड़ा किया गया अवरोध है, जो  अपने आप में कहानी के बड़े हितार्थ की तरफ इंगित भी है।

देह की स्वछंदता, नशे में होने का मर्दाना अंदाज़ , बेखौफ  गाली गलौज की भाषा पर अगले हो क्षण अपने प्यार को कस कर पकड़े रहने कि इच्छा वास्तविक शहरी उद्धत जीवन का चित्र पेश करती है। यह जद्दोजहद और संगीतमय प्रवाह उपन्यास का हासिल भी है।

नैतिकता और एकनिष्ठता अगर मूल्य रूप में नहीं हैं तो संकोच और संवेदना नहीं रह जाएगी। संवेदन हीनता अवरोध और रुकावटें खत्म कर देंगी। मल्टिपल लव कंस्ट्रक्ट खड़े हो जाएंगे फिर। दीवा एक रिश्ते के असफल हो जाने के बाद दूसरे रिश्ते में जीवन तलाश लेती है।

इरा दीवा से मुखातिब है। इतनी तकलीफ में भी तुझे मेरी याद नहीं आई यह मेरी कमी हुई दीवा।  दारोश तुझे छोड़ गया तब तुम मेरे पास आ जाती बच्ची।  मैं तुझे प्यार से सहेज लेती तुझे जज न करती।  मारियुआना की लत नहीं लगती। दीवा दोस्तों में बोस्ट करती। मैं कभी कभार लेती हूं, मेरा दिमाग शांत रहता है में क्रिएटिव बनी रहती हूं।

इरा की आवाज आंसुओं की आवाज है । दीवा उसमें भींगती है । जब दारोश छोड़ गया तब मैंने आपका मन समझा जब बाबुन पैदा हुआ मैंने आपका मन समझा लेकिन अपना मन समझने के लिए मुझे बहुत दूर जाना पड़ा …..बहुत दूर।

नशे का यौवन को अपने जाल में जकड़ लेना और एक नवयौवना का उस दुनिया में प्रवेश के चित्रण में उपन्यासकार प्रत्यक्षा  अद्वितीय हैं। बाथरूम में बंद लंबे समय तक उसकी नसें नृत्य करतीं। लूसी इन द स्काई विद डायमंड्स। जब सारी तकलीफें खत्म हो जाती,  जीवन एक चिड़िया का नाम होता। मन बादल का फाहा होता, एकदम हल्का, एकदम रंग भरा। कैसे गोल चौकोर घेरे दिखते , क्या रंगीन समां होता। शरीर शरीर ही होता, लेकिन कोई दर्द न होता।  इरा न होती उसका बिलगाव न होता, डैड का जलता विमान न होता, सपने में उनके शरीर के झुलसे टुकड़े न होते, दहशत न होती, सिर्फ प्यार होता।

“कमरे में अंधेरा है,  कमरे में खट्टा सा स्वाद है।  कमरे में नशा है। कमरे में उत्तेजना है । कमरे में कुछ इलिसिट सा तैर रहा है । कमरा कुछ पागलपने से भरा है। कमरे में इतनी साफगोई है । कमरे में बहुत सा सच है, लेकिन बहुत सा झूठ भी है। दीवा किसी के साथ नहीं सोई अभी तक। किस किया है लेकिन कभी सोई नहीं?”

बारिशगर ने लड़कियों की आभासी नाकामी और नशे में लिप्त होने की प्रक्रिया का सुंदर  और बहुआयामी चित्र पेश किया है।

हर दो मिनट पर दीवा यही कहती है। हर दो मिनट बाद सब ऐसे ही हंसते हैं । हर अगली हंसी उनकी पिछली हंसी से ज्यादा हिस्टेरिकल है। एक के बाद एक वह कश लगाते हैं, सिगरेट एक हाथ से दूसरे बढ़ती जाती है । कमरे में धुआं है मीठा । दीवा की इच्छा होती है सब कसी हुई चीजें उतार फेंके। शरीर उसका उड़ रहा है यह बंधन उसे रोक रहे हैं। दीवा कहीं उड़ रही है। दीवा कहीं समंदर के तल में भारी भारी पैठ रही है।

नायिका की घर वापसी: पुनरावलोकन

दीवा का घर लौटना कथा का नाटकीय मोड़ है। उसका लौटना कथा को इतिवृत्तात्मकता भी देता है। कहानी खुद पिछले बीते हुए सालों का बयान करने लगती है। दीवा सिर्फ घर ही नहीं लौटती बल्कि अपनी मां और बहन के जीवन में भी प्रवेश करती है। दरवाज़े से अंदर क्रिटिकल होकर वह  सधे  हुए कदम रखती है पर धीरे धीरे इरा और सरन के चरित्रों में उसका प्रवेश होता है। उसमें खुद को चस्पा करके देखती है। उपन्यास की लेखिका इन प्रसंगों के वर्णन में सिद्धहस्त हैं। उपन्यास दीवा की घर वापसी के बाद अपने शिखर की तरफ बढ़ने लगता है।

दीवा ने तेरह साल की उम्र में पिता खोया।  पिता का चले जाना उसकी जान का चले जाना था। यह कोई नहीं जानता था।   दीवा की निर्मितियों में इस प्रारंभिक गहरी घटनाओं का बहुत बड़ा योगदान है। इरा तक नहीं जानती क्या चल रहा था दीवा के मस्तिष्क में। इरा अपने दुख में थी । फिर सरन हुई तो इरा सरन में थी इरा घर संभालने की , सब बिखरे हुए को समेटने में थी। अपने दुख को कलेजे से लगाए वह दबंग होती गई ।उसे सरन  फूटी आंखों न सुहाती। उसे इरा का बर्ताव पिता के प्रति बिट्रायल लगता है।

प्रत्यक्षा एक धीरे धीरे पुष्पित हुई जीवन पद्धति को प्रेम और घर के बीट्रयल के रूप में भी लाती हैं। आपकी आसक्ति छूटी  अगर प्रेम के अपरिहार्य  तत्त्वों से तो यह अनायास नहीं हुआ सबकोंसस  माइंड  ने इसे स्वीकृति दी। आप ऐसा चाहते थे शायद। भौंचक वो इरा को देखती, हंसते गाते सरन से बचकाने तोतले स्वर में लड़ीयाते। इसे जरा दुख नहीं, वो नफरत से सोचती।

इक्कीस साल हो गए थे इस घर से कर्नल साहब को गए। इरा इक्कीस साल से कर्नल का इंतजार कर रही थी। सरन ने कर्नल को देखा नहीं था वह तब मां के पेट में थी दीवा ने पिता को देखा था पर पिता का साया बहुत देर तक रहा नहीं उस पर । इस तरह दोनों अपने पिता को लेकर एक अलग मानसिक दुनिया में जीते थे एक इरा और एक यह घर जो कर्नल को जानते थे, कर्नल को जीते रहे, कर्नल के जाने के बाद भी हर कोने में , हर लफ्ज़ में, हर सांस में कर्नल जीता है यहां, मरने के बहुत दिनों के बाद भी।

दीवा के मन में सरन के लिए उठता है कि सरन कितनी ठहरी हुई है इतनी कम उम्र में ऐसी सादगी कितना अनछुआपन । मैं अपने अंदर जीवन में उसकी सादगी का फायदा कैसे उठाऊं? लेकिन यह पल कितना सुकून वाला पल है। इस छुअन में कैसी निस्बत है।  एक पल में बहन, जो कि दीवा के बच्चे को मां की तरह पाली है, पर संदेह भी है और दूसरे ही पल उससे असीम सौहार्द। इन दो परस्परविरोधी आनुषंगिक भावों को लेखिका सहयात्री बनाती हैं।  “कितना शीतल, कितना उष्म, कितना ठहरा हुआ अपने से निस्पृह। इस होने से दूर। जैसे यह तारे आसमान में जो टंगे हैं, सिर्फ चमकते हैं, न रोशनी देते न गर्मी, सिर्फ अपनी चमकान की आश्वस्ति देते हैं । सरन भी आश्वस्ति है। इस दुनिया में होने की मीठी आश्वस्ति।”

बिलास कहता है दीवा को इरा के प्यार की जरूरत है सरन। और मुझे?  सरन की आवाज़ इन प्रसंगों को व्यक्त करने में लड़खड़ा जाती है। अबंडंड चाइल्ड होने का भाव बचपन से उसके साथ चलता है। फॉर्सेड डिजेक्शन कभी कभी सेल्फ डिनायल का रूप  ले लेता है।  लेकिन अभी दीवा का समय है। मेरा समय कब होगा? सरन का चेहरा आंसू में डूबा चेहरा है बिलास उसे धीमे खींच सटा लेता है। उसकी उंगलियां सरन के बालों में गुजरती हैं। बिलास की आवाज रेशा रेशा सरन पढ़ती है। कितना धुआं है इसकी आवाज जैसे जलते कुंदे पर झमाझम बारिश। ये प्रसंग बारिशगर को अपनी समकालीन गद्य  परंपरा में महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाते हैं।

दारोश और ब्लेन मिलर: उलझनें

दारोश ही नशे में डूबी दीवा को  उसकी जहालत से नि कालता है। वह उस बुरे वक़्त का साथी है जहां से दीवा का ज़िन्दगी में वापस लौटना संभव नहीं था।  दारोश दीवा की ज़िन्दगी में कई बार आता है , जाता है। वह अविश्वास में है। वह यह भी पूछता है तुम मुझसे शादी करोगी। दीवा का नशा सही जवाब नहीं दे पाता। वह ये भी कहता है दीवा हमेशा मेरे साथ रहो।

दारोश लेकिन आशंकित रहता है, टटोलता है, उसकी कलाइयां देखता है। क्या देखते हो? कि मैं फिर नशा तो नहीं कर रही ? आओ मेरी दराजें चेक कर लो, मेरे पर्स खंगाल लो, मेरे दोस्तों से मेरा पता पूछ लो? नहीं मुझे तुम पर विश्वास है । मैं तुम पर भरोसा करता हूं दीवा।  उसका यह भरोसा टूटता है वह भरोसा जो नशे ने और नशे की लत ने कभी बनने नहीं दिया । वह भरोसा जिसमें प्रेमी की आंखें प्रेमिका, दोस्त, पत्नी, जीवन साथी में बहुत कुछ खोजती हैं ।

वो कब गया मुझे मालूम नहीं। सिर्फ उसकी एक बात याद रही – मैं तुम्हारा दोस्त हमेशा था, हमेशा रहूंगा। तुम्हें जब मदद की ज़रूरत थी, मैं था तुम्हारे पास। आगे भी दीवा। तुम बहादुर हो, अपनी हिफाजत कर लोगी। सुनयना बहादुर नहीं है। सुनयना के मिलते ही दारोश दीवा की ज़िन्दगी से निकल जाता है। दर्द के हर आवेग पर उसने दारोश को बद्दुआ दी। दर्द के हर आवेग पर दारोश को शिद्दत से याद किया। दर्द के हर आवेग पर दीवा एकदम अकेली थी।

दीवा को चेक रिपब्लिक से काम का ऑफर आता है। वह अपने दुख से भौगोलिक दूरी अपनाने को बाध्य होती है ताकि उसे अपने आपको सॉर्ट आउट करने का मौका मिल सके । “प्राग मेरे लिए स्केप था। प्राग मेरे लिए सैनिटी स्पेस था। यहां लैंड करते ही जो पहली सांस मैंने ली,  उसने मेरे भीतर के मैं को बदल दिया । पुरानी दीवा वहीं भारत में छूट गई। यह कोई और दीवा थी। नई दुनिया में अपने स्पेस को खोजने और आईडेंटिफाई करने की जद्दोजहद में लड़ती अडती एक अदना सी लड़की।”

प्रत्यक्षा निजी तौर पर यूरोप से बेहतर एक्सपोज्ड रही हैं। उनका विदेश भ्रमण और प्रवास ने नायिका के विदेश में संघर्ष  की गाथा को जीवंत कर दिया है। एक एक डिटेल जो बहुत विस्तार भी नहीं लेता या कहीं उबाऊ नहीं होता, बल्कि कथानक को उत्कृष्ट बनाने का काम करता है और नायिका के संघर्ष कों नया कंट्रास्ट  देने का भी। बारिशगार की एक प्रमुख सफलता है कि असंबद्ध घटनाएं और स्थूल  वस्तु और आलसी शिल्प भी उब पैदा नहीं करते।  भाषिक संगीत उसे खींच कर गंतव्य तक लेे जाता है।

दीवा यहां रिकंस्ट्रकट करती है अपने को। नायिका अपने आप को जलालत की पुरानी ज़िन्दगी से निकालती भी है। बड़े और कालजयी उपन्यासों की खूबी होती है कि पात्र स्थान परिवर्तन के साथ कई बार व्यक्तित्व परिवर्तन का आयाम स्वातः जोड़ लेते हैं। यह उनका मानसिक तौर पर हिजरत होता है और जिस कहानी का दारोमदार वह अपने कंधे पर ढोता है उसमें गुणात्मक परिवर्तन भी लेे आता है।  “जानते हैं बिलास साहब, ये बहुत बाद में पता चला कि उस जगह की हवा आपके मन को भांपकर अपने आप को उसके मुआफिक धाल थी। जैसे कुछ कुछ हमारा ये घर। कभी लगा आपको? जैसे सब घर हो गए हों और हम सबको महफूज़ रखना सबसे ज़िम्मेदारी का काम हो घर का? ”

फिर ब्लेन मिलर अमेरिकी का आगमन होता है दीवा की ज़िन्दगी में। तब तक दुख और संताप का रेशा रेशा निकाल चुकी है दीवा और जीवन की नई चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए तैयार हो गई है। ब्लेन मिलर जो कि बो है दीवा का , आगे की जिंदगी बड़ी बारीकियों से करीब आकर गुजारने का निश्चय करता है। “उसका दिल बहुत बड़ा था और अपने आसपास, अपने इकोसिस्टम और प्रकृति के साथ जो उसका तारतम्य था, वो मैंने बहुत कम लोगों में देखा था।” बो के साथ उसका साथ एक उष्मा और ताप भरा संगत था।कभी उसने अपनी उपस्थिति उस पर नहीं थोपी।

छूट गए प्रेमियों का किस्सा तभी यकीन से बयान होता है जब कहानी आगे बढ़कर किसी सुख को लपक लेनेवाली हो।  कोई नया प्रेमी लार्जर देन लाइफ सा दिखता हुआ आए और जो कुछ जहां जैसा  भी टूटा फूटा है  सब  जोड़कर आगे बढ़ जाए। ज़िन्दगी एकदम नए सिरे से संवार देने की जुगत में लग जाए।

दीवा तीन महीने पहले  देश लौट कर  घर लौटने की हिम्मत जुटाई है। घर आकर भी एकदम सबको गले लगा ले ऐसे हो नहीं पाया।   घर पहले पूरा का पूरा लौटता है दीवा में। घर आज भी उन्हीं उम्मीदों और आत्मीयता से देखता है दीवा को।  मेरी बेवकूफियों को बर्दाश्त करते रहे, मुझे प्यार करते रहे। और शुक्रिया बिलास साहब । आपने इस घर को एक जमीन दे दी उसे फिर जिंदगी में रूट कर दिया जैसे डैड करते थे।

याद रहते हैं गुजरते हुए निराशा के पल, याद रहती हैं सिर  धुनती कचोटती यादें, पेड़ों से रिस रही पत्तियों के छोर से दर्द की बूंदें, बगान में थका हुआ आधे मन से काम करते अलसाए दिन, इंतजार कर रही पथराई आंखें, सूखे हुए संघर्षरत चेहरे, आस का दामन पकड़े किरदार,  अधूरी रह गई प्रेम की किताबें  और नहीं देखी गईं सब फिल्में, मिले हुए सब लोग, भोगा हुआ हर एक पल, घूमे हुए सब शहर, छतनार पत्तियों वाले पेड़ों से ढकी गलियां, सुने हुए सब गीत, उनकी उठान । बारिशगर इन्हें याद रखते हैं क्योंकि तपती मिट्टी को बूंदें चाहिए, सोंधी खुशबू बारिश की अंदर तक भिगाती है।  इनके याद रखने में  अपने दायित्व को याद रखना है जीवन जीते हुए खुद को  भी याद रखना है।

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8 comments

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