कविता शुक्रवार के अंक 8 में शामिल हैं रश्मि भारद्वाज की नई कविताएं और कवि-चित्रकार वाजदा खान के चित्र।स्त्री-पर्व सीरिज़ की पहली प्रस्तुति।

रश्मि भारद्वाज का जन्म मुज़फ़्फ़रपुर बिहार में हुआ और आरंभिक शिक्षा भी बिहार में ही हुई। स्नातक करने के बाद वह पत्रकारिता का अध्ययन करने दिल्ली आयीं। कई वर्षों तक दैनिक जागरण आदि समाचार पत्रों से सम्बद्ध रहने के बाद उन्होंने एमिटी यूनिवर्सिटी से अंग्रेज़ी में एम. फिल. किया और अंग्रेज़ी साहित्य और भाषा के अध्यापन से जुड़ गईं। वर्तमान में वह अंग्रेज़ी अध्यापन के साथ संपादन और अनुवाद का कार्य भी कर रहीं हैं।
उनके दो कविता संग्रह – ‘एक अतिरिक्त अ’ ( भारतीय ज्ञानपीठ) और ‘मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है’ (सेतु प्रकाशन) प्रकाशित हैं। कई साझा संकलनों और विशेषांकों में उनकी कविताएँ संग्रहित हैं। उनकी कविताओं के अनुवाद अंग्रेज़ी,मराठी, बांग्ला, उड़िया, उर्दू , नेपाली, मलयालम आदि भाषाओं में हो चुके हैं।
उन्होंने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद और संपादन किया है। प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में लगातार सामाजिक, साहित्यिक मुद्दों पर आलेख, समीक्षा आदि लिखती रहतीं हैं।
पश्यंती, वीमेंस कलेक्टिव की एक्जीक्यूटिव एडिटर होने के साथ वह मेराकी ऑनलाइन पत्रिका का भी संचालन कर रहीं हैं। अंतरराष्ट्रीय साहित्य और कला मंच समन्वय की वह भारतीय प्रतिनिधि हैं और निरन्तर भारतीय कविता पर कार्यक्रम और संवाद का आयोजन कर रहीं हैं।
उन्हें ज्ञानपीठ नवलेखन अनुशंसा 2016 और शिवना अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान, 2020 प्राप्त हुआ है। विभिन्न साहित्यिक उत्सवों एवं मंचों के माध्यम से देश के सभी प्रमुख शहरों में उन्होंने कविता पाठ और संवाद सत्र में भागेदारी की है-
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किसी कामनावश नहीं मिले थे उनके होंठ
जिनकी शय्या पर बिछाई जाती रहीं फूलों की तरह
और मसल कर फेंकी जातीं रहीं
एक स्त्री का शरीर ही देख पाया था
हौले से छुए उन्होंने एक दूसरे के घाव
सहलाया हर अव्यक्त पीड़ा को
न रंग था, न वर्ण, न जाति, न आयु, न शरीर
हर संशय और हीनता से मुक्त
दुःखों ने एक दूसरे से बांधा था
जिसे गाती रहीं थीं वे बिना सुर ताल के
उन्होंने मिट्टी की दीवारों पर साथ उकेरे अपने स्वप्न
और उनमें अपनी दमित इच्छाओं का रंग भरा
उन्होंने जी लिया अपना निर्वासित मन
चूल्हे के धूएं से जब सजल हो आयीं आंखें
उन्होंने साथ मिलकर कहकहे लगाए
और भोजन में घुल आया स्वाद
आज भी उन्हें जोड़ रखा है कलाओं ने
उन्हें पढ़नी आती है एक दूसरे की आंखों की अव्यक्त भाषा
उनका मिलन छिपा है संगीत की अबूझ धुनों में
उन्हें जानना हो तो डूबना रंगों की जटिलताओं में
वे मिलेंगी कविताओं की अव्यक्त पंक्तियों के बीच
एक दूसरे को प्रेम करते हुए
वे जन्म दे रहीं है हर क्षण
स्त्री अपनी योनि में रहती है
यह नानी ने अपनी माँ से सुना था
उन्होंने पहले माँ और फिर मुझे
कि धूप, हवा, बारिश सबसे अछूती रही वह
योनि को ममता का स्पर्श नहीं मिला
उसे सिखाया गया सलीके से चलना
परत दर परत कपड़ों में लिपटी थी वह
उनकी आंखों में कामना की नग्न भूख देखकर
कि जिस प्रथम पुरुष को उसने ख़ुद को सौंपा
उसने उसका हृदय भी देखा कि नहीं
विजित की जाने वाली योनि मात्र
क्या वह भी उतनी ही कामना से भरा होगा उसके वरण हेतु
जब शुष्क हो जाएगी उसके भीतर की नदी
बलात प्रेम की दीर्ध यातनाओं के मध्य भी
शेष रही उस स्पर्श की कामना
जो उसे सदियों के अभिशाप से मुक्त करे
उसके ह्रदय की ग्रन्थियाँ भी खोल सके
जिसके प्रेम में तरल होते हुए
उसे पाषाण में परिवर्तित कर दिए जाने का भय नहीं हो
शिशु जन्म के अपने उद्देश्य तक
सृष्टि का सारा भार वहन किया उसने
फिर भी एक स्त्री के लिए वर्जित रहा यह शब्द
योनि की इच्छाओं से मुक्त रहना था
सरियों से विक्षत किया गया
योनि को उसके होने की सजा दी गयी
उसके अंधेरे अगम्य अनन्त से
उनके लिए नरक का प्रवेश द्वार थी
सृष्टि पर अपना अधिकार किया था
आकार में वह किसी बीज सी थी
वह पूर्ण थी और पूर्णामृत भी
श्री, प्रीति, अंगदा, पुष्टि, तुष्टि यथा
उसके अंदर बहती नदी से सिंचित थी धरा
और वही पृथ्वी की रहस्य गाथा
उससे मुक्ति में ही सिद्धि थी
उसका स्थान तय है और उसका कर्म भी
ना ही घोर विकर्षण की पात्र
ह्दय, मस्तिष्क और आत्मा की तरह
उसे भी स्वीकार किया जाए एक स्त्री के अंदर
वह तुम्हारे प्रेम में पालतू हो जाएगी
उसे रुचिकर लगेगी वनैले पशुओं सी तुम्हारी कामना
रात्रि के अंतिम प्रहर में
तुम्हारे स्पर्श से उग आएगी उसकी स्त्री
सूर्य की प्रतीक्षा के दौरान
कि चाहेगी उसकी हर श्वास पर
पर उसे रोक रखने की क्षमता
सिर्फ़ तुम्हारे मस्तिष्क के वश में है
तुम्हारे ज्ञान के अहंकार से
उस स्त्री का गर्वोन्नत शीश
नत होगा सिर्फ़ तुम्हारे लिए
वह कस कर जकड़ता है उसे अपने बाजुओं में
और चाहता है कि प्रेयसी की देह पर छूट गए अनगिनत नील निशानों को
आने वाले दिनों के लिए सहेज लिया जाए
जब शेष हो अनुपस्थिति की नमी
उसके आतुर होंठ नींद में भी तलाशते रहते हैं
उसके पास एक शिशु की भूख है
जो असीम गहराईयों में उतर कर भी
वह नींद में भी सुनना चाहता है उसकी साँसें
और प्रेयसी के सपनों में अपनी उपस्थिति दर्ज कर देना चाहता है
जागते ही उसे ऐसे टटोलता है
अंतिम प्रहर की बची हुई नींद में,
सुबह की पहली किरण के उजाले में
आतुरता से खोजता है अपना अक़्स
उसकी आँखों के फ़ैले काजल में
वयस में आठ साल छोटा वह प्रेयस
अपनी प्रेमिका की देह पर हर कहीं अंकित हो जाने के बाद भी
उसके मन में अपनी उपस्थिति को लेकर
पानी की फ़सल बोना चाहता है
हौले से कानों में पूछता रहता है
5. तुमने उसे कितना देखा है
उसमें मौजूद औरत से मेरा चेहरा भर मिलता है,
कान संसार भर की आवाज़ें बटोर लाते हैं
इन्हें इंद्रियों की असमर्थता मत कहो
तुम्हें बंद आंखों से देखना नहीं आता था
बिना सुने सोच सकने का अभ्यास नहीं था
दृश्य, ध्वनि, शब्द के परे
या फिर बंद कर दी हैं खिड़कियाँ उकताहट से
मेरे पास आकर तुमने मुझे क्या देखा
मैं हमेशा तुम्हारे बनाए गए दृश्य के बाहर ही छूट गयी थी
उस घर से जाते हुए अंजुलि भर अन्न लेना
पलट कर मत देखना पुत्री, बन्ध जाओगी
तुम अन्न बिखेरो, पिता- भाई को धन धान्य का सौभाग्य सौंपो
हमने तुम्हें ह्रदय में सहेज लिया है
दाएं पैर से बिखेरना अन्न का लोटा
रक्त कदमों की छाप छोड़कर प्रवेश लेना
श्वसुर-पति को धन- धान्य, वंश वृद्धि का सौभाग्य सौंपना
ताकि ह्रदय में तुम्हें रोप लिया जाए
आँगन में बंधी सहेजती रहो अनाज
तुम्हें आजीवन मिलता रहेगा
पेट भर अन्न, ह्रदय भर वस्त्र- श्रृंगार
तुम्हारे निमित्त रखे गए हर अन्न के दाने पर यही सीख खुदी है
खुली हुई स्त्री पर सब अधिकार चाहेंगे
वे चाहेंगे तुम्हारे ह्रदय में अपनी छवि रोप देना
तुम कभी किसी घर में नहीं रोपी जाओगी
किसी ह्दय पर तुम्हारा अधिकार नहीं होगा
पूर्व कथा: यथार्थ या दुःस्वप्न
दादी की कथा की गोलमन्ती चिड़ैया
मेरा खूंटा पर्वत महल पर बना है
मुझे मेरे बच्चों सहित वहां से निकाल दिया गया
मैं और मेरे बच्चे भूखे मर रहे थे
जिसके हिस्से का अन्न खा लिया मैंने
भूख से बिलखते बच्चों को खिलाया
ज्यों मैंने उनका अनाज चुन चुन कर खाया था
गांव के सीमांत पर सदियों से खड़ा था एक बूढा बरगद
किसी औघड़ सा अपनी जटाएं फैलाएं
अपने गर्भ में सहेजे था एक देवता-स्त्री को
यह रक्षक स्त्री है तो गांव सलामत है, ऐसा कहते कई पीढियां गुजर गयीं
उसके खोंइंछे में हर दिन टांक दिए जाते थे
दुःखों के अनगिन चाँद सितारे
वह उन्हें वैसे ही सहेज लेती जैसे सैकड़ों सालों पहले कभी अपनी व्यथा को सहेजा होगा
मेरी दादी और उन जैसी कई औरतें
हर पखवाड़े बरगद की गोद में बने उस छोटे से स्थान की अँधेरी दीवारों पर सिंदूर से एक आकृति उकेरतीं
उसे हल्दी, चन्दन और कुमकुम से सजातीं
और गीत गाती हुईं उस पर अपने आंसूओं का अर्ध्य चढ़ा आती
मेरे गांव ने अपनी देवता-स्त्री ख़ुद गढ़ी थी
उसे दी थी अपनी पनियाई आँखें, अपने सूखे होंठ और अपना सा ही रूप
उनके कथा गीतों को पक्षियों के कानों से सुनता
हर नम आँख को तसल्ली दे आते
ब्याही हुई बेटी को मिलता अपनी मां का संदेसा
प्रेमी उन गीतों में खोजते बिछुड़ी हुई प्रेयसी की स्मृतियाँ
कुंवारियों की आशंकाएं उन्हें सुनकर चैन पातीं थी
उन गीतों में उग आती थीं पीढ़ियों की व्यथाओं की असंख्य लकीरें
जिन्हें संग साथ गाते बूढ़े-बुजुर्ग देवता-स्त्री से नयी नस्लों की ख़ुशहाली की दुआएँ मांगते
चंद्रिका स्थान एक बसेरा था
जहाँ ज़िन्दगी की धूप में तप रही आत्माएं सूकून पाती थीं
गपोड़ रिज़वान चचा छाँव में बैठ घन्टों किस्से कहानियां बांचते
उनकी बकरियाँ आस पास घूमती नरम घास चरतीं
खेत में काम कर थकी पड़वा, गौरी, समीमा वहीं बैठ खाती थी अपनी दुपहर की रोटी
और अँचरा ओढ़ कर लुढ़क भी जातीं
वृक्ष एक पिता था जिसकी फैली हुई मज़बूत भुजाओं पर झूला झूलते खिलखिलाते थे बच्चे
और उसकी रूखी- सख़्त शिराओं में दौड़ पड़ता हरा ताज़ा ख़ून
गांव का पतझड़ हर साल बहुत ज़ल्दी हार जाता था
देवता- स्त्री थी सबकी माँ
वह मुस्कुराती और खेतों का बसन्त लौट आता
और फिर एक दिन अचानक एक पगडंडी ने देखा शहर का रास्ता
देवता-स्त्री की संगमरमर की चमचमाती मूर्ति आ गयी
जिसके होंठों पर एक सदा बहार कृत्रिम मुस्कुराहट थी
उस मूर्त्ति के वैभव को समेटने के लिए छोटी पड़ गईं वृक्ष की भुजाएं
अब वहां एक विशाल मंदिर है
और उनके समय की कई और स्त्रियां भी
रिज़वान चाचा अपनी झोपड़ी में बैठे ख़ाली निगाहों से मंदिर जाती यंत्रवत भीड़ को देखते हैं
देवता- स्त्री अब लोहे के फाटकों और मन्त्रों के तीव्र शोर में घिरी
एक पवित्र ईश्वर में तब्दील हो गयी है
एक शहर में मेरी रिहायश को सोलहवाँ साल लगा है
पर यह उम्र का वह सोलह नहीं
जहाँ से एक दुनिया बननी शुरू होती है
इस सोलहवें में एक शहर के हिस्से लिखे जा चुकें है मेरे जीवन के सबसे सुंदर साल
जिनके बारे में मैं अब तक निश्चित नहीं
कि उनके बीत जाने का आनन्द मनाऊं
या उनके नष्ट हो जाने का दुःख
शहर से पूछो कि यहीं आने को निकले थे हम
तो उसकी आँखों में भी वही ऊब और नींद दिखती है
जो हमारी आंखों के इर्द गिर्द बनते जा रहे काले घेरे में जमा है
हमारी ताजा आंखों में तब एक नया शहर बसा था
हमारे नए उगे ख़्वाबों की तरह ज़िन्दा
अब कचड़े के पहाड़ पर उगाए गए फूलों की गंध भी
उसके सदियों से मृत शरीर की सड़ान्ध नहीं छुपा पाती
मैं यह भी निश्चित रूप से नहीं कह सकती
जिसकी असह्य गंध के आदी हो चुके हैं हम
तय तो यह भी नहीं कि वाक़ई कुछ बदला है
या कि बदला है बस हमारा एक दूसरे को देखने का नज़रिया
एक शहर की उम्र में अपने सोलह साल जोड़ देने के बाद
उसकी रफ़्तार में भागते पीछे छूट जाते हैं लोग
अपनी स्मृतियों से, अपने-आप से
और यहाँ भविष्य है कि अपने पहले अक्षर के उच्चारण भर से बीत जाता है
मैं दो शहरों में खोजती हूँ
दूसरे को मैंने नहीं अपनाया
मैं दोनों की गुनाहगार रही
अपनी नदियों, स्त्रियों और कवियों के
जिनकी भाषा से वे हमेशा अनजान रहे
जिनकी आँखों मे कभी आठों पहर की नमी बसती थी
अब वे चौमासे भी सूखी रह जातीं हैं
कुछ लोगों का कोई देश नहीं होता
इस पूरी पृथ्वी पर ऐसी कोई चार दीवारों वाली छत नहीं होती जिसे वे घर बुला सकें
ऐसा कोई मानचित्र नहीं, जिसके किसी कोने पर नीली स्याही लगा वह दिखा सकें अपना राज्य
वे अक्सर जहाजों में डालकर कर दिए जाते हैं समंदर के हवाले
कोई भी नाव उन्हें बीच भँवर में डुबो सकती है
आग की लपटें अक्सर उनके पीछे दूर तक चली आया करती हैं
किसी भी ख़ंजर या चाकू को पसंद आ सकता है उनके रक्त का स्वाद
उनके जन्मते ही किसी एक गोली पर उनका नाम लिखा जाना तय है
उनका ख़ात्मा दअरसल मानवता की भलाई के लिए उठाया गया ज़रूरी कदम है
उनके अब मासूम नहीं रह गए बच्चे जानते हैं कि अक्सर माँ को कहाँ उठा कर ले जाते हैं
जहाँ से लौटकर वह सीधी खड़ी भी नहीं हो पाती
पिछली बार और फिर कई-कई बार
उन्होंने भी चुकाया था माँ की अनुपस्थति का हर्ज़ाना
पिता कभी रोते नहीं दिखाई देते
उनके चेहरे की हर रोज़ बढ़ती लकीरें दरअसल सूख चुके आंसू हैं
उनके ईश्वर वे हेलीकॉप्टर हैं जो ऊपर से खाने के पैकेट गिरा जाते हैं
कुछ गठरियों में सिमट आए घर को ढोते
वे पार कर सकते हैं काँटों की कोई भी तारें रातोंरात
काँटों से तो सिर्फ़ शरीर छिलता है
मन से रिसता रक्त कभी बंद नहीं होता।
कागज़ों से बनी इस दुनिया में जी सकने के लिए
बस एक कागज़ की
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वाजदा खान: स्मृतियों में टहलता मन
– राकेश श्रीमाल
एक लड़की अपने वर्तमान में रहते हुए भी अक्सर स्मृतियों के जल में क्रीड़ा करती रहती है। जैसा भी जीवन उसने देखा-समझा है, वह उसे फिर-फिर देखना-समझना चाहती है। वह भी, उसी अबोध दृष्टि से, जैसा कि पूर्व में देखा था। उसके अपने बनाए चित्र और लिखी कविताएं उसे इसके लिए अवकाश देती हैं। प्रायः वह उसी अवकाश में गुमशुदा रहती है। सामान्य जीवन के लिए उसे अपने आपको तलाशना होता है। अपने मित्रों से बात करते हुए वह अपने खोए हुए को ही बरामद करती रहती है।
वह अपना वजूद पाँच शब्दों के अपने नाम में समेट नहीं पाती। वाजदा खान खुद को कई जगह उपस्थित पाती हैं। विशेषकर बचपन में। जब उसे पुकारने के एकाधिक नाम हुआ करते थे। वाजदा का मन बचपन में रमने के लिए मचलता रहता है। यही कारण है कि वर्तमान उन्हें भाता नहीं है। वह वर्तमान को भविष्य में स्मृति की तरह सहेजना अधिक पसन्द करती हैं। यद्यपि जीवन का यथार्थ उन्हें इतने क्रूर अवस्था में मिलता है कि स्मृतियों को उन्हें गिरे हुए पत्तों की तरह बीनना होता है। निसन्देह उनमें हरे रंग की नमी लिए पत्तों के साथ बहुतेरे सूखे पीले-धूसर हो चुके पत्ते भी शामिल रहते हैं। यह भूमिका इसलिए कि यही सब कुछ उनके रेखांकन और चित्रों में होता है। अपने होने में अर्थ की निरर्थकता को लिए हुए और अपने अमूर्तन में कहीं गहरे कुछ रूप-छवियों को भीतरी रंग-परतों में अदृश्य बनाये हुए।
वाजदा का जीवन ही उनकी रचनात्मकता का केंद्र है। लेकिन यह सीधा-सपाट या स्पष्ट नहीं है। उनकी कला में उनकी स्मृतियों की तरह ही अनगिन भूलभुलैया है। वहाँ वह बचपन भी है, जो कला के प्रति जाहिर नासमझी भी रखता था। अब एक चित्रकार होने के बाद वे उस नासमझी के महत्व को बखूबी समझने लगी हैं। उनके चित्रों में सायास कुछ नहीं होता। इसी वजह से वे मुहावरे या विशेष छाप वाली चित्रकार नहीं हैं। उन्हें लगभग चिढ़ होती है, जब कोई उनसे पूछता है कि आपने क्या बनाया है या इस रेखा और इस विशेष रंग का चित्र में क्या अर्थ है। वे मानती हैं कि वे चित्र की शुरुआत तो करती हैं, लेकिन उसका अंत चित्र खुद ही तय करता है। उनकी तरह उनके चित्र भी अमूमन आत्मकेंद्रित होते हैं। वे चित्र बहुत कम बोलते हैं। जिस तरह से कोई उन्हें देखता है, वे वैसा ही जवाब दे पाते हैं। उनके चित्रों को देखने का एक अर्थ स्मृति-स्पर्श करना भी होता है। स्मृतियों में सम्वाद नहीं होता, केवल ‘दृश्य-सुख’ रहता है।
बचपन के तमाम खेल वाजदा के स्मृति-दृश्य में गड्डमड्ड हो जाते हैं। उन दृश्यों को छूने की इच्छा उनके चित्रों में उभरती है। परियां, फूल, तितली, गुड्डे, गुड़िया के खेल, कंचे, गिल्ली, डंडा, गेंद, तड़ी, कबड्डी, खो खो, इक्कल दुक्कल और जाने क्या क्या। फिर छोटी छोटी मासूम सी बातों पर लड़ाइयां, रूठना, मनाना। वाजदा के बचपन की पहली स्मृति मिट्टी के खिलौने व एक गांव की है। वाजदा के छुटपन में हर गर्मी की छुट्टी वहीं व्यतीत होती थी। उस वक्त गांव के घरों में कच्चा आंगन होता था और आंगन में ही मिट्टी के चूल्हे पर खाना पकता था। गीली मिट्टी का घोल बनाकर जब वे अपनी चचेरी बहनों को कच्चा आंगन लीपते देखती, तो उनके संग पूरा आंगन मिट्टी व गोबर से लीपने बैठ जाती। फिर बची मिट्टी में और सूखी मिट्टी मिलाकर तरह-तरह से वस्तुओं के आकार बनाती। आड़े तिरछे बेलन, चकला, थाली, कटोरे और भी कई तरह के आकार। या दो मुंह के चूल्हे बनाना इस क्रिया में शामिल होता। इस तरह मिट्टी में लथपथ होकर मिट्टी के संग काम करना, उससे खेलना इतना आनन्ददायी था कि जब भी वाजदा गर्मी की छुट्टियों में गांव जाती, उसमें डूब जाती। खूबसूरत काँच के कन्चे इकट्ठा करना वाजदा का शगल था। गेंद तड़ी व गुलेल से निशाना लगाना भला कैसे भूला जा सकता है। गुलेल भी वह खुद ही बनाती। यहाँ तक कि साइकिल के खराब हो चुके टायर को दौड़ते हुये हाथ से चलाती। आम, कैथा, इमली, अमरख, जामुन, बेर, जंगल जलेबी इतने अधिक वृक्ष होते थे उस वक्त, जिसके इर्द गिर्द वह मंडराने लगती।
कुछ समय के लिये वाजदा के पिता की पोस्टिंग महोबा व झांसी में रही। जो बुन्देलखण्डी इलाका है। उस समय घर भी काफी खुले खुले होते थे और चारों तरफ काफी खाली जगह भी हुआ करती थी। झांसी में 11-12 वर्ष की वाजदा। चुपचाप भाई की साइकिल उठाती और अकेले चलाने चल पडती। जैसे उसने और बच्चों को देखा था। खूब गिरी, घुटने फूटे, हाथ छिले, खूब डांट खायी। मगर साइकिल चलाना कभी नहीं छोड़ा। साइकिल चलाना उस वक्त एक जुनून की तरह हुआ करता था। और चलाने के लिये भी वाजदा को भाइयों से बहुत मिन्नत, चिरौरी करनी पड़ती। जब वे साइकिल चलाती खूब खुश होती, जैसे आसमान में उड़ रही हों।
वाजदा अपनी स्मृति को शब्दों में पिरोती हैं- “बुन्देलखण्ड चूंकि एक कंकरीला, पथरीला, चट्टानी इलाका है। तो यत्र तत्र छोटे-छोटे पहाड़ दिखायी पड़ते। एक तरफ मैदानी इलाका पड़ता तो वहीं दूसरी ओर ऊंचे ऊंचे पठारनुमा मैदान दिखायी पड़ते। कुछ खेत भी बने होते। चट्टानी इलाकों में होने वाले तमाम वृक्ष, फूल व लतर दिखायी पड़ते। अक्सर हम सारे बच्चे, जिसमें बड़े लोग भी शामिल होते, टोली बनाते और चल पड़ते उन पहाड़ों की तरफ जो देखने में पास लगते, मगर होते थे दूर। रास्ते में हरे चने, मटर
के खेतों में चुपचाप घुसते और तोड़कर सरपट भागते कि कहीं कोई हमें चोरी करता न पकड़ ले। फिर आपस में बांटकर खाते। रास्ते भर जंगली बेर, फालसे, मकोई, जंगल जलेबी के तमाम पेड़ पौधे उगे होते, और हम उन्हें तोड़ तोड़कर खूब खाते। बड़े भाई बाल पॉकेट बुक्स, इन्द्रजाल, कॉमिक्स, पराग, नन्दन, मधु मुस्कान, चन्दामामा, चम्पक तथा अन्य कहानियों की किताब लाते। पढ़ने की आदत वहीं से पड़ी। बहुत ही रुचि से किताबें पढ़ती और उसके कल्पित राजा रानी, परियों, राजकुमारों, पशु-पक्षियों इत्यादि की दुनिया में खो जाती। जानवरों को इन्सान की तरह बोलते और बेहद दिलचस्प तरीके से उन पर कहानियां लिखी जाती। उनके चित्र भी प्यारे लगते। मैं घंटों चित्रों को निहारती कि जैसे वे अभी बात करने लगेंगे। बहुत सारे जासूसी नॉवेल भी उसी समय पढ़ डाले। मुझे जासूसी उपन्यासों की एक स्मृति कभी भुलाये नहीं भूलती कि उपन्यास में जो जासूस होता था, उसका गेटअप काला लम्बा ओवरकोट, गम बूट, आंखों में काला चश्मा लगा, फेल्ट कैप लगाए चुपचाप पेड़ों के झुरमुट में छुपा खड़ा है। जिसकी जासूसी करनी है उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। या अन्धेरे में छुपता छुपाता अमुक व्यक्ति का पीछा कर रहा है। यह दृश्य इस कदर मुझमें रोमान्च भरता, मेरे मनोमस्तिष्क पर छाया रहता, और ऐसा लगता था कि मैं भी जासूस बन जाऊं। कि मैं भी ऐसे रहस्यमय अन्धेरे व रात में ऐसे कार्य करूं। उसी तरह काला लम्बा ओवरकोट पहनूं, फेल्ट कैप, काला चश्मा लगाकर व गम बूट पहनकर रहस्यमयी रात के स्याह अन्धेरे में किसी पेड़ के सहारे टिक कर खड़ी होऊं। यहां झुरमुटों के बीच इस काली पोशाक के रात में घुलकर घूमती फिरूं। यह भावना तो युवावस्था तक रोमान्च भरती रही और आज भी। भले ही उसका स्वरूप बदल गया हो। रात में ट्रेन के सफर में कभी नहीं सोती थी। हमेशा खिड़की से बाहर अन्धेरे में दिखायी देते पेड़ पौधे, घरों की आकृतियां। चांद देखती जो लगातार साथ चलता। उस समय एसी का चलन नहीं था ट्रेनों में। चांद अन्धेरी रात में इस कदर मुझमें खूबसूरती का भाव भरता, लगता कि जैसे मेरी सारी तकलीफें दूर होती जाती हैं। मन शान्त होता जाता है जैसे चेहरे पर मुस्कुराहट आती है। सचमुच रात का स्याह रंग मुझे बहुत सृजनात्मक बनाता है आज भी। शायद वहीं बचपन से काले रंग को खूबसूरत मानने का बीज पड़ा होगा। जिसका बाद में विस्तृत अर्थ खुलता गया मेरे लिये।”
वाजदा से बचपन का जिक्र करने की देर होती है, वे मानो किसी छोटी बच्ची की तरह अपने बचपन को देखने लगती हैं– ” लाल, काले, पीले, सफेद गुलाबों की क्यारी, अमरूद, आम, बेल, जामुन और कटहल के विशाल वृक्ष, विशाल कोठियां और उनके चारों ओर खेत। आंख बन्द करो तो भी दूर तक निरन्तर क्षितिज दिखता। जैसे चांद, सितारे, सूर्य सभी अपने-अपने स्थान पर डूबते-उगते दीखते। पर अब तो सारे दृश्य सारी फिजां बदल चुकी है। आज तो बहुमंजिला टॉवर में छोटे-छोटे अपार्टमेन्ट एक के ऊपर एक टंगे। चारों ओर कंक्रीट के जंगल मन में अजीब सी घबराहट भर देते हैं। मगर किया भी क्या जा सकता है? इन्हीं के बीच रहते अपनी सृजनात्मकता बनाये रखना है सभी को। अपनी पुरानी खूबसूरत प्यारी स्मृतियों को याद करते हुये।”
वाजदा के पास वह सब कुछ अभी भी है, जो बचपन में हर किसी के पास होता है। अबोधता के साथ नया जानने की इच्छा, दुनियादारी के बीच जीते हुए, उसे ही समझने की जिज्ञासा और सबसे अधिक अपनी आँखों में वह चमक छिपाए रखना, जहाँ केवल सपने और सुंदरता के लिए ही जगह होती है।
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलावार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
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रश्मि जी की ये कविताएँ बहुत मर्मभरी कविताएँ हैं। इस विषय पर लिखी जाने वाली कविताओं से भिन्न संवेदना को आकार देती हुई। विन्यास भी संतुलित लगा। एक स्त्री का मर्मभेदी स्वर सुनाई पड़ा। बहुत अवधानपूर्वक उन्होंने सुकुमार मन, प्रेम, देह और संतृप्ति के भीतर ठहर कर स्त्रीजीवन के बारीक पक्षों को प्रस्तुत किया है।
वाजदा तो खूबसूरत चित्र बनाती हैं। बहुत डूबकर। उनकी तन्मयता मोहती है।
डूबती ही चली गयी रश्मि जी की कविताओं में ….
खुद को साफ स्वक्ष देखती चली गयी कहां कहां नहीं देखा खुद को अंतरंग भावनाओं का पुलिंदा है आपकी कविताएं आपकी भावनाएं …..हम स्त्रियाँ लहूलुहान पड़ी हैं आपकी कविता में हर जगह …
हमारे मनोभाव को बखूबी शब्द और आकार मिले ……बहुत खूब 🙏🙏🙏
बहुत गहन अर्थ से भरी हुई कविताएँ रश्मि की । बहुत बढ़िया प्रस्तुति जानकीपुल की। शुभकामनाएँ!
रश्मि भारद्वाज की कविताओं को सिर्फ स्त्री विमर्श के नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिये।इन कविताओं में सामाजिक अन्तर्विरोध की परतें जितनी गहन हैं,उससे गहन सामाजिक सरोकार हैं।रश्मि भारद्वाज की इन कविताओ का फलक विस्तृत है।यही वजह है कि ये कवितायें बेहतर संवाद करती हैं।यह एक सुकूनादेह सच्चाई है कि रश्मि भारद्वाज निरंतर विकसित हो रही हैं।उनकी कवितायें समकालीन कविता परिदृश्य को समृद्ध कर रही हैं।
रश्मि भारद्वाज की ये बेहतरींन कवितायें हैं।कथ्य,भाषा,शिल्प की दृष्टि से ये अनुपम हैं।रश्मि की ये कवितायें आधुनिक काव्य परिदृश्य को समृद्ध करती हैं
बहुत प्रभावशाली पंक्तियाँ. रश्मि जी का काव्य संकलन आपको एक नए संसार में ले जाता है.उसका शीर्षक,*मैंने अपनी मां को जन्म दिया है* ही बहुत सशक्त है, और उनकी प्रतिभा का परिचय देने में पूर्णरूपें सफल है.
रश्मि भरद्वाज की ये बेहतरीन कविताएं है । मैंने पहली बार इनकी कविताओं को पढा । इनकी भाषा, कथ्य, शैली सामाजिक सरोकारों से एक गहरा और आत्मीय संवाद करती है । इनके गहन संवाद में एक ऐसी उर्वरता है जिसमे इनका काव्य परिदृश्य का फलक एक समृद्ध, सशक्त प्रदेश को समेटे हुए है ।
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