
कविता शुक्रवार में इस बार पढ़िए उपासना झा की नई कविताएं और देखिए युवा चित्रकार सुप्रिया अम्बर के चित्र और उन पर बनी एक शॉर्ट फिल्म।
उपासना झा का जन्म बिहार के हथुआ (जिला गोपालगंज) में हुआ। वे पढ़ाई और नौकरियों के कारण कई शहरों में रही हैं। दिलचस्प यह कि ये नौकरियाँ भी एकदम अलग-अलग परिवेश की थी। हॉस्पिटैलिटी और मीडिया में नौकरी की, कॉलेज में भी पढ़ाया। एक दशक से भी ज्यादा समय हॉस्टल्स या अकेले रहते हुए बीता है। जाहिर है कि इससे उनका एकांत समृद्ध हुआ। उन्होंने कॉलेज के दिनों में कुछ कविताएँ लिखीं, हिंदी-अंग्रेजी दोनों भाषाओं में। फिर धीरे-धीरे मित्रों के आग्रह पर उन्होंने ब्लॉग्स और पत्रिकाओं में भी कविताएँ भेजीं। साहित्य में रुचि होने के कारण इधर के वर्षों में हिंदी और संस्कृत में स्नातक और फिर हिंदी में परास्नातक और नेट किया। अभी शमशेर की कविताओं पर पीएचडी कर रही हैं और समस्तीपुर कॉलेज में अतिथि शिक्षक के तौर पर पढा रही हैं। उनके शब्दों में “हर काल में संवेदनशील व्यक्ति सृजन को लेकर एक व्याकुलता और छटपटाहट महसूस करता रहा है और इस सृजनपरक उद्विग्नता के द्वारा वह अपने आपको अभिव्यक्त करता रहा है। यह बेचैनी बाह्य-वैयक्तिक कारण होती है कई बार, कोई अनुत्तरित प्रश्न, कोई आवेग, कोई असहायता। समाज में जो भी घट रहा है उससे कोई अप्रभावित नहीं रह सकता और अपने निजी संघर्षों से भी मुक्त होकर लिखना आसान नहीं है। लिखना अंतर्यात्रा है मेरे लिए, अपने को पहचानने की राह है।”
साहित्य के अलावा फोटोग्राफी और लोक-कलाओं में उनकी बहुत रुचि है। कई पत्रिकाओं में अनुवाद, कविताएं, कहानियाँ और आलेख छपते रहे हैं। उनके प्रिय साहित्यकारों में कालिदास, कबीर, घनानंद, भारतेंदु हरिश्चंद्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी, निराला, अज्ञेय, में वे बहुत रुचि रखती हैं।
आइए, स्त्री-पर्व की इस तीसरी प्रस्तुति में शब्दों, रंगों और फ़िल्म के मिले-जुले पर्यावरण में आपका स्वागत है- राकेश श्रीमाल
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तुम्हारा नाम महामाया किसने रखा!
किशोरवय में ‘माया महाठगिनी’ सुनकर मैं विस्मित होती थी
सोचती थी तुमने किसका क्या ठगा!
बाद में बताया गया कि ‘ ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या’
सत्य तो तुम्हारा भाई था और तुम मिथ्या!
भाद्रपद के कृष्ण-पक्ष की मध्यरात्रि में
लेकिन तुम्हारे प्राण का मोल कम था जोगमाया
भाई के अनमोल जीवन में अनगिनत बहनों का
चुपचाप मार दिया जाना पुरानी परंपरा रही देवि!
सोचती हूँ तुम अगर बचपन में चोरियाँ करती तो क्या वैसा दुलार मिलता!
तुम भी गाँव के सभी पुरुषों संग रास रचाती तो क्या भगवती कहलाती
गौ-चारण के बहाने तुम कालिंदी-तट पर प्रेयस से मिलती तो गाँव आह्लादित हो भावमग्न रहता!
पांचजन्य फूंकती, चक्र चलाती, गीता का ज्ञान देती हुई
तुम्हारी ओजस्विनी काया की कल्पना करती हूँ
धर्म के नाम पर अपने बांधवों का रक्त बहाने पर संसार तुम्हें पूजता!
मुझे भय है कि तुम्हें हर कदम पर इतना लांछित और अपमानित किया जाता कि तुम्हें जन्मते ही मर जाना बेहतर लगता…
गाँव की छाती पर पैर रखकर सरपट दौड़ती जा रही हैं
हाँफती-काँपती, सिर पर पैर रखकर भागती जा रही हैं ये नन्हीं किशोरियाँ
घर लीपतीं, चूल्हा-जोड़तीं, बासन माँजती, घर का सौदा-सुलुफ लातीं, गाली खातीं
कब बन गईं ये अदद जीवित मनुष्य!
बभनटोले से लेकर जुलहाटोल तक टुनटुना रहा है नए समय का औजार!
गालियों के स्वस्तिवाचन से आकाश कट कर गिर रहा
सूर्य की तरफ मुँह करके दैव को अरोगती ये मातायें
उनके पैदा होते ही मर जाने का अरण्य श्राप जाप रहीं
दबी फुसफुसाहटों में इन अभागिनों के उरहर जाने की कथाएँ
प्रागैतिहासिक काल से सुन रहा है स्तब्ध गाँव
एक तरफ बेमेल विवाह का गड्ढा है दूजी तरफ कमउम्र का मातृत्व
निशीथ-रात्रि या सुनसान दुपहरों में कौन दैत्य इन बालिकाओं को गायब कर रहा
कौन बरगला रहा है इन सिया-सुकुमारियों को
हर छमाहे, साल बीतते कोई न कोई लड़की भाग जाती है
इस विकट दुष्चक्र को तोड़ना क्या संविधान में लिखना भूल गए थे मेरे पूर्वज
और उनके माताओं-पिताओं ने उन्हें बस समझा जाँघ पर बिठाकर पुण्य अर्जने का सामान
आठ महीने की गर्भवती वह स्त्री
रुग्ण काया और शिथिल कदमों से कछुए की तरह
पैरों को घसीटती हुई दवा की दुकान गयी थी
इस देश की असंख्य स्त्रियों की तरह न वह पति को प्यारी थी
मायका भी कन्यादान को तिलांजलि मान संतुष्ट बैठा था
उसकी खोज-ख़बर कोई नहीं लेता था तो वह कितने दिनों की भूखी थी या रक्त कितना कम था यह कौन पूछता
थककर खरगोश की तरह लौटती बेर एक पेड़ के नीचे सो गई
कार्तिक की ठंडी भोर में मिला उसका शव
परदेसी पति लौट आया शरीर पर बने घावों का दाम लेने
गाँव के चुनाव का खेल ही उलट गया
अगड़े-पिछड़े, झूठ-सच, दुष्कर्म-अकाल मृत्यु, पुलिस-अस्पताल, अग्नि-आकाश, राजनीति- जाति, खुदबुद-खुदबुद
सरकारी अस्पताल में चुपचाप बैठा वह जूनियर डॉक्टर हतप्रभ होकर सोचता है आदमी और गीदड़ के दांतों का अंतर
ओ मेरी माँ! मेरे पूर्वजों की माँ!
अपनी उद्दंड बेटियों को डाँटो!
तुम्हारी ये जिद्दी बेटियाँ ये धारायें उमगकर दौड़ती चली आ रही हैं
खेतों को, फसलों को पकड़-पकड़ लोटती है
देखो! ये ले गईं आम का बगीचा भी
याद है तुम्हें! चार साल पहले तुम्हारे खुले केशों की जटाओं जैसी ये चंचल बालिकायें
खिलखिलाती हुई ब्रह्म-वृक्षों के जोड़े में से एक को ले गयी
ऐसे दिन-दहाड़े अपने घर से इतनी दूर-दूर ना आया करें
इनके आगमन से गाँव में अकाल मृत्यु की घण्टियां बजती हैं
पशु-पक्षी-मनुष्य-वृक्ष अवाक इन्हें ताकते हैं
इन बिगड़ैल किशोरियों का हठ क्या बाँध को ठेलकर ही मानेगा
मेडुसा के केशों के अनगिनत सर्पमुखों सी ये तुम्हारी लड़कियाँ जहां से गुजरती हैं, खेल-खलिहानों को नष्ट करती चलती हैं
दिशा-दिगन्तर को ध्वस्त करती चलती हैं।
अब समेटो इन्हें, वापिस बुलाकर अपनी गोद में सुलाओ
उठते डर लगता है उसे कम रौशनी में
माघ की ठंड में उसकी गात है
उमगती है नसों में एक पवित्र अनुभूति
लेकिन ये क्षण भीषण अंधकार को
उसके सपनों में परियाँ नहीं आती
बोरी में बन्द, दुछत्ती पर धरी हुई
नहीं आती उसकी सहेलियाँ अब घर
गुड्डे-गुड़ियों की बारात में
न छुप्पमछुपाई में अब उसकी डाक होती है
उसे कर दिया गया है निर्वासित
दादी अब नहीं देती उसे मीठी गालियाँ
पिता की आँखों में सूनेपन के सिवा कुछ नहीं
आ बैठा है डबडबाया हुआ पछतावा
क्यों नहीं रखा उन्होंने उसका ध्यान
माँ को बोलते अब कोई सुनता
उसे नहीं धोने इस शिशु के पोतड़े
और सरसों के पीले फूल बुलाते हैं
उसे डर लगता है शंकित आँखो
ऐसा शोक है, जिसमें यह घर है संतप्त
यह शिशु है अवांछनीय, अस्वीकृत
हर दिन यह परिवार कुछ और ढहता है
देश का अंधा कानून आत्ममुग्ध है
अपने अँधेरे कमरे की फर्श पर बैठी
किसी से कुछ पूछ भी नहीं पाती..
और ललक की सीमा में, उगता है चाँद!
बने रहने में हृदय है सुख-निमग्न
प्रतीक्षा बन गयी है आगत की पुलक
जहाँ मेरी इच्छाओं के सर्वाधिकार है सुरक्षित
जहाँ कामनाएँ हैं अक्षुण्ण
स्वप्न में एक करवट है तुम्हारा शहर
जहाँ हम हैं अज्ञात-कुलशील
प्रेम, कुछ ऐसा भी करता है
की आस्तिक का बदल देता है ईश्वर
नास्तिक को देता है एक नई राह
करता है स्वर्ग-च्युत किसी धीर-प्रशांत को
योगी को देता है तृप्ति का वरदान
उसे प्रेमिका लगाकर प्रेमी के कान के पीछे
निश्चित हैं कि प्रेम उसका अब अमृत है
दुनिया को रखती है बन्द किसी दराज़ में
उसे नहीं चाहिये बैकुंठ की देहरी
प्रेमी के नाम में कई तीर्थ बसते हैं.
बनिये की दुकान से सौदा लेकर
लौटती, दो चोटियाँ लहराती रहती उसकी
हाथ में रहती एक रुपये वाली टॉफी अक्सर
जो चिल्लर की जगह उसे थमाया जाता
उस एक ही दिन में ही बड़ी हो गयी लड़की
नींद की गोद में दुबकी हुई
बेधड़क जो नींद की चारदीवारी में भी घुस आयी
उसकी चद्दर, गिलाफ और कपड़ों में
कोई रच गया था रक्तिम बेल-बूटे
उस एक रात में बड़ी हो गयी लड़की
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सुप्रिया अम्बर : मेहनतकश सौंदर्य की चित्रकार
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— राकेश श्रीमाल
किसी भी कलाकार को समझने के लिए उसके बचपन के परिवेश, बढ़ती उम्र के साथ बदलता हुआ देखने-जानने का उसका नजरिया और जीवन में उसकी भिन्न रुचियों-अरुचियों के पृष्ठ पलटना बेहतर होता है। चित्रकार सुप्रिया अम्बर के विगत को जाने बिना उनकी कला को ठीक तरह से पढ़ा नहीं जा सकता।
पढ़ने की ही बात चली है तो बता दें कि सुप्रिया को गणित सलीके से समझा सके, ऐसा कोई गुरु मिल नहीं सका। लेकिन खेल में, चित्रकारी में और गतिविधियों में वे खुद ही इतनी रम जाती थी कि चाहे ड्राइंग टीचर हों, स्पोर्ट्स टीचर, या फिर कल्चरल इंचार्ज सबकी चहेती बनी रही।
जम्मू (राजोरी कालाकोट) में जन्म लेने के बाद अपने छुटपन के जितने वर्ष वे वहाँ रहीं, उतने में ही उन्होंने डोंगरी भाषा में गालियां बकना खूब सीख लिया था। मेहमान घर पर आते और चाय पीकर जैसे ही कप मेज़ पर रखते, वे झट से कप उठाती और इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाएं, उसे वहीं ज़मीन पर पटक फोड़ देती। यही नहीं वे बल्ब और ट्यूब लाईट के कांच के टुकड़े चबा -चबा कर खा लिया करती थी। दो ढाई साल की रही होंगी उस वक़्त। यानी उनके विद्रोही और जिद्दी स्वभाव के लक्षण जम्मू में ही दिखने शुरू हो गए थे। बाद में उनके पिता अविभाजित मध्य प्रदेश (अब छत्तीसगढ़) के सरगुजा में खोंगापानी की कोयला खदान से जुड़ गए और सेवानिवृत्ति तक वहीं रहे। वो इलाका ऐसा था, जहाँ गिरनौकरी पेशा लोग कहीं न कहीं छत्तीसगढ़िया आदिवासी जनजातियों के प्रतिनिधि रहे। स्वभाव से बेहद सरल, कच्चे मिटटी के मकानों में भौतिक तरक्की से बहुत दूर। उनके घरों के बाहर सफ़ेद चुने और आसमानी डिस्टेंपर की सज्जा को तब की छोटी सुप्रिया बहुत उत्सुकता से ताकती रहती थी। उनके आज के कैनवास पर वह स्मृति-छवि खुद सुप्रिया देख पाती हैं।
उनकी स्मृति में जलते कोयले की खुशबू, गम बूट और टोपी पहने ड्यूटी पर जाते लोग, उनके चेहरों से झड़ते कोयले का पाउडर, सिगड़ी में धधकता सुर्ख कोयला, अलार्मिंग व्हिसिल-सायरन की आवाज़, स्कूल से घर तक का सीनिक ब्यूटी से भरा वर्षों चलने का सफर प्रायः हमेशा बना रहता है। आज के उनके सभी चित्रों में उसी स्मृति-परिदृश्य के पात्रों की आवा-जाही सहज तौर पर देखी जा सकती है। उनकी माँ मैथिल और पिता बिहार भोजपुर के थे, इसलिए उनकी गर्मी की छुट्टियां बिहार में बीतती थीं। गंडक नहर के बाजू से ही उनका गाँव हरखुआं था। छत्तीसगढ़ में रहते हुए प्राकृतिक सौंदर्य और वातावरण को लेकर सुप्रिया को ऐसा लगता था कि यही उनका हैबिटैट है। ऐसे में बिहार जाना उन्हें बहुत उत्साहित करता रहा था।
बहुत बाद में हॉस्टल का जीवन और कॉलेज में पेंटिंग की क्लास, उनके जीवन में प्रवेश कर चुके थे। पहली बार कॉलेज में ही ड्राइंग बोर्ड, हैंडमेड शीट और भिन्न तरह के शेड्स की पेंसिल देखी। ग्रेजुएशन कर लेने के बाद चित्रकला में एम.ए करना ही था लेकिन तब सुप्रिया को यह समझ आने लगा था कि समय ख़त्म हो रहा है और अब तक जो कुछ भी हासिल-जमा है, वह एक डिग्री मात्र है। यह समय उनके जीवन में अपने भीतर कुछ खोजने का समय था। इस खोजने में वे खुद को अकेली महसूस करने लगी। कॉलेज का आकर्षण धीरे-धीरे कम हो रहा था। भविष्य की गलियों में अजनबी की तरह चलने की उधेड़बुन शुरू हो गई थी। तभी एक सीनियर से पता चला कि एक आर्टिस्ट हैं जबलपुर में, उनसे मिलना चाहिए। वे बहुत उत्साहित हो उस चित्रकार से मिली। उस चित्रकार को सारा दिन अपने स्टूडियो में पेंटिंग करते वे देखती। दर्शन, साहित्य, कला पर किताबें उस स्टूडियो में देखना उनके लिए नया और अलग अनुभव रहा। यहाँ से उनका खुद के और जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदलना शुरू हुआ। वह चित्रकार विनय अम्बर थे। उन दिनों से लेकर आज तक सुप्रिया को विनय कभी फुर्सत में बैठे नहीं दिखते। आज तक इसलिए कि विनय अब लंबे अरसे से उनके जीवन साथी हैं और उनका एक बेटा बिगुल भी है। तब विनय अगर चित्र नहीं बना रहे होते तो कविता पढ़ते पाए जाते। कविताओं और साहित्य के प्रति सुप्रिया की समझ इस तरह से ही विकसित हुई। आगे चल कर सुप्रिया ने हिंदी साहित्य में भी एम.ए किया और जर्नलिज्म की डिग्री भी प्राप्त की। विनय के साथ ही उन्होंने नाट्य मंचों के माहौल को भी बहुत नज़दीकी से परखा। इकबाल की रचनाओं पर विवेचना रंगमंडल की एक प्रस्तुति में उन्होंने अभिनय भी किया। अमृता प्रीतम और सआदत हसन मंटो की रचनाओं पर बनी फिल्मों में मुख्य पात्र भी रही। परन्तु चित्र उन्हें अधिक प्रिय रहे और लुभाते रहे। जब विनय को जुलूसों के पोस्टर बनाते, नारे लगवाते और जनगीत गाते देखा, तब उन्हें कल्पना भी नहीं थी कि वे खुद इस दुनियां का हिस्सा बन जाएंगी। सामजिक दायित्वबोध के प्रति उनका झुकाव बढ़ता गया।
इन सबके समानांतर चित्र बनाना जारी रहा। कुछ अमूर्तन में भी चित्र बनाए। लेकिन उनके अंदर मौजूद जंगल, प्रकृति, लोक रंग, देशज परिधान और मानव आकृतियां कैनवास पर आने की राह देख रही थीं। वे लंबे समय तक पशोपेश में रही कि इन दिनों आकृतिमूलक चित्रों का कोई महत्व है या नहीं।
ऐसे में ‘समकालीन कला’ के एक अंक में उन्होंने ए.रामचंद्रन के एक चित्र को कवर पर और दो अन्य चित्रों को लेख के साथ देखा। उन्हें अपना रास्ता मिल गया था। उन्होंने ए. रामचंद्रन के बारे में खूब जानकारियां हासिल की। रामचंद्रन के बैचमेट और बेहतरीन शिल्पकार हरी श्रीवास्तव से रामचंद्रन के काम को बेहतर समझने में मदद मिली। उन्होंने रामचंद्रन पर पी एच डी करने का तय किया ताकि वे उनके चित्रों को सूक्ष्मता से समझ पाएं। वे अक्सर ही दिल्ली में रामचंद्रन से मिलने जाया करतीं। रामचंद्रन समय के पाबन्द हैं। एक बार दिल्ली के यातायात की आपाधापी में सुप्रिया वक़्त पर उनके स्टूडियो नहीं पहुंच पाई। रामचंद्रन ने स्टूडियो का दरवाज़ा खोला और कहा- “जो समय मैंने तुम्हारे लिए रखा था, उसमें मैंने कोई काम नहीं किया। अब मैं काम कर रहा हूँ।”
सुप्रिया अम्बर कहती हैं कि- “मैं यह मानती हूँ कि हर कलाकार अपने आस पास हो रहे परिवर्तनों से विषय लेता है। प्रस्तुति और अभिव्यक्ति का अंदाज़ ही उसे एक दूसरे से अलग करता है। तीव्रता और आवेग का स्तर सभी का अलग-अलग है। मुझे ऐसा भी लगता है कि आकृतिमूलक चित्रों के समक्ष हम (दर्शक) अपनी भावनाओं को अधिक जाहिर कर पाते हैं। अमूर्तन में काम करना शुरुआत में बहुत रोचक लगता था। लेकिन आकृतिमूलक चित्र बनाते हुए मैंने पाया कि मैं भावनाओं को पेंट कर रही होती हूँ। हर चित्र में मौजूद मानवाकृतियां मुझसे खुद डिमांड और कण्ट्रोल करती हैं कि वो किस रंग से खुद को चाहती हैं, किस डाली पर बैठना है या उन्मुक्त आकाश में विचरना, ये पक्षी स्वयं तय कर देते हैं। उनके परिधान और उन पर बनाया जाने वाला प्रिंट और रंग संयोजन आईने के समक्ष मेरा खुद संवरने जैसा भाव जगाता है। अमूर्तन में मुझे ये एहसास हुआ कि मैंने ही अपने कैनवास को कंट्रोल कर रखा है जो कि स्वभावतः मुझसे नहीं हो सकता है। मेरे चित्र अधिकतर मेरी आउटडोर स्केचिंग और स्टडी का विकसित रूप माने जा सकते हैं। कामगारों के बीच बैठकर उनकी बातें और कहानियां सुन कर मैं बहुत प्रेरित होती हूँ और बड़ी तेज़ी से अपने कैनवास की और निकलना चाह रही होती हूँ। परन्तु बहुत देर से पहुँच पाती हूँ। जिसके कई कारण हैं। प्रयास ये रहता है कि काम की निरंतरता बनी रहे। अधिक दिनों तक चित्रों से दूर रहने से ग्लानि से भी भर जाती हूँ। मैं नियमित स्केचिंग करने पर बहुत यकीन करती हूँ। इस बात को सुनिश्चित करती हूँ कि मेरी लाइन और ड्राइंग की प्रैक्टिस जारी रहे। मेरी रेल यात्राओं की स्केच बुक्स मुझे अलग ही आत्मविश्वास देती हैं। शुरू से ही मैंने मेहनतकश लोगों के सामान्य जीवन को अपने कैनवास पर स्थान दिया और अब तक उनके प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ। आयल और वाटर कलर में काम करने में मुझे अधिक ठहराव और ऊर्जा मिलती है।”
सुप्रिया अम्बर कविताएं भी लिखती हैं, जो कई महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में छपी हैं। उनकी कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। जबलपुर में रहते हुए वे ‘इत्यादि आर्ट फाउंडेशन’ के सचिव की जिम्मेदारी भी निभाती हैं। उनके चित्र बनाने की रचना प्रक्रिया की थोड़ी झलक एक लघु फ़िल्म में देखी जा सकती है, जिसका लिंक यहाँ दिया गया है।
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलावार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
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क्या ही कहा जाए। स्त्री मन । बाल मन। जीवन । काया। ह्रदय। सबमें तुम आकार लिया है। तुमने अपने शब्दों से। मन बैठ गया पढ़कर। शुभकामनाएं तुम्हें।
आह्हा!
आपको पढ़ना मानो कुछ गाँठो को सहलाने सा ।
मानो बस पढ़ते ही जाएँ।
सारी कविताएं नारी-संवेदना से संपृक्त हैं। उपासना जी की कविताएं और सुप्रिया जी के चित्रांकन – दोनों मर्मस्पर्शी हैं।
Nice sir
उपासना झा बहुमुखी प्रतिभाशाली व्यक्तित्व की हैं । इनकी कविताएँ सर्वतोमुखी होती हैं। भावपक्ष की प्रबलता के माध्यम से जीवन के सरोकार की अभिव्यक्ति से स्पष्ट है कि भाव इनका उद्देश्य न होकर साधन होता है, सशक्त साधन जिसको माध्यम बनाकर वह जीवन के सूक्ष्म यथार्थ को अभिव्यंजित करने के लक्ष्य का संधारण करतीं हैं। यहीं इनकी कविता कविता के दोनों रूपों से अलग विशिष्ट पहचान बनाने में सफल होतीं हैं। इसमें जितना यह सफल होती जाती हैं इनकी रचना उतनी ही ख़ूबसूरत बनती जातीं हैं। लगता है लोगों के बीच, लोगों के न सिर्फ़ परिवेश अपितु उसके भीतर के मनोभावों तक पहुँच बनाकर यह सृजन करने में मस्त हो जाती हैं। मेरी हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं इस उम्मीद के साथ कि एक सशक्त साहित्य इनके अंदर से सृजित होकर प्रकट होगा।