मकर संक्रांति के अवसर पर विशेष प्रस्तुति। दिनेश चौधरी का लेख-
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सच्चा पतंगबाज वही होता है जो उसके इश्क़ में डूबकर साथ-साथ उड़ता है। पतंग और पतंगबाज एकाकार हो जाते हैं। रंग-बिरंगी पतंगों के साथ मैं भी कई-कई बार उड़ा हूँ और यह बिल्कुल ताजी उड़ान है। आसमान अमूमन साफ है, पर इक्का-दुक्का बादल के टुकड़े आते हैं और छेड़कर अपनी राह में निकल जाते हैं। अब वो जमाना नहीं रहा कि इनके जरिए प्रेयसी को सन्देश भेजा जाए। हवा यहाँ सरसराकर बहती है। कभी जिगर में अटक जाती है तो कभी सीने के आर-पार चलती है। अपना वजूद खत्म हो जाता है। हवा जैसा चाहती है, खेल करती है। अपन कभी शांतचित्त होकर ठहर जाते हैं, कभी गोते लगाते हैं और कभी कलाबाजियां भी खाने लगते हैं। यह आनन्द अवर्णनीय है। नहीं, अकेले नहीं हैं। मंशाराम साथ हैं, डॉ खान हैं, दासू हैं और उधर एक छोर से रामपुरी चले आ रहे हैं। उनकी चाल में आज कुछ ज्यादा ही तेजी नज़र आ रही है। अपनी तरह उन्हें भी पतंग के साथ उड़ना बड़ा रास आता है। बोलना-बतियाना भी चल रहा है। दोस्त कहते हैं कि मैं यहाँ आकर कुछ ज्यादा ही वाचाल हो जाता हूँ। ठीक बात है। अपना तो पेशा ही बोलने का है और यहाँ इतने सुहाने माहौल में कोई घुन्ना इंसान ही चुप रह सकता है। मैंने डॉ खान से कहा कि आप अपना क्लिनिक यहीं खोल लें। आसमां में उड़ते हुए मरीज को देखने में शौक और काम एक ही समय में निपट जायेंगे। डॉ खान ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “ऐसी सलाह कोई सच्चा दुश्मन ही दे सकता है। कोई भी मरीज नीचे से ऊपर नहीं जाना चाहता। यहाँ आएगा कौन…..।”
पास ही कहीं अचानक जोर की बिजली कड़की। झटका-सा लगा। डोर सुहाने सपने की तरह टूट चुकी थी और कटी पतंग शरीर से मुक्त आत्मा की तरह दूर, बहुत दूर छिटकी चली जा रही थी। मैंने उसे जाते हुए देखा- जैसे किस्मत ही रूठकर चली जा रही हो! उसे इस तरह से जाते हुए देखना मेरे लिए सबसे ज्यादा तकलीफदेह काम है। लेकिन जिस तरह यह शरीर नाशवान है, हर उड़ती पतंग को कभी न कभी कटना ही होता है। यही परम् सत्य है। आसमां की बुलंदियों को छू रही पतंग जब अचानक कट जाए तो उसकी दशा क्या होती है, यह मुझसे बेहतर कौन जानता है?
पतंगबाजी को पहले प्यार की तरह कभी भुलाया नहीं जा सकता। उन दिनों आसमान में पतंगें उसी तरह उड़ती रहतीं, जैसे किसी साफ नीले पानियों वाली झील में रंग-बिरंगी मछलियाँ इठलाती हुई तैर रही हों। कभी-कभी लगता कि आसमान में रंग-बिरंगे फूल खिल आए हों। इस नज़ारे से नज़र हटाने का जी नहीं करता था। घर से स्कूल जाते-लौटते हुए अपन कई बार सड़क में ठोकरें खाते थे, क्योंकि निगाह हमेशा आसमान में टँगी होती। बड़ी हसरत होती थी पतंग उड़ाने की पर तब पतंग का जुगाड़ भी मुश्किल होता। कभी कोई पतंग आकर घर के छज्जे में फँस जाती तो उसे उतारना भी बड़ा मुश्किल काम होता था। छत खपरों वाली थी और उस पर चलना कमरों में बारिश को दावत देने जैसा था। बाँस से उतारने पर पतंग कई जगहों से फट जाती और अपने कलेजा चाक-चाक हो जाता। कभी कोई पतंग सही-सलामत उतर आती तो उसे कंजूस की दौलत की तरह सहेज-सहेज कर कई दिनों तक चलाया जाता। पतंग को घर छोड़कर जाना पड़ता तो स्कूल में मन नहीं लगता। उड़कर लौट आने का मन करता। उड़ने का अभ्यास यहीं से हुआ!
पतंग हवा से भारी होती है। सुना है कि आजकल हल्की पतंगे भी आने लगी हैं। यह जमाना ही हल्केपन का है। अदबी हल्कों से लेकर सियासत तक; जब सब जगह चीजें हल्की हुई जा रही हों तो दो बित्ते की पतंग की फिक्र कौन करता है! पर जिक्र उस जमाने का है जब पतंगें इंसान के ईमान की तरह जरा भारी होती थीं और आसानी से डोलती नहीं थीं। इन पतंगों के उड़ने के सिद्धांत को आसान लफ्जों में इस तरह से समझ सकते हैं कि जब किसी इलाके में किसी नेता की नुमाइंदगी के लिए नीचे जनता का दबाव बने और ऊपर हाईकमान जरा हल्का होकर नर्म पड़ जाए तो वह फर्राटे से उड़ान भरने लगता है। पतंग भी इसी तरह उड़ती है। हवा का दबाव पतंग के नीचे ज्यादा हो और ऊपर कम, तो दाब के इस अंतर से पतंग हवा में कुलांचे भरने लगती है। राजनीति और पतंगबाजी के सिद्धांत आपस में काफी मिलते-जुलते हैं और वही पतंग देर तक आसमान में उड़ती रहती है, जो दूसरों को काटती चलती है। इसे ‘सरवाइवल ऑफ फिटेस्ट’ भी कहा जाता है, जिस रास्ते पर आज सारी दुनिया चलती दिखाई पड़ रही है।
संसदीय लोकतंत्र की तरह पतंगबाजी में भी पक्ष और विपक्ष, दोनों का बराबरी का महत्व होता है। पक्ष में वे होते हैं जो साथ-साथ पतंग उड़ाते हैं और विपक्ष में वे जो पतंग लड़ाते हैं। एक तीसरा मोर्चा भी होता है जो न पतंग उड़ाता है, न लड़ाता है, वो पतंगों को लूटता है। यह पक्ष अवसरवादी होता है और हमेशा फायदे में रहता है। पतंग किसी की कटे, लूट का माल इसी के हिस्से में आता है। बाकी आम जनता तो होती ही है, जो मूक दर्शक होती है और जिसके हिस्से में सिर्फ तालियाँ बजाने की भूमिका आती है। वह इसी में खुश भी रहती है। यों पतंगबाज दो किस्म के होते हैं, एक शौकिया और दूसरे पेशेवर। शौकिया पतंगबाज अपने काम के प्रति बहुत गम्भीर नहीं होते और कभी-कभी तीज-त्यौहार में रस्म अदायगी की तरह पतंग उड़ा लेते हैं। इनकी पतंग सूने आकाश में ही उड़ती है। जैसे ही भीड़ बढ़ती दिखाई पड़ती है, ये पतंग की डोर खींच लेते हैं।वैसे ही जैसे भले घर की माँएं, आवारा लड़कों को देखकर अपने राजा-बेटा किस्म के लड़के को वापस बुला लेते हैं। पेशेवर पतंगबाज अपने हुनर के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध होते हैं। ये उस्तादों की तरह होते हैं और दूर से ही दिख जाते हैं कि पेशेवर पतंगबाज है। इनके साथ एक पूरी टीम होती है, जिसमे ‘छुड़ैया’ देने वाले से लेकर चकरी पकड़ने-ढील देने वाले क्रू मेंबर होते हैं। ये एक ‘किट बॉक्स’ जैसा लेकर चलते हैं, जिसमे ढेर सारी पतंग, चकरी, माँझा के अलावा पतंग की ‘फर्स्ट एड’ के लिए जरूरी सामान होते हैं।
पतंग लूटने वाले भी मूलतः दो किस्म के होते हैं। एक आकस्मिक होते हैं जो मौका देखकर पतंग लूटने वालों की भीड़ में शामिल हो जाते हैं। दूसरे पेशेवर होते हैं, जो यह बर्दाश्त नहीं कर सकते कि उनके होते हुए कोई दूसरा पतंग लूटकर ले जाए। वे अपने साथ हमेशा एक 8-10 फीट लम्बा बाँस का डंडा रखते हैं, जिसके ऊपरी भाग में गुलाब की कांटेदार टहनियों की ‘लग्गी’ लगी रहती है। इसे लेकर दौड़ने के लिए कभी-कभी उनके साथ एक सहायक भी होता है। भीड़ में जब दूसरे लोग हाथ उठा-उठा कर उछलते रहते हैं, ये बाँस को हवा में लहराकर पतंग की डोर को ‘लग्गी’ में लपेट लेते हैं। फिर डोर को अपने बदन में लपेटकर पतंग को पीठ में टिका लेते हैं और पीछे लूटने वालों की पूरी भीड़ के साथ विजय-जुलूस जैसा निकलता है। हाथ में हस्बे-मामूल बाँस का डंडा लहराता रहता है।
तब पेशेवर पतंगबाजों में मंशाराम, दासू और रामपुरी के नाम बड़े मशहूर हुआ करते थे। डॉ खान अलबत्ता अपन से जूनियर पतंगबाज थे, पर बहुत नाजुक मौके पर उन्होंने अपन को गच्चा दिया। मंशाराम की ख्याति पतंगबाजी के अलावा मछली पकड़ने में थी। वे जब पानी में अपनी फिशिंग रॉड डालते और मछली फँसने से उसका ‘बोर’ खिंचने लगता तो वे मछली की चाल से उठने वाली पानी की लहरों से यह बता देते कि कौन सी मछली फँसी है। इसीलिए उनकी पतंग आसमां में उड़ती नहीं थी, बल्कि तैरती थी। रामपुरी को पतंगबाजी की तकनीक का गहरा ज्ञान था और वे पतंगों की ‘स्विंग’ के उस्ताद थे। किसी विरोधी की पतंग काटनी हो तो अपनी डोर बिल्कुल तनी हुई होनी चाहिए और पतंग में ‘स्विंग’ जबरदस्त होनी चाहिए। ‘स्विंग’ प्रहार का काम करता है और माँझा ‘धार’ का। यह दोनों सही हो तो विरोधी चारों खाने चित्त हो जाता है। रामपुरी के पास यह कौशल गजब का था और उनकी पतंग और तकनीक को लेकर तरह-तरह के किस्से चलते थे। किसी तरह एक बार उनकी पतंग कटी तो उसे लूटने के लिए अपन ने घर से लेकर पाटबाबा तक की दौड़ लगाई। पतंग हाथ आई भी। उनके पतंग की खासियत यह थी कि पतंग की कन्नी में उन्होंने धागा ही बाँधा था और माँझा थोड़ा नीचे आकर था। वे अपनी पतंग को थोड़ी ऊँचाई में रखते थे ताकि विरोधी की पतंग की डोर माँझे वाले हिस्से में आए। ऊपर धागा होने के कारण उन्हें स्विंग जबरदस्त मिलता था और पतंग खटाक से कटती थी। उस्तादों की सोहबत का असर अपन पर भी आने लगा था और एक बार अपन ने लगातार 8 पतंगे काट डालीं। यह जिक्र पहले भी आया है कि तब लगातार 9 पतंगे काटने पर ‘नौशेरवां’ की उपाधि मिलती थी। अपन को सिर्फ एक पतंग काटनी थी और सामने डॉ खान थे। वे नए-नए पतंगबाज थे पर उन्होंने अपनी पतंग काटकर ‘नौशेरवां’ बनने से रोक दिया। शायर ने इसी मौके के लिए कहा है, ” हमें गम था तो बस यूँ गम था/जहाँ कश्ती डूबी वहाँ पानी कम था।”
अच्छे किस्म की पतंगे अपने जबलपुर में नहीं बन पाती थीं। ये उत्तर-प्रदेश से आयात होती थीं। कांचघर में पातीराम की दुकान में सारा सामान मिल जाता था। कभी-कभी अपन खुद इलाहाबाद से पतंगों के ढेर बटोर लाते थे। लोग समझते कि ये पतंग बेचने वाला है। पतंगों के नाम उनके आकार, रंग और डिजाइन के माध्यम से तय होते थे। पारखी नज़रों वाले पतंगों की बारीकियों को समझते थे। कुछ पतंगों के ताव कागज में कौड़ियों को घिसकर डिजाइन बनाई जाती थी। ये चमकदार पतंगें होती थीं और काम बहुत बारीक होता। जो पतंगे ज्यादा चलती थीं, उनके नाम थे: ‘डंडयाल’, ‘मुढ्ढयाल” ‘चौकड़ा’, ‘पट्टयाल’, ‘चाँद-तारा’, ‘अधरंगा’ और ‘लँगोटा’। इंसानों की तरह पतंग की भी एक रीढ़ की हड्डी होती है। आजकल कुछ इंसानों में यह नहीं भी पाई जाती, पर पतंग में अनिवार्य रूप से होती है। इसके पीछे एक रंगीन डंडी होने पर यह ‘डंडयाल’ कहलाती थी। ‘मुढ्ढयाल’ में ऊपर की ओर अंग्रेजी के ‘यू’ आकार की पट्टी होती। ‘अधरंगा’ में नीचे आधी पतंग रंगीन होती जबकि ‘चौकड़े’ में चार रंगों वाले चौकोर खाने होते। ‘चाँद-तारा’ में चांद-सितारों वाली आकृति होती और ‘पट्टयाल’ रंग-बिरंगी पट्टियों से मिलकर बना होते। ‘लँगोटा’ में पतंग का निचला हिस्सा लँगोट के आकार का होता। ये सारी पतंगे शौकिया पतंगबाज सिर्फ उड़ाने के मकसद से लेते थे। पेशेवर पतंगबाज सादी पतंग लेते क्योंकि इसमें पट्टियों के न होने से इनके फटने की गुंजाइश कम होती थी। माँझा अलबत्ता घर में ही तैयार करना होता था। इसके लिए काँच को फोड़कर पीसा जाता था। फिर चिपकने वाले द्रव में चूर्ण को मिलाकर धागे को भिगोते हुए निकाला जाता। चिपकाने के लिए पहले इसमें अपन उबले चावल का पेस्ट इस्तेमाल करते थे, पर बारिश में यह माँझा नरम पड़ जाता था। फिर किसी ने अंडे की सलाह दी, पर यह प्रयोग भी सफल नहीं रहा। अच्छा माँझा तब तैयार हुआ जब इसके लिए सरेस का इस्तेमाल किया गया। सरेस और काँच के साथ मिलकर बनने वाला माँझा उत्तम गुणवत्ता का होता था। आजकल तो यह चीन से भी आने लगा है पर वह बहुत खतरनाक है और मौका पड़ने पर गर्दन ही काट सकता है।
इंसानों की तरह पतंगों में भी हारी-बीमारी लगी रहती है। इसका एक रोग ‘झटका’ कहलाता है। यह ‘हार्ट अटैक’ की तरह होता है। ‘छुड़ैया’ देते समय पतंग हवा में उठती नहीं है, बल्कि एक झटके से जमीन में आ गिरती है, जैसे उसे दिल का दौरा आ गया हो। इसी तरह कभी-कभी पतंग लंगड़ा कर उड़ती है। उसका संतुलन बिगड़ जाता है। ऐसे मौकों के लिए तब पतंगों के डॉक्टर भी हुआ करते थे। हड्डी रोग विशेषज्ञ की तरह कुछ बाँस की कमानी के एक्सपर्ट होते और कुछ का काम प्लास्टिक सर्जरी करना होता। ‘झटका’ वाली बीमारी कमानी में दोष की वजह से होती थी। इसके लिए पतंग की कमानी को खास अंदाज में सिर से रगड़ा जाता था। संतुलन ठीक करने के लिए पतंग के किसी एक छोर में धागा बांधने का काम होता रहा। यह काम बहुत नाजुक होता। धागे की मात्रा उपयुक्त न हो तो या तो बीमारी ठीक नहीं होती या संतुलन दूसरी ओर शिफ्ट हो जाता। पलास्टिक सर्जरी वाले डॉक्टर फ़टी पतंगों को चिपकाने का काम करते थे। वे यह काम इतनी सफाई से करते कि पता नहीं चलता कि पतंग कहीं से फ़टी हुई है। पर जिस पतंग की सर्जरी कुछ ज्यादा ही हो गई हो उसे ‘चिपकाड़िया’ कहा जाता। मजा तो तब आता जब लूटने वाले खूब लम्बी दौड़ लगाकर इसे हासिल करते। लूटने वाला विजयी मुद्रा में होता और पीछे जुलूस में लोग ‘कॉम्प्लेक्स’ से भरे होते। अचानक किसी की नज़र पड़ती तो वह तो धीरे से कह उठता, “अरे! ये तो चिपकाड़िया है..!” इसे बाकी लोग लपक लेते। एकल स्वर समूह गान में बदल जाता। लोग कोरस में कहने लगते, “चिपकाड़िया चिपकाड़िया..!” जो अब तक विजयी-मुद्रा में चल रहा होता, उस पर बिजली-सी गिरती। खुद उसकी हालत कटी पतंग जैसी हो जाती। वह धीरे से पतंग किसी को थमाता या पटककर भाग खड़ा होता।
पतंग लूटने के फेर में इस्टेट में हुआ वह हादसा अलबत्ता बहुत भयानक था। वे चार भाई थे। दूसरे नम्बर वाले पतंग का पीछा करते-करते वहाँ पहुँच गए जहाँ हाई टेंशन वाली तारें थीं। पतंग यहीं उलझ गई थी। वह खम्भों में चढ़कर एक डाली की सहायता से पतंग को खींचना चाहता था। डाल गीली थी। एक धमाका-सा हुआ। पल भर में प्राण-पखेरू उड़ गए। पीछे एक चड्ढा नामके सज्जन दौड़ते हुए आए। साहस का परिचय देते हुए उन्होंने शव को किसी तरह उतारा। उनके हाथों में जिसका शव था, आज ही उसका जन्म-दिन भी था। पूरा इस्टेट सिहर उठा। उस साल वहाँ ठीक से पतंगे नहीं उड़ सकी थीं।
पतंगें अब बस तीज-त्यौहार में दिख जाती हैं। माना जाता है कि इंसान इनके जरिए ईश्वर को सन्देश भेजता है और सुख-समृद्धि की कामना करता है। बच्चे ईश्वर को प्यार भरे सन्देश भेजते थे पर इस काम के लिए अब उनके हाथों में मोबाइल आ गया है।
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के. के. नायकर
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पिछली सदी के 70 और 80 के दशक में हिंदी पट्टी में कुछ बहुत ही लोकप्रिय गैर-फिल्मी कलाकारों के नाम याद करने की कोशिश करें तो के. के. नायकर का नाम सबसे पहले जेहन में आता है। वे कैसेट प्लेयर वाले दिन थे। घरों के अलावा नुक्कड़-गलियों में पान के ठेलों में कैसेट प्लेयर बिला-नागा बजते रहते थे। दो चीजें तब बड़ी मशहूर हुआ करती थी; एक तो गब्बर सिंह के संवाद और दूसरे के. के. नायकर के हास्य-व्यंग्य के कार्यक्रम। हास्य-व्यंग्य की छवि साहित्यिक-समाज कोई बहुत अच्छी नहीं रही। हिंदी के आलोचक तो इसे विधा मानने से ही इंकार करते रहे। लेकिन हरिशंकर परसाई आलोचकों के नहीं बल्कि पाठकों के लेखक थे और उनके लिखे को लगातार खारिज करते रहना आलोचकों के बूते के बाहर हो गया। जिन दिनों हरिशंकर परसाई व्यंग्य को ‘शूद्र से क्षत्रिय’ बनाने के काम में जुटे हुए थे, उन्हीं दिनों में, उन्हीं के शहर जबलपुर में के. के. नायकर अपने ढंग से मंच पर हास्य-व्यंग्य को प्रतिष्ठित करने में लगे हुए थे। नायकर अपनी तरह के अनूठे-अद्भुत कलाकार रहे हैं और उन्हें सिर्फ ‘मिमिक्री’ या ‘कॉमेडी आर्टिस्ट’ कहकर खारिज नहीं किया जा सकता।
जीवन के प्रति उनकी दृष्टि गहन और बारीक रही है। खुद उनके शब्दों में कहें तो “अपन अपनी कला को खुदा की नेमत मानते रहे, सो इसकी शुद्धता के साथ कोई समझौता नहीं किया। कभी भी अश्लील अथवा फूहड़ चीजों का समावेश नहीं किया। ये उथले पानी के बुलबुले की तरह होते हैं, जो बस कुछ ही पल में हमेशा के लिए खत्म हो जाते हैं। दूसरी ओर झील की गहराई में फेंका गया कंकड़ जो लहरें पैदा करता है, वे दूर तक जाती हैं और देर तक रहती हैं।” यह सच भी है। जिस दौर में हिंदी के मंचीय कवि हास्य के लिए फकत स्त्रियों और कमजोरों का मजाक उड़ाते रहे, उसी दौर में नायकर इन्हें भरपूर सम्मान देते हुए जीवन की छोटी-सहज घटनाओं में हास्य-व्यंग्य के स्रोत तलाशते रहे। उनका ‘ऑब्जर्वेशन’ बहुत बारीक है। वे यह भी जानते हैं कि इनमें वह कौन-सी चीज है जो उनके दर्शक-श्रोताओं के काम की है। और उन चीजों को किस तरह से प्रस्तुत करना है, इस फन में उन्हें कमाल की काबिलियत हासिल है। क्या यह अजूबा नहीं है कि विगत लगभग 5-6 दशकों से विभिन्न मंचों से लगातार कार्यक्रम करते हुए भी उन्होंने आज तक किसी प्रस्तुति के लिए एक पंक्ति भी नहीं लिखी। वे लिखे हुए आलेख पर मंचीय प्रस्तुति नहीं देते, जबकि आज के कथित ‘सेलिब्रेटी’ इसके बगैर मंच पर एक मिनट भी नहीं टिक पाते।
निजी जीवन में यदि वे एक त्रासदी का शिकार नहीं होते, तो सम्भवतः वे आज बड़े कलाकार के साथ बहुत बड़े सितारे भी होते। हालांकि इन चीजों को तय करने की सलाहियत सिर्फ वक्त के हाथों में होती है। आप को फकत अपना काम करते जाना होता है- पूरी ईमानदारी के साथ। यह कर लिया तो वक्त खुद अपने कामों की पुनर्समीक्षा भी कर लेता है। बस थोड़े सब्र की जरूरत होती है, जो के के नायकर नाम के इस इंसान में बेइंतिहा है। जीवन के कठिनतम क्षणों में भी उन्होंने आस का दामन नहीं छोड़ा और न ही कभी अपने उसूलों से कोई समझौता किया।
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दिनेश चौधरी का परिचय
लेखक परिचय:
जन्म 11 नवम्बर 1964 को अविभाजित मध्यप्रदेश के पिथौरा (अब छत्तीसगढ़) में। इलेक्ट्रॉनिक्स और दूरसंचार इंजीनियरिंग की तकनीकी पढाई के बाद रायपुर के कुछ अखबारों में सम्पादन विभाग से सम्बद्ध। भारतीय रेल में नौकरी करते हुए इसके प्रशिक्षण संस्थानों के लिए पठन-सामग्री, डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म और दृश्य-श्रव्य सामग्री का निर्माण। यहाँ से स्वैच्छिक सेवा-निवृत्ति के बाद रंगकर्म व लेखन-कार्य में सक्रिय। नाटकों की किताब व पुस्तिकाओं का सम्पादन व कुछ नाटकों का देश के विभिन्न नगरों में सफल मंचन। लेख, फीचर, रपट, संस्मरण और व्यंग्य-आदि ‘हंस’, ‘उद्भावना’, ‘इंडिया टुडे’, ‘कादम्बिनी’, ‘दुनिया इन दिनों’, ‘सन्डे मेल’, ‘चौथी दुनिया’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘नवभारत’, ‘देशबन्धु’ सहित अन्य प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। संस्मरणात्मक आलेखों की किताब ‘शहरनामा जबलपुर’ प्रकाशनाधीन। एक व्यंग्य-संग्रह तथा आत्म-कथात्मक संस्मरण प्रकाशन हेतु अंतिम चरण में।
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