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‘ठाकरे राजनीति’ की गहरी पड़ताल करती किताब

धवल कुलकर्णी की किताब ‘ठाकरे भाऊ : उद्धव, राज और उनकी सेनाओं की छाया’ की समीक्षा पढ़िए। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब की समीक्षा लिखी है युवा लेखक वसीम अकरम ने-

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एक परिवार के दो भाई जब अपनी-अपनी विचारधारा में विपरीत रास्ते पर चल रहे हों, और वह रास्ता अगर राजनीतिक हो, तो यह बात तय है कि उनके बीच उनके विचारों का टकराव कुछ ज्यादा ही तल्ख होगा। परिवार के वो दो भाई हैं उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे। चचेरे और मौसेरे भाई- राज और उद्धव, सगे होकर भी क्यों एक-दूसरे से अलग-अलग चारित्रिक विशेषता रखते हैं, क्यों उनकी राजनीतिक सोच एक-दूसरे से भिन्न है और क्यों राज ठाकरे आक्रामक हैं तो उद्धव ठाकरे थोड़े अंतर्मुखी, इसी बात की पड़ताल की है वरिष्ठ पत्रकार धवल कुलकर्णी ने अपनी किताब “ठाकरे भाऊ : उद्धव, राज और उनकी सेनाओं की छाया” में। धवल कुलकर्णी बीते दो दशक में  डीएनए, हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया, द इंडियन एक्सप्रेस और न्यू इंडियन एक्सप्रेस के साथ काम कर चुके हैं और अब भी वह कई बड़े अखबारों और पत्रिकाओं के लिए लिखते हैं। धवल ने इस किताब को अंग्रेजी में “दि कजिन्स ठाकरे” नाम से लिखा था जिसका हिंदी में “ठाकरे भाऊ” नाम से प्रभात रंजन ने अनुवाद किया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कॉलेज में अध्यापन कार्य कर रहे प्रभात रंजन ने दो दर्जन से ज्यादा अंग्रेजी किताबों का हिंदी में अनुवाद किया है।

23 जनवरी, 2021 को बाल ठाकरे की 95वीं जयंती थी। इसी मौके पर राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित किताब “ठाकरे भाऊ” महाराष्ट्र की राजनीति को बहुत ही सूक्ष्मता से परखती है। अस्सी के दशक के आखिर समय में शिवसेना की कट्टर हिंदुत्व वाली छवि ने उसे राम मंदिर आंदोलन में उग्रता दिखाने का अवसर दिया, जिसके चलते शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को हिंदू हृदय सम्राट कहा गया। ऐसे में हिंदू हृदय सम्राट की राजनीतिक विरासत को उनके बाद की पीढ़ी की राजनीतिक आकांक्षाओं के मद्देनजर देखें तो यह किताब देश की समकालीन राजनीति के लिए भी संदर्भ का काम करती है।

धवल कुलकर्णी कहते हैं- “इस किताब में शिवसेना और मनसे के हवाले से मैंने उन उद्देश्यों की पड़ताल की है, जो महाराष्ट्र की पहचान से जुड़े आंदोलनों और स्थानीय लोगों को विशेषाधिकार देने के लिए प्रेरित करती हैं।” यह बात जाहिर तो है, लेकिन इस किताब का जो खास हिस्सा है, वह है शिवसेना और मनसे के बीच राजनीतिक टकराव से इतर बाला साहेब ठाकरे के जीवन और उनके द्वारा शुरू की गईं राजनीतिक मर्यादाओं एवं परंपराओं की पड़ताल। बतौर लेखक एक पत्रकार का फन यह भी है कि किसी खास बात को अपनी जुबान से न कहकर पाठक के लिए छोड़ दे कि पाठक उस खास चीज को पढ़ें और समझें कि लेखक की अपनी वैचारिक समझ कितनी गहरी है। धवल कुलकर्णी इस ऐतबार पर खरे तो उतरते ही हैं, एक पत्रकार के अन्वेषी होने की परंपरा का भी निर्वाह करते हैं।

मशहूर कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे की अभिव्यक्ति से निकली पार्टी ‘शिवसेना’ भारत की ऐसी पहली राजनीतिक पार्टी है, जिसे उनके बाद आगे ले जाने की जिम्मेदारी जाहिर है उनकी अगली पीढ़ी के उद्धव और राज पर ही थी। लेकिन शिवसेना की राजनीति को इन दोनों भाइयों ने अपने-अपने तरीके से आगे बढ़ाया। हालांकि आगे चलकर मतभेद गहरे हुए तो राज ठाकरे ने शिवसेना से अलग होकर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए ‘महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना’ (मनसे) का गठन तो किया लेकिन राजनीतिक रूप से वो कामयाबी हासि‍ल नहीं कर पाए जिसके लिए उन्होंने पार्टी बनाई थी। हां, अपने चाचा बाल ठाकरे की तरह ही उनकी एक आक्रामक पहचान जरूर बन गई। वहीं उद्धव ठाकरे ने मराठी मानुस की राजनीति में समझदारी से काम लिया और आज वो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं। बाल ठाकरे के बाद शिवसेना की कमान संभालने से लेकर मनसे के उद्भव की जटिल सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि का विश्लेषण करते हुए उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने तक की दास्तान कहती यह किताब उद्धव के एक साल के मुख्यमंत्रित्व काल की चुनौतियों और उपलब्धियों की भी राजनीतिक पड़ताल करती है। यही इस किताब की सार्थकता है और यही इसे पठनीय भी बनाती है।

राज ठाकरे का शिवसेना से अलग होने और उससे ज्यादा आक्रामकता दिखाने की कहानी बेहद दिलचस्प होगी। इस बात को करीब से देखते-समझते हुए ही धवल कुलकर्णी ने इस किताब की रूपरेखा तैयार की और दोनों भाइयों की राजनीतिक जिंदगी के उतार-चढ़ाव को दर्ज करते चले गए। इस किताब को पढ़ते हुए बार-बार यह बात मन में आती है कि दो राजनीतिक सेनाओं की छाया किस तरह एक समाज पर पड़ती है और मराठी अस्मि‍ता का ज्वार उफन पड़ता है। हालांकि, यह हालत ज्यादा समय तक नहीं रही और मनसे का जहां राजनीतिक पतन हुआ तो वहीं मराठी मानुस के जरिए अपनी पार्टी के विस्तार का संकट झेलने वाले उद्धव ठाकरे को अपने ‘मी मुंबईकर अभियान’ से दूरी बनानी पड़ी।

भारत के राज्यों में क्षेत्रीय और जातिगत अस्म‍िताएं एक तरह से राजनीति के केंद्र में होती हैं। इसी के चलते शिवसेना ने अपने शुरुआती दौर में मुसलमानों, दलितों के एक वर्ग को और उत्तर भारतीयों को मुंबईकर से अलग-थलग रखने की कोशिश की थी। लेकिन, बात जब वोट के जरिए सत्ता हासि‍ल करने की हो तो जाहिर है कि हर जाति-धर्म के लोगों को साधने की जरूरत नेताओं को थोड़ा उदार बना देती है। उद्धव ने यही उदारता दिखाई और राज की आक्रामकता के चलते कमजोर हो चुकी शिवसेना को बेहतरीन राजनीतिक उभार दिया।

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