हिंदी की वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा का इक्कीसवाँ कहानी संग्रह हाल में प्रकाशित हुआ है- ‘पिछली घास’। हिंदी में उनकी कहानियों की चर्चा कम हुई है लेकिन उनकी कहानियों का बहुत अलग मिज़ाज है। आज उनकी कहानी पढ़िए वरिष्ठ लेखिका गगन गिल की भूमिका के साथ-
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दीपक शर्मा – एक अनुपम कथाकार
यूं तो हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श का शोर बरसों से है और समय-समय पर कई उत्कृष्ट कृतियाँ पाठकों व आलोचकों का ध्यान उचित ही अपनी ओर खींचती रही हैं, मगर जिस तरह मुझे दीपक शर्मा सन 1990 की अपनी पहली कहानी से अब तक लगातार विचलित करती रही हैं, उसका कोई सानी नहीं। इतना स्तब्ध और विमूढ़ मुझे केवल सआदत हसन मंटो ने किया है या अर्जेंटीना की अद्वितीय कथाकार सिल्विना ओकैम्पो ने। या अमेरिका की फ्लैनरी ओकोनर ने।
कितनी विचित्र नियतियों से लोग गुज़रते हैं, मन पर अलग-अलग दाग लिए। कभी वे प्रतिकार कर पाते हैं, कभी नहीं। इतनी बारीकी से फांस दिखा देना हिंदी कथा संसार में सिर्फ दीपक शर्मा ही कर सकती हैं। उनकी तनी हुई भाषा, जैसे तनी हुई रस्सी। विभिन्न विषयों पर, परिस्थितियों पर, परिदृश्यों पर आश्चर्यजनक पकड़। पात्र चमड़े का व्यापार करता हो या अस्पताल में डॉक्टर की रिपोर्ट बूझता बैठा हो, छत से गिरने वाला हो या चुपचाप कहीं जाने वाला हो, उनके पास हर पात्र का छाया चित्र है, उसका एक्स रे। यह उस प्रचलित सीमित, आत्मकथात्मक लेखन से बिल्कुल अलग है जहाँ लेखक अपने भीतर पीड़ा का चक्कर लगाता रहता है। दीपक शर्मा ‘बाहर’ निकलती हैं, अलग-अलग परिस्थितियों की पड़ताल करती हुईं। क्लिनिकल डिसेक्शन, जैसे अपराध को पकड़ने के लिए जासूस करते हैं।
हमारे यहाँ स्त्री विमर्श जिस भी पीड़ा और दंश में से निकला हो, उसे ऐसी सर्वव्यापी परिघटना में जिस तरह दीपक शर्मा ने अंकित किया है, उसका कोई जोड़ नहीं। उनकी कहानियां इतनी नुकीली हैं, इतनी मर्मभेदी, कि उनके असर से, उनकी अविस्मरणीयता से आप अछूते नहीं रह सकते। वह उन गिने-चुने हस्ताक्षरों में हैं जिनके बिना हिंदी साहित्य का समकालीन स्त्री विमर्श असम्भव है –गगन गिल
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चमड़े का अहाता
शहर की सबसे पुरानी हाइड-मारकिट हमारी थी. हमारा अहाता बहुत बड़ा था.
हम चमड़े का व्यापार करते थे.
मरे हुए जानवरों की खालें हम खरीदते और उन्हें चमड़ा बनाकर बेचते.
हमारा काम अच्छा चलता था.
हमारी ड्योढ़ी में दिन भर ठेलों व छकड़ों की आवाजाही लगी रहती. कई बार एक ही समय पर एक तरफ यदि कुछ ठेले हमारे गोदाम में धूल-सनी खालों की लदानें उतार रहे होते तो उसी समय दूसरी तरफ तैयार, परतदार चमड़ा एक साथ छकड़ों में लदवाया जा रहा होता.
ड्योढ़ी के ऐन ऊपर हमारा दुमंजिला मकान था. मकान की सीढ़ियाँ सड़क पर उतरती थीं और ड्योढ़ी व अहाते में घर की औरतों व बच्चों का कदम रखना लगभग वर्जित था.
हमारे पिता की दो पत्नियाँ रहीं.
भाई और मैं पिता की पहली पत्नी से थे. हमारी माँ की मृत्यु के बाद ही पिता ने दूसरी शादी की थी.
सौतेली माँ ने तीन बच्चे जने परंतु उनमें से एक लड़के को छोड़कर कोई भी संतान जीवित न बच सकी.
मेरा वह सौतेला भाई अपनी माँ की आँखों का तारा था| वे उससे प्रगाढ़ प्रेम करती थीं. मुझसे भी उनका व्यवहार ठीक-ठाक ही था| पर मेरा भाई उनको फूटी आँख न सुहाता.
भाई शुरू से ही झगड़ालू तबीयत का रहा. उसे कलह व तकरार बहुत प्रिय थी. हम बच्चों के साथ तो वह तू-तू, मैं-मैं करता ही, पिता से भी बात-बात पर तुनकता और हुज्जत करता. फिर पिता भी उसे कुछ न कहते. मैं अथवा सौतेला स्कूल न जाते या स्कूल की पढ़ाई के लिए न बैठते या रात में पिता के पैर न दबाते तो पिता से खूब घुड़की खाने को मिलती मगर भाई कई-कई दिन स्कूल से गायब रहता और पिता फिर भी भाई को देखते ही अपनी ज़ुबान अपने तालु के साथ चिपका लेते.
रहस्य हम पर अचानक ही खुला.
भाई ने उन दिनों कबूतर पाल रखे थे. सातवीं जमात में वह दो बार फेल हो चुका था और उस साल इम्तिहान देने का कोई इरादा न रखता था.
कबूतर छत पर रहते थे.
अहाते में खालों के खमीर व माँस के नुचे टुकड़ों की वजह से हमारी छत पर चीलें व कव्वे अक्सर मँडराया करते.
भाई के कबूतर इसीलिए बक्से में रहते थे. बक्सा बहुत बड़ा था. उसके एक सिरे पर अलग-अलग खानों में कबूतर सोते और बक्से के बाकी पसार में उड़ान भरते, दाना चुगते, पानी पीते और एक-दूसरे के संग गुटर-गूँ करते.
भाई सुबह उठते ही अपनी कॉपी के साथ कबूतरों के पास जा पहुँचता. कॉपी में कबूतरों के नाम, मियाद और अंडों व बच्चों का लेखा-जोखा रहता.
सौतेला और मैं अक्सर छत पर भाई के पीछे-पीछे आ जाते. कबूतरों के लिए पानी लगाना हमारे जिम्मे रहता. बिना कुछ बोले भाई कबूतरों वाली खाली बाल्टी हमारे हाथ में थमा देता और हम नीचे हैंड पंप की ओर लपक लेते. उन्नीस सौ पचास वाले उस दशक में जब हम छोटे रहे, तो घर में पानी हैंड पंप से ही लिया जाता था.
गर्मी के उन दिनों में कबूतरों वाली बाल्टी ठंडे पानी से भरने के लिए सौतेला और मैं बारी-बारी से पहले दूसरी दो बाल्टियाँ भरते और उसके बाद ही कबूतरों का पानी छत पर लेकर जाते.
“आज क्या लिखा?” बाल्टी पकड़ाते समय हम भाई को टोहते.
“कुछ नहीं.” भाई अक्सर हमें टाल देता और हम मन मसोसकर कबूतरों को दूर से अपलक निहारते रहते.
उस दिन हमारे हाथ से बाल्टी लेते समय भाई ने बात खुद छेड़ी, “आज यह बड़ी कबूतरी बीमार है.”
“देखें,” सौतेला और मैं ख़ुशी से उछल पड़े.
“ध्यान से,” भाई ने बीमार कबूतरी मेरे हाथ में दे दी.
सौतेले की नजर एक हट्टे-कट्टे कबूतर पर जा टिकी.
“क्या मैं इसे हाथ में ले लूँ?” सौतेले ने भाई से विनती की.
“यह बहुत चंचल है, हाथ से निकलकर कभी भी बेकाबू हो सकता है.”
“मैं बहुत ध्यान से पकडूँगा.”
भाई का डर सही साबित हुआ.
सौतेले ने उसे अभी अपने हाथों में दबोचा ही था कि वह छूटकर मुँडेर पर जा बैठा.
भाई उसके पीछे दौड़ा.
खतरे से बेखबर कबूतर भाई को चिढ़ाता हुआ एक मुँडेर से दूसरी मुँडेर पर विचरने लगा.
तभी एक विशालकाय चील ने कबूतर पर झपटने का प्रयास किया.
कबूतर फुर्तीला था. पूरी शक्ति लगाकर फरार हो गया.
चील ने तेजी से कबूतर का अनुगमन किया.
भाई ने बढ़कर पत्थर से चील पर भरपूर वार किया, लेकिन जरा देर फड़फड़ा कर चील ने अपनी गति त्वरित कर ली.
देखते-देखते कबूतर और चील हमारी आँखों से ओझल हो गए.
ताव खाकर भाई ने सौतेले को पकड़ा और उसे बेतहाशा पीटने लगा.
घबराकर सौतेले ने अपनी माँ को पुकारा.
सौतेली माँ फौरन ऊपर चली आयीं.
सौतेले की दुर्दशा उनसे देखी न गयी.
“इसे छोड़ दे,” वे चिल्लायीं, “नहीं तो अभी तेरे बाप को बुला लूँगी. वह तेरा गला काटकर तेरी लाश उसी टंकी में फेंक देगा.”
“किस टंकी में?” भाई सौतेले को छोड़कर, सौतेली माँ की ओर मुड़ लिया.
“मैं क्या जानूँ किस टंकी में?”
सौतेली माँ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं.
हमारे अहाते के दालान के अन्तिम छोर पर पानी की दो बड़ी टंकियाँ थीं. एक टंकी में नयी आयी खालें नमक, नौसादर व गंधक मिले पानी में हफ़्तों फूलने के लिए छोड़ दी जाती थीं और दूसरी टंकी में खमीर उठी खालों को खुरचने से पहले धोया जाता था.
“बोलो, बोलो,” भाई ने ठहाका लगाया, “तुम चुप क्यों हो गयीं?”
“चल उठ,” सौतेली माँ ने सौतेले को अपनी बाँहों में समेट लिया.
“मैं सब जानता हूँ,” भाई फिर हँसा, “पर मैं किसी से नहीं डरता. मैंने एक बाघनी का दूध पिया है, किसी चमगीदड़ी का नहीं…..”
“तुमने चमगीदड़ी किसे कहा?” सौतेली माँ फिर भड़कीं.
“चमगीदड़ी को चमगीदड़ी कहा है,” भाई ने सौतेली माँ की दिशा में थूका, “तुम्हारी एक नहीं, दो बेटियाँ टंकी में फेंकी गयीं, पर तुम्हारी रंगत एक बार नहीं बदली. मेरी बाघनी माँ ने जान दे दी, मगर जीते-जी किसी को अपनी बेटी का गला घोंटने नहीं दिया…..”
“तू भी मेरे साथ नीचे चल,” खिसियाकर सौतेली माँ ने मेरी ओर देखा, “आज मैंने नाश्ते में तुम लोगों के लिए जलेबी मँगवाई हैं…..”
जलेबी मुझे बहुत पसंद थीं, परंतु मैंने बीमार कबूतरी पर अपनी पकड़ बढ़ा दी.
“तुम जाओ,” सौतेले ने अपने आप को अपनी माँ की गलबाँही से छुड़ा लिया, “हम लोग बाद में आयेंगे|”
“ठीक है,” सौतेली माँ ठहरी नहीं, नीचे उतरते हुए कह गयीं, “जल्दी आ जाना. जलेबी ठंडी हो रही है.”
“लड़कियों को टंकी में क्यों फेंका गया?” मैं भाई के नजदीक—बहुत नजदीक जा खड़ा हुआ.
“क्योंकि वे लड़कियाँ थीं.”
“लड़की होना क्या ख़राब बात है?” सौतेले ने पूछा.
“पिताजी सोचते हैं, लड़कियों की ज़िम्मेदारी निभाने में मुश्किल आती है.”
“कैसी मुश्किल?”
“पैसे की मुश्किल. उनकी शादी में बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है.”
“पर हमारे पास तो बहुत पैसा है,” मैंने कहा.
“पैसा है, तभी तो उसे बचाना ज़रूरी है,” भाई हँसा.
“माँ कैसे मरीं?” मैंने पूछा. माँ के बारे में मैं कुछ न जानता था. घर में उनकी कोई तस्वीर भी न थी.
“छोटी लड़की को लेकर पिताजी ने उनसे खूब छीना-झपटी की. उन्हें बहुत मारा-पीटा. पर वे बहुत बहादुर थीं. पूरा जोश लगाकर उन्होंने पिताजी का मुकाबला किया, पर पिताजी में ज्यादा जोर था. उन्होंने जबरदस्ती माँ के मुँह में माँ की दुपट्टा ठूँस दिया और माँ मर गयीं.”
“तुमने उन्हें छुड़ाया नहीं?”
“मैंने बहुत कोशिश की थी. पिताजी की बाँह पर, पीठ पर कई चुटकी भरीं, उनकी टाँग पर चढ़कर उन्हें दाँतों से काटा भी, पर एक जबरदस्त घूँसा उन्होंने मेरे मुँह पर ऐसा मारा कि मेरे दाँत वहीं बैठ गये…..”
“पिताजी को पुलिस ने नहीं पकड़ा?”
“नहीं! पुलिस को किसी ने बुलाया ही नहीं.”
“वे कैसी थीं?” मुझे जिज्ञासा हुई.
“उन्हें मनकों का बहुत शौक था. मनके पिरोकर उन्होंने कई मूरतें बनायीं. बाजार से उनकी पसंद के मनके मैं ही उन्हें लाकर देता था.”
“उन्हें पंछी बहुत अच्छे लगते थे?” सौतेले ने पूछा, “सभी मूरतों में पंछी ही पंछी हैं.” घर की लगभग सभी दीवारों पर मूरतें रहीं.
“हाँ. उन्होंने कई मोर, कई तोते और कई कबूतर बनाये. कबूतर उन्हें बहुत पसंद थे. कहतीं, कबूतर में अक्ल भी होती है और वफ़ादारी भी….. कबूतरों की कहानियाँ उन्हें बहुत आती थीं…..”
“मैं वे कहानियाँ सुनूँगा,” मैंने कहा.
“मैं भी,” सौतेले ने कहा.
“पर उन्हें चमड़े से कड़ा बैर था. दिन में वे सैंकड़ों बार थूकतीं और कहतीं, इस मुए चमड़े की सड़ाँध तो मेरे कलेजे में आ घुसी है, तभी तो मेरा कलेजा हर वक़्त सड़ता रहता है…..”
“मुझे भी चमड़ा अच्छा नहीं लगता,” सौतेले ने कहा.
“बड़ा होकर मैं अहाता छोड़ दूँगा,” भाई मुस्कराया, “दूर किसी दूसरे शहर में चला जाऊँगा. वहाँ जाकर मनकों का कारखाना लगाऊँगा…..”
उस दिन जलेबी हम तीनों में से किसी ने न खायीं.
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अद्भुत कथाकार हैं दीपक जी । उनकी कहानियां दिनों मथती हैं