
हाल में युवा लेखक देवेश की किताब आई है ‘पुद्दन कथा’। कोरोना काल की ग्राम कथा की तरह लिखी गई यह किताब बहुत प्रभावित करती है। त्रासदी की कथा को ब्लैक ह्यूमर की तरह लिखा गया है। आप राजकमल प्रकाशन समूह से प्रकाशित इस किताब का एक अंश पढ़िए-
===================
“मखंचू की पढ़ाई-लिखाई जितनी भी हुई थी वो रामचरन के साथ ही हुई थी। बाद में रामचरन बी.एड. करने के चक्कर में पड़ गया और मखंचू नौकरी करने के। जिस दौरान रामचरन बी.एड. करने की तैयारी कर रहा था उसी दौरान मखंचू का ब्याह हो गया। पत्नी आई तो मखंचू कुछ दिन प्रसन्न रहा लेकिन धीरे-धीरे खर्चा बढ़ने पर चित भी हो गया। कुछ दिनों के बाद मखंचू गोदान एक्सप्रेस पर सवार होकर मायानगरी बम्बई जा पहुँचा और वहाँ किसी कारखाने में खटने लगा। नई-नई शादी हुई थी तो वह हर महीने गाँव जाना चाहता था जोकि सम्भव नहीं हो पाता। मखंचू विरही की भाँति मोबाइल पर बतियाकर, फोटू देखकर सन्तोष कर लेता। बम्बई गए सात-आठ महीने ही हुए थे कि एक दिन गाँव में मखंचू के पिता चल बसे, माँ पहले से ही नहीं थीं। अब मखंचू गाँव आया तो पिता की तेरहवीं निपटने के बाद पत्नी को भी बम्बई ले आया।
इधर गाँव में मखंचू के दोनों बड़े भाइयों ने सारी जमीन दो हिस्सों में बाँटकर खेती-बाड़ी करनी शुरू कर दी। मखंचू ने कभी यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि गाँव में क्या चल रहा है। रामचरन ने एक-दो बार जिक्र किया कि तुम्हारे भाइयों ने तो तुम्हारे हिस्से की जमीन भी कब्जे में कर ली है लेकिन मखंचू ‘जाए दे मरदे’ कहकर टाल जाता। मखंचू की पत्नी भी कभी-कभी कहती कि चल के अपना हिस्सा तो देख आओ, लेकिन मखंचू टालता रहा।
कोरोना का नाम जब कहीं-कहीं सुनाई पड़ने लगा तो आम भारतीय की तरह मखंचू ने भी एहतियातन गरम पानी से नहाना शुरू कर दिया, जब बम्बई में मामले बढ़ने लगे तो मखंचू ने नहाने के बाद धूप-अगरबत्ती भी जलानी शुरू कर दी। और जब प्रधानमंत्री ने ताली-थाली का आह्वान किया तो मखंचू ने एक पुरानी थाली को बेतहाशा पीटा। उस पिटाई में भाइयों के लिए छुपा गुस्सा भी था, पत्नी के साथ रोज-रोज होने वाली किच-किच का प्रभाव था, फैक्टरी बन्द होने की अफवाहों का डर था और बचपन में धान की जरई की रखवाली करने के दौरान चिड़िया भगाने के लिए पीटे जाने वाले कनस्तर की यादें थीं। अब इतना कुछ तो थाली बर्दाश्त करती नहीं, लिहाजा थाली का वही हाल हुआ जो कुछ ही दिनों में दुनिया भर की स्वास्थ्य व्यवस्था का होने वाला था।
लॉकडाउन लगा…कई लोगों की तरह मखंचू को भी उम्मीद थी कि महाभारत में लगने वाले समय से भी कम समय में देश इस युद्ध को जीत लेगा। लेकिन पेट की आग आश्वासन और उम्मीद से नहीं शान्त होती। एक-एक दिन निकलने लगा, आग भभकती गई। दो-चार छींटों से वो आग कहाँ बुझने वाली थी। बचत कुछ थी नहीं, कुछ ही दिन पहले मखंचू ने पन्द्रह हजार रुपये गाँव में बड़के भइया को भेजे थे, क्योंकि भइया फोन करके रोने लगे कि उनके साले की तबीयत बहुत खराब है। लॉकडाउन के दौरान भूख लगने पर पत्नी उन्हीं पैसों का ताना देने लगी। जिस खोली में रहता था उसका मालिक रोज आकर चेतावनी दे जाता था कि किराया टाइम पर चाहिए, काम-धंधा बन्द था। किसी तरह एक टाइम के खाने का जुगाड़ बन पा रहा था ऐसे में किराया चुकाना बहुत बड़ी चुनौती थी। फैक्ट्री के मालिक ने फोन उठाना ही बन्द कर दिया था। आसपास के लोगों का भी यही हाल था। हफ्ते भर बाद जब महीने की पहली तारीख आई तो खोली का मालिक सुबह-सुबह किराया वसूलने आ गया। किराया न देने पर दो दिन का समय देकर गया…अगर किराया नहीं दे सकते तो खोली खाली कर दो। अगले दो दिन तक मखंचू बम्बई में जिसको भी जानता था उसके आगे हाथ फैलाता रहा लेकिन सबका हाल एक जैसा ही था। पत्नी ऐसे में रह-रहकर याद दिलाती रहती कि अगर अपने भाई को पैसे नहीं भेजे होते तो वही पैसे आज काम आते। दो दिन बाद मखंचू को खोली खाली करनी पड़ी। उसके जैसे कई और लोग भी थे। सबने यह तय किया कि पैदल गाँव की तरफ बढ़ा जाए। यहाँ रहकर भूख से मरने से अच्छा है कि चलते-चलते कोशिश करके मरा जाए। हो सकता है कि गाँव पहुँच ही जाएँ।
मखंचू जैसे लाखों सैनिक विशाल युद्धक्षेत्र में अपनी-अपनी भूख के साथ आगे बढ़ने लगे।
मोबाइल पर एक मशहूर कम्पनी के द्वारा दिए गए डाटा पैक की सहायता से ये सैनिक सुनने लगे कि आज इतने साथी मारे गए, कल इतने साथी अस्पताल में भर्ती कराए गए। सैनिक चलते रहे…सामने मौत दिखने लगी लेकिन मरने से पहले ये सब अपनी-अपनी माटी तक पहुँचना चाहते थे। मखंचू जब पत्नी के साथ पैदल बम्बई से गाँव की तरफ चला तो न जाने क्यों भूख लगने पर उसे बचपन में खाई गई माटी का स्वाद याद आने लगा। रोटी तो छिन गई थी, अब माटी का ही सहारा था। अब पत्नी भी ताने नहीं दे रही थी, चुप हो गई थी। मखंचू जैसे सैकड़ों लोग एक समूह में निकले थे। हाइवे पर चलते हुए सड़क की गर्मी इन सबकी आँखों से आँखें नहीं मिला पा रही थी।
ये सब वो सैनिक थे जिनके सेनापति उन्हें अकेले मरने के लिए छोड़ चुके थे। कभी-कभी मोबाइल स्क्रीन पर वे दिखते तो सैनिकों से कहते कि गर्व करो तुम भारतीय हो, तुम्हारे पूर्वजों ने इससे बड़े-बड़े संकट झेले हैं, तुम इतना भी नहीं कर सकते। गर्व करो, भूख लगे तब गर्व करो, प्यास लगे तब गर्व करो, चलते-चलते बेदम हो जाओ तब भी गर्व करो, मर जाओ लेकिन इस कोरोना के आगे घुटने मत टेकना। इतना गर्व करो कि कोरोना को भी लगे कि वो गलत जगह पर आ गया है। ये सैनिक उसी गर्व के सहारे भूखे-प्यासे, चिलचिलाती गर्मी में जिन्दगी को ढोते हुए आगे बढ़ते रहे। रास्ते में कहीं हैंडपम्प दिखता तो ये पानी पीते, कोई बताता फलाँ पिक्चर में फलाँ हीरो ने हैंडपम्प उखाड़ दिया था, कोई याद दिलाता कि वो हीरो भी संसद में है, बाकी सब कहते कि इस टाइम अपने घर में बैठा होगा वो, संसद में थोड़ी न होगा। इस पर कोई याद दिलाता कि भक्क…सरकार आराम नहीं करती है, सरकार आराम करती तो हमें चलने के लिए इतनी अच्छी सड़क थोड़ी न मिलती। चल रहे लोगों में से कुछ लोग सरकार की तारीफ कर रहे थे—“देखिए ना मरदे कैसी चमचमाती हुई सड़क बनवा दी है, एकदम सीसा जइसी।” बाकी लोग इस उपलब्धि का बखान ध्यान से सुनते चल रहे थे।