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‘दोआबा’ का अहिल्या आख्यान और साहित्य की कसौटी

पटना से प्रकाशित दोआबा का ताजा अंक (जनवरी-मार्च, 2022)  लगभग 600 पन्नों का है। इनमें से 533 पन्नों में नीलम नील की दो कथा-डायरी प्रकाशित हैं, जिनके शीर्षक क्रमश: आंगन में आग और अहिल्या आख्यान हैं। शेष पृष्ठों पर उन्हीं पर केंद्रित संपादकीय, संस्मरण आदि हैं। साहित्य की पहचान यह नहीं है कि लेखक कितना संवेदनशील है, उसकी भाषा कितनी तरल है या वह अपने लेखन से पाठक को भावुक करने में  कितना सफल  है। बल्कि यह देखा जाना चाहिए कि उस साहित्य से पाठक किन मूल्यों के प्रति संवेदनशील और जागरूक हो रहा है। इस कसौटी पर नीलम नील की कथा-डायरी खरी नहीं उतरती। प्रसिद्ध लेखक प्रमोद रंजन की समीक्षा – 

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दोआबा का अहिल्या आख्यान और साहित्य की कसौटी

प्रमोद रंजन 

पटना से प्रकाशित दोआबा का ताजा अंक1 (जनवरी-मार्च, 2022)  लगभग 600 पन्नों का है। इनमें से 533 पन्नों में नीलम नील की दो कथा-डायरी2 प्रकाशित हैं, जिनके शीर्षक क्रमश: आंगन में आग और अहिल्या आख्यान हैं। शेष पृष्ठों पर उन्हीं पर केंद्रित संपादकीय, संस्मरण आदि हैं।

ज़ाबिर हुसैन

पत्रिका के संपादक साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक व अंग्रेजी के प्राध्यापक जाबिर हुसेन हैं। जीवन के आठ दशक पूरा करने जा रहे जाबिर हुसेन को लोग एक प्रखर समाजवादी राजनेता के रूप में भी जानते हैं। वे संपूर्ण क्रांति आंदोलन में सक्रिय रहे, युवावस्था में ही बिहार सरकार में मंत्री बने, लगभग एक दशक तक बिहार विधान परिषद् के सभापति रहे तथा राज्य सभा के भी सदस्य रहे। मेरे लिए वे एक ऐसे अग्रज रहे हैं, जो एकसाथ पितृवत् भी हो और मित्रवत् भी। हमराज भी हो और मार्गदर्शक भी। वृहत्त सामाजिक मुद्दों के अतिरिक्त व्यक्तिगत संबंधों में उनकी संवेदनशीलता ने मुझे हमेशा प्रभावित किया है।

लेकिन, उनकी इस संवेदनशीलता का गहरा असर उनकी पत्रिका पर भी दिखता है। वे दोआबा में हर उस लेखक को जगह देने को तत्पर रहते हैं, जिसने उन्हें रचना भेजी हो। किसी का दिल दुखाना शायद उनके बस का है भी नहीं। पिछले 16 वर्षों से वे दोआबा की परवरिश इसी मातृसुलभ भावुकता से करते रहे हैं। जैसा कि एक लेखिका ने दोआबा के 38वें अंक में लिखा था : दोआबाजाबिर हुसेन जी के हाथ की पत्रिका ही नहीं, सचमुच एक बच्चा है3

इसके विपरीत मैं संपादन को एक ऐसा कर्म मानता हूं जिसे रचना के प्रति संवेदनशील और लेखक के प्रति किंचित क्रूर होना चाहिए। संपादक की प्राथमिक जिम्मेदारी पाठक के प्रति होनी चाहिए, लेखक के प्रति उसकी जिम्मेवारी द्वितीयक है। उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पत्रिका को किन मूल्यों का वाहक बनाना है तथा अपने लक्ष्य को पाने के लिए सख्त़ दिल होकर काम करना चाहिए।

बहरहाल, जाबिर साहब की लेखकों के प्रति संवेदनशीलता का ही नतीजा है कि दोआबा अनेकानेक नए-पुराने लेखकों की प्रिय पत्रिका है, जिसका पता उसमें प्रकाशित लेखकों के पत्रों और समीक्षाओं से लगता है। इनमें दूर-दराज के अनेक ऐसे नए लेखक हैं, जो किसी प्रमुख पत्रिका में शायद ही स्थान पाते हों। हालांकि पत्रिका में प्रमुख लेखकों की सामग्री भी कम प्रकाशित नहीं हुई  लेकिन इसने प्राय: कम चर्चित लेखकों को प्रेरित करने में अधिक भूमिका निभाई है। काम करने का उनका यह अपना तरीका है, जिसके सुखद परिणाम उन्होंने महसूस किए होंगे।

बहरहाल, दोआबा का ताजा अंक मिलने पर नीलम नील की कथा-डायरी का जो पृष्ठ मेरे सामने खुला उसमें मेरे शहर पटना की चर्चा थी और कथा में तेज प्रवाह था। जहां पत्रिका खुली थी, उस पृष्ठ से आगे कई पृष्ठ पढ़ता गया।

उस भारी-भरकम अंक में से जो पढ़ सका, उसमें नीलम नील की कथा-डायरी अहिल्या आख्यान और लेखिका के जीवन पर केंद्रित अमिता पॉल, अनिता रश्मि, भगवती प्रसाद द्विवेदी और मुकेश प्रत्यूष के संस्मरण-लेख शामिल थे।

पहला सवाल तो यह था कि यह नीलम नील कौन हैं? मैंने उनका नाम नहीं सुना था।

पत्रिका के संपादकीय तथा उपरोक्त संस्मरण-लेखों से उनका जो परिचय प्राप्त हुआ, वह संक्षेप में निम्नांकित है।

नीलम नील उन लेखिका का नाम है, जो पहले नीलम पांडेय हुआ करती थीं। वे बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में पदाधिकारी थीं। 1989 में उनका एक कहानी-संग्रह सात फेरों वाला घर प्रकाशित हुआ था, लेकिन उसके बाद उन्होंने बहुत कम लिखा। इस बीच वे जीवन की परेशानियों और नौकरी की भागमभाग से घिरी रहीं।

नीलम नील



2016 में सरकारी सेवा से निवृत्त होने के बाद उन्होंने अपने फेसबुक वॉल4 पर सक्रियता बढ़ा दी। दोआबा में प्रकाशित इन कथा-डायरियों को उन्होंने फेसबुक पर ही टुकड़ों में लिखा था। इसी समय उन्हें कैंसर ने आ घेरा। कीमोथेरेपी शुरू हुई। उन्हें हर सप्ताह शुक्रवार को कीमो करवाना होता था, जिसके बाद उनके शरीर में इतनी भयानक जलन होती थी कि अगले दो दिन तक वे कुछ करने की हालत में नहीं रहती थीं। लेकिन जिजीविषा की इतनी धनी थीं कि हर बृहस्पतिवार को अपनी कथा-डायरी का अंश फेसबुक पर अवश्य पोस्ट कर दिया करती थीं।5 21 अप्रैल, 2021 का उनका निधन हो गया। मृत्यु के पहले वे अपनी इन रचनाओं को पुस्तकाकार प्रकाशित करवाना चाहती थीं। एक बार उन्होंने दोआबा संपादक से फोन पर संकोच भरे लहजे में इसके प्रकाशन के लिए अनुरोध भी किया था। लेकिन बाद में उन्हें बताया कि इसकी पांडुलिपी तैयार कर उन्होंने अपने किसी परिचित के हवाले कर दी है। वह पांडुलिपि कहां गायब हो गई, यह कोई नहीं जानता।6

पांडुलिपि के इस प्रकार गुम हो जाने और अपनी पत्रिका की एक शुभचिंतक लेखिका की अंतिम इच्छा पूर्ण न होने की व्यथा ने जाबिर साहब को ‘हफ्तों बिस्तर पर डाल दिया’।7

जाबिर साहब ने लेखिका के मरणोपरांत इस कथा-डायरी को फेसबुक से निकलवाया और पूरी सामग्री अपनी पत्रिका के इस ताजा अंक में प्रकाशित की। इस अंक में कथा-डायरियों के अतिरिक्त उस पर फेसबुक पर पाठकों द्वारा की गई चुनिंदा टिप्पणी को भी प्रकाशित किया गया है।

नीलम नील के जीवन पर केंद्रित संस्मरणों और उनके द्वारा लिखी गई उपरोक्त कथा में वे लेखिका से अधिक, एक ऐसे कथा-पात्र के रूप में सामने आती हैं, जो अपनी कहानी खुद कह रही हैं। उनकी मित्र अमिता पॉल ने संस्मरण में लिखा भी है कि नीलम हमेशा कहा करती थी किहमें अब अपनी कहानी खुद ही लिख देनी चाहिए, बल्कि लिखनी पड़ेगी। हमारे बाद शायद इसे कोई नहीं लिखेगा, और कोई चाहे भी तो लिख नहीं पाएगा।8 उन्होंने यही किया भी।

नीलम की कथा-डायरी उनके जीवन-यथार्थ का प्रकटीकरण है, जिसमें उन्होंने यत्र-तत्र कुछ काल्पनिक कथाएं बुनी हैं। कथा के सभी प्रमुख पात्र और उनके आपसी रिश्ते उनके वास्वतिक जीवन से आए हैं। उनकी मित्र अनिता पॉल के शब्दों में कहें तो यह उनके निजी जीवन पर आधारित एक काल्पनिक रचना9 है।

वस्तुत: उनकी यह कथा-डायरी और उनका वास्तविक जीवन इतना घुला-मिला है कि उन्हें अलगा पाना असंभव है। नील को जो पारिवारिक जीवन मिला था, उसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया था। अपने संघर्षों से अपना अलग रास्ता बनाने की कोशिश की थी। लेकिन, उनके द्वारा चुने इस नए जीवन में स्वभाविक रूप से अनेक विरोधाभास भी थे। ये विरोधाभास उनकी रचना में भी ज्यों के त्यों चले आए हैं।

अनिता रश्मि, भगवती प्रसाद द्विवेद्वी और मुकेश प्रत्यूष के संस्मरण लेखों से लेखिका का जो जीवन सामने आता है, उसके अनुसार नीलम का जन्म एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। किशोरवस्था से ही वे कोमल लेकिन विद्रोही प्रवृत्ति की थीं। कॉलेज के दिनों से ही उनका साहित्य से लगाव था। उन्होंने आरंभ में कुछ प्रेम कविताएं लिखीं, जिन्हें अपने परिवार के दवाब में उन्हें नष्ट करना पड़ा। उनकी कॉलेज की शिक्षा रांची में हुई। इसी शहर में उन्हें फादर कामिल बुल्के का सान्निध्य मिला। लेकिन इस सान्निध्य ने उन्हें साहित्य अथवा शोध के क्षेत्र में कुछ गंभीर करने के लिए प्रेरित किया हो, इसका प्रमाण नहीं मिलता।

कॉलेज के दिनों के बाद वे एक ऐसे संपादक के प्रेम में पड़ीं, जो लखनऊ मेंपत्रकार कोटे के आवंटित फ्लैट में रहते थे तथा जिनकी उत्तर प्रदेश के सरकारी महकमों में अच्छी पैठ थी। इस पैठ के बूते वह तथाकथित साहित्यिक पत्रिकाएं निकाला करते थे, जिसके लिए उन्हें सरकारी विज्ञापन भरपूर मिला करते थे।10

यह प्रेम नहीं, बल्कि एक छल था, एक प्रकार का कास्टिंग काउच था, जिसे उस संपादक महोदय ने योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया था। उस समय साहित्य की दुनिया में कदम रखने की उत्सुक नीलम की रचनाएं उन्होंने अपनी पत्रिका में प्रमुखता से प्रकाशित करनी शुरू कीं और अपने संपादकीय में उनकी रचनाशीलता औरप्रखर सोच11की तारीफों के पुल बांधे। नीलम का यह भी कहना था कि उस संपादक ने खुद को उस समय की अत्यंत प्रभावशाली पत्रिका धर्मयुग में कार्यरत बताया, जो कि पूरी तरह झूठ था। संपादक महोदय ने यह भी प्रलोभन दिया कि धर्मयुग नीलम को विदेश यात्रा पर भेजने वाली है12 हालांकि धर्मयुग में न कभी कोई रचना नीलम की प्रकाशित हुई, न ही कथित संपादक स्वयं इस लायक थे कि धर्मयुग जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित होते। वे एक विशुद्ध धंधेबाज रहे होंगे। ऐसे पत्रकार और संपादक आज भी हम अपने इर्द-गिर्द देख सकते हैं।

नील उनके प्रभाव में इतना आईं कि उनसे विवाह कर बैठीं। लेकिन कुछ ही समय में उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया और वे अलग हो गईं। जिस समय उन्होंने अलग होने का फैसला किया, उस समय वे गर्भवती थीं। परिवार वालों की मदद से गर्भपात करवाया। इस अलगाव के कुछ समय बाद वे बिहार प्रशासनिक सेवा के लिए चुन ली गईं। यह एक बड़ी उपलब्धि थी। संपादक ने उन्हें अपने साथ रखने के लिए बहुत कोशिश की। उन्होंने अपने मित्रों, अन्य लेखकों के माध्यम से नीलम के परिवार पर दवाब बनाने की कोशिश की, लेकिन नीलम नहीं मानीं।

उनके जीवन में एक और अप्रिय प्रसंग उस समय आया जब इस अलगाव के बाद एक व्यक्ति ने दावा किया कि नीलम उसकी पत्नी हैं तथा अदालत में उनका विवाह हो चुका है। वह चाहता था कि सरकारी पंजिका में उसका नाम नीलम के पति के रूप में दर्ज हो जाए। अखबारों में भी यह मामला उछला। भगवती प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि यह वह व्यक्ति था, जिसे नीलम उनके सामने मामा कहा करतीं थीं।13 यह जानने का कोई साधन नहीं है कि इस प्रसंग में क्या सच था, क्या झूठ, लेकिन उनके जीवन के ये प्रसंग बताते हैं कि वे अपनी अस्मिता, अपनी आजादी की तलाश में दर-दर भटक रहीं थीं, समाज से कदम-कदम पर लोहा ले रही थीं। उनके जीवन और उनकी इस कथा-डायरी को पढते हुए हम पाते हैं कि इस संघर्ष में किसी विचारधारा, किसी सुनियोजित सैद्धांतिकी का आवलंबन उनके पास नहीं है। लहरें जिस ओर उन्हें उछालतीं, वे उसी ओर बहुत दूर तक चली जातीं। इस यात्रा में  कभी उन्हें हिंदू देवी-देवता सहारा लगते, कभी मार्कण्डेय पुराण तो कभी साईं बाबा की मूर्तियां। सहारे की यही खोज कथा-डायरी में उन्हें अपने उसी छली, दुष्ट संपादक-पति की ओर बार-बार ले जाती हैं। पितृसत्ता के छल को समझने में उनकी कथा-नायिका अहिल्या (जो कि लेखिका स्वयं है) आजीवन असफल रहती है। अहिल्या अपने पति के पतित स्वभाव, छली और जातिवादी चरित्र, काम-लोलुपता आदि को अपनी भावुकता से ढंकती है और उसके प्रति एक पतिव्रता का आकर्षण अंत तक बनाए रखती है। पूरी कथा में वह कहीं भी अपने पति की प्रवृत्तियों पर कड़ा प्रहार नहीं करती। इसके विपरीत सास के व्यवहार पर अपने दांपत्य के टूटने का ठीकरा फोड़ती है।

कथा-डायरी में यत्र-तत्र एक नैसर्गिक स्त्रीवादी ध्वनि सुनाई देती है, लेकिन जिस कोण से अहिल्या अपने जीवन को देखती है, तथा जिन तत्वों को अपनी अस्मिता पर प्रहार करने वाले प्रमुख कारकों के रूप में चिन्हित करती है, उससे वह पितृसत्ता से उम्मीद पालने वाली एक ईश्वरवादी नारी के रूप में सामने आती है। वस्तुत:  जिस पुरातनपंथी सामाजिक परिवेश, जिन भेदभाव मूलक मूल्यों के बीच नीलम नील का बचपन गुजरा, उनसे उनका अवचेतन ग्रसित है, जिसका आरोपण स्वाभाविक रूप से उनकी कथा-नायिक पर भी हुआ है।

कथा में कई वैचारिक झोल हैं। मसलन, वे अपनी घरेलू नौकरानी के प्रति संवेनशील हैं, लेकिन समाजवाद, मार्क्सवाद और बहुजनवाद जैसी विचारधाराओं से (संभवत: सप्रयास) अलग-थलग रहने के कारण उनकी संवेदनशीलता एक प्रकार के प्रतिक्रियावाद और भावहीन सनक में परिवर्तित हो जाती है।

इस संदर्भ में नीलम के वास्तविक जीवन का एक प्रसंग विशेषतौर पर रेखांकित करने योग्य है। उनकी की घरेलू सहायिका ने जब बेटी को जन्म दिया तो  उन्होंने उससे कहा कि “तुम मेरे साथ रहो, मैं इसे पालूंगी, अपनी बेटी की तरह।14 उस बच्ची का नाम उन्होंने अपर्णा रखा। वह पढ़ने लायक हुई तो एक अच्छे स्कूल में दाखिला करवाया। उसके स्कूल आने-जाने के लिए कार खरीदी। इसी बीच उन्होंने एक फ्लैट भी खरीदा। उन्होंने इस नए फ्लैट में उस घरेलू सहायिका को रहने के लिए एक कमरा दिया। उसकी बेटी को वह अपनी बेटी की तरह अपने साथ रखतीं, उसे अपने साथ अपने कमरे में सुलातीं और उसकी मां अलग कमरे में रहती और उनकी सेवा करती। इस तरह की व्यवस्था उस बच्ची और उसकी मां के लिए कितनी भावनाहीन रही होगी! उनकी इस सनक के बारे में सोचकर हैरत होती है।

नीलम की अपनी कोई संतान नहीं थी। लेकिन भाई-बहन व अन्य परिजन उनके जीवन में थे। मुकेश प्रत्यूष ने अपने संस्मरण में लिखा है कि मृत्यु से कुछ महीने पहले एक दिन नीलम ने उन्हें फोन पर बताया कि मैं अब अपर्णा को अपने साथ नहीं रखना चाहती। उसे अपनी मां के पास जाने के लिए कह दिया है।15 यह तो घनघोर अमानवीयता थी। जिस बच्ची को उन्होंने अच्छे स्कूल में डाला, जिसे कार से स्कूल से पहुंचाने की व्यवस्था की, वर्षों तक जिसे अपने साथ रखा और जिसके बूते समाज के सामने स्वयं को संवेदनशील दिखाया, उसे एक दिन अचानक उसकी गरीब मां के पास जाने के लिए कह दिया। इस भयवाह मजाक से उस युवती पर क्या गुजरी होगी? उनके पास पैतृक संपत्ति थी, कम से कम एक फ्लैट तो अपना था ही। लेकिन अपनी संपत्ति में उस युवती को कोई हिस्सा देने की जरूरत उन्होंने नहीं समझी। नीलम की कथा-डायरी में ये घरेलू सहायिका और उसकी बेटी अपर्णा बार-बार आती हैं, बल्कि ये दोनों ही उनकी कथा-डायरी की मुख्य पात्र हैं।

बहरहाल,जैसा कि मैंने आरंभ में कहा कि नीलम नील की इन कथा-डायरियों में एक प्रकार का प्रवाह है। घटनाएं तेजी से घटती हैं और असली जीवन का पुट होने के कारण उत्सुकता जगाती हैं। किन्तु, समग्रता में पढ़ने पर इसके शिल्प की कमियां खलती हैं। ब्यौरे उलझे हुए हैं। कथा में सैकड़ों पात्रों की मौजूदगी है, जो पाठक को चकरा देते हैं। कथा की संरचना कुछ-कुछ जासूसी उपन्यासों के तर्ज पर की गई, जिससे विश्ववसनीयता को धक्का लगता है। मसलन, अहिल्या की मित्र कौमुदी, जो कि उच्च मध्यवर्ग से ताल्लुक रखती है पटना के एक रेस्त्रां में अपनी सहेलियों से साथ किट्टी पार्टी करने; “कुछ खाने-पीने और पत्ते खेलने”16 जाती है। वहां वह पाती है कि उसकी बेटी केतकी का मोबाइल-मैकेनिक गरीब प्रेमी रौशन अपने ही जैसे कुछ छिछोरे दोस्तों के साथ बैठा बातों की खेती कर रहा था।वह छुप कर अपनी बेटी के प्रेमी द्वारा दोस्तों से कही जा रही बातें सुन लेती है। वह अपने दोस्तों से कह रहा है कि एक बार केतकी से शादी हो जाए उसके बाद वह उसके पिता की हत्या कर उसकी संपत्ति हथिया लेगा। कथा में यह प्रसंग इसलिए रचा गया है ताकि अहिल्या द्वारा केतकी के एक गरीबी लड़के से ‘बेमेल’17 प्रेम को गलत ठहारने को आधार मिल सके। लेकिन इस हास्यास्पद प्रसंग को रचते समय लेखिका ने यह नहीं सोचा कि कौमुदी जैसी उच्च मध्यवर्गीय महिलाएं तो किसी महंगे रेस्त्रां में ही किटी-पार्टी करेंगी। वहां एक साधनविहीन, गरीब लड़का अपने दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ाता हुआ कैसे मौजूद हो सकता है! कथा में इस तरह के अनेक ‘बेमेल’ प्रसंग हैं। आवांतर विवरणों की भी भरमार है, जिससे कथा अनावश्यक रूप से फैल गई है।

इन चीजों के अलावा, जैसा के मैंने पहले भी कहा, कथा के विन्यास में गुंथी हुई कोई सुचिंतित वैचारिकता नहीं है, बल्कि इसके विपरीत एक भावुक प्रतिक्रियावाद ही दिखाई देता है।

साहित्य निरी कथा नहीं होता। साहित्य होने की अंतर्निहित शर्त है कि उसमें एक अंतर्गुंफित जीवन-दर्शन हो। एक अच्छे साहित्य की पहचान यह नहीं है कि लेखक कितना संवेदनशील है, उसकी भाषा कितनी तरल है, वह कितनी सच्ची घटनाओं का वर्णन कर रहा है, या वह अपने लेखन से पाठक को गलदश्रु बनाने में कितना सफल है! बल्कि यह देखा जाना चाहिए कि उस साहित्य से पाठक किन मूल्यों के प्रति संवेदनशील और जागरूक हो रहा है। वे मूल्य कितने प्रगतिशील हैं तथा उसमें लेखक का जो इतिहास-बोध है, वह भविष्य के किन रास्तों को चुनने के लिए प्रेरित कर रहा है। ऐसा साहित्य ही सत्-साहित्य है, चाहे वह कालजयी हो या न हो।

जाहिर है, नीलम नील की कथा-डायरी साहित्य के उपरोक्त पैमाने पर खरी  नहीं उतरती। इसके वावजूद उनकी यह कथा अपने समय का एक समाजशस्त्रीय दस्तावेज तो है ही। उन्होंने विभिन्न रीति-रिवाजों, बिहार के विभिन्न शहरों, कस्बों और गांवों, पटना और दरभंगा की तत्कालीन नौकरशाही और राजनीति का बारीकी से चित्रण किया है। उनकी यह कथा-डायरी आजादी के बाद के बिहारी समाज के अनेक पहलुओं के अध्ययन के लिए एक अच्छी सामग्री साबित हो सकती है।

पत्रिका : दोआबा (जनवरी-मार्च, 2022)
संपादक: जाबिर हुसेन
मूल्य: 450 रूपए
संपादकीय संपर्क: 247, एमआईजी, लोहियानगर, पटना-800020, ईमेल : doabapatna@gmail.com

[प्रमोद रंजन असम विश्वविद्यालय के रवीन्द्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज़ में सहायक प्रोफ़ेसर हैं। हिंदी व अंग्रेजी की कई पत्रिकाओं के संपादक रहे रंजन की प्रमुख पुस्तकेंबहुजन साहित्य की प्रस्तावना’, ‘साहित्येतिहास का बहुजन पक्ष (सं) व शिमला-डायरी हैं। संपर्क : +919811884495, janvikalp@gmail.com

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 1 दोआबा, वर्ष 16, अंक 40, जनवरी-मार्च, 2022 , संपादक जाबिर हुसेन. संपर्क : 247, एमआईजी, लोहियानगर, पटना-800020, ईमेल : doabapatna@gmail.com

2   कथा-डायरी नामक विधागत प्रयोग को चर्चित करने का श्रेय जाबिर हुसेन को है। इस विधा में कथा कुछ निजता लिए हुए होती है। दोआबा में प्रकाशित नीलम नील की सामग्री कथा-डायरी है या उपन्यास, इस बारे में उसमें प्रकाशित लेखकों के मत अलग-अलग हैं, लेकिन संपादक ने अंतत: उसे कथा-डायरी कहा है।

3  रूचि भल्ला. दोआबा 15.38 (2021): 9. Print.

4  नीलम नील [फेसबुक पेज]. https://www.facebook.com/neelam.neel.50

5 मुकेश प्रत्युष. ‘रत्ती भर पहचान’. दोआबा 16.40 (2022): 24–27. Print.

6 जाबिर हुसेन. ‘उम्मीदों की रोशनी की डोर’. दोआबा 16.40 (2022): 4–7. Print.

7 जाबिर हुसेन. ‘उम्मीदों की रोशनी की डोर’. दोआबा 16.40 (2022): 4–7. Print.

8 अमिता पॉल. ‘एक सहकर्मी एक मित्र’. दोआबा 16.40 (2022): 8–13. Print.

9  अमिता पॉल. ‘एक सहकर्मी एक मित्र’. दोआबा 16.40 (2022): 8–13. Print.

10 भगवती प्रसाद द्विवेद्वी. ‘नीड़ से बिछुड़े पंछी की पीड़ा’. दोआबा 16.40 (2022): 19–23. Print.

11 भगवती प्रसाद द्विवेद्वी. ‘नीड़ से बिछुड़े पंछी की पीड़ा’. दोआबा 16.40 (2022): 19–23. Print.

12 भगवती प्रसाद द्विवेद्वी. ‘नीड़ से बिछुड़े पंछी की पीड़ा’. दोआबा 16.40 (2022): 19–23. Print.

13 भगवती प्रसाद द्विवेद्वी. ‘नीड़ से बिछुड़े पंछी की पीड़ा’. दोआबा 16.40 (2022): 19–23. Print.

14  मुकेश प्रत्यूष. ‘रत्ती भर पहचान’. दोआबा 16.40 (2022): 24–27. Print.

15  मुकेश प्रत्यूष. ‘रत्ती भर पहचान’. दोआबा 16.40 (2022): 24–27. Print.

16 नीलम नील. ‘अहिल्या आख्यान’. दोआबा 16.40 (2021): 512. Print.

17 नीलम नील. ‘अहिल्या आख्यान’. दोआबा 16.40 (2021): 512. Print.

 

 
      

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