आज प्रसिद्ध लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक का जन्मदिन है। अभी हाल में ही पेंगुइन से उनका नया उपन्यास प्रकाशित हुआ है ‘गैंग ऑफ़ फ़ोर’। आज इसी उपन्यास का एक अंश पढ़ते हैं और उनको शुभकामनाएँ देते हैं-
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रात नौ बजे विमल काला घोड़ा के इलाके में मौजूद साउथ एण्ड बार पहुँचा।
हालाँकि अब बेमकसद था फिर भी उस घड़ी वो ‘जेम्सदयाल’ वाले रंगरूप में था। उसके साथ सजा-धजा इरफ़ान था जो बार में दाखिल होते ही विमल से अलग हो गया था। बाहर आकरे, मतकरी, परचुरे, साटम और बुझेकर मौजूद थे जो एक पूर्वनिर्धारित इशारे पर गोली की तरह वहाँ पहुँच सकते थे और विमल की बार में हिफाज़त के लिए बने हालात में शरीक हो सकते थे।
कल सुबह कूपर कम्पाउन्ड पहुँची मैडम जो मोबाइल नम्बर इरफ़ान को देकर गई थी, विमल ने उस पर फोन बजा कर वो मीटिंग फिक्स की थी जिसके नतीजे के तौर पर अब विमल, मैडम और उसके ‘सर’ के साथ एक कोने की टेबल पर उनके सामने बैठा हुआ था। कोई प्यादे कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे लेकिन विमल को पूरा यकीन था कि अपने डॉन की हिफाज़त के लिए वो बार में आसपास ही कहीं थे।
“मेरे से मिलना चाहते थे” – विमल बोला – “ख़ुद मुलाकात का इन्तज़ाम किया, कॉन्टैक्ट नम्बर मेरे तक पहुँचाया इसलिए मालूम ही होगा मैं कौन हूँ?”
उसने सहमति में सिर हिलाया।
“अब जबकि ये पक्का है” – फिर बोला – “कि जेम्सदयाल फर्ज़ीनाम है तो बोलो, किस नाम से पुकारा जाना पसन्द करोगे? सोहल या विमल?”
“विमल!”
“रंगरूप, पोशाक सब जो है, फर्ज़ी है जो कि जेम्सदयाल के रोल में आने के लिए अडॉप्ट किया था?”
“हाँ।”
“अब क्या ज़रूरत थी?”
“कोई ज़रूरत नहीं थी। सोचा, शनिवार के बंगला नम्बर सात के मेहमान के तौर पर मुझे पहचानने में आसानी होगी। ऐतराज़ है तो मैं जाता हूँ और जेम्सदयाल वाला मेकअप उतार के आता हूँ। पोशाक बदल के आता हूँ।”
“कब लौटोगे?”
“दो घन्टे में। या . . . कल किसी वक्त!”
“नहीं। ऐसे ही ठीक है। जब मैं जानता हूँ मेरे सामने कौन बैठा है तो रंगरूप– लिबास से क्या फर्क पड़ता है!”
“मैं तुम्हें किस नाम से पुकारूँ? मिस्टर जाधव या . . . मिस्टर क्वीन?”
“जो भी तुम्हारे मिजाज में आए। नाम में क्या रखा है!”
“वो तो है! ख़ासतौर से जब कि मुझे मालूम है कि दोनों ही नाम फर्ज़ी हैं। असली नाम कोई और ही है। नहीं?”
वो मुस्कराया।
“बोले तो?”
उसने जवाब देने की कोशिश न की।
“जब दो मर्द बात कर रहे हों तो उन के करीब औरत की मौजूदगी बेमानी होती है।”
वो हड़बड़ाया, उसने यूँ शक्ल बनाई जैसे विमल की बात को समझ न पा रहा हो।
“तुम्हारा नाम भी” – विमल महिला की ओर घूमा – “मिसेज जाधव ही चलेगा या माँ बाप का रखा नाम उचरोगी?”
“गुलाब!” – वो जबरन मुस्कुराती बोली।
“रोज़ बाई ऐनी अदर नेम। नो?”
“यस।”
“शनिवार को मैंने तुम्हें ड्रिंक करते देखा था इसलिए बार पर जाओ वहीं विराजो और अपने लिए ड्रिंक ऑर्डर करो। आइल एडवाइज़ वोदका मार्टिनी, शेकन नॉटस्टर्ड। लाइक जेम्सबांड। बिल मेरे ज़िम्मे।”
“बिल इज़ नो प्रॉब्लम। बार के मालिक मिस्टर क्वीन हैं।”
“हाउ नाइस! हाउ कनवीनियेन्ट!”
“लगता है तुम यहाँ मेरी मौजूदगी नहीं चाहते!”
“हाउ स्मार्ट!”
“मेरी यहाँ मौजूदगी या गै़रमौजूदगी तुम्हारे अख़्तियार में नहीं है।”
मर्द ने फरमायशी तौर पर सहमति में सिर हिलाया।
“ऐसे अख़्तियार पर मेरा दावा भी नहीं।” – विमल बोला – “लेकिन मैं चाहता हूँ कि मीटिंग वन टु वन हो। ये अगर मीटिंग के दौरान तुम्हारा मौजूदगी चाहते हैं तो औरत की मौजूदगी वाला अपना ऐतराज़ मैं वापिस लेता हूँ।”
“गुड!” – ‘गुलाब’ बोली।
“लेकिन उस सूरत में मैं भी चाहूँगा कि मेरा एक साथी यहाँ मौजूद हो। मैं जब चाहूँगा, वो यहाँ होगा। फैसला करो” – वो मर्द की ओर घूमा – “गुलाब बार पर जाए या कांटा यहाँ आए?”
मर्द ने उस बात पर विचार किया, फिर उसने महिला को कोहनी मारी और निगाह से भी इशारा किया।
वो उठ खड़ी हुई और साफ-साफ भाव खाती, मिजाज दिखाती बार की ओर बढ़ी।
“डू रिमेम्बर वोदका मार्टिनी” – विमल ने पीछे से चेताया – “शेकन, नॉटस्टर्ड!”
वो वापिस न घूमी।
विमल तब तक उसे अपलक देखता रहा जब तक वो बार पर स्थापित न हो गई।
वो वापिस मर्द से मुख़ातिब हुआ – “तुम इस फैंसी बार के मालिक हो, ये मेरे लिए सैटबैक है। मालूम होता तो मीटिंग कहीं और फिक्स करता।”
“इस जगह में कोई ख़राबी नहीं।”
“हाँ, अब तो ये करना ही पड़ेगा। ख़ैर! अभी बोलो, जैसे मैडम अपना नाम गुलाब बोल के गई – जोकि बच्चा भी समझ सकता था कि हाथ के हाथ सोचा फर्ज़ीनाम था – वैसे तुम भी ऐसा ही कोई नाम सोच लो, पुकारने में सहूलियत होगी।”
“मिस्टर क्वीन?”
“ओके, मिस्टर क्वीन। क्या चाहते हैं मिस्टर क्वीन?”
एकाएक पूछे गए उस सवाल से वो हड़बड़ाया, फिर बोला – “अब जबकि मैं जानता हूँ तुम कौन हो, मैं तुम्हारी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहता हूँ।”
“दुश्मनी कब हुई?”
“बात में पेच न डालो, यार।”
“मकसद! मकसद क्या है?”
“बोला न, दोस्ती. . .”
“वो तो बुनियाद है। ओपनर है। गेम्बिट है। गेम्बिट समझते हो न! शतरंज की पहली चाल!”
“वही सही।”
“तुम्हारे से पहले तुम्हारे जैसे बहुत लोगों ने ऐसी कोशिश की है, कोई कामयाब न हो सका।”
“वक्ती तौर पर भी नहीं?”
विमल ख़ामोश हो गया।
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पुस्तक अंश : गैंग ऑफ फ़ोर
लेखिका : सुरेन्द्र मोहन पाठक
प्रकाशक : पेंगुइन (हिंद पॉकेट बुक्स)
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