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कुंदन यादव की कहानी ‘मुखाग्नि’

आज पढ़िए कुंदन यादव की कहानी ‘मुखाग्नि’। कुंदन यादव जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी रहे हैं, फुलब्राइट स्कॉलर के तौर पर इलिनॉय विश्वविद्यालय, शिकागो में हिन्दी और भारतीय संस्कृति का अध्यापन कर चुके हैं। भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी हैं। लेकिन हमारे लिए लेखक हैं और आप उनकी इस कहानी को पढ़िए-

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जून में कोई छुट्टी नहीं होती। यह सोचते हुए पंचांग देख ही रहा था कि पता चला कि आज गंगा दशहरा है। लेकिन क्या फायदा? न आरएच न ही कोई छुट्टी। इसी बीच बनारस में कॉलेज के दिनों में  गंगा दशहरा के दिन हुए एक अंतिम संस्कार की याद आई। जब मोहल्ले के केदार बाबा को अंतिम विदाई देने के लिए हम लोग बनारस के मणिकर्णिका महाश्मशान में थे। केदार बब्बा लगभग 96 वर्ष की आयु पूरा करके गोलोक वासी हुए थे और उन को अंतिम प्रणाम करके विदा करने हमारे गांव के और अगल बगल से लगभग तीन चार सौ लोग श्मशान में जमा थे।

चिता जलने के बाद कुछ लोग वहीं रह गए और शेष सभी मुखाग्नि से पहले जल देकर ऊपर घाट की सीढ़ियों पर आकर बैठे ही थे कि कुछ देर में  श्मशान में एक नया मुरदा आया।  केदार बाबा के शव यात्रा में पहले से ही बहुत ज्यादा लोग थे और अब लाश काफी जल चुकी थी, साथ ही इस  नए मुर्दे के साथ आने वालों के लिए वहां जगह कम पड़ रही थी।  अतः श्मशान संचालकों ने आवाज लगाई कि भैया अब आप लोग चलते रहैं।  इस बात पर गौर करके हमारे दल के किसी बड़े बुजुर्ग ने सभी लोगों को पानी पीने के लिए धीरे-धीरे कचौड़ी गली में किसी मिठाई की दुकान पर रुकने का आदेश देकर वहां से चलने के लिए कहा, और कुछ देर में ही लगभग तीन चौथाई लोग ऊपर मुख्य बाजार की तरफ चले गए।  क्योंकि मैं पहाड़पुर से बनारसी दादा की हीरो होंडा से आया था अतः मैं वहीं रह गया क्योंकि बनारसी दादा एक हरा बांस लेकर कपाल क्रिया के लिए जलती हुई चिता के अगल-बगल ही घूम रहे थे। बनारसी दादा कई वर्षों से कम लकड़ी में मुर्दे को अलट-पलट कर के फूँकने में माहिर थे। लकड़ी वाले जैसे ही लाश देख कर बोलते छः कुंतल लकड़ी लगी। बनारसी दादा की आवाज़ गूँजती , नाही बे सवा चार कुंटल लिख बाद में देखल जाई। यदि लाश हल्की हुई तो बनारसी का तर्क था कि , “ शरीर एकदम झुरा गयल, जरावे बड़े बचल का हव? बस हड्डी आ तईं तुना मांस”। बल्कि साढ़े तीनय में हो जाई”। यदि मुर्दा मोटा या भारी  हुआ तो बनारसी दादा का तर्क होता,” अबे रोज दू सेर दूध आ डेढ़ पाव मलाई खईले वाली शरीर हव। बिना लकड़ी जऊन फनफना के कुल चर्बी  जरी कि देखतय रह जइबा। लकड़ी त बस सहारे बदे लगत हव”। चल अच्छा साढ़े चार कुंटल कर दे। बनारसी की इसी विशेषज्ञता के कारण हमारे गाँव के आसपास किसी भी मृत्यु पर उसके परिवार वाले बनारसी दादा को क्रियाकर्म के लिए एक अनुमानित राशि सौंप कर निश्चिंत हो जाते। और बनारसी भी पूरे जी जान से मृतक के दाह संस्कार से तेरहवीं तक इस तरह अंतिम विदाई देते कि घर वाले क्या देंगे। मणिकर्णिका श्मशान की दुकानों पर उनका क्रेडिट चलता था।

नए मुर्दे के साथ करीब पचास साठ लोग थे। बनारसी और उनलोगों की बातचीत में पता चला कि वह सभी बनारस के बड़ागांव तहसील से आए हैं। श्मशान रजिस्टर में मृतक का नाम राम पूजन पटेल दर्ज किया गया।  इसके बाद लकड़ी आदि का चार्ज देकर के नीचे वे सबसे बाएँ चिता सजा ही रहे थे तब तक हल्की बारिश आ गई । सभी लोग उपर भाग आए। फिर मृतक के लड़के के बाल दाढ़ी मूँड़ने का काम शुरू हुआ। लड़का  बहुत रो रहा था। लोग उसे बार-बार समझाते कि यह दुनिया की रीत है बेटा।  सबको जाना है तब वह कुछ देर के लिए चुप होता लेकिन फिर अचानक अरे बाबू रे बाबू कह कर फूट-फूट कर रोने लगता।

मुंडन होते हुए भी पिता की याद में रूक रूककर लड़का रोने लग रहा था। बीच बीच में व्यवधान होने पर नाई ने झड़प कर कहा- मरदवा अब तू या त रो ला, अ नाही त बेल छिलवा ला? बीच बीच में दहड़बा त अस्तुरा लग जाई , हम नाहीं जानित।

नाई की फटकार से लगभग 40 वर्षीय लड़के की दहाड़ सुबकने में बदल गई। कुछ देर श्मशान के क्रिया व्यापार की आवाज़ आती रही। अब नापित कर्म लगभग पूरा हो ही चला था और लड़के का कोई रिश्तेदार दाह संस्कार हेतु लड़के को पहनने के लिए सफेद मालकिन की धोती और बनियान लिए हुए वहां खड़ा था कि उस दल में से एक व्यक्ति सीढ़ियों से चीखते हुए प्रकट हुआ।

“अरे मरदवा तू लोग इहाँ दतनिपोरी फनले हउवा, उहाँ पता नाहीं कउन भों……वाला चच्चा के आगी दे देलेस। “

यह खबर सुनकर लड़का समस्त शोक भूल कर करूण से वीर रस में जाकर, नाई को झटका देते हुए उठा और , कउन हव एकरी माँ की .. उद्घोष करते हुए, कुछ और धाराप्रवाह गालियाँ देते हुए सीढ़ियों से नीचे तट की तरफ भागा।

हम लोग भी नीचे की तरफ़ दौड़े

वहाँ पहुँच कर पता चला कि इनसे पहले जो पार्टी सबसे बायीं तरफ चिता सजाकर गई थी, वह सारा काम निपटा कर लौटी तो भूल से सबसे बाएँ को अपना वाला मानकर मुखाग्नि दे दी। दरअसल श्मशान घाट पर ऐसा आमतौर पर होता है कि लोग किनारे एक एक करके चिता सजाते जाते हैं क्योंकि जहां तुरंत दाह कर्म  हुआ होता है वह पत्थर और मिट्टी बहुत गर्म होती है इसलिए एक के बाद एक क्रम चलता रहता है।

लड़के के साथ के लोग धारा प्रवाह गालियों के साथ जलती चिता को बुझाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन ढेर सारा घी चंदन कहाँ बुझ पाता। तब तक किसी ने कह दिया कि अगर आग  बीच में बुझाई जाएगी तो उनको मुक्ति नहीं मिलेगी।

पहले तो जिस व्यक्ति ने गलती से नई वाली चिता में आग लगा दी थी उसने मोर्चा लेने की कोशिश की।  उसने दलील दिया कि आपन मुर्दा अगोरे के चाही न ! कि उहां बैठ के तमाशा देखत रहला तू लोग?  हमारी कौन गलती है? अरे भाई सबसे किनारे लकड़ी लगवा करके  गए थे बाल बनवाने के लिए। इतने में आप लोग अपनी वाली चिता लगा दिए और हम आए तो हमें लगा कि यही वाली है तो हमारी क्या गलती?  पता होता कि आप लोग चिता लगाकर गए हैं तो हम क्यों आग देते? और थोड़ा बारिश हो गया इसलिए सब लोग यहां से हट गए थे।  खाली पंडित जी और जो लोग आए उनको भी भ्रम हो गया।

अब बताइए कफन में सब लास एक जैसी दिखती है तो हमारी क्या गलती है?

लेकिन इस सफाई से बात नहीं बनी। एक तो गलती से चिता जलाने वाले के साथ मुश्किल से बीस लोग थे और संख्या बल में नए वाले मुरदे के साथ लगभग तीन गुने लोग थे।  फिर यह ऐसा मामला था जिस पर हर व्यक्ति गलती करने वाले को कोस रहा था कि कम से कम उनमें से किसी एक को वहां रहना चाहिए था।  ऐसा कौन सा तूफान आ गया था जिसमें सभी लोग भीगने के डर से ऊपर भाग आए।  अरे भला लाश को कोई अकेला छोड़ता है। यह सब सुनकर गलती करने वाले व्यक्ति की सफाई और  प्रतिरोध धीरे धीरे कम होता चला गया और इसके मुकाबले उस  लड़के के साथ वाले लोग उग्र होने लगे।

पिता को दूसरे द्वारा मुखाग्नि देने से गुस्से में दुखी लड़के ने किसी को आवाज़ दी- अबे डबलुआ निकाल राइफल। आज इ बुजरौ वाले के जिंदा न छोड़ब। इनकी माँ का..

अब माहौल गरमाता देख दूसरी पार्टी के ज्येष्ठ पुत्र ने हाथ जोड़कर कहा, भइया गलती हो गयल। ल तू हमरे बाऊ के जरा लऽ। दूनों जने उपर आपन हिसाब कय लीहैं।

अइसे कइसे कय लेइहैं बे?  तै …ड़ी के धोबी आउर हमने पटेल। कहीं कौनों बराबरी हव जउन हिसाब कय लेइहैं? अउर हमार पितर रिन के उतारी बे? पूरा जिनगी समाज में का मुँह देखाइब कि बाऊ के आगी ना दे पउली। एकर सजा त तोहैं भोगहीं के पड़ी छिनरौ के।

फिर बहुत देर तक पंचायत होती रही और श्मशान में शोक का नामो निशान नहीं रह गया था। रह रहकर तिक्त-मधुर गालियों की ध्वनि गूँज रही थी। गलती करने वाला पक्ष सफाई दे देकर चुप हो गया था और प्रतिरोध भी करना बंद कर चुका था।  उन दिनों अगर मोबाइल वगैरह होता तो शायद फोन करके अपने पक्ष में कुछ और संख्या बल बढ़ाने की कोशिश की जाती लेकिन सैकड़ों सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर जाना अपने आप में एक कठिन काम था इसलिए सब लोग वही आस पास बैठे हुए थे।  इस बीच हमारे केदार बाबा की अस्थियां गंगा में प्रवाहित कर दी गई और हमने भी हाथ मुंह धो कर क्रिया कर्म संपन्न कर लिया लेकिन हमारे बनारसी दादा की रुचि  यह जानने में थी कि फैसला क्या होता है?  आखिर गलती से लाश जलाने की घटना देखने वाले चश्मदीद गवाहों में वह भी एक थे। गर्मा-गर्मी कुछ आगे बढ़ती तो बनारसी दादा बीच-बचाव कर देते।  पहले तो यह तय नहीं हो रहा था कि वह किस पक्ष के साथ खड़े हैं लेकिन कुछ देर बाद यह स्पष्ट हो गया है कि वे भूल करने वाले व्यक्ति के साथ हैं।  उनके हाथ में लंबा बांस देखकर भी शायद कोई उन्हें यह नहीं कह रहा था कि तुमसे मतलब।

इस बीच श्मशान में भारी कोलाहल देखकर डोमराजा उतरे। शायद गलती कर देने वाले पक्ष में से किसी ने उनके दरबार में जाकर शरण ली।  त्राहिमाम की भावना देखकर उन्होंने हस्तक्षेप करना स्वीकार किया। अन्यथा घाट के अन्य कर्मियों ने बताया कि वे आमतौर पर किसी झगड़े में नहीं जाते।

दोनों पक्षों से पूरी बात जानने और बनारसी दादा की गवाही धैर्य से सुनने के बाद पर उन्होंने बगल में  ठंडी हो रही चिता के अवशेष पर पान थूकते हुए स्थापना दी, “देखा, इहाँ आ गइला मतलब मरे वाला पुण्यात्मा रहल होइहैं जउन इहाँ से मुक्ति होत हव। रहल बात बड़े पुत्र से आगी देवे क, त बेटवन के हाथ में कउनो बिष्णू जी क कर कमल स्थापित भयल हव? जऊन बेटा के आगी लगउले से ही मुक्ति मिली। अरे यहां भोलेनाथ खुद मरने वाले के कान में तारक मंत्र देकर मुक्ति देते हैं।  फिर बेटा-सेटा की क्या औकात? इ सब तो रीत है। अ जेकर बेटवा ना हउवन ओनके मुक्ति न मिली? और बाकी सब कुछ छोड़ा, इहाँ एतना लावारिस लाश रोज फुंकात हइन त का ओनहने के मुक्ति न मिली?”

डोम राजा की इस ललकार पर वहां पर कुछ सेकंड के लिए शांति छा गई।  लड़के के किसी रिश्तेदार ने कुछ कहना चाहा लेकिन डोम राजा ने उसकी ओर ध्यान न देते हुए गलती करने वाले को अपने पास बुला कर धीरे से कहा, ” तू लोग डेरा मत।  हम हइ न। कवने बात का मुकदमा करिहैं भों…. के ? अउर  इ गलती पे कउन धारा लगी? इ हमार इलाका हव। ढेर उत्पात मचइहैं त बल भर हूर के खदेड़ देवल जाई। जियले पे बाप क सेवा न कइले होइहैं , अब मुखाग्नि क चिंता भयल हव।”

इसके बाद वे बुलंद आवाज़ में लड़के की तरफ देखकर बोले, “ अरे गलती से इ तोहरे बाऊ के जरा देलन। अगर जनतन त जरइतन?” फिर गलती करने वाले की तरफ देखा कर बोले- “कहो पता रहत त जरइता” ?

आऊर का , भइया हम का करे जराइत ओनके। बस गलती हो गयल माफ करअ।

अब डोम राजा लड़के से बोले- चला छोड़ा इ सब , देखा आँच गड़बड़ात हव , सेर भर घीउ ना दऽ ओप्पर । घी डालते ही जैसे ही आग पुनः तेज हुई, डोम राजा बोले , – देखा तोहरो तरफ से मुखाग्नि हो गयल । अबहीं पुत्र रिन से मुक्ति खातिर कई ठे काम तोहरे जिम्मे निभावे बदे हव। एके छोड़ा उ सब कअ चिंता करा।

फिर गलती से मुखाग्नि देने वाले को बोले- “जब माफ़ी माँग लेहला एनसे त गलती माफ। अब चला अपने असली बाऊ के आगी दा। बात खतम। सब जने किरियाकरम के बाद मसान बाबा क हाथ जोड़ लीहा अउर कउनो बहसबाजी अब न होए के चाही”।

इस वाक्य में आग्रह से अधिक आदेश शामिल था।  आखिर हो भी क्यों ना ? डोम राजा की स्थापना, वह भी श्मशान में आदेश ही होती है।

फिर इधर-उधर ऊपर अपने सगे संबंधियों व कर्मचारियों को देखते हुए बोले- बस अब काम निपटावा सब जने। और कोई फालतू बहस नाहीं।  इहाँ …..ड़ीवाले लगावे बझावे वाले बहुत हउवन। अउर हाँ लउटत के साथे बइठ के पानी पी लीहा सब जने। ठीक हव।

यह कहकर डोम राजा पुनः अपने घर की तरफ चले गए।  मैं और बनारसी दादा भी चलने को ही थे कि उनमें से किसी वरिष्ठ व्यक्ति की आवाज आई।  अरे भइया ! अब आप लोग हमने के साथै पानी पी के निकलत जा। बहुत मदद कइला आप लोग।

एक दो बार मनुहार कराने के बाद हमने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वैसे भी केदार बब्बा वाली पार्टी बहुत पहले जा चुकी थी।

वहाँ पानी पीना का मतलब – श्मशान में दाह संस्कार हेतु साथ आए हुए सभी लोगों को पेट भर कचौड़ी सब्ज़ी और मिठाई का भोग।

डॉ कुन्दन यादव

मो.- 8506889889

 
      

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14 comments

  1. Prof Garima Srivastava

    बहुत प्रभावी कहानी।जीवंत प्रस्तुति। बधाई कुंदन जी और प्रभात रंजन जी।

  2. MADAN PAL SINGH

    इस कहानी का जो ख़ास हिस्सा आकर्षित करता है, वह आपने आप में रिपोर्ताज है। एकदम देखे हुए का चित्र खींचना– क्रिया और संवाद दोंनो स्तर पर।
    आगे बढ़ें तो यहाँ मुर्दा, जीवित आदमी से कही ज्यादा ताकतवर हो उठता है, क्योंकि मृतक की भी एक जाति होती है। ऐसे में तमाम उपनिषदों और पुराणों का सार, समय के हिसाब से बनारसियों के मुखारविंद से फूटने लगता है। खासतौर पर डोम राजा का चरित्र अपने पूरे बनारसी ठाठ के साथ यहाँ मौजूद है। कहूँ तो उनके द्वारा स्थापनाओं का अपने सनतान रूप में स्थानीयकरण होने लगता है।
    यह उस धूल से जुडी कहानी है, जो सबका सत्य है

  3. कुंदन यादव जी की कहानी मुखाग्नि को ध्यान से कई बार पढ़ने के बाद महसूस होता है कि उत्तर आधुनिक समय और देश काल को शमशान की पृष्ठभूमि में व्यक्त करने वाली यह कहानी हिंदी साहित्य में शायद पहली कहानी है। एक लेखक के तौर पर कुंदन यादव समय की गति समाज में विभिन्न वर्ग के लोगों के मनोविज्ञान की गहरी परख रखते हैं। कहानी शुरू होती है फ्लैशबैक माध्यम से और इसमें नायक कोई नहीं है या फिर कई नायक हैं। नायक के तौर पर बनारसी दादा भी हैं। गलती से दूसरे के पिता को मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति भी है और जिसकी लाश में अग्नि दी जा चुकी है उसका शोकाकुल पुत्र भी है जो बाद में विद्रोही हो जाता है और फिर अंत में डोम राजा भी नायक की ही भूमिका में हैं। परंपरागत प्रतिमाओं में हम इस कहानी का मूल्यांकन नहीं कर सकते। जिस प्रकार उत्तर आधुनिकता परंपरागत प्रतिमाओं का निषेध करती है वही प्रयास इस कहानी में भी दिखाई देता है। आमतौर पर लोग विभिन्न प्रकार की कलाओं खेलकूद संगीत इत्यादि में विशेषज्ञ हुआ करते हैं लेकिन यहां बनारसी दादा कम लकड़ी में लाश जलाने के विशेषज्ञ हैं। ऐसी विशेषज्ञता किसी बनारसी के पास ही हो सकती है जहां केदारनाथ सिंह के शब्दों में
    यह शहर इसी तरह खुलता है
    इसी तरह भरता
    और खाली होता है यह शहर
    इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
    ले जाते हैं कंधे
    अँधेरी गली से
    चमकती हुई गंगा की तरफ़

    कहने का मतलब जो जगह मिथक के अनुसार अपने आप में महाशमशान हो और जहां 24 घंटे साल भर कतार में शवदाह हो रहा हो जहां मृत्यु भी शुभ मानी जाती हो बनारसी दादा जैसे व्यक्तित्व और विशेषज्ञता का विकास वही हो सकता है। जिस श्मशान में लोग गुजरने से डरते हो वहां पूरे इलाके के मृतक लोगों को अंतिम विदाई देना और कम खर्च में समस्त संस्कार करा देना बनारसी दादा को एक यूनिक चरित्र के रूप में हमारे सामने लाता है। बनारसी दादा का यह व्यवहार परंपरागत भूत प्रेत आदि की मान्यता का विखंडन करता है और इन अर्थों में वह शमशान के उत्तर आधुनिक चरित्र की व्याख्या करता है।
    एक छोटे से नायक के रूप में नाई भी प्रगट होता है जो निर्विकार भाव से अपना कामकाज कर रहा है। जैसे वह जीवन के रहस्य को पहचान चुका हो। और रोने वाला व्यक्ति जब उसके क्रिया व्यापार में बाधा उत्पन्न करता है तो वह बिना किसी लाग लपेट के चेतावनी देता है कि या तो मुंडन करा लो या दहाड़ लो। यहां लेखक ने जानबूझकर दहाड़ का प्रयोग किया है। ध्वनि का यह प्रयोग गहरे अर्थ संकेत देता है कि मृत्यु या कोई भी घटना शमशान के आसपास के लोगों के लिए भय या करुणा अथवा अफसोस या स्तब्ध था नहीं पैदा करती है। यह एक स्थितप्रज्ञ व्यवहार का परिचय नई देता है। भले ही गलती से दूसरे की चिता जला दी जाती है लेकिन उसके बाद शोकाकुल बेटे का व्यवहार परिवर्तन यह संकेत करने के लिए पर्याप्त है कि वास्तव में अब दुख नहीं है बल्कि पित्र ऋण के उतरने की चिंता और समाज क्या कहेगा इस बात की चिंता अधिक है और इसीलिए बात राइफल निकालने तक पहुंच जाती है।

    लेखक ने आपसी वार्तालाप में पात्रों के मुंह से निकलने वाली भदेस शब्दावली में कहीं कोई कंजूसी नहीं की है यद्यपि रिक्त स्थान देकर उसके गुनगुन का एहसास कराया है।
    विश्व में काशी ही एक ऐसी जगह है जहां इसमें श्मशान के डोम को राजा की उपाधि प्राप्त है। डोम राजा वास्तव में शमशान के मालिक हैं। उनका आधिपत्य ऐसा है कि अगर किसी भी वजह से उन्होंने अग्नि देने से मना कर दिया तो मान्यता के अनुसार दाह संस्कार हो नहीं सकता। यही उनकी न्यूसेंस वैल्यू है। यह इतनी अधिक है कि उनके आने के बाद आपसी झगड़े में लगे हुए दोनों पक्ष बिल्कुल शांत हो जाते हैं और दोनों ही पक्ष उनकी बात को चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं। यद्यपि डोम राजा बहुत पढ़े-लिखे नहीं है लेकिन उनके अनुभव और शास्त्र ज्ञान का परिचय उनकी उद्घोषणा से प्राप्त होता है। डोम राजा के माध्यम से कहानी कार्य परंपरागत मान्यता जिसमें कि पुत्र जन्म में खुशियां मनाई जाती है क्योंकि पुत्र के हाथों संस्कार होने पर मुक्ति मिलेगी। इस मान्यता का कहानीकार ने तार्किक ढंग से विखंडन किया है और वह भी विष्णु भगवान तथा स्वयं महादेव के तारक मंत्र का प्रमाण देते हुए। धूम राजा बहुत सही सवाल उठाते हैं कि अगर जिनके पुत्र नहीं हैं या फिर जो लावारिस लाशें हैं और जिनका संस्कार रोज होता है क्या उनकी मुक्ति नहीं होगी? यदि पुत्र होना मुक्ति की एकमात्र शर्त है या जरूरी शर्त है तो फिर शिव के होने का क्या महत्व और उनके तारक मंत्र की क्या जरूरत है? वहां संबंध उपस्थित व्यक्तियों में से कोई भी या प्रतिकार नहीं कर सकता और बड़े से बड़ा धर्म शास्त्री जी यह नहीं कह सकता लावारिस लाशों को मुक्ति नहीं मिलती होगी? तारक मंत्र की इसी मान्यता और विश्वास के बल पर डोम राजा पुत्र के हाथों मुखाग्नि देने के परंपरागत प्रतिमान का जोरदार विखंडन कर देते हैं। पुरुषवादी सत्ता को डंके की चोट पर प्रमाण सहित ऐसी चुनौती वह भी शमशान भूमि से साहित्य में बहुत कम देखने को मिलती है। इसीलिए कुंदन यादव का विस्तृत विजन व सहज कथाभाषा उन्हें एक बड़ा कहानीकार बनाती है।

  4. शवदाह में ऐसा कथानक कथाकार के सूक्ष्म अवलोकन से ही संभव है। मार्मिकता, दर्शन, ग्रामीण परिवेश की बाह्य उग्रता एवं आंतरिक माधुर्य का चित्रण — मनरोचक है। बहुत-बहुत धन्यवाद ऐसी यूनीक कहानी के लिए ।

  5. शवदाह में ऐसा कथानक कथाकार के सूक्ष्म अवलोकन से ही संभव है। मार्मिकता, दर्शन, ग्रामीण परिवेश की बाह्य उग्रता एवं आंतरिक माधुर्य का चित्रण — मनरोचक है। लेखक को बहुत-बहुत धन्यवाद ऐसी यूनीक कहानी के लिए ।

  6. Wonderful story. The events of crematorium is beyond imagination. Dom Raja is really wonderful.

  7. बहुत ही मस्त कहानी । मन नहीं भरा। जियो डोम राजा

  8. इस कहानी का जो ख़ास हिस्सा आकर्षित करता है, वह आपने आप में रिपोर्ताज है। एकदम देखे हुए का चित्र खींचना– क्रिया और संवाद दोंनो स्तर पर। आगे बढ़ें तो यहाँ मुर्दा, जीवित आदमी से कही ज्यादा ताकतवर हो उठता है, क्योंकि मृतक की भी एक जाति होती है। ऐसे में तमाम उपनिषदों और पुराणों का सार, समय के हिसाब से बनारसियों के मुखारविंद से फूटने लगता है। खासतौर पर डोम राजा का चरित्र अपने पूरे बनारसी ठाठ के साथ यहाँ मौजूद है। कहूँ तो उनके द्वारा स्थापनाओं का अपने सनतान रूप में स्थानीयकरण होने लगता है।
    यह उस धूल से जुडी कहानी है, जो सबका सत्य है।

  9. एक अच्छी कहानी में कहानीपन का होना जरूरी है आपकी कहानी इस कसौटी पर दम खम के साथ रूबरू होती है ,बधाई हो कुंदन भाई

  10. आप सभी की सराहना के लिए आभार। रचित चोपड़ा जी की समीक्षा बहुत दिलचस्प है। आपका फोन भी आया था। बहुत धन्यवाद।

  11. सर शानदार कहानी। आपकी कथात्मक शैली ने बनारस के मंकर्णिका घाट को जीवंत कर दिया । जीवंत भाषा, सुगठित विषय और सहज व्यंग्य की धार कहानी में रोचकता उतपन्न करती है । सर ढेरों बधाई। एक नौकरशाह भी इतना उम्दा लिखा सकता है, यह देख कर ताज्जुब हुआ। और कहानियों का इंतज़ार रहेगा।

  12. शशि बाला

    डॉ. कुंदन यादव जी की कहानी “मुखाग्नि” पर कुछ पंक्तियाँ

    कफ़न में सब लास एक समान
    फिर लड़ाई काहे की कि मैं महान या तुम महान
    मोक्ष उसको भी मिलेगा जिसने गलती से दूसरे के बाप की चिता जलाई
    फिर क्यों रोते हो कि अबकी बार फिर लडकी ही आई

    लाश को अकेला न छोड़ने की रीत भी जाती हुई नजर आती है
    ये दुनिया है साहब, कहाँ साथ निभाती है
    “तन्नै तो मैं ही फूकूँगा” लड़ाई में अक्सर यह गाली दी जाती है
    जवाब रूप में “मन्नै तो फूंकन वाला दे राख्या” ये दलील भी
    इस कहानी में गलत होती हुई नजर आती है

    शमशान से जड़ी हुई यह कहानी कहीं कहीं अंदर तक उतरती जाती है
    शमशान की भीड़ करूणा से कम
    मिठाई कचौड़ी से ज्यादा जुडी हुई नजर आती है|

    शशि बाला
    कनिष्ठ अनुवाद अधकारी

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