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प्रेम और मृत्यु और शोक की तरफ गईं कविता

वरिष्ठ कवयित्री सविता सिंह के कविता संग्रह ‘खोई हुई चीजों का शोक’ पर यह टिप्पणी लिखी है वरिष्ठ लेखिका जया जादवानी ने। राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित सविता सिंह के कविता संग्रह पर यह टिप्पणी आप भी पढ़ सकते हैं-

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‘खोई हुई चीजों का शोक’ सविता सिंह का नया कविता संग्रह है. खोई हुई चीज़ें दुबारा वापस नहीं आतीं पर क्या सचमुच वे हमें छोड़कर कहीं और चली जाती हैं, जा सकती हैं? फ़िर जो हमारे पास रह जाता है, वह क्या है….

      ‘यहीं ठहरी हुई हूं कुछ देर

       ज्यों एक सांस व्यर्थ सी थमी हुई

       यहीं तुम्हें आना होगा अपने पंख समेटकर

       फ़िर उड़ जाने की मंशा को स्थगित करके’

   वह क्या है जो हमारी शिराओं में अभी तक गा रहा है? वह क्या है जो नक्षत्रों की तरह स्मृतियों के आसमान पर टिमटिमा रहा है?

     अगर तुमने कभी प्रेम किया है तो इन सवालों पर मुस्कराओगे. आख़िर कोई अपनी बात कैसे कहे कि वह कहे जाने के साथ ही समझ लिया जाए. सुन लिया जाए बिलकुल वैसे ही, जैसे सुनाया गया है. कौन सुनेगा तुम्हें प्रेम के सिवा और कौन गहेगा बांह कि सुन ज़रा. यह प्रेम ही तो है, जो समूची खामोशियों के ताले अपने स्पर्श की मुलायम चाबी से खोल देता है.

    पर फ़िर जब मृत्यु आती है, अपने साथ कितना कुछ ले जाती है … एक कामनाओं, बेचैनियों, अभिव्यक्तियों, रंगों और रागों का भरा-पूरा संसार वीरान हो जाता है. बच जाती हैं डूबती-उतराती स्मृतियाँ और रगों में बहता दुलार.

      सविता सिंह की कविताएँ मृत्यु, शोक, दुःख, स्मृतियों, उदासियों, प्रेम और अनुराग का ताना-बाना है. ये स्मृतियाँ, उदासियाँ और दुःख उन्हें निराशा से नहीं भरते बल्कि इन्हीं में से वे जीने का नया रास्ता तलाशती हैं. वे अब एक नई दुनिया रच रही हैं, जहाँ प्रेम का मतलब वासना नहीं, अनुकूलन का विस्तार है. जीवन हर रोज़ वही है पर एक नई आँख से देखो तो जीवन हर रोज़ नया है.

    यहाँ मृत्यु कितनी ही छटाओं में उपस्थित है. मृत्यु शाम है. मृत्यु एक छोटी सी बच्ची है, लंबी-सांवली, छींटदार साड़ी पहने. जो चलती है साए सी लगातार पर जिससे भय नहीं होता. अपनी उपस्थिति से वह डराती नहीं. वे मृत्यु से लगातार संवाद में हैं. वे मृत्यु के भीतर उतरती हैं और उतरने देती हैं उसे अपने भीतर. वे जपने चले गए प्रिय को कहती हैं …

       ‘तुम चलो मैं आती हूं

       तुम चलो तुम्हारी सुंदर कलमों में

       सियाही भर रही हूं

       सबसे ज़्यादा वक्त इसी में लगेगा.’

   अपने इस निजी दुःख ने उन्हें डुबोया नहीं है. अंधकार का मरु उन्हें डराता नहीं बल्कि वे अपने चारों तरफ़ समुद्र की तरह हिलते अधिनायक तंत्र को देख भी रही हैं और महसूस भी कर रही हैं. वे इस क्रूर समय के प्रति सजग हैं, जहाँ पेड़ों की शाख़ों पर हमारी बच्चियां लटकाई जा रही हैं और लोकतंत्र चुप है.

     इस क्रूर पितृसत्तात्मक समय में वे डरती हैं अपनी बच्चियों के लिए, जिन्होंने समय के नियम पलट दिए हैं. यह एक मां का डर है जो चाहती है, उसकी बेटी स्त्री के लिए निर्धारित गोले से निकल भी जाए और कुछ-कुछ बनी भी रहे. दिव्या और मेधा के लिए उनकी कविताएँ एक मां का अपनी बेटियों के प्रति ममत्व से भरा चिंतातुर भाव है, वे सारे रहस्यों से बेटियों को परिचित भी करा देना चाहती हैं और डरती भी हैं ….

       ‘देह ही सृष्टि है

       अपनी उत्पत्ति स्वयं करती

      और योनि उसका प्रवेश द्वार

      इसकी मालकिन स्त्री है

     कला में बार-बार सृष्टि को नया करती….’

   डॉ. की सलाह सभी के लिए है कि ‘मैं’, ‘मेरा’ की कारा तोड़कर बाहर आओ, यह जगत परमात्मा की अभिव्यक्ति है, तुम्हारा ही विस्तार है. तुम अजनबी नहीं, इन्हीं में से एक हो. आख़िर सभी में तो सीपी सरीखी आत्मा है, जो सबको आश्चर्य से देखती है, उसे ही तो मानवता को बचाने की फ़िक्र है….

      ‘सिर्फ़ अकेली वह है

      वही सीपी सरीखी आत्मा

      जो सबमें एक सी होती है

     सबको आश्चर्य से देखती हुई.’

   कई कविताओं में सविता जी का दार्शनिक भाव गहरे झलकता है. जैसे, ‘मृत्यु, तुम कहाँ रहती हो’ और ‘हराती रोशनियाँ.’

    ‘कितनी ही बार इस दुनिया को मिटाती हूं

    दूसरी के लिए

    कितनी ही बार रोशनियाँ आती हैं मदद के लिए

    ख़ाली हाथ

    कितनी ही बार हराती हैं मुझे.’

    जीवन में कितना कुछ है जो कहने से रह जाता है बार-बार कहने के बावज़ूद और जो जाना जा रहा है, जानते हुए भी कि जाना जा रहा है, यह नहीं जान पाते कि क्या जाना जा रहा है. धुंध इतनी है, संशय इतने हैं कि ….

       ‘सारी मुश्किलें कहने में ही हैं

     सारी तकलीफ़ नहीं कह पाने में.’

   गगन गिल के लिए एक प्यारी सी कविता है ….

       ‘जिसने एक धागे को पहचान लिया

       वह पूरे कपड़े को जान जाएगी.

       जिसने वियोग को जाना

       वह प्रेम भी जानेगी

       जिसने जाना यात्रा को

       वह जीवन को भी जानेगी.’

    कविता सब संबंधों से परे का एक संबंध है, जो नित्य है, सनातन है, मनुष्यता के प्रति लगाव से लबालब. यहाँ प्रेम हो या पीड़ा, दोनों सनातन है.

    और आख़िर प्रेम भी है क्या? तुमसे परे क्या है? कुछ भी नहीं. आख़िर तो हम चल-चल कर स्वयं तक ही पहुंचना चाहते हैं….

     ‘चांदनी मेरी देह को जानने का दावा करती है

     मुझमें धंसे मेरे चेहरे को उठाती है ऊपर.’

     जिसे ढूँढने जा रहे हैं, वह तो अपने ही भीतर बैठा है …

     ‘जब ज़रा गर्दन झुकाई, देख ली तस्वीरे-यार…’

    सारी समझ के बावज़ूद क्यों फ़िर इतनी बेचैनियां कि समझ नहीं आता क्या करें?

       ‘क्या करूँ कि हवा चले विपरीत दिशा में

        पक्षी लौटें अपने नीड़ो में बिना भटके

        क्या करूँ कि नदी में जल रहे

        लकड़ी सी यह देह किसी के तोड़ने से न टूटे

        धीरज आँखों में बसी रौशनी, रौशनी सी रहे

        क्या करूँ कि जाता हुआ वह आता-सा दिखे …’

 ये कवितायेँ साधारण और असाधारणता, जीवन और  मृत्यु, मिलन और विरह, जाना या रुके रहना, थकना या जूझते रहना जैसी मनुष्य की स्वाभाविक पर जटिल प्रवृतियों को एक रागात्मकता से लयबद्ध करती हैं. जीवन से पार जाने का स्वप्न हम इसी जीवन में देखते हैं. प्रेम में मर जाने का स्वप्न प्रेम में. जीवन पीड़ा है पर जीने का जी चाहता है. चांदनी में लोटने को जी चाहता है. प्रिय चला  गया है पर उसका स्पर्श इसी देह में है और यह देह उसी राग को बार-बार गुनगुनाती रहती है. यह जीवन के प्रति एक रागात्मक अभिव्यक्ति है.

     इन कविताओं में खोई हुई चीजों के साथ-साथ बच गई चीजों को जीने का  आह्लाद भी है.

     कविताओं में भावनाओं की तरलता के साथ बौद्धिकता और दार्शनिक सूक्ष्मता भी है. एक स्त्री की भावात्मक दुनिया के बरक्स उसकी कामकाजी दुनिया में भी दखल है. स्त्री सिर्फ़ ह्रदय ही तो नहीं है, मष्तिष्क भी तो है. वह शोक से हारती नहीं है बल्कि दुबारा खड़ी होती है, अपनी यात्रा को नए सिरे से परिभाषित करती. सविता सिंह की कविताएँ उम्मीद हैं हर स्त्री के लिए, एक नए जीवन की उम्मीद.

जया जादवानी

 
      

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