
जाने-माने मनोचिकित्सक और कवि विनय कुमार का नया कविता संग्रह आया है ‘पानी जैसा देस’। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस कविता संग्रह की कुछ कविताएँ पढ़िए-
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अभिषेक पुष्करिणी
कच्ची अमिया और नगर के मिष्ठान्न
गंडक से घड़ा भर जल भी
छोटी सी डोंगी से जाह्नवी पार कर
पाटलिपुत्र के हाट से
मागध परिधान-अलंकार भी
पावनता ही अभिप्राय तो त्रिवेणी चला जाऊँ
किंतु मंगल अभिषेक पुष्करिणी का जल
कदापि नहीं
कैसे समझाऊँ कि सीढ़ियों पर उसकी
रक्त के छींटे हैं
जल में बहे हुए रक्त की स्मृति
कैसी विडम्बना कि जो ताल घिरा लौह जाल से
लौह कपाटों से रक्षित प्रवेश
वीर प्रहरियों की सजग रखवाली में
पावनता जिसकी इतनी अक्षुण्ण
कि पक्षि-चँचुओं को भी प्राप्य नहीं
उसकी यह गति !
काहे का मंगल! कैसा अभिषेक !
कौन समझाए इन मूढ़मति विप्रों को
कि जल की पवित्रता तो सहज प्रवाह से!
हे मेरी रूपवती गर्भिते
किसी राजमहिषी किसी प्रचंड वीर-भोग्या से
तनिक भी कम नहीं तू
किंतु मैं तो वैशाली का अतिसामान्य जन
थोड़ा-सा कृषक थोड़ा-सा वैद्य थोड़ा-सा कवि
श्रावस्ती का दुर्ग दासों-दासियों से भरा प्रासाद
और लक्ष-भर सैनिक तो लक्ष योजन दूर
मुझ से विपन्न के सखा भी कितने
मातृहीन संकोची अंतर्मुख
और कैसे बतलाऊँ कीं कोमल कैशोर्य के
किसलय दलों पर पिता के रक्त के छींटे
हाऽऽऽऽय भूलती नहीं वह रात …
पवित्र पुष्करिणी के निकट ही सुरक्षा सदन में
पिता की भुजा पर शीश टिका सोया था मैं
कि विकट कोलाहल
जागे पिता …हुए खड्गहस्त
-कक्ष में ही रहना
देकर आदेश दौड़े पुष्करिणी को ओर
बाल-सुलभ कौतूहल …
कक्ष के लघु वातायन से देखा
एक पविकाय पुरुष भारी-सा खाँडा लिए
पार्श्व में मुक्तकेशी अतिसुंदर स्त्री
और …भूमि पर अपने ही रक्त में डूबे हुए प्रहरीगण
असि उठा पिता ने टोका : तुम कौन
पविकाय योद्धा हँस पड़ा –
सुनना चाहते हो….सुनो
‘मैं श्रावस्ती का महासेनापति बंधुल मल्ल’
और फिर भीमकाय खाँडा चीर गया पिता की देह
पिता गिरे पृथ्वी पर प्राणहीन
और मैं अचेत
कुछ कालोपरांत चेतना मेरी लौटी
झाँका वातायन से
देखा कि बंधुल की बाँह गहे रूपसी
सीढ़ियों से सरोवर की प्रकट हुई
दोनों रुके ..सम्मुख हुए..
बंधुल ने कसा आलिंगन में …दीर्घ एक चुम्बन लिया
और इस सजल प्रेमलीला के साक्षी थे
कोरी भर शव
सामने ही शिविका थी
भार्या को बिठाकर करतल ध्वनि तीन बार
सेवक उपस्थित हुए शिविका चल पड़ी
अश्व पर बंधुल भी
कुछ निमिष बीते कि आ धमका छोटा सा लिच्छवि सैन्यबल
तलवारें चलती रहीं
बहता रहा रक्त
सारे के सारे लिच्छवि जन मारे गए
सुना था बंधुल की केलिसखी प्राणप्रिया भार्या
मल्लिका थी गर्भवती
जैसे तुम …पहले त्रिमास में
तुझसी ही मानिनी
आम के टिकोरे और कामना-कदंब के फूलों पर रीझी
हे मेरी गर्भिते!
मल्लिका से तनिक भी कम नहीं तू
कहाँ होंगे उसमें इतने गुण
कि निर्मम भूमि पर नंगे पाँव चलते हुए
प्रेम और ममता का ऐसा सुचिक्कन लोक बसा दे
ओ मेरी धूप की धोयी और चाँदनी की सँवारी प्रिया
तुझसे अधिक सुंदर भी क्या रही होगी वह
उससे कहीं सम्पन्न सधोर के योग्य तू
ले प्रिये ले अपनी ही छवियों से अटा मेरा हृदय
ले कैशोर्य की आत्मा से उठती हुई वाणी की विह्वलता
पिता की स्मृति में बहते अश्रुधार से पावन कपोल पर
रख दे वह जिह्वा वे अधर जिनसे लिया था
निरपराध मानव के रक्त से दूषित
मंगल अभिषेक पुष्करिणी का नाम
भूल जा ..उस दूषित जल को अब भूल जा
कि वह तो अब केवल राजतिलक के ही योग्य!
सहज तलैया की भैरवी -१
तुम जो बार-बार कहते हो –
गुरु की वाणी मकरंद है
जो इसे नहीं पिएगा
ज्ञान के रेगिस्तान में प्यासा मर जाएगा’
क्या मतलब है इसका
किसे सुनाते हो यह दोहा
जो तुम्हारे किसी गुरु के गुरु का वचन है
इसे तो सौ बार सुन चुकी मैं
मगर तुम तो इसके सिवा कुछ भी नहीं कहते
कि बुद्ध और संघ और धम्म की शरण में आओ
वो तो रोज़ ही आती हूँ
मेरे बुद्ध मेरे संघ मेरे धम्म
तुम्हारी लाल आँखें, फैली बाहें
और यह धुएँ से भरी यह कुटिया
ऐसा क्या है इसमें जिसे ज्ञान कहते हो
क्या सीखते हो मुझ अनपढ़ गँवार के साथ
क्या लिखते हो इस तरह
कि मेरी त्वचा खरोंचों से भर जाती है
और क्या बोलते हो उस तरह
कि मेरे कान सन्नाटे से
यह कौन-सा ज्ञान है जो सचमुच रेगिस्तान है
और मकरंद की एक बूँद तक नहीं !
सहज तलैया की भैरवी – २
रे सहजिया जोगी
कहाँ चला गया उठकर
शीतलपाटी की तितकी तो साथ ले जाता
आता है कि जाएँ
सुनो तो सो गए क्या
हाय तू तो ऐपन छींटे बैठा है
अरे इतना तो कह दे
नहा लूँ क्या तेरी पावन तलैया में
मेरे घर में पानी नहीं है रे
कुआँ बहुत दूर
जान भी जाएँगे बस्ती के वासी
कि मैं ही नयी भैरवी तुम्हारी
अरे बोलता क्यों नहीं
लो, मूड़ी हिला के ना कह दिया
काहे रे, तलैया कोई मंदिर है क्या
कि बुद्ध भगवान मैले हो जाएँगे
पानी तो पानी है रे
जैसे सारी भैरवियाँ तुम्हारी
हम सी ही नारी
अरे तू जब हम में नहाकर कर सकता है ध्यान
तो हम काहे नहीं कर सकते पावन तलैया में स्नान ?
शोक
मैं सरोवर की तरफ़ कल भी गया था
मगर वहाँ कोई नहीं था
इतना ज़्यादा नहीं
कि संदेह हुआ
-मैं कहीं और तो नहीं आ गया
फिर भी आगे गया
देखा – सरोवर थिर है मछलियाँ अचेत
वृक्षों के पत्ते निष्कम्प
डालों पर बैठे पंछी जैसे स्तब्ध
चींटियाँ तक चित्रलिखित
आख़िर हुआ क्या
किससे पूछूँ
धीरे-धीरे बढ़ता हूँ आगे तो देखता हूँ
सीढ़ियों पर पड़ा एक नीला-सा पंछी निष्प्राण
लगा इसे जनता हूँ
मेरा न सही मेरी कविता का कुछ न कुछ ज़रूर
न सही यह इसका रंग इसकी उड़ान
इसकी कोई पीड़ा कोई थकान
अब मैं भी चुप
तो यह शोक था
जिसने सारी उपस्थितियों को चुप करा दिया था
बड़ी देर बाद ज़ोर से खींचता हूँ साँस
और सोचता हूँ यह भी उसी संसार में
जहाँ हत्या डंके की चोट पर
आत्महत्या सीधा प्रसारण पार्श्व संगीत के बीच
क़त्ल ए आम बाजे-गाजे के साथ
और शोक जताने के तरीक़े पर इतनी बहसें
कि कान के पर्दे फट जाएँ