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अनुराधा सिंह की कहानी ‘पानी से न लिखना पत्थर पे कोई नाम’

 आज पढ़िए अनुराधा सिंह की यह कहानी। वैसे यह कहानी पहले ‘हंस’ में प्रकाशित हो चुकी है लेकिन हमें लगा कि इसको साझा करना चाहिए। आप भी पढ़ सकते हैं-

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बीवी जब पहली बार मुझसे मिली तो एक मंगोल राजकुमारी सी कमनीय तरुणी थी। दूध और पीतल से मिलकर बना नाज़ुक चेहरा, तिर्यक खिंची आँखें और ज़हर बुझे से नीले होंठ। जाने किस रिश्ते की मौसी या चाची ने बचपन में उसे सिखा दिया था कि लड़कियों के होंठों का गहरा रंग एक अशोधनीय शारीरिक दोष है सो पति के सामने उन्हें गुलाबी रंगे रहना चाहिए। बहुत बाद में जब किसी दिन मैंने उसे बताया कि पहली बार देखकर बस उन नीले होंठों का जहर पीकर मर जाने की इच्छा हुई थी, तो कुछ तो समझी कि घर में होंठ रंगने बंद कर दिये।

     लड़की क्या थी जैसे किसी गृहस्थिन के संदूक की तली में रखी रेशमी रूमाल की वह नन्ही नाज़ुक पोटली जिसमें छुटपुट जेवर लिपटे रखे रहते हैं। मैंने उसे दोनों तरह से खोलने की कोशिश कर देखी, आहिस्ता- आहिस्ता एक- एक तह करके और फिर एकाएक पूरा भी पर उसने तो जैसे कसम खाई थी कि जो मैं सोचूँ ठीक उसके उलट निकलना है। आहिस्ता से पहली परत खोलना चाहता तो वह सेमल के पके फल सी पूरी खुल जाती, घर भर में उसकी बातों और किस्सों के ‘बउआ’ उड़ते फिरते। और एकबारगी पूरा खोलने का उपक्रम करता तो गड़बड़ाकर चुप हो जाती, जैसे उस भारी सन्दूक का ढक्कन अचानक गिरकर बंद हो गया हो, जिसकी तली में वह मुझे रखी मिली थी। अब तक मेरे पुरुष दोस्त ही रहे थे, जब तक चाहो उनके साथ लफंदरी कर लो कोई जवाबदेही नहीं। वे तुम्हारी फ़ौरी ज़रूरत लायक खुलते जायेंगे और फिर हमेशा उतने ही उघड़े बने रहेंगे। यह नहीं कि रोज़ खोलने, जानने और फिर लपेट के रखने की मशक़्क़त करायें।

     जल्दी ही मैं उसके बहुत लड़की होने से थक गया और अनमना रहने लगा। वह चाहती कि मैं उससे ऐसा प्रेम करूँ जैसा और किसी से नहीं करता। और ऐसा प्रेम करना लौंडों को किसी औपचारिक, अनौपचारिक सिलेबस में नहीं सिखाया जाता, बाक़ी  क्या- क्या सिखाते हैं यदि आप नहीं जानते तो अब जानना भी नहीं चाहिए। वह चाहती रविवार को हम दिन भर घर में रहकर बातें करें, फिर शाम को बाहर जायें वहाँ भी बातें करें, लौट कर प्यार करें और फिर बातें करते- करते ही सो जायें। इस पर उसे इंतज़ार करने का शगल भी था । मैं पान की दुकान तक भी जाता तो वह मेरा इंतज़ार करती मिलती। दरअसल भारतीय उपमहाद्वीप में लड़कियों को तो जन्म के साथ ही सिखाया जाने लगता है कि एक पराये पुरुष को कैसे नकेल करना है लड़कों को कोई नहीं आगाह करता कि एक दिन एक छटांक भर की मुसीबत के साथ पूरी गृहस्थी करनी होगी। सबसे बड़ी मुसीबत यह थी कि वह अपनी हर इच्छा इशारे से कहती, खाने पीने तक की इच्छाएँ। उन्हें न समझो, जो आप और हम जैसे कुपढ़ नहीं ही समझते तो अलग ही गिल्ट पिछयाने लगता। सो किसी रिश्तेदार के घर में ‘दिखने आयी’ एक अपरिचित किशोरी सी युवती जो पहली नज़र में मुझे लुभा गयी थी अब बीवी बनने की कोशिश करती तो खिजाती।

बीवी अपनी सूरत जैसी अबोध भी न थी, शादी के पहले ही एक सुदूर महानगर में ऑटिस्टिक बच्चों के स्कूल में पढ़ाती थी। जीनोमिक्स जैसे विशिष्ट विषय में परास्नातक करने के बाद भी वह इस बिलकुल भिन्न क्षेत्र यानी स्पेशल एंड इंक्लूसिव एजुकेशन में ट्रेनिंग लेकर यह नौकरी करने लगी। मैंने देखा और महसूस किया था कि उसे अपने इस काम से बहुत लगाव था। पर जाने क्या हुआ ब्याह होते ही मुझसे दूर रहने की बात उसे डराने लगी। मेरे कुछ सोचने से पहले ही वह बता देती, यही प्यार होता है।

 मैंने तो खैर कहा था कि शुरू में वहीं रहकर अपना काम ज़ारी रखे, हम दो- चार महीने में एक बार मिलते रहने की जुगत भिड़ाते रहेंगे और कुछ साल बाद मुझे किसी बड़े शहर में पोस्टिंग मिलने पर वहाँ साथ रह कर अपने – अपने काम कर सकेंगे। पर वह जितने भी दिन मुझसे दूर रही रोना- धोना मचाये रही और साल भर के भीतर सब छोड़छाड़ कर यहाँ मेरी सरकारी पोस्टिंग वाले धूलभरे कस्बे में आ बसी। उसे समझना एल्गा गोरस के रहस्य व तिलिस्म खुलने से कहीं दुरूह था। शहर में पली बढ़ी वह बिना किसी खेद के बहुत हुआ तो पाँच सौ किताबों से बने एक टूटे- फूटे पुस्तकालय व चार- पाँच परचूनी व कपड़ों की दुकानवाले इस उजाड़ कस्बे के एक साधारण घर में दिन भर किताबें पढ़ते हुई मेरा इंतज़ार करती। मुझे तो ख़ैर ख़ासा अफ़सोस था कि करियर बनाने के दिनों में उस पर गृहस्थी बसाने का भूत सवार था और गृहस्थन भी जो- सो बस। दरअसल यह बात मुझे देर में समझ आयी कि वह बिना नौकरी या कामकाज के रह ही नहीं सकती थी पर मेरा साथ उसके लिए जीवन जीने की पहली शर्त थी।  मैं कैसे समझता उसके इस घर बसाने के हुनर को, मुझे उसके लिए कभी कुछ छोडना नहीं पड़ा ।

   बीवी घर में अकेली रहती फिर भी शाम को पूरा घर मुझे यूँ उल्टा- पुल्टा मिलता, जैसे पड़ोस के शैतान बच्चे या चोर लुटेरे अभी- अभी यहाँ से बाहर निकले हों। घर भर में बिखरीं किताबें ही किताबें, और कहीं- कहीं उनमें मिले हुए कपडों के अम्बार भी। वह ख़ुद भी मुझे रात के नाइट सूट या गाउन में किसी किताब में दबी मिलती। मैं घर में घुसते ही त्योरियाँ चढ़ाता तो वह हाथ की किताब छोड़ साफ- सफाई का उपक्रम करने लगती, कुछ बढ़िया बनाती, नहाती और फिर पालतू बिल्ली की तरह मेरे आसपास घूमने लगती। वह रेशम के अंतहीन धागे के लच्छे जैसी थी, उसकी काया, बाल और बातें, मैं उलझ ही जाता। घर उसी हाल में अनंत काल तक अपने उद्धार की प्रतीक्षा में पड़ा रहता। मुझे अपनी किस्मत पर अचंभा होता। आप इसे अफ़सोस पढ़ सकते हैं। अपने बेपरवाह प्रेमी के कमरे में घुसते ही पल भर में उसके नर्क को स्वर्ग बना देने वाली लड़कियाँ जिन्हें आज तक मैं फिल्मों और उपन्यासों में देखता पढ़ता रहा था, मेरी बारी आने पर पर न जाने कहाँ मर खप गईं सारी की सारी ।

     यानी वह अपनी और मेरी बहनों या दूसरी औरतों सी सुघड़ नहीं थी। कपड़े मशीन में धो देती, इस्तिरी करवा देती पर उन्हें ठीक से रखना नहीं जानती थी। तह लगाने के लिए धुले कपड़ों के ढेर के बीचोंबीच बैठ जाती और काफी देर उनमें उलझी रहती, बीच- बीच में उसे दूसरे काम याद आते जाते और इस तरह धुले कपड़ों का वह ढेर कई दिन वहीं पड़े- पड़े बड़ा होता रहता। थककर मैंने ही आलमारी में अपने कपड़े सहेजने शुरू कर दिये। मैं उससे कहता कुछ नहीं पर नाराज़ रहता। बेवकूफ इतना भी नहीं समझती थी कि ये सब उसके काम थे। मुझे सब एकदम तैयार और ठीकठाक मिलना चाहिए था ताकि अपना पूरा ध्यान अपनी प्रैक्टिस में लगाकर आला पोजीशन हासिल करता। इतनी भी विनम्रता नहीं थी उसमें कि समझती कि मैं यह इतनी मेहनत उसके और उसके होने वाले बच्चों के लिए ही करता था। वह तो अक्सर खाना बनाते ही रसोई बिखरी छोड़ कागज़ कलम उठा एक डायरी में अपनी सनकें लिखने बैठ जाती।

 बस एक दो बातें ही थीं जो उसके शेष व्यक्तित्व से थोड़ी भी मेल नहीं खाते हुए उसे पत्नी की भूमिका में ज़रा बहुत अटा देती थीं जैसे कि एक कुशल महाराजिन की तरह वह चुटकियों में अनगिनत व्यंजन बनाना जानती थी। मैं सुख से खा तो लेता लेकिन गृहस्थी की साज संवार को लेकर उसकी अस्तव्यस्तता मुझे भीतर ही भीतर अधपके ज्वालामुखी सा धधकाती रहती थी। फिर जैसे ही वह कभी मेरे प्यार में आयी कमी या दिन भर ऊबने का उल्लेख भर करती मैं फट पड़ता।

     दैहिक सुख के लिहाज से हमारा संबंध सुखी कहा जा था। कम से कम उसने कभी कोई असंतोष न जताया था। पर प्यार की इन सौगातों का मैं क्या करता जब घरगृहस्थी ऐसी अव्यवस्थित थी। कभी- कभी तो लगता कि इसका कोई स्क्रू ढीला है जो बकते- झकते इतने दिन हो गए और यह इतनी सी बात नहीं समझी। बहुत कम बार ही ऐसा हुआ कि मेरे ठंडे और क्रूर रवैये के विरोध में उसने अपना रौद्र रूप दिखाया, तब बहस- मुबाहिसे भी हुए । पर इन सबसे बनने की बजाय बात और बिगड़ती गयी। यानी मेरे पतीत्व के आगे उसके साम दाम दंड और भेद सब नाक़ाम हो चुके थे। एक बार झगड़ा करने के बाद उसने रोते हुए कहा था, “तुम्हें जाने क्या- क्या चाहिए मुझसे, मुझे तो बस तुम्हारा प्रेम चाहिए था।“

झगड़े के बाद बीवी का यह रोना और फिर प्यार का ऐसा इज़हार भी मुझे एक सनक से अधिक कुछ नहीं लगता था।

 ऐसा नहीं कि सब शुरू से ऐसा था, शुरुआत में जब मैं दूसरे शहर उससे मिलने जाता, रात- रात भर पीताभ धातु से गढ़े उसके सुतवाँ चेहरे को निहारा करता, उसके सो जाने के बाद भी। लेखक- विचारक जैसी कुछ नहीं थी वह पर मुझे वैसी ही लगती थी, अबूझ और विलक्षण। हमारे बीच की हर सामान्य घटना को बहुत चाव या निराशा से देखने का उसका हुनर उन दिनों मुझे खूब चकाचौंध करता। उसकी हर बात अनोखी और गर्व करने योग्य लगती। बढ़िया स्कूल और कॉलेज की शानदार डिग्रियाँ। राज्यस्तरीय व राष्ट्रीय स्तर पर जीती हुईं तमाम प्रतियोगिताओं के प्रमाणपत्र और पदक मुझे उसके प्रति गर्व और आदर से भरे रखते। लगता कोई अलभ्य निधि हाथ लगी है, कहाँ रखूँ- उठाऊँ। हमारी दूरी के उन दिनों मैं ख़ूब सराहना भरे पत्र लिखता था उसे। वह भी धीरे- धीरे मेरे मोह के सागर में तिरती मछली सी मेरे परे की दुनिया के स्वाद गंध स्पर्श याद सब भूलती गयी और जिस निश्छल आसक्ति से मुझे ताकती, जिस चाव से मेरे काम करती, मुझे भी वह सब कुछ अपनी खूबी और हुनर लगने लगा । कोई साल भर गुज़ारा हमने ऐसे प्रेम में ।

फिर वह मेरे पास आ गयी।

समय के साथ मेरे व्यक्तित्व पर चढ़ा रूक्षता और अनमनेपन का खोल मोटा और कड़ा होता गया। वह रोज़ रात आवारा पिल्ले सी मेरे अंक में घुसकर सोने की, दिन में तरल कातर आँखों से मेरा चेहरा पढ़ने की, उदर और जिव्हा के रास्ते मेरा दिल जीतने की जी तोड़ कोशिश करती, मैं पत्थर बना रहता।

जाने क्या तो हो गया था मुझे, जैसे मेरे भीतर दो इंसान रहने लगे थे। एक, जो उसके व्यक्तित्व और प्रतिभा पर लट्टू होकर उसे अपने जीवन में लाया था, जो साल भर उस पर न्यौछावर हुआ, अब भी मित्रों, परिजनों, सहकर्मियों के सामने सच्चे हृदय से बहुत प्रशंसा करता था, जो उसकी भौतिक आवश्यकताओं को समझने और पूरा करने में आत्मिक आनंद का अनुभव करता था, जो उसके कभी भी कहीं आने जाने, किसी से भी मिलने जुलने, खुले हाथों खर्च करने को निरंतर प्रोत्साहित करता, नये- नये मित्र बनाने- महँगे शौक रखने और पूरा करने को उकसाता था और दूसरा, जो अपने प्यार और आत्मीयता के लिए उसे तड़पता देखकर भी चिकना घड़ा ही न बना रहता, सुख का अनुभव भी करता था।

     वह बार- बार कहती कि मुझसे प्रेम करती है, मैं कभी नहीं कहता बल्कि उसी समय फ़राखदिली से उसे कुछ बढ़िया पका कर लाने को कहता, जिसे वह मन मसोस कर मेरे अदृश्य प्रेम की अभिव्यक्ति मानते हुए ग्रहण कर लेती। जब कभी बात बिगड़ने का ही डर हो जाता तो मैं यह कह कर पीछा छुड़ा लेता कि कसबाई आदमी हूँ यह सब बोलते संकोच होता है। मेरी बार- बार की इस शठता पर एक बार उसने भी पलट वार किया था , “तुम कसबाई आदमियों को माँ -बहन की गलियाँ देते संकोच नहीं होता प्रेम की बात कहते होता है, न ??”

     किन्तु मैं उसके गुनगुने अंतस पर साइबेरिया के हिम सा हरियाली की हर संभावना को नष्ट करता दिन रात गिरता ही रहा और वह बिना धूप पानी के भी मेरे रूखे- सूखे मन में हरी नर्म दूब सी फैलती रही। छुट्टी वाले दिन बहुधा मेरे पास आते ही मुझे आलिंगन में भरकर चूम लेना उसने कभी नहीं छोड़ा, बहुत हताश होकर किए गए झगड़े के तुरंत बाद भी। और मैंने उसी निरंतरता से उसके प्रेम की अभिव्यक्ति को भावुकता का दौरा क़रार देना नहीं छोड़ा। हालाँकि, यह बात सुनते ही उसकी आहत आँखों में गुलाबी लालिमा उतरते भी देखी थी जैसे कितना दम लगाकर आँखों से खून उबल पड़ने से रोक रही हो।

     इस सारे समय, जब, वह अपने दिल के हाथों विवश होकर मुझ तक लौटती रही, हमारे मध्य एक प्रसंग लगातार घटता। हम दोनों जब भी कभी बाहर जाते, स्कूटर, कार या रिक्शा में वह मेरी पीठ के अपनी तरफ वाले हिस्से पर उंगली से मेरा नाम लिखती। एक बार, कभी- कभी दो- तीन बार। एकाध बार उसके इस खेल का संज्ञान लेते हुए मैंने एक संक्षिप्त, कृपण मुस्कान सी कुछ उसे लौटानी चाही, पर वहाँ तो बहुत अनुराग भरी दो आँखें थीं, अचकचाकर तुरंत दूर देखने लगा।  यूँ अधिकांश बार मैं उसके इस खेल से अप्रभावित रहता, उसकी उपस्थिति को पूरी तरह नकारता हुआ। वह प्यार के पानी से मेरी पत्थर पीठ पर मेरा ही नाम लिखती रहती, मैं सामने सड़क और दुकानें ताकता रहता, फोन चेक करने लगता, किसी भी बात पर चिड़चिड़ाने लगता।

     शुरू में मैं ध्यान देता था, ‘अ मि ता भ’। नाखून को पेन की तरह तराशी मृदुता से घुमाती वह अ को नीचे गोल करके डंडे से मिलाती हुई लिखती, म के पहले खड़ी पाई खींचती और उसे ऊपर हृस्व इ की मात्रा में तब्दील कर देती, फिर ता और फिर एक ही रेखा को लपेटकर लिखा गया भ। मुझे सिहरन होती, कभी चाहता भी हँस दूँ, पर वह अच्छी बीवी पहले ही नहीं थी, और सरकश हो जाती। असम्प्रक्त रहना ही ठीक था। वैसे भी वह सिर्फ़ मसखरी, गुस्सा, अवज्ञा या प्यार ही करना जानती थी। घर- गृहस्थी की बातें या गंभीर विषयों पर चर्चाएँ उसे विरक्त करती थीं।

     इन सबके बाद भी मैंने कभी उसके सिवाय किसी और स्त्री को आँख उठाकर न देखा, वह भी यह बात जानती थी। पुरुष की रंगीन तबीयत को उसकी पत्नी से अधिक कोई नहीं समझता। सो शायद इसलिए भी मेरे सात खून माफ थे। यह अलग बात थी कि मेरे भीतर एक बहुत शातिर आत्मा का वास हो चुका था जो उससे बाहर जा ही नहीं सकती थी, उलट उसे तड़पते- रोते देख संतुष्ट होती थी। वरना क्या ही बड़ी बात थी कि किसी दिन गले लगाकर चुंबनों से ढँक देता उसका चेहरा । मसला ही ख़त्म होता।

     इस बीच हम हैदराबाद बस चुके थे, मेरा बढ़िया चलता हुआ आर्थो क्लीनिक था। बीवी ने फिर स्पेशल नीड वाले बच्चों का स्कूल जॉइन कर लिया था। सालों बीत चुके थे, न उसकी मेरे प्रति आसक्ति कम हुई न मेरी उसके लिए बेहिसी, जैसे मेरे बस में ही नहीं थी यह बात। आँधी आने से बहुत पहले आकाश मटमैला हो जाता है, हवा समझती है शनैः- शनैः अपना बेलगाम होते जाना फिर भी अपनी गति और विध्वंस पर ख़ुद लगाम नहीं लगा सकती।

फिर विवाह के बाईस वर्ष बीत गए, कुछ साल हुए हम चालीस पार कर गये, हमारे दोनों बेटे स्कूल ख़त्म कर कॉलेज की ओर बढ़ लिए। बस बीवी का यौवन वहीं ठिठका रहा जैसे अगले किसी पड़ाव की प्रतीक्षा में हो।

और कुछ भी था जो पूर्ववत् था। एक दिनभर के नौकर के बावजूद घर की अस्तव्यस्तता, बीवी के साथ निरंतर चलनेवाली झड़पें, मेरी गर्मागर्मी, बेरुख़ी सब, कि एक दिन घर का मौसम बदलने लगा।

जो पहली चीज़ हमारे बीच से गायब हुई वह थी मेरे प्यार न करने को लेकर होनेवाली उसकी शिकायतें। और उनके साथ ही मेरे आसपास घूम- घूमकर मुझसे दुलरवाये जाने की उसकी कोशिशें भी बिना आवाज़ उड़ गयीं। मैंने बहुत देर में ध्यान दे पाया इस बदलाव पर, पहले कुछ समय तो इस चिरवांछित शांति का आनंद लेता रहा।

     बीवी अब बहुधा चुप रहती, बल्कि संतुष्ट दिखती। छोटे बेटे सीमांत के हॉस्टल जाने के बाद उसकी खाली हुई स्टडी टेबल पर देर रात तक अपने विषय से संबन्धित किताबें पढ़ती रहती। अब मैं कभी- कभी सोचने लगा था, यदि सीमांत न जाता तो क्या यह अब भी रात होते ही मेरे साथ पलंग पर आ लेटती? लेकिन घर में जगह और मेजों की कमी तो पहले भी न थी। कभी आधी रात को बिस्तर पर उसकी तरफ का हिस्सा खाली पा उसे ढूँढ़ता तो वह चुपचाप साथ आकर सो जाती। मैं उसे निश्चल लेटा देख अभ्यासवश अपनी बाँह फैला देता तो वह उस पर सिर रखकर सो जाती। मैं संबंध बनाना चाहता तो वह शांत, आत्मीय भाव से सहयोग करती फिर मेरी ही तरह मुझ पर पीठ फेर सो जाती। घर अपेक्षाकृत व्यवस्थित रहने लगा, खाना नियत समय पर, कपड़े तरतीब से वार्डरोब में हैंगरों में टंगे। फिर बहुत धीरे – धीरे पर घर में रखी चीजों से धूल भी गायब हो गयी ।

जिस रीति से अब तक सब घटा था, होना तो यह चाहिए था कि अब से जीवन पौष की नदी सा लबालब पर शांत बहने लगता पर अब मैं ही मन से कुछ अव्यवस्थित होने लगा। मेरा ध्यान गया कि भोजन पहले की तुलना में संक्षिप्त और अनुशासित हो गया है, ज़रूरी चीज़ें भर, यही तो मैं चाहता था। स्वाद पूर्ववत था, पर जाने क्यों एक दिन मन में आया कि रसोई की आत्मा मर गयी है।

 आप शायद समझ पा रहे होंगे, मैं इतना आत्मसंशयरहित पति रहा हूँ कि बहुत दिनों तक मुझे यही लगता रहा कि आख़िर अक्ल ठिकाने आ ही गयी इसकी।

फिर एक आधी रात नीम नींद में मुझे लगा कि एक सिसकी सुनी है मैंने, आँख खोली। पर्दों के बीच से छनकर आती चाँदनी में सब स्पष्ट दिख रहा था। बीवी पीठ फेरे निश्चेष्ट सो रही थी। कमरे की हर चीज़ गतिहीन, निस्पंद। अचानक, मैंने उचककर झुकते हुए उसकी आँखें छू लीं। इस सृष्टि भर में बस मनुष्य की आँखों से ही इतना जल निःशब्द बह सकता है। उसके तकिये का वह कोना भी पूरा भीगा था।

मैं पूछना तो नहीं चाहता था कि क्या हुआ, क्योंकि घूमफिर कर उसके हर संताप का उद्गम बिन्दु मैं ही सिद्ध होता रहा हूँ। पर कुछ न पूछता यह भी तो संभव न था सो कंधे पर हाथ रखते हुए पूछ ही लिया। पूछते हुए पुराने एकाध दृश्य याद आये जब वह मुझसे नाराज़ होते हुए भी मेरे ही गले लग मेरी शिकायतें करती थी, और मैं पूरे प्रकरण का तिक्त स्वर में कुछ उपसंहार सा करते हुए सो जाता था। वह कुछ देर सूखे तने सी जड़ हुई बैठी रहती फिर शायद गुड़ीमुड़ी हो सो रहती होगी।

पर अभी, उसने बहुत धीरे से लगभग न सुनाई देती आवाज़ में कहा, “कुछ नहीं”। मैंने फिर पूछा, “तो रो क्यों रही हो?” उसने स्वर को भरसक संयत करते हुए कहा, “सिर में दर्द हो रहा है।“

जैसे अन्तरिक्ष का कोई बड़ा ग्रह अचानक अपनी ही कक्षा से दूर जा गिरे कुछ ऐसा ही लगा मुझे। कहना चाहता था, सिर दर्द होने पर ऐसे कौन रोता है, पर सुबह तक चुपचाप लेटा छत को देखता रहा, जो बहुत धीरे – धीरे सलेटी से सफ़ेद हुई।

     परसों बड़े, अभय ने फोन पर कहा था, “पा, कुछ भी कहना बंद कर दो माँ को, डॉ राहुल सिंह से मिले थे हम दोनों। मैंने ही ज़िद पकड़ ली थी माँ को उन्हें दिखाने की। उन्होंने  इवैलुएट किया है, माँ एडीएचडी का निश्चित केस है। यह पूरा जीवन उसके लिए एक संघर्ष रहा है। और, अधिक दुःख की बात यह है कि वह यह बात पहले से जानती है!”

मैं डॉक्टर हूँ, भले ही हड्डी का लेकिन एडीएचडी से अपरिचित नहीं। अटेंशन डेफ़िसिट हायपरएक्टिविटी डिसऑर्डर।  कितने ही ऐसे बच्चे और वयस्क रोगी हड्डियों में चोट और फ्रेक्चर लिए आते हैं, जिन्हें एडीएचडी भी होता है। हड्डी का इलाज मैं करता हूँ और यदि पहले से किसी काउंसलर के संपर्क में न हों तो अक्सर डॉ राहुल सिंह को रेफर कर देता हूँ; यहाँ के जानेमाने मनोचिकित्सक।

एडीएचडी के लक्षणों को पहचानना बहुत मुश्किल नहीं; किसी एक काम या बातचीत पर ध्यान केन्द्रित करने में कठिनाई, अति सक्रियता, अनियंत्रित संवेगशीलता, आवेगपूर्ण व्यवहार, विचारों और रहन- सहन में अव्यवस्था व अस्तव्यस्तता। कैसे छिपाया होगा बीवी ने यह सब ?

या उसने कुछ नहीं छिपाया, मैं ही नहीं पढ़ पाया उसके पल- पल पर लिखी उसकी अवस्था।

   याद आने लगा, कैसे लगातार डरती थी मुझसे दूर रहने से, इतनी प्रतिभाशाली होते हुए भी अकेले रहकर अपना करियर उतना भी नहीं संवार पायी जिससे अधिक उससे बहुत कम सामर्थ्य वाले लोग कर लेते हैं। करियर के लिए बहुत अहम समय में भी मेरे साथ उस साधनविहीन कस्बे में अटकी रही। बंदर के छोटे शिशु की तरह मुझसे दो कदम दूर जाकर दुनिया देखती और दौड़कर मेरे अंकवार में छुप जाती। उसने तो कभी कुछ नहीं छिपाया, अपना त्रासद बचपन, किशोरावस्था में ही टूटा प्रगाढ़ प्रेमसंबंध, रिश्ते और जीवन कुछ भी न सम्हाल सकने की अपनी अक्षमता। जीनोमिक्स में परास्नातक थी। सामने उज्ज्वल भविष्य था कि स्पेशल एंड इंक्लूसिव एजुकेशन में ट्रेनिंग लेकर विशेष क्षमता वाले उन बच्चों को पढ़ाने लगी जिन्हें हम आम बोलचाल में मानसिक विकलांग कहते हैं।

शुरू में एक बार कारण पूछा था मैंने तो बोली, मुझे लगता है मैं अधूरेपन को संपूर्णता (परफेक्शन) से कहीं बेहतर समझ सकती हूँ।

मैंने लाड़ में कहा था, “हाँ, मुझे भी लगता है तुम्हारे कुछ स्क्रू ढीले हैं” वह ख़ूब हँसी, आँखें छलकने लगीं, इतना।

मुझे कभी- कभी अचरज होता था कि क्यों यह दिन भर अकारण उलझी और व्यस्त रहती है। हर काम आधा छोड़ दूसरा शुरू करती जाती है, शाम होते- होते चिड़चिड़ी हो आती है। जैसे मेले में देर से खोया बच्चा, दिग्भ्रमित, थका- हारा।

पर मैं पहचान न पाया। प्रेमी क्या एक डॉक्टर की दृष्टि से भी उसे देखना गवारा न हुआ, बस पति ही बना रहा। इस बार छुट्टियों में अभय घर आया तो उसे कहीं बाहर साथ ले तो गया था। मुझे लगा ख़रीदारी कर रहे हैं माँ बेटे पर यह तो सायकैट्रिस्ट और काउंसलर्स का मामला था। कैसे सोचा होगा 20 साल के अभय ने यह सब ?

और अब मुझसे यह अनुनय कर रहा है। मैं कसाई हूँ क्या ? क्या नहीं जानता कि मैं इसके लिए कुछ भी कर सकता हूँ ?

कौन जानता है! कौन जान सकता था !!

अभय शुरू से मधु से बहुत सटा रहा है। एक हद तक सीमांत भी। जैसे दुर्बल पौधे को सहारे के लिए तरुण शाख ही मुफीद आती है, विशाल वृक्ष नहीं। दोनों के किशोर होने के साथ ही मधु भावनात्मक सम्बल के लिए बहुत सीमा तक उन पर निर्भर रहने लगी। विशेषकर अभय पर जो अपनी उम्र के बच्चों से कहीं परिपक्व और संवेदनशील था। मैं और भी निश्चिंत हो अपने करियर में रम गया। बीवी की देखरेख में दोनों बच्चे बहुत अनुशासित व मेधावी निकले। शालीन व सौम्य।

आज सोच रहा हूँ कि अपनी माँ के व्यक्तित्व के सरोवर में दिखते मुख, उसके ही जल में उपजे दो सरसिज थे। बीवी को यह समस्या न होती तो ऐसी ही तो है परिपक्व, उदार, विनम्र ।

सुबह मेरा कई और नये बदलावों पर ध्यान गया, मसलन वह बातचीत में मुझे संबोधित नहीं कर रही थी, जैसे सीधे मुझसे कहने के लिये कोई बात नहीं रही उसके पास। मैं जो बोल रहा था बस उसे चुपचाप सुन रही थी, या नहीं सुन रही थी, या जैसे मैं वहाँ था ही नहीं, या जैसे वह और रुक न सकी थी ।

सब काम कुछ अधिक सावधानी से अपेक्षाकृत ठीकठाक निबटाती रही फिर सुंदर तैयार हुई और अपने संस्थान के लिये निकल गयी।

 अपना फोन भूलवश छोड़ गयी है। ऑफ स्क्रीन पर उसकी संस्थान प्रमुख मिसेज शास्त्री का संदेश चमक रहा है। “घर में सब ठीक न मधु ? 5 दिन से कोई खबर नहीं !”

बीवी अचानक अब तक खुले छूटे दरवाजे से भीतर लौटती है, कंधे से नीचे तक बाल हुआ करते थे, जाने कब कान तक छंटवा लिए हैं, प्यारी लग रही है। पर बताया नहीं इसने इस बार, मैं भी शायद व्यस्त रहा।

एक संक्षिप्त मुस्कान है चेहरे पर, सौजन्यतापूर्ण। फोन देखते हुए फिर बाहर निकल गयी है।

मैं चाहता हूँ वह कुछ कहे, लड़े, चीखे, उलाहना दे। प्यार, पछतावा, ग्लानि नहीं चाहिए। डिज़र्व भी कौन करता है? क्या करूँ !! वह औरत, बिलकुल वही औरत चाहिए वापस, उतनी ही पागल, उतनी ही प्रेमिल, उतनी ही उजली !

रात के खाने में फिर ब्रोकली सूप और किनुआ है। मैंने ध्यान दिया पहले से तन्वंगी बीवी और कृशकाय हो गयी है ।

जी चाहता है पूछूँ, खाना बनाना क्यों बंद कर दिया?

वह खाते हुए भी शायद मुस्कुरा रही है, सलज्ज। शायद भीतर एक और संवाद चल रहा है । अधिक अर्थवान, अधिक स्नेहिल, अधिक रम्य।

“मधु कल सुबह हम ऊटी चलें ? बस हम दोनों? मैं ड्राइव करूँगा?”

वह चौंकती है, जैसे कहीं एक बातचीत क्षण भर को रुकी है।  वह फिर राज़ी है , फिर मुसकुराती है, “ठीक है।“

सीधी उतरन है, गाड़ी दोनों ब्रेक पर टिकी है

सामने से एक बहुत बड़ा रेवड़ गुज़र रहा है । पहले की बात होती, मैं अधीर होकर बकने- झकने लगता, पर अब एक अदृश्य दृष्टि से हर पल इस स्त्री को निहारता हूँ जो अभी मुग्ध हो इस रेवड़ को निहार रही है।

यहीं है न यह इस समय? मेरे साथ ?

पिछले दो दिन उद्दाम प्रेम से ढँक दी है मैंने इसकी आत्मा और देह । यही एक इकलौता समाधान था मुझ जैसे साधारण दुनियादार आदमी के पास, अकेला हल, अकेला हथियार। पर इसे देखता हूँ तो लगता है जैसे तिल भर भी नहीं छू सका हूँ, एक अदृश्य दीवार गढ़ ली है इसने अपनी देह और हृदय के बीच। हर क्षण कार से बाहर देखती हुई गुम है अपने आप में।

“बीवी! एक बार लिखो न मेरी पीठ पर मेरा नाम!” कोई चीखता है भीतर, अंततः !

वह और तल्लीन हो रेवड़ को देख रही है, जैसे भेड़- बकरियों को गिन रही हो ।

“यहीं है …..या अपने भीतर, किसी और से प्रेम करती हुई ?” भीतर की आवाज़ हकलाने लगी है इस बार

बकरियाँ बहुत धीरे- धीरे गुज़र रही हैं सड़क के एक ओर की पहाड़ी से दूसरी ओर ढलान उतरती हुई

बीवी का हाथ मेरे बायें कंधे के पास आ टिका है, मैं अब जानता हूँ रोम – रोम कैसे करता है प्रतीक्षा, “मुझे छू लो, बीवी !”

देह की एक-एक कोशिका, त्वचा का तिल-तिल, और एक मूक याचना, “एक बार, बस एक बार लिख दो मेरा नाम मेरी पीठ पर!”

बाईस साल !! बीवी रोज़ कहती थी, “बस एक बार कहो, मुझसे प्यार करते हो !”

जाने क्या बहने लगा है आँखों से, बहुत गर्म।  प्यार से अधिक पछतावा हो तो आँखों से भी आँसू की जगह लावा बहता है ।

उँगली अचानक शुरू करती है लिखना। मैं दम साध लेता हूँ, “अ लिखो, अ।“

उँगली घूमती है, म या स और उस पर हृस्व उ की मात्रा, और रुक जाती है

बाहर अचानक तेज़ बारिश शुरू हो गयी है , पहाड़ हैं न !

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अनुराधा सिंह

9930096966

anuradhadei@yahoo.co.in

 
      

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4 comments

  1. मर्म स्पर्शी ..संबंधमयता का अनूठा संस्पर्श !

  2. नमस्ते अनुराधा,

    कहानी पढ़कर लगा दांपत्य को इतना महीन,इतना बारीक कौन समझ पाया है! पति पत्नी के मध्य सूत भर जगह नहीं बचती वे जीवन भर इतने सटे हुए रहते हैं,या दिखते हैं। इस सटे हुए के बीच खाई भी हो सकती है यह मानना और समझना बहुत कठिन है।
    इस अनदेखी दूरी को समझ पाना, उसके कारण तक पहुंच पाने का साहस जुटा पाना मुश्किल है।

    तुमने कहा तुम्हारी पहली कहानी है। मगर तुम परिपक्व लेखक हो तो कहानी में परिपक्वता दिखती है।
    इस कहानी में एक जीवन,कई संवेदनाएं और संबंध की बारीकियां लिखी है तुमने।

    बधाई ❣️

  3. आलोक कुमार मिश्रा

    बहुत सुंदर और बेहतरीन कहानी। कितना महीन मनोवैज्ञानिक वर्णन। अनुराधा मैम को हार्दिक बधाई।

  4. कितनी सुन्दर कहानी है। बस ये समझ नहीं आया कि बाद में किसका नाम लिखती है ?

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