कल ममता सिंह को उनके उपन्यास ‘अलाव में कोख’ के लिए महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। जानकी पुल की ओर से उनको बधाई और इस अवसर पर पढ़िए उनकी कहानी-
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मुझे पानी से बड़ा प्यार था, नदी हो या समुद्र… बस पानी। पर तैरते रहना बहुत सुहाता। समुद्र की लहरें देखकर पागल हो लहरों में समा जाना चाहती थी। मुझे लोग पानी का कीड़ा कहते…
‘मछली के बच्चे को तैरना सिखाने की क्या ज़रूरत’, बाबा के साथ तैरते हुए गाँव के लोग मुझे देखते और ये स्टेटमेन्ट पास करते।
सचमुच तैरती तो मैं मछली की ही तरह… मैं पानी के ऊपर होती पर मेरा मन हमेशा पानी के भीतर तैरते हुए यादों के बखिये टांक रहा होता। तरह-तरह की मछलियों के दिमाग़ में प्रवेश कर जाती—और तरह-तरह के मछुआरों के फैले जाल के बारे में सोचती।
रंग-बिरंगी डॉल्फिन मछली को देखती तो सोचती यह शार्क, ऑक्टोपस और व्हेल से कैसे अपना बचाव करती होगी। समुद्र में तैर कर थक जाती तो पानी के किनारे तलछट पर पैरों को ऊपर की और हवा में उड़ाती हुई पानी छपछपाती। पानी का ये खेल मुझे बड़ा अच्छा लगता। उस रोज़ जब बाज़ार में मछली का टोकरा बाबा को पकड़ा कर लौट रही थी, तो समुद्र में लहरें उफान पर थीं। ढलती दोपहरिया का सूरज अपनी किरणें पारदर्शी पानी पर ऐसे बिखेर रहा था जैसे चाँदी की पतली-पतली ढेर सारी पायलें तैर रही हों। जी चाह रहा था जगमगाती चाँदी की पायलों को बटो कर अंजुरी में भर लूं। समुद्र के दूसरी ओर कहीं-कहीं रेत के ढूहे बने हुए थे। रेतीले रास्ते पर बिछाए गए पत्थर टीले की शक्ल में दूर तक फैले थे। पत्थरों के पीछे लम्बाई में लगे नारियल की क़तार… नारियल की कतार को सूरज अपने सिंदूरी रंग की झालर से छू कर आगे बढ़ा जा रहा था। आसमान नारियल के दरख़्त पर ज़रा और उतर आया था। नारियल के दरख़्तों से छनकर आती हवा लहरों के खबर लाती कि अब ये ज्यादा उठान पर रहेंगी या पीछे की ओर जायेंगी।
कुदरत के ये नज़ारे मेरे ख़ाली मन को सहलाते थे, मेरे ख्वाबों के कैनवस को रंगते थे। मैं इन दृश्यों को अपनी डायरी में छुपा कर रख लेती। कभी-कभार इन नरम पौधों को अपनी लेखनी से सींचती।
‘मछुआरे की बेटी का काम है मछलियाँ बेचना और सुखाना’…’आई’ की कही ये बात मेरे पंख को और धारदार बनाती।
उन्हें क्या पता दिन की मछलियों के उबाऊ बाज़ार के बाद जब मैं नींद की गली में जाती तो सपनों का बड़ा हाट लगता। अपनी नींद के सपनों के हाट से मैं रोज़ नए-नए सपने खरीदती और अपने मन के रेशमी गिलाफ़ में एक नया सपना टांक लेती। वैसे इस गाँव में हर दूसरी-तीसरी लड़की अपनी पीठ पर सपनों का बैग टाँगे, हाथ में फोन लिए, सायकल चलाती हुई अपना फलक रचती। मैं भी ख़्वाबों की एक रंगीन पुड़िया ले कर चल पड़ी थी। पर वो पुड़िया घर और ज़माने की रेत तले दब गई थी।
अमूमन लड़कियों के ख़्वाब यूँ ही रेज़ा-रेज़ा होते हैं। मैंने ख़्वाबों की पुड़िया से एक टुकड़ा छिपा कर रख लिया था। छिपा कर रखे उस ख़्वाब के टुकड़े को ही रोज़ सुबह उठ कर देखती। ख़्वाब का टुकड़ा जैसे ही हथेली पर रखती… कहीं से आवाज़ आती- ‘मछुआरे की बेटी’। हड़बड़ा कर जल्दी से उस ख़्वाब के टुकड़े को मैं छिपा कर सहेज कर रख लेती। गाँव की तपती ज़मीन से आसमान की ओर हवा में पींगें मारना मुश्किल है।
-‘खेती-किसानी कर, मच्छी पकड़ कर अपनी आजीविका चलाने वालों के घर में पनचक्की तो हो सकती है न कि हेलीकॉप्टर’। आई का जब पारा जब चढ़ता तो ये जुमला मुझे ज़रूर सुनातीं। उनके इस जुमले से मेरा मन हेलिकॉप्टर पर न सही लेकिन पानी के जहाज़ में ज़रूर सैर कर लेता।
उस रोज़ मेरी ख्वाबों की पुड़िया का थोड़ा विस्तार हुआ जब एक रेस्तरां में देखा कि एक लड़की मुस्कुरा कर मेनू कार्ड रखे टेबल पर खाने का ऑर्डर नोट कर रही थी, मुझे थोड़ा अचरज हुआ… लगता है इसके घर में मछली पकड़ने का काम नहीं होता होगा वरना इसे भी लोग कहते- मछुआरे की बेटी…
अगली सुबह मच्छी का टोकरा बाबा को पकड़ा कर उस रेस्तरां में मैं उड़ती हुई आ पहुंची।
‘तुम गेस्ट को हैंडल कर पाओगी’? काजू कुतरता हुआ काउंटर पर बैठा मैनेजर मुझे घूरता हुआ बोला था। शायद यही रेस्तरां का मालिक भी था।
-‘क्यों नहीं कर पाऊंगी’?
-‘लेकिन पहले कहीं वेटर का काम नहीं किया न’? आँखों पर सिमट आये घने काले बालों को पीछे झटकते हुए उसने पूछा।
-इस गाँव में रहने वाली हर लड़की कोई काम पहली बार ही करेगी न।
-अच्छे बुरे हर तरह के गेस्ट आते हैं, उन्हें हैंडल करना मुश्किल हो सकता है। इस बार उसकी आँखों की गोलाई मेरी जीवटता को नाप रही थी।
होटल के मैनेजर ने जितनी भी मुश्किलें बताईं सबका हल मेरे पास था। ज़रूरत होटल के मैनेजर को भी थी और जॉब की दरकार मुझे भी, उम्मीद के विपरीत सौदा जल्द ही पक्का हो गया। सो अगले दिन से मैं होटल में वेटर के रूप में तैनात थी।
चारों तरफ से पेड़ों और फूलों से सजे, चारों ओर से खुले उस रेस्तरां के सामने केले और नारियल के पेड़ों से ढंका घास का छोटा-सा लॉन बना था, जिसके किनारे-किनारे क्यारियों में रंग बिरंगे फूल उगाये हुए थे। पेड़ों के झुरमुटों के बीच से झांकते बैंगनी फूल मुझे बहुत आकृष्ट करते थे। उस रेस्तरां में खाना खाने आये पर्यटक वहां जा कर तरह तरह के पोज़ बना कर सेल्फ़ी या ग्रुप फ़ोटोज़ लिया करते।
उस रेस्तरां के आसपास उस गाँव के मछुआरों या अन्य लोगों के घर थे जिन्हें दो मंजिला बना कर होम स्टे का रूप दे दिया गया था। इनमें दूर दूर से सैलानी रहने के लिए आते, समुद्र के ठीक किनारे पर बने ये किसी बीच-रिज़ोर्ट से कम न थे। दिन में ये होम स्टे ऊँचे दरख्तों की छाया से झिलमिलाते रहते। धूप के टुकड़े इन पर आयताकार शक्ल में आईना-सा चमकाते। सामने ठाठें मारता समन्दर… उसकी तेज़ लहरें अब जैसे उन घरों में आकर कब्ज़ा कर लेंगी। सैलानियों के लिए यही खूबसूरती का सबब और गाँव वालों के लिए आय का जरिया था। कम खर्च में घरेलू सुविधा पा कर सैलानी इन होम स्टे में कई दिन तक टिकान डाल लेते।
वेटर बनना मेरा आकाश नहीं था। मेरे ख्वाबों की पुड़िया का छोटा-सा टुकड़ा मात्र था। रेस्तरां के मेनू कार्ड ले कर मैं पर्यटकों के सामने खड़ी होती खाने के मेनू नोट करते हुए मैं अपने भीतर के समुद्र की लहरों की आवाज़ सुना करती। मेरे भीतर की आवाज़ कई बार लोगों के दिए जा रहे मेनू और पानी के ऑर्डर की आवाज़ से तेज़ होती। वे बोल रहे होते वेज पनीर कोल्हापुरी, फिश-करी, भाखरी… पर अगली डिश का नाम सुनने से पहले मैं पानी में चली जाती। एकदम गहरे पानी में, जहाँ लहरों का तेज़ शोर होता पर उस तेज़ शोर से भी ऊँची एक आवाज़ होती जो कानों में दर्द पैदा करने लगती। वो आवाज़ तेज़ चीख में परिवर्तित हो जाती…और मैं बेचैन हो जाती। उस दर्दीली आवाज़ से बचने के लिए मैं अपने दोनों कानों पर हाथ लगा कर वॉशरूम में घुस जाती, पर वो आवाज़ वहाँ भी पीछा करती। तेज़ नल चलाने से वो चीख़ वाली आवाज़ शायद कम हो जाए, पर पानी से पानी का मेल हो जाता। नल का पानी समुद्र के पानी में परिवर्तित हो जाता। समुद्र के पानी पर तैरती स्टीमर से लगी एक स्त्री के सपनों की किरचें बिखर जातीं। पानी सफ़ेद से लाल हो जाता… इस दृश्य से मैं जितना ही विलग होना चाहती, उतना ही मैं उलझती जाती।
-“मैडम आपकी तबीयत तो ठीक है न?” पीछे वाली टेबल के गेस्ट बिल मांग रहे हैं। मैनेजर सशंकित निगाहों से देख रहे थे।
मैंने अपनी दायीं हथेली से दूसरे हाथ को छुआ….पूरा हाथ पसीने से तर-बतर था। झटपट पसीना पोंछ कर खुद को संयत दिखाते हुए खाने का ऑर्डर लिखने वाला नोट -पैड उठा लिया। सीढ़ियों से नीचे बरामदे में जा कर गटागट पानी पी गई। अपनी धड़कनों को संतुलित करने के लिए लम्बी-लम्बी सांस लेने लगी। खम्भे से लटकती, एक दूसरे में उलझी हुई लता को सुलझाने लगी। गोया किसी ने देखा हो तो यही समझे मैं बढ़ आई लताओं को तराश रही हूँ।
-“जैसे ही कोई गेस्ट रेस्टॉरेंट में प्रवेश करता दिखे, वेलकम करते हुए उन्हें खाली टेबल की ओर इशारा कीजिये। अगर टेबल खाली न हो तो उधर सोफे पर बैठने को कहिये और कहिये कि थोड़ी देर में जगह खाली मिल जायेगी।“ कहते हुए मैनेजर मिस्टर तारे डब्बे से काजू निकल कर कुतरने लगे।
लगता है ये काजू फैक्टरी से ताज़ा छिल कर आया है। यहाँ सूखे काजू और काजू की सब्जी लोग ऐसे खाते हैं जैसे प्याज और टमाटर। पनीर में भी काजू, वेज कोल्हापुरी में भी… मैंने ‘हाँ’ में अपना सिर हिला दिया, पर मेरी आँखें वहां स्थिर हो चुकी थीं जिस टेबल पर गेस्ट अभी-अभी आ कर बैठे थे। मैं अपने मन के आइसोलेशन से रेस्तरां के हॉल में आ चुकी थी।
-यहाँ से स्कूबा डाइव करने के लिए क्या तरीका है?
एक मेल वेटर से एक जोड़ा मुखातिब था, दो बच्चे सीट से उठ कर है है करते हुए उछलने लगे….’हम लोग स्कूबा डाइव करेंगे’… मेरे कान चौकन्ने हो गए—ओह्ह…ये काम तो मेरे लायक़ है…
-मेरा एक दोस्त है जो आपको रिज़ोर्ट से पिक करेगा और स्कूबा डाइविंग करवा कर रिसॉर्ट में वापस छोड़ भी देगा… मेल वेटर मुझे देखता हुआ अगले गेस्ट से खाने का ऑर्डर लेने लगा। फ़ौरन मैंने अपने मोबाइल में नम्बर सर्च किया और तम्हाणकर को फोन लगा कर उस गेस्ट परिवार से बात करवाई।
-‘तीन हज़ार में चार लोगों को करवा दो…’ गेस्ट परिवार से पुरुष बोल रहा था।
-‘नहीं सर इतने में हमको नहीं परवड़ेगा, एक आदमी का एक हज़ार…’ उधर से फोन पर आवाज़ छन कर आ रही थी।
“थोड़ा बहुत कम कर दो।”
ये गेस्ट एक बड़ी-सी लाल गाड़ी में आये थे। इनकी कार बाहर धूप की रोशनी में चमक रही थी, जिसकी कांच पर पड़ रही सूरज की किरण से उलटी रोशनी बरामदे में जैसे आईना चमका रही हो। इतनी बड़ी महंगी गाड़ी रखने वालों के पास भी क्या पैसों की किल्लत होगी? अभी कम से कम दो-तीन हज़ार का बिल आएगा इनके खाने का। खाने में तो कोई कंजूसी नहीं कर रहे…. फिर ये कोताही स्कूबा डाइविंग में क्यों..?
-‘साब.. हमारी कमाई बस सीजन में ही होती है, उसके बाद बारिश में तो पूरा काम ठप्प रहता है, टूरिस्ट आते भी हैं तो स्कूबा डाइव बंद रहता है’…फोन के उस पार से आवाज़ थी ये।
-‘सर ये भले लोग हैं रेट इतना ही है, आपको अच्छे से करवा देंगे ये लोग स्कूबा डाइविंग’…मैंने उन्हें राज़ी करने की गरज़ से बोला।
-“आपको जानकारी है? कोई खतरा तो नहीं रहता? पानी के अंदर व्हेल वगैरह से?” उस परिवार की जिज्ञासु निगाहें मेरे ऊपर चिपकी थीं।
-“खतरा हमेशा इंसान से होता है, जानवरों या कीट पतंगों से बहुत कम…” कहते हुए मैं वहां से अलोप हो गई क्योंकि मैनेजर मिस्टर तारे की प्रश्नवाचक निगाहें मेरा पीछा कर रही थीं। दुबारा मैं वहां प्रकट हुई उनके मंगाए हुए व्यंजन के साथ…।
-‘वे मेरे जान पहचान के हैं, मैं आपको ले चलूंगी स्कूबा डाइविंग के लिए–मैडम मेरे साथ ज्यादा कम्फ़र्ट फील करेंगी। मैंने कई लोगों को स्कूबा डाइविंग करवाई है। फ़िक्र न करिए पानी के अंदर जाने के लिए एक्सपर्ट गाइड होते हैं। कोई खतरा नहीं रहता’…मेरी आँखें उस परिवार का मन टटोल रही थीं।
अपने इस तरह बोलने के साथ-साथ मेरी आँखों में एक लड़की तैरने लगी। मेरी आँखों से वो समुद्र के पानी में चली गई। वो तैर रही है, वो अपने हाथ पैर मारती हुई दिखाई दे रही है, पर अचानक कोई शार्क जैसा समुद्री जीव आता है, जो आँखों पर चश्मा चढ़ाये हुए है। चेहरे पर ऑक्सीजन मास्क लगाए है….वो उसे गहरे पानी और ले जा रहा है और ज़मीं पर घसीटे जाने की तरह पानी में घसीट रहा है….लड़की का लाइफ़ जैकेट उससे कहीं दूर चला जाता है। वो पानी की सतह पर आकर चीख रही है…पर उसकी आवाज़ पानी में गुडुप-गुडुप करके गायब हो जाती है…पानी के अंदर….और अंदर वो बहने लगती है। मास्क वाली शार्क से बचाने की गुहार करती है। पर उसे क्या पता शार्क बचाती नहीं बल्कि निगलती है। शायद उसके बाद उसके पेट में नमकीन पानी बेतरह भर जाता है। उसकी साँसें घुटने लगती है……
“बचाओ“….वो चीख़ने चिल्लाने की कोशिश करती है। पर पानी के भीतर कोई चीख भी कैसे सकता है….पानी के भीतर की छटपटाने की असह्य पीड़ा से वो खुद को ढीला छोड़ देती है। उसकी आँखों से भी एक समुद्र निकल रहा है। उसकी आँखों का समुद्र इस समुद्र से ज्यादा गहरा हो गया है। आँखों के इस समुद्र में छटपटाहट और पीड़ा की लहरें हैं। शार्क उसे और गहरे पानी में ले जाता है। अचानक कोई तेज़ लहर आती है और वो लड़की पूरी तरह समन्दर की आग़ोश में समा जाती है।
अंतिम समय में उसने ज़रूर सोचा होगा- ‘शार्क का निवाला बनने से तो अच्छा है समन्दर की लहरों में तैरते रहना…शायद बाबा जैसा सशक्त कोई मछुआरा आये और उसे बचा ले जाए।’
उसे क्या पता रहा होगा कि उस मास्क वाली शार्क से वो भी इतने गहरे पानी में बाबा के लिए भी बचाना कितना मुश्किल होता।
मैं अपनी मुंडी नवा कर खुद को देखने लगी, जैसे मैं समन्दर के पानी में भीग कर पूरी तरह गीली हो गई हूँ। मैंने अपने दर्द को आँखों से निचोड़ डाला। मैं जैसे उस लड़की की काया में समा जाती हूँ। मैं ख़ुद को छू कर देखती हूँ, मैं तो पूरी तरह सूखी हूँ| लेकिन गीलेपन का एहसास तारी है। मैं कुछ बोलती हूँ…मेरे शब्द तेज़ समुद्री हवा में विलीन हो जाते हैं।
एक इंसान ही इंसान के लिए खतरे की घंटी है। जब तक इंसान दूसरे इंसान को पहचानता है, वक़्त का दरिया बह चुका होता है। मासूम इंसान क्रूरता की वेदी पर कुर्बान हो चुका होता है। अगले दिन मैं उन सैलानियों की अगवानी में हवा की धुन पर गुनगुनाती हुई अपनी सायकल से समय से पहले ही पहुँच गई थी। वे अपनी गाड़ी से उतरे मैं उनके आगे हो ली…। आगे-आगे मैं और पीछे उनका परिवार।
समुद्र की ऊँची लहरों के सामने की सूखी रेत छिटपुट दुकानों से ढंकी नजर आती थी। दुकानों के नजदीक जाने पर चप्पल जूतों में रेत भर जाती फिर पहनकर चलना मुश्किल होता और फिर बोट में चढ़ने के लिए पानी से हो कर जाना पड़ता इसलिए सबको अपने जूते और चप्पलें दुकान पर ही उतारनी पड़ीं। तारकरली बीच पर दूर देखने पर एक तरफ ऐसा मालूम पड़ता जैसे आसमान समुद्र की आग़ोश में समा गया हो। पानी और बादल आपस में मिल गये हों… दरअसल वहां से शुरू हो रहा था– देवबाग बीच।
“स्कूबा डाइविंग, पैरासेलिंग, बनाना राइड, जेट-स्की, बम्पर राइड…..आइये बुकिंग कीजिये…”
इन आवाजों से तारकरली बीच की फ़िज़ाएं गुलो-गुलज़ार थीं। तरह-तरह के वॉटर स्पोर्ट्स के लिए दलालों का मेला-सा लगा था। हवा में ग़ुब्बारे उड़ाये जा रहे थे। समुद्र के इसी छोर पर बच्चों की भीड़ लगी थी। तेज़ स्पीड में पानी उड़ाते हुए स्कूटर -नुमा बोट पर बैठे बच्चे और बड़े चिल्लाते हुए पानी का मज़ा ले रहे थे। हंसी मिश्रित उन रोमांचक किलकारियों में मुझे तेज़ रुदन सुनाई दे रहा था। लहराते हुए पानी में एक पोशाक जिसका रंग लाल हो जाता है, बहती नज़र आ रही थी। पहाड़ी झरनों-सी उसकी हंसी कानों में मिश्री घोलती थी, माउंट एवरेस्ट पर दौड़ लगाने का माद्दा रखने वाली वो न जाने क्यों पानी में अपना आसमान तलाशने लगी। वो ख़ुद सुरमई ख्वाब-सी थी। मैं जब इस बीच पर आती हूँ तो बस मुझे उसका विलाप कानों के परदे फाड़ कर दिल के भीतर तक चीत्कार करने लगता। मेरे अंतस का कोना उसके बिछोह से भर जाता।
कुछ आवाजें इंसान के भीतर दाखिल हो कर दिल को चीर देती हैं। वो गिटार के उदास सुर की तरह बजती हैं। इससे पहले कि उस आवाज़ का गिटार झंकृत हो कर मुझे तड़पाना शुरू करे… मैं जाजिम से बनाई गई दुकान में घुस गई।
मल्हार! ४ टिकट्स….मल्हार को उसके नाम से बुलाये जाने पर अचरज हुआ। उसने अपने घोंसलेनुमा घुंघराले बालों को झटकते हुए मुझे देखा और टिकट फाड़ने लगा।
-तुमको किधर तो भी देखा है….
-“ज़रूर देखा होगा, छोटा-सा गाँव है ये। तुम जैसों की निगाहें लड़कियों पर ही रहती हैं।”
काश देखने और पहचानने की प्रक्रिया एक साथ होती तो लोग इंसान को पहचानने में धोखा न खाते। तमाम मासूम लोग ठगी के शिकार होने से बच जाते। मैंने उसे एकटक देखते हुए पूछा-सही है न…फर्जी तो नहीं?
-इधर कुछ भी फर्जी चलता।
-हुंह….तुम जैसे फर्ज़ी लोगों की वजह से तो खालिस की पहचान बची है।
मल्हार नाम के व्यक्ति के बगल में एक तिरपाल का ही एक कमरा बना था जिसमें एक कुर्सी डली थी। वहां स्कूबा डाइविंग के कारोबार का मैनेजर बैठा हुआ था।
-मुझे स्कूबा डाइविंग में गाइड बनना है। मेरे इस वाक्य को सुन कर वो मैनेजर जैसे आसमान से गिर पड़ा हो….
-क्या….? दिमाग तो ठीक है….कहते हुए उसने अपना मुंह टेढ़ा करके तंजिया तरीके से अपनी गर्दन दूसरी और घुमा ली।
-हेलो…..मैं बहुत अच्छी तैराक हूँ। समुद्र में बहुत दूर तक कश्ती ले जा कर जाल फैलाती और मछली पकड़ती हूँ।
‘हो हो बगा…। अत्ता इकडे कामस नाहीं’…(हां हां देखो, यहां अभी कोई काम नहीं है)
–स्कूबा डाइविंग भी करवाई है। इस बार उसने अचरज से भर निगाह मुझे देखा।
–कापुस बेचैले जाईच…केले च पान काढे चे, तुर काढैचे…तुमचा तुम लड़कियों को यहाँ नहीं आना चाहिए। (कपास बेचने जाओ, केले के पत्ते तोड़ो, तूअर दाल निकालो)……कहते हुए उसने इशारा किया जहाँ बोट लहरों के बीच किनारे आ कर खड़ी थी।
पानी के भीतर भी दुनियादारी चलती है, सामाजिक फासले पानी के भीतर भी तय किये गए हैं। फलां काम स्त्री कर सकती है, फलां काम मर्द… इसका निर्धारण करने वाला मर्द ही है, स्त्री नहीं हो सकती। इसी तरह की आवाज़ वो उठाती थी, वो भी इस छोटे से गाँव में। इसलिए उसका कोई हमदर्द नहीं था।
उसकी आवाज़… आवाज़ों के बाज़ार में अब सन्नाटे में डूबी है पर वो आवाज़ मेरा पीछा करती है दिन रात… मैं उसी आवाज़ के पीछे-पीछे चलना चाहती हूँ। समाज की सारी रस्में तोड़ कर मैं उस आवाज़ में समा कर उसे जिंदा करना चाहती हूँ।
समुद्र की लहरों के बीच हिलोरें लेती नाव झूँ झुँ की आवाज़ करती हुई आगे बढ़ी जा रही थी। मेरा मन सपनों के आसमान में उड़ा जा रहा था। मंजिल क़रीब हो तो आकाश कुछ ज्यादा नीचे सरक आता है। दिल की खरोंच उपटती है तो ख़्वाबों की कतरनें जुड़ कर एक जामा का रूप ले लेती हैं।
दो सैलानी परिवार नाव में बैठे अपनी अपनी उड़ानें नाप रहे थे। अपने-अपने मन की सतह पर तैर रहे थे।
ये देखो ऑक्सीजन मास्क, इसे पहन कर पानी में जाना होगा… तेज़ हवा से गाइड की आवाज़ लहरा रही थी। गाइड की आवाज़ सुन कर दोनों सैलानी परिवार के लोग सजग हो कर गाइड के निर्देश सुनने लगे।
‘…पानी में जाने के बाद अच्छा लगे तो अंगूठा नीचे की ओर और डर लगे तो ऊपर की ओर इशारा करने का’।
-‘अंकल! लेकिन नीचे की ओर अंगूठा दिखाना मतलब तो बेकार होता है’… मेरे लाये हुए गेस्ट के बच्चे के इस सवाल पर नाव में हंसी का झरना फूट पड़ा।
फिर बच्चे के टीथर जैसा कुछ दिखाया…एक बेल्ट जिसमें वज़नी पत्थर जड़े थे, वही पहन कर इन सबको पानी में उतरना था।
बोट जहाँ रुकी थी वहां दूर-दूर तक पानी ही पानी था, ऊँची लहर आने पर नौका टेढ़ी हो जाती लोग एक दूसरे पर गिरने लगते। देखने में ऐसा लगता जैसे इनमें से एकाध व्यक्ति पानी में गिर कर लहरों में समा जायेगा।
आज के ज़माने में गिरना नियति बन चुकी है। इंसानियत, उसूल, वैल्यूज़ सब कुछ तो गिर रहा है। नाव के दूसरी और टेढ़ी होते ही संतुलन ठीक हो जाता लेकिन मेरा संतुलन नहीं बन पाया था, बन पाया या बनाने नहीं दिया गया था।
एक दूसरी नाव पहले से ही वहाँ खड़ी थी। उसी के थोड़ी दूर पर दो-तीन नाव और थी जो खम्भे के सहारे रस्सी से बंधी हुई थीं।
गेस्ट परिवार की महिला के चेहरे पर डर का भाव साफ नज़र आ रहा था। डर की हद या सीमा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में परिवर्तित करता है। डर के पीछे संभावित खतरा छुपा होता है, अगर उस खतरे का एहसास हो जाए तो खतरा टल सकता है। काश उसे भी डर लगता होता… काश मुझे भी थोड़ा डर लगता…
‘तुमी कुटे जाणार’…? ऑक्सीजन मास्क लगा कर पत्थर वाला बेल्ट लगाते देख कर मुझसे नाव के संचालक ने पूछा जो इस स्कूबा डाइव का इंचार्ज भी था।
-‘मैं इनके साथ जाऊंगी’…. मैंने उस महिला की ओर इशारा किया जो परिवार मेरे साथ आया था।
-‘तुमाला नईं जाईचे। साथ में सिर्फ गाइड जाएगा’।
-‘मैं भी गाइड बनने वाली हूँ इसीलिए ट्रेनिंग ले रही हूँ….मैंने तुम्हारे मालिक को इसकी फीस दी है’।
संचालक की भूरी आँखें मुझे घूरती रहीं। फिर सम्मिलित स्वर में जोरदार ठहाका गूंजा, उसमें वहां मौजूद कुछ गाइड और नाव चालक के स्वर भी शामिल थे।
इन्हीं कुटिल स्वरों के सामने उस लड़की ने मुकाबले का जोखिम उठाया था…। वो हार गई, उसने अपना जीवन दांव पर लगा दिया, लेकिन मैं ऐसा हरगिज नहीं होने दूँगी, मैं उस गाइड की जिंदगी दांव पर लगाऊंगी जिसने उस लड़की से उसकी साँसे छीन ली।
-‘इदर खो खो नईं खेलने का…ये औरतों का काम नहीं है। पानी के भीतर जाना है तो ताकत चाहिए जिस को पानी में ले के जाने का उसको सही सलामत वापस ले के आने का…चप्पू तक हाथ में थामना नहीं आता’।
-‘बंद आँखों से देखने पर इंसान धृतराष्ट्र होता है। वो उधर देखो…‘ एक महिला चप्पू चलाते हुए बीच समन्दर में नाव पर जाल रखे मच्छी पकड़ने जा रही थी झारखंड के रांची के डैम में महिलायें ही चप्पू चलती हैं वही मछली पकड़ कर पूरे घर की आजीविका चलाती हैं।
-किसी दिन तेज़ लहर आएगी तो वो सीधा ऊपर जायेगी।
– वो तो तुम भी जा सकते हो…।
-‘मच्छी पकड़ने का काम भी औरतों का नहीं हाय मैडम’…! कहते हुए उस इंस्ट्रक्टर ने सैलानी के कमर में पत्थर जड़ा वज़नी बेल्ट बाँधने लगा था।
-खांचे में बाँटने की वजह से ही पूरा देश बंट रहा है। कभी मजहब, कभी इंसान, कभी इंसान की हैसियत और ओहदे से बांटा जा रहा है। अगर हम औरत मर्द के भेद से बाहर निकल आयें तो तरक्की ज्यादा कर सकते हैं। पर औरतों की तरक्की यानि औरत-मर्द की बराबरी…समाज को यही डर है जो स्त्री और पुरुष के लिए कभी एक पैमाना नहीं रखने देता।
मैं समाज के बनाये पैमाने को तोड़ने के लिए पैदा हुई। मेरे भीतर एक पहाड़ था जो मेरे हौसले के सामने झुक जाता था, एक नदी थी मेरे भीतर जो मेरे हिसाब से छोटी और गहरी हो जाती थी। एक झरना था मेरे भीतर जो हाहाकारी हो कर अपने भीतर सृष्टि को समां लेने का माद्दा रखता था।
उस रोज़ कुदरत की असीम शक्ति मुझमें समा गई थी, उस शक्ति से सिर्फ आगे बढ़ने का रास्ता मेरे सामने था पीछे लौटने का नहीं। अगर मैं पीछे लौटती तो दो लोगों की हार होती मेरी और उसकी…. जिसे पानी से प्यार था, जिसे ‘’जल-परी” कहा जाता था। जिसके सामने पुरुष तैराक भी हार मानते थे। वो गाइड बनना चाहती थी। ख़ास लड़कियों के लिए डाइविंग और पैरासेलिंग स्कूल खोल कर उनके सपनों को परवाज़ देना उसके सपने का अंकुर था ।
इन क्रूर गाइड्स के लिए ये गुनाह था, उसके इस फ़ील्ड में आने से इनकी आजीविका छिन जाती। अपने रोज़गार पर कोई असर पड़े इससे बेहतर है-उसे उसकी जिंदगी से ही बेदखल कर दो..। एक लड़की जिसे समाज आज भी कमज़ोर मानता है, फिर उससे ऐसी गलाकाट प्रतिस्पर्धा क्यों…सवालों के समंदर मैं तैरती हुई मैंने ऑक्सीजन मास्क लगाया लाइफ़ जैकेट पहन कर नाव से लगी सीढ़ी पर पैर रखा और पानी में छलांग लगा दी।
इन्सट्रक्टर मुझे रोकता रहा, पर मैं रुकी नहीं। उसके मुताबिक, उसके मुताबिक क्या, पूरे स्कूबा डाइविंग की टीम के मुताबिक एक महिला गाइड नहीं बन सकती। सदियों से एक स्त्री के काम की दशा और दिशा पुरुष ही तय करता आया है लेकिन मेरे जीवन का मार्ग मेरे आई बाबा भी तय नहीं कर पाए तो भला ये इंस्ट्रक्टर मेरे जीवन का काँटा कैसे बन सकता है।
धीरे धीरे मैं अपने महिला गेस्ट के इर्द गिर्द तैरने लगी। वो महिला डर रही थी गाइड उसके लाइफ़ जैकेट का हिस्सा पकड़े हुए था, उसके डर को खत्म करने के लिए उसे कुछ-कुछ समझा रहा था। वो मुझे पानी के भीतर और सतह पर तैरते हुए देख रही थी। उसके काफी करीब आ कर मैंने उसके हाथ को छुआ और इशारे से कहा ‘डरे नहीं बल्कि पानी के भीतर जा कर एन्जॉय करे’।
इस बीच मुझे गाइड बन कर अपनी सफलता का परचम लहराने का रास्ता सूझा। अचानक तैरती हुई मेरे भीतर मछली की नन्हीं काया प्रवेश कर गई हो, जो बहुत फुर्ती से पानी में तैर रही थी। फिर अचानक वही छोटी-सी मछली बड़ी मछली…..फिर वो व्हेल का रूप धर लेती है और वो जैसे उस गाइड को खाना चाहती हो और उसमें मैं समा गई हो। मैं धीरे-धीरे उस गाइड के करीब जाती हूँ। उससे सटकर तैरने लगती हूँ। फिर बहुत फुर्ती से उसके मुंह में लगा टीथर जोर से खींचती हूँ, उसके मुंह में पानी भरने लगता है, वह सांस रोक मुंह बंद कर उतनी ही फुर्ती से पानी की सतह पर आ कर तैरने लगता है। पता नहीं क्यों मैं उसे सहारा देती हूँ।
उस समय उसे दो लोगों की जानें बचानी थीं एक खुद की दूसरी उस महिला की। मुझे पता था वो तैराक बहुत अच्छा है और अपनी जान वो खुद बचा लेगा। मुझे उस महिला को डाइविंग करवा कर हिफाज़त से नाव तक पहुंचाना है। कई बार इंसान जो सोचता ही उसका उल्टा हो जाता है। बहुत बड़ी मुश्किल एक छोटी-सी मुश्किल से आसान हो जाती है।
मैं मुश्किल में थी क्योंकि उस अतिथि महिला की हिफाजत अब मेरी ज़िम्मेदारी थी। आसानी थी मेरी चुनौती…एक लड़की की डाइविंग…मैं पानी के भीतर और अंदर चली जा रही थी… जहाँ सारी ख्वाहिशों पर विराम लग जाता है। पानी के इतने अंदर जा कर हमारी दुनिया बदल जाती है। खुद को बलून से भी हल्का पा रही थी। पानी के भीतर कोई आवाज़ नहीं थी….चुप्पी थी, सन्नाटा था या फिर लहरों की आवाजें जो उस वक़्त सुनाई नहीं दे रही थी…पर उस आवाज़ से परे एक आवाज़ थी…यह आवाज़ उस आवाज़ से अलग थी जो मुझे हरदम सुनाई देती थी। उस रोज़, इस आवाज़ में रुदन नहीं था, इस आवाज़ में उसकी तड़प नहीं थी बल्कि इस आवाज़ में उसकी ख्वाहिश पूरी होने की चहक थी। पहाड़ पर हुई बारिश के बाद निखरी हरी घटाओं की तरह उसकी आवाज़ आई थी।… जल तरंग-सी बजी थी इस बार उसकी आवाज़… इस आवाज़ में गूँज थी… आकाश में उड़ते हुए रंगबिरंगी बलून उसकी आवाज़ में गुंथ गये थे।
जैसे वो ज़िंदा हो कर सामने आ खड़ी हुई हो।
हम दोनों बहनें एक साथ तैरना शुरू करते। मैं दीदी-दीदी आवाज़ लगाती रहती, वो मुझसे तेज़ बहुत दूर पानी में निकल जाती। वो किसी पनडुब्बी की तरह पानी में अलोप हो जाती। फिर सतह पर तैरती हुई ऐसे मुस्कुराती जैसे पानी पर बिखरे मोती पर पड़ी हो सूरज की नर्म धूप।
उसे स्कूबा डाइविंग का बहुत शौक़ था। वो इन मर्दों के बीच जलपरी के नाम से मशहूर थी पर कोई भी पुरुष उसे गाइड के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहता था।
उसे एक बुकिंग एजेंट की तरह ट्रीट किया जाता जो उसे नागवार गुज़रता। उस जलपरी ने अपने हालात से हार मानना नहीं सीखा था। शायद यही मिज़ाज उसकी जान का दुश्मन बन गया। किसी एक रोज़ वो स्कूबा डाइविंग के लिए जो वो पानी में उतरी तो वो सचमुच की जल परी बन गई। बहुत खोजबीन के बाद भी उसका अता-पता नहीं चला। आई-बाबा की चीत्कार महीनों समुद्र की लहरों में सुनाई देती। मछुआरे कहते कि जलपरी मरी नहीं है वो इन्हीं लहरों में रहती है। मछली पकड़ते वक़्त उसकी आवाज़ आती है, कभी-कभी वो हाथ में चप्पू चलाती हुई लहरों पर तैरती दिखाई देती है पर जैसे उससे बात करने की कोशिश करो तो वो लहरों में समा जाती है। वो स्कूबा डाइविंग करने आए लोगों को हौले से छू कर निकल जाती है। कभी-कभी समुद्र का पानी उसकी आंखों में समा जाता है फिर उस दिन समुद्र उदास हो कर पीछे की ओर लौटता है। लोग ये भी कहते कि देखना एक दिन जलपरी उस गाइड को पानी में अपने साथ ज़रूर खींच लेगी। अभी जलपरी उस गाइड के लोभ और चालाकियों का घड़ा भरने का इंतज़ार कर रही है। कानून उस गाइड को उसके किये की सज़ा नहीं दिलवा सकता क्योंकि इस बड़ी क्रूरता और अपराध का कोई प्रूफ नहीं है। उस गाइड के तार ऊपर वालों से जुड़े हैं। इसलिए वो जो भी मनमानी क्रूरता करता है उसके लिए कोई सज़ा नहीं मुक़र्रर होती। वो चुनाव के मौसम में सड़कों पर फूल बिछा कर मौसम का रंग बदल लेता है।
पानी के बुलबुले के बीच मैंने उस अतिथि महिला का लाइफ़ जैकेट का एक हिस्सा पकड़ लिया था, उसे पानी की सतह पर ले आई, उसका डर भगाया और फिर अपने हिफ़ाज़त के कवच से तकरीबन २० फुट पानी के अंदर सैर करवाई। वो महिला पानी के भीतर अनोखी दुनिया देख रही थी। रंग-बिरंगी मछलियाँ उसकी हथेलियों को गुदगुदा कर आगे बढ़ रही थीं वो मछलियों को अपनी मुट्ठी में बंद करना चाह रही थी, अंगूठे से अपनी तर्जनी उँगली को छू कर अपने आनंद के अतिरेक की अभिव्यक्ति कर रही थी। चश्मे के पीछे छुपी आँखों में वो अपने किसी ख्वाब को रंग रही थी। उसके अभिभूत होने की अभिव्यक्ति से मैं उसे समुद्र के तल तक ले गई, जहाँ उसे अलौकिक आनन्द मिला उसके दांत में टीथर था वो बोल नहीं सकती थी। पर उसकी काया बोल रही थी और उसके बहाने मैं खुद को भी अनोखे अंजाम तक पहुंचा रही थी।
उस रोज़ मैंने एक कामयाब गाइड की भूमिका अदा की थी। पर इतना आसन नहीं होता समाज के बनाए सांचे को तोड़ना। मैं जब भी कोई सैलानी मेहमान ले कर स्कूबा डाइविंग के काउंटर पर जाती तो मैनेजर और एजेंट की निगाहों में मेरे लिये हिकारत होती।
“ये मुस्टंडे किसी कोण से मुलगी नहीं लगती, शम्भा गोखले ने मुलगी के नाम पर दोनों ही मुलगा पैदा किया है, क्या मालूम इसका लगन [शादी] कैसा करगा….दलाल साली…क्या मालूम कैसा सब गेस्ट को अपने जाल में फंसा लेती है। फोकट में हमारे पेट पर लात मारती है”…..इस तरह की इबारत से मुझे नवाजते हुए वे मुंह टेढ़ा करके तंजिया हंसी हँसते और कभी-कभी मुझे देख के मुंह घुमा कर थूक देते जैसे मैं कोई गंदी-सी चीज़ होऊं।
जब भी कोई लड़की नया काम करती है तो सबसे पहले उसकी अस्मिता पर सवाल उठाया जाता है फिर उसकी काबलियत पर, कहीं उसकी सत्ता को खतरा न पैदा हो जाए…मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा था। मुझे रोज़ खुद को प्रूव करना पड़ता, स्कूबा डाइविंग के इंचार्ज को सैलानी और उनसे मिलने वाला पैसा चाहिए था, इसलिए ये काम मुझे मिल गया था। मेरी काया में जलपरी की काया भी समाहित थी। मेरे दिल के भीतर बदले की धीमी आंच सुलगती रहती। बदले की आग नींव की ईंट बन जाती है। बहुत सारे रोड़े अटकाए गए। मेरी नींव की ईंट बड़ी मज़बूत बनी। आई-बाबा को डर था मेरा भी मेरी बहन जलपरी वाला हाल न हो। कहीं मैं भी एक दिन पानी में न विलीन कर दी जाऊं…. तरह-तरह के संशय ने उन्हें घेर रखा था।
जब मैं घर से निकलती तो आई बेबस कमज़ोर आँखों से मुझे देखतीं, कुछ पल के लिए उनकी आँखों में समुद्र होता। मैं उनकी हथेलियों को कस कर पकड़ लेती ।
मेरी जीवटता से उनका डर कम हो जाता। मैंने धीरे-धीरे उस मल्हार नाम के गाइड की जगह ले ली। पर मेरा मकसद सिर्फ बदला लेना नहीं था। मुझे अपनी बहन के सपनों के हरे पानी को रंगीन बनाना था। मैंने वहीं मल्हार की दुकान के बगल में ही एक ऑफिस बनाया जिसमें सिर्फ जिसमें सिर्फ लड़कियां तैराकी, स्कूबा डाइविंग और पैरासेलिंग सीखने आती थीं।
बदलाव कोई दन्न से नहीं आता…पर आया बदलाव…आज भी जब कोई लड़की कहती है कि मुझे पानी से डर लगता है तो मैं उसे नाव से उसे ऐसी जगह ले जाती हूँ जहाँ लहरें शांति से आवाजाही करती हैं, उसे नहीं पता होता और मैं उसे पानी में झोंक देती हूँ….और वो चीख चिल्ला कर अपनी जान बचाने के लिए तैरना सीख लेती है, मैं ऐसा इसलिए करती हूँ ताकि वो अपनी हिफाज़त खुद करना सीख लें और समाज से टक्कर लेना भी। वो खुद की हिफ़ाज़त नहीं कर पाती तो मैं उसकी जान की रक्षा करती हूँ। धीरे-धीरे खुद को डूबने से बचाने की उनकी आदत पड़ जाती है। समाज के बनाये ढाँचे को तोड़ कर खुद को डूबने देने की बजाय दूसरों को डुबोने का गुर भी आना चाहिए।
जब कोई रोती हुई, मजबूर, लाचार लड़की स्कूबा डाइविंग के मेरे बनाये काउंटर पर आती है और उसे वहां काम मिल जाता है। उसे उसका मनचाहा आकाश मिल जाता है तो जैसे मेरी तमन्नाओं की आंच में आग धूं-धूं कर जलने लगती है। मैं जलपरी बन पानी से निकल कर आसमान में उड़ने लगती हूं।