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गीताश्री के उपन्यास ‘सामा चकवा’ का एक अंश

हाल में ही गीताश्री का उपन्यास आया है ‘सामा चकवा’। मिथिला का एक पर्व, द्वापर युग की कथा, पर्यावरण प्रेम। उपन्यास अनेक समकालीन संदर्भों को ध्वनित करने वाला है। राजपाल एंड संज से प्रकाशित इस उपन्यास का एक अंश पढ़िए-

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एक समय की बात है

एक था जंगल, एक थी चिड़िया। और दूर देश से आए दो बहेलिये थे। उनके हाथ में बड़ा-सा जाल है… तीर कमान भी।

दोनों बहेलिये आपस में बात कर रहे थे – ‘ सुना है, इस जंगल में बहुत-सी, नाना प्रकार की चिड़ियाँ मिलती हैं। कुछ दुर्लभ पंछी भी इस जंगल में पाए जाते हैं।‘

‘चलो, आज उन्हें ढूँढ़ते हैं, इनका शिकार करते हैं। जाल खोलो, फैलाओ… वो देखो सुरख़ाब का जोड़ा… चलो, इन्हें पकड़ते हैं, इनके तो पंख भी मूल्यवान हैं।‘

‘सावधान… मैंने सुना है, यह मायावी जंगल है। संभल कर, यहाँ एक इच्छाधारी चिड़ियाँ है, जब चाहे रूप बदल लेती हैं।‘

‘सच में? कोई चिड़ियाँ इतनी ताकतवर नहीं हो सकती कि रूप बदल ले। यह कोई मायावी चिड़िया होगी। इच्छाधारी चिड़िया। फिर तो उसे ही जाल में फंसाने का आनंद लेना चाहिए।‘

‘नहीं, हमें मायावी के चक्कर में नहीं फंसना चाहिए, उनका जाल हमारे जाल से बड़ा और अचूक होता है।‘

‘अच्छा! बड़े अनुभवी मालूम होते हो बंधु।‘

‘ और क्या!’ पहला बहेलिया शेखी बघार रहा था।

“फिर, क्या करें…? वंचित रह जाएँ उस इच्छादारी चिड़िया से…? चाहे जो हो, मुझे उसे फांसना ही होगा। मैं देखूँ तो ज़रा कि यह बात कितनी सच है…

‘और भी बातें हैं, अब तुम्हें बताने का क्या फ़ायदा। जो आमादा हो विपत्ति बुलाने पर, उसकी रक्षा देवता भी नहीं कर सकते। जाओ… करो… मैं तब तक साधारण चिड़ियाँ फंसाता हूँ। असाधारण चिड़ियाँ फंसाने का सामर्थ्य नहीं मुझमें। मैं सुरक्षित खेलता हूँ।‘

दूसरा बहेलिया नहीं माना, उसे साथ पकड़ कर ले चला। दोनों साथ चले, बड़ा-सा जाल लेकर। पहला बहेलिया थोड़ा डरा हुआ है। दूसरा बेशर्म की तरह हँस रहा है। दोनों दबे पाँव सुरख़ाब के पास पहुँचते हैं और उनके ऊपर जाल फेंक देते हैं। सुंदर, चमकीली, नारंगी, भूरी, कत्थई पंखों वाली मादा सुरखाब जाल में फंस कर छटपटाने लगती है। दोनों ठहाके लगाते हैं। कीमती चिड़िया उनके जाल में फंस गई है। इसे हाट में सोने के सिक्के के भाव में बेचेगा। वह जाल समेटने लगा। सुरखाब साथ-साथ घिसटती चली जाल के…. बहेलियों को मज़ा आ रहा है।

स्त्री स्वप्न में छटपटा उठी…

उसे लगा, जाल उसके शरीर से लिपट गया है। वह हिल नहीं पा रही है। वह घिसटती हुई दूर तक चली जा रही है। वह ज़ोर से ताकत लगा कर जाल फाड़ देती है, बहेलिये पलट कर देखते हैं, सुरख़ाब की जगह एक राजसी रूपसी खड़ी है। इच्छाधारी चिड़िया, स्त्री बन कर जाल फाड़ती हुई बाहर निकल रही थी। दोनों जाल वहीं फेंक कर चीखते हुए जंगल से भाग निकलते हैं।

दीर्घ स्वप्न है… स्त्री अर्द्धनिद्रा में है। बहेलिये मजबूत जाल और सोने का पिंज़रा लिए फिर से उसे ढूँढ़ रहे हैं। चिड़िया अब स्त्री बन चुकी है। युग बदल रहा है… कई बहेलियों के हाथों में जाल, पिंजरे के अतिरिक्त प्रलोभन की कई वस्तुएँ हैं। उनमें से एक बहेलिये के पास एक अचूक प्रेम-जाल भी है।

इसे देखते ही स्त्री की नींद खुल जाती है। सबसे मुक्ति का रास्ता उसक पास है। प्रेम-जाल की काट नहीं है उसके पास।

उसने प्रेम पर भरोसा किया, वह प्रेम में रहने चली गई। किंतु स्त्री और चिड़ियाँ अब भी इच्छाधारी हैं।

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