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विश्व रंगमंच दिवस विशेष

आज विश्व रंगमंच दिवस है। आज पढ़िए कवि-नाट्य समीक्षक मंजरी श्रीवास्तव का यह लेख जो कुछ यादगार अंतरराष्ट्रीय नाट्य प्रस्तुतियों को लेकर है-

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1.

आज विश्व रंगमंच दिवस पर मैं आप सबसे बातचीत करूंगी कुछ यादगार अंतर्राष्ट्रीय नाट्य प्रस्तुतियों पर जिनमें से कुछ नाटक मैंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा हर वर्ष आयोजित किये जाने वाले भारत रंग महोत्सव में देखे थे और कुछ नाटक एनएसडी द्वारा २०१८ में आयोजित थिएटर ओलंपिक्स में देखे थे.

अंतर्राष्ट्रीय नाटकों की श्रृंखला में जिस पहले नाटक का मैं ज़िक्र करना चाहती हूँ वह है वह है नाटक ‘पोस्टल डिलीवरी टू गॉड’ जो हिब्रू भाषा का नाटक था और इसका प्रदर्शन सत्रहवें भारत रंग महोत्सव के दौरान किया गया था. इसकी निर्देशकद्वय थीं रूथी ऑस्तरमैन एवं एमित ज़र्का. यह नाटक दरअसल नाटक रचनेवालों और इसे प्रस्तुत करनेवाले उन कलाकारों की व्यक्तिगत कहानियों पर आधारित है, जो यहूदी धर्मावलम्बी हैं. नाटक ईश्वर की खोज में जुटी दो धार्मिक लड़कियों की तीन भागों में संयोजित कथा है जोकि उनके जीवन के तीन भिन्न-भिन्न कालों का प्रतिनिधित्व करते हैं – बाल्यावस्था, कैशोर्य और सम्पूर्ण स्त्रीत्व. नाटक का हर भाग एक विशिष्ट ढंग से बनाया गया है जिनमें सृष्टिकर्ता से संवाद के विभिन्न अंतर्द्वंद्व हैं, अस्मिता की परिभाषा है, सामान्य स्तर पर भी और स्त्रीत्व के विशेष सन्दर्भ में भी. हर भाग ईश्वर के साथ सम्बन्ध के आधार पर अलग-अलग स्थानों पर घटित होता है. भावनात्मक और शारीरिक संघर्ष जिससे पिछले दो भागों में वे गुज़रती हैं अंतिम दृश्य में पूरा होता है जो सद्भाव तक पहुँचने की कोशिश के अलावा आंसुओं और टूटन को अभिव्यक्त करता है. नाटक के पहले भाग में एक बच्ची की चाहत को इन शब्दों में दिखाया गया है –

‘जब एक बच्ची उड़ना चाहती है,

चाह रही है वो कूदना, तेल अवीव में एक भवन की छत से,

उस एक पल के लिए, जो विभाजित कर देता है उड़ान के एक क्षण को

जब एक बच्ची उड़ना चाहती है

सालों बाद इसके कि – जब उसके पंखों को बाँध दिया गया था, सटाकर उसके हाथों के साथ

वो महसूस करती है क्षुधातुर

जब एक बच्ची चाहती है उड़ान भरना

और कह दिया जाता है उससे “जारी रखो, उड़ो, अब, जहाँ तुम चाहो”

वो तुरंत बन जाती है एक लवण स्तम्भ

एक गुब्बारा, विस्फ़ोट करता हुआ

अँधेरे का ….

इस नाटक के लिए निर्देशकद्वय ने सात व्यावसायिक अभिनेताओं और दर्शकों को चुना, जोकि उन्हीं की तरह धार्मिक परिवारों से आते हैं और उन्होंने दोनों के साथ मिलकर नाटक तैयार किया है. नाटक उनके व्यक्तिगत अनुभवों और यहूदी साहित्य स्रोतों से लिए गए पाठ्य पर आधारित है. नाटक की कलात्मक भाषा इम्प्रोवाइज़ेशन पर आधारित है जोकि मूल और परंपरागत पाठ्य को एक साथ मिला देते हैं. नाटक जिन सरोकारों से अपनी अनूठी शैली के साथ जूझता है वह सराहनीय तो है ही साथ ही इज़रायली समाज में प्रासंगिक भी है. नाटक की प्रकाश परिकल्पना नदव बारनिया की थी, नृत्य संरचना रॉन एमित की थी, मूल संगीत हेम रोज़ेन्ब्लम और लियोर हेमोविच का था और गायन निर्देशक थे मोरिया अब्राहम. सेट डिजाइनिंग के नाम पर एक उल्टा लटका हुआ पेड़ भर था जिसकी जड़ें आसमान की ओर और तना और पत्तियाँ ज़मीन की ओर थी. पेड़ की पत्तियों को प्रकाश के माध्यम से अलग-अलग रंगों में दिखाया गया था जो किसी देवलोक –सा अद्भुत दृश्य मंच पर उपस्थित कर रहा था. यह पूरा सेट आँखों को बेहद सुकून देने वाला था, वह भी बिना किसी ताम-झाम के.

2.

भारत में आठवें थिएटर ओलंपिक्स के दूसरे चरण के उत्तरार्ध का एक महत्वपूर्ण नाटक था नीना माजूर द्वारा रचित और एव्जेनिया बोगिन्स्काया द्वारा निर्देशित नाटक ‘इट्’ज़ मी, एडिथ पियाफ़’. यह नाटक द्विभाषी था, जर्मन और रूसी भाषा का इस्तेमाल इसमें किया गया था. एडिथ पियाफ़ नाटक फ्रेंच संगीत की एक संगीतमय किंवदंती था.

यह नाटक फ्रेंच संगीत की प्रतीक प्रतिमा और किम्वदंती बन चुकी मशहूर गायिका एडिथ पियाफ़ के जीवन पर आधारित है. दरअसल यह नाटक एडिथ पियाफ़ के रचना-भंडार के मूलभाषा के गीतों के साथ, जर्मन या रूसी (या फिर संभवतः दोनों) भाषा का एकल नाट्य है. उनके जीवित रहते हुए, उन्हें ‘फ्रेंच राष्ट्र की आत्मा’ कहा जाता था और मृत्यु के बाद वे ‘फ्रेंच संगीत की प्रतीक प्रतिमा’ बन गईं. उनके भंडार के गीत पूरे विश्व में आज भी लोकप्रिय हैं. किम्वदंती बन चुकी गायिका ने, जिसने अपने करियर की शुरुआत पेरिस की कच्ची गलियों से की, अपने जीवन के बारे में पूछे गए प्रश्न का उत्तर दिया था – ‘प्रेम, और क्या ?’ एडिथ ने ऐसा इसलिए कहा था क्योंकि बचपन में अपनी दादी के साथ ब्रोथेल में बिताए बचपन की यादें हमेशा एडिथ के मन में चुभती रहीं जहाँ उसने यह देखा था कि एक औरत की अपनी कोई मर्जी नहीं होती. यदि कोई पुरुष इशारा करता था तो स्त्री की मजाल नहीं थी कि वह उसके साथ जाने और उसकी मर्जी के हिसाब से खुद को उसके सामने परोसने से इंकार कर दे. और इस सारी प्रक्रिया में यदि कोई चीज़ स्त्री-पुरुष के बीच से बिलकुल गायब थी तो वह था प्रेम.

दादी के पास कुछ वर्षों तक रहकर वहां से वापस लौटने के बाद एडिथ ने पिता के साथ पेरिस की गलियों में गाया. 14 वर्ष की उम्र में एक दिन जब वह पिता के साथ निकली और गली-गली भटक रही थी तो उसने पाया कि उसके पिता जो कि एक एक्रोबेट थे उनकी भाव-भंगिमाओं पर किसी ने एक रूपया भी नहीं दिया. उसके पिता जब थक गए तो उसने बड़ी मायूसी से गाना शुरू किया और वह गीत था फ़्रांस का राष्ट्रगान. इसके अलावा एडिथ को कोई गीत आता ही नहीं था. पर इस गीत और एडिथ की आवाज़ ने उसकी झोली भर दी. फिर उसके गाने का सिलसिला चल निकला और भविष्य में वह फ़्रांस की सबसे मशहूर गायिका बनी. क्या विडम्बना रही कि पति को त्यागने और २ साल की बेटी की मौत के बाद एडिथ के संगीत के कैरियर में उछाल आया और वह अपने समय की सबसे बड़ी गायिका, गीतकार और कैबरे गायिका बनी.

चूंकि एडिथ के गायन में गोरैया की चंचलता, बुलबुल की चपलता और कोयल की कूक थी अतः अपने करियर के बीसवें वर्ष में जाकर एडिथ को ‘स्पैरो’ के नाम से पुकारा गया.

एडिथ के जीवन पर बना यह नाटक एडिथ का पूरा निजी और सांगीतिक जीवन मंच पर जीवंत कर देता है. अभिनेत्री अनास्तासिया वीनमार ने मंच पर एडिथ को जीवंत कर दिया है. संगीत-संचयन नतालिया स्मोत्रित्काया का है और दृश्यबंध एवं वेशभूषा है इल्शात विल्दानोफ़ की. नाटक के विभिन्न दृश्यों में अभिनेत्री अनस्तासिया ने जर्मन-रूसी संगीत, ऑपेरा और कैबरे का ऐसा सम्मिश्रण प्रस्तुत किया जो अद्भुत था. दर्शक एक सेकंड को असमंजस में थे कि अनास्तासिया गा रही हैं मंच पर या स्वयं एडिथ पियाफ़. एक यादगार प्रस्तुति, एक कभी न भूलनेवाला नाटक रहा एडिथ पियाफ़.

3.

जर्मनी की अंग्रेज़ी प्रस्तुति ‘सी शार्प सी ब्लंट’ कांसेप्ट और प्रस्तुति दोनों ही लिहाज़ से एक अलग तरह का नाटक था.  सोफ़िया स्टेफ़ द्वारा निर्देशित और एम.डी.पल्लवी के शानदार एकल अभिनय से सजा नाटक ‘सी शार्प सी ब्लंट’ एक सरल मोबाइल फोन एप्लीकेशन शिल्पा के लांच से शुरू होता है जो एक आकर्षक, इंटरेक्टिव और उपयोगी एप्लीकेशन है और जिसे साल २०१३ के सबसे लोकप्रिय एप्लीकेशन के तौर पर बाज़ार में उतारा गया है और शिल्पा के माध्यम से कहानी कहता है हमारे आज के समाज की, आज की दुनिया की, महिलाओं के लिए इस दुनिया (विशेषकर भारतीय महिलाओं के सन्दर्भ में) की सीमाओं और सूक्ष्म स्तर पर होनेवाले लिंगभेद के बारे में, उन विकृत छवियों के बारे में जिनसे हमें रोज़ दो-चार होना पड़ता है. लेकिन निर्देशक और अभिनेत्री की सफ़लता इस वज़ह से ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि वे इसे मनोरंजक और व्यंग्यात्मक तरीके से कह पाने में सफल हुई हैं. यह नाटक जर्मनी के लिंथिएटर की, भारत-जर्मन सहयोग से तैयार ताजातरीन प्रस्तुति है, जो सामाजिक सरोकारों से संबद्ध मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ डिजिटल नाट्य, पुनरावृत्ति और थिएटर-मीट्स-परफ़ॉर्मेंस कला की नई संकर शैली की संभावनाओं का अन्वेषण करता है. निर्देशक का कहना है कि -“तकनीक और मीडिया आज दुनिया को देखने के हमारे तरीके का निर्धारण करते हैं, इसे मैं अपने रंगकर्म से रेखांकित करना चाहती हूँ. एक उपभोक्ता की प्रतिक्रिया और इसकी पसंद की अवधारणा मीडिया और तकनीक के सन्दर्भ में मुझे काफ़ी दिलचस्प लगती है जो थिएटर की संस्थापना से बिलकुल उलट है, जहाँ लोगों का एक समूह होता है, कोई एक ‘यूज़र’ नहीं. यह नाटक एक प्रयोग है और इसके बारे में मैं क्या कह सकती हूँ : आईये इस एप को ‘यूज़’ कीजिये और खुद देखिये.”

4.

नाटक ‘ऑल दि थिंग्ज़ यू सेड यू नेवर सेड बिफोर यू थॉट यू कुड एवर से’ हमारे चेतन और अवचेतन से सम्बंधित है. ऑल दि थिंग्ज़, जिन्हें हम खुले तौर पर दुनिया के सामने अभिव्यक्त करते हैं और जो हम अनजाने ही अवचेतन की तहों में छिपा रखते हैं, इन दोनों के दुहरे यथार्थ को खंगालती हुई शारीरिक प्रस्तुति है. एक दम्पति के ‘बस टूटने ही वाले’ संबंधों के साथ चलती यह प्रस्तुति एक छोटे-से ऐहिक (पार्थिव) द्वंद्व के बीच चार कलाकारों को एक दम्पति के तौर पर लेकर चलती है, जब तक कि हमें यह एहसास हो कि सतह के नीचे के कुछ को संप्रेषित करने को एक गहन कुंठा है, लेकिन क्या..? और क्या हम कभी भी उस ‘क्या’ को शब्दों में अभिव्यक्त कर सकते हैं ? इसी बीच उस दम्पति को यह दिखाने को बाध्य करती हुई, कि बातें जो कही नहीं गईं, अगर अभी नहीं तो फिर ‘कभी कहीं हुई नहीं’ होंगी, एक आपदा हवा में लहराती है. यह प्रस्तुति इस बारे में थी कि कैसे हममें से हर कोई जीवन जीना चुनता है, जानते हुए या फिर अनजाने. अभिनय और नृत्य प्रधान यह प्रस्तुति सराहनीय थी.

5.

पांचवे  स्थान पर इटली के  नाटक ‘तिशिना’ को रखा जा सकता है.

तिशिना एक ऐसी लड़की है जिसका अपना एक रहस्मय संसार है और वह उस संसार में अकेली मस्त रहती है. उसका यह घर-संसार प्रकट होने और फिर विलुप्त हो जानेवाली वस्तुओं, अजनबी ध्वनियों और रहस्यमयी प्राणियों से घिरा हुआ है. तिशिना अकेली है पर निराली और मस्त है और अन्य लोगों से भिन्न भी पर औरों की तरह उसे भी किसी दोस्त की तलाश है. तिशिना अपना झुर्रियों भरा चेहरा और पपड़ी पड़े हाथ लेकर पूरे शहर में घूमती रहती है जिससे लोग भयभीत होते रहते हैं. अपने चेहरे पर मृत्यु के भाव लिए या मृत्यु लिए उसके लगातार घूमते रहने से पूरा शहर भयभीत रहता है और कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जो उसके साथ रहना चाहता हो. अपनी यात्राओं के दौरान वह धीरे-धीरे अपने वरदान को जो उसके लिए अभिशाप भी है, लोगों के सामने व्यक्त करती है और लोगों को यह बताती है कि कोई भी चीज़ जिसे वह भूलवश या जानबूझकर छू ले, वह सूख जाती है, टूट जाती है और विलुप्त हो जाती है. लेकिन वह एक दिन कृतज्ञ होती है उस छोटे से प्रकाश-बिंदु या उस पतली सी प्रकाश-रेख की जो उसकी प्रयोगशाला में परित्यक्त पड़े या शीशियों, पुराने कपड़ों और भूले-बिसरे पदार्थों के बीच से जन्म लेता है और उसका साथी बनता है. तिशिना अब उतनी भी अकेली नहीं है. कुछ अप्रत्याशित, भयावह और अद्भुत उसकी प्रतीक्षा कर रहा है. और सचमुच अभिनेत्री सिमोना द मेयो ने अपने शानदार अभिनय से इस नाटक को अद्भुत बना डाला है. इस नाटक को अद्भुत बनाने में सिमोना का साथ दिया है जीना ओलिवा की वेशभूषा और पाचो समोंत की कमाल की प्रकाश अभिकल्पना ने. इस नाटक के नाटककार हैं लूका दी तोमेसो और निर्देशक हैं सोबिस्तियानो कोतिचेली और खुद अभिनेत्री सिमोना द मेयो.

निर्देशकों के अनुसार यह नाटक, अतीत के कुछ महान  विदूषकों, मूक फिल्मों, प्रच्छन्न प्रसन्नचित्तता और टिम  बर्टन के बेतुके वातावरणों से प्रेरित एक पूरी तरह से शब्दहीन भाषा का प्रयोग करता है. दरअसल यह रंगमंच है विदूषक का रंगमंच…आकृतियों का रंगमंच, मुखौटों और पदार्थों का रंगमंच…अभिनेता का रंगमंच.

वाणीरहित आभिव्यक्तिक शब्दावली का प्रयोग करते हुए निर्देशक अभिनेता की देह को, आकृतियों के विविध प्रकारों और एक बहु क्रियात्मक दृश्यावली के लिए, एक सजीवता अवलंब के रूप में प्रयोग करते हुए, पदार्थों के तिलिस्मी रूप परिवर्तन को पुनर्स्थापित करते हैं और यह पुनर्स्थापन जड़ता से गति की ओर, मृत्यु से जीवन की ओर और विपरीत क्रम में भी हुआ है और निस्संदेह मंच पर एक जादू, एक तिलिस्म स्थापित करने में यह पूरी टीम कामयाब रही है. सब कुछ दर्शकों की दृष्टि में रखते हुए, बिना कुछ भी छिपाए, झिलमिलाते हुए घटनाक्रम को बिना अलग किये हुए निर्देशकद्वय, अभिनेत्री और पूरी टीम ने रहस्य को बनाये रखा है और दर्शकों पर उनका यह रहस्य, यह तिलिस्म जैसे सर चढ़कर बोल रहा था प्रस्तुति के दौरान.

इस गैर-शाब्दिक नाटक के जादू के पीछे हाथ था ‘मिमिक-कॉमिक रंगमंच,  दैहिक रंगमंच, विशेषकर माइम, पैण्टोमाइम, विदूषक, कामेदिया देल आर्ते और मुखौटों के साथ प्रयोग पर केन्द्रित रंगमंच का जिसमें सिद्धहस्त हैं इसके दोनों निर्देशक और नाटककार भी.

भारत के पहले और विश्व के आठवें थिएटर ओलंपिक्स के पांचवें, छठे और सातवें दिन का मुख्य आकर्षण रहा था थिएटर ओलंपिक्स कमिटी के अध्यक्ष थ्योदोरोस तेरज़ोपॉलस का नाटक ‘एनकोर’. नाटक एनकोर  सृष्टि और काल के पौराणिक उद्भव के रूप में द्वंद्व की तरह मंच पर सामने आता है.

दरअसल यह नाटक यूनान के ऐटिस थिएटर की निरंतरता को अभिव्यक्त करता है और इस अभिव्यक्ति के दौरान दो अभिनेता उस्तरे से तराशी गई-सी मुस्कान के साथ मंच पर ‘एनकोर, एनकोर, एनकोर फुसफुसाते हैं. दरअसल इस नाटक के साथ एटिस थिएटर अपनी स्थापना का उत्सव मना रहा था. नाटक एनकोर ‘अलार्मे’ के साथ प्रारंभ होनेवाली और ‘एमॉर’ के साथ जारी रहनेवाली त्रयी का समापन था. यह इस कड़ी का तीसरा नाटक था. त्रयी के मूल में भी यही कथानक था; सृष्टि और काल के पौराणिक उद्भव के रूप में द्वंद्व. मंच पर दो देहों के मेल से मुक्त होती सघन शक्ति और एक-दूसरे के द्वारा पड़पीड़क उपभोग, अंत में दोनों को नष्ट कर देता है.

नाटक एनकोर की मंच अभियांत्रिकी और प्रकाश व्यवस्था कमाल की थी. यह नाटक यह दिखाता है कि रिश्ता चाहे कितना ही प्रेमपूर्ण क्यों न हो एक दिन उसमें खटास आ ही जाती है और एक वक़्त आते-आते वह प्रेम घुटन का कारण बनने लगता है. एक परजीवी की तरह आपके ही शरीर में रहकर आपका खून चूसने लगता है. निर्देशक के अनुसार – एनकोर के साथ, हम उन मंच-यंत्रों का अध्ययन जारी रखते हैं, जो कि अपने सौन्दर्यबोधक कौशल और वृत्तियों से परे, मंच पर देहों के मिलन की सामर्थ्य में वृद्धि करते हैं. भावातिरेक (आवेश), वंश, कामनाएं और शब्द एक रंगमंचीय देह में एकाकार हो जाते हैं, जो एटिस थिएटर की डायनिसियाई परंपरा से उत्पन्न होती है.

एनकोर में देहों को निडरता के साथ ‘ईरोस’ और और थानाटोस को मिलाने के अपने प्रयास में, शाश्वत रूप में, देहें एक-दूसरे को आपस में फंसाती हैं, भ्रमित करती हैं और निगल जाती हैं. प्रारंभ में यह असीम प्रेम एक दूसरे के पड़पीड़न का कारण बनता है और फिर एक-दूसरे को पारस्परिक विनाश की ओर ले जाता है, हालांकि इसका परिणाम एक नई, ‘दूसरी देह’ के उनके तत्वांतरण में होता है.

अपने संयुक्त होने के प्रयासों में घुटते हुए, शब्दों को ऊर्जात्मक रूप से आवेशित एक देह के माध्यम से, आंतराग में संकेतित किया गया है, जो तरंगित होती है, और सांस के माध्यम से उन ध्वनियों को उत्पन्न करती है, जो संयोग से, अर्थपूर्ण भाषा-उच्चारणों से पूर्ण होती है.

चरम आनंद में देह तार्किक ढंग से कार्य करना बंद कर देती है क्योंकि संस्कृति पूर्व परिस्थितियों और देह के जैविक मूल तक पकड़ बनाते हुए, रूढ़िगत, गतिवान और भाषाई मनोवृत्तियों द्वारा यह स्वायत्त हो जाती है. यह देहों एवं वाणी की खपत है. देहें अंतर्गुन्थित हैं और द्वंद्व के जरिए ‘दूसरे’ की भूख के सौन्दर्य की रचना करते हुए, निरंतर एक अतिशय भूखे, मानवभक्षीय सम्बन्ध का प्रतिनिधित्व करती है.

मंच पर अभिनेत्री सोफ़िया हिल और अभिनेता अन्तोनिस मिरियाग्कोस पर ही पूरी स्तब्धता के साथ लोगों की आँखें टिकी हुई थी. मंच पर प्रकाश का करिश्माई प्रभाव पैदा कर रहे थे थ्योदोरोस तेरज़ोपॉलस और कांस्तैन्तिनोस बेथानिस. मानवीय संबंधों के छिद्रान्वेषण पर आधारित यह कविता थॉमस सैलापैटिस की थी जिसे मंच पर जीवंत कर दिया था निर्देशक थ्योदोरोस तेरज़ोपॉलस के कुशल निर्देशन ने.

7.

उन्नीसवें भारत रंग महोत्सव का एक महत्वपूर्ण नाटक था ‘अ स्ट्रेंजर गेस्ट’ जिसका निर्देशन किया था इज़रायल की युवा निर्देशक वेरा बर्ज़ाक श्नाइडर ने. यह नाटक मॉरिस मैतरलिंक के नाटक ‘दि इंट्रयुडर’ से प्रेरित एक दृश्यात्मक प्रस्तुति है. यह कहानी है एक ऐसे परिवार के घर की एक शाम की जिसमें एक माँ बीमार पड़ी है और उसकी दो बेटियाँ अपने पिता के साथ चिंतामग्न हैं. डॉक्टर यह कह कर जाता है कि उसकी स्थिति अब बेहतर हो रही है फिर भी घर का वातावरण कुछ और ही संकेत करता दिखाई देता है, पूरे घर में मृत्यु के संकेत दृष्टिगोचर हो रहे हैं, घर मृत्युगंध से भर जाता है, पिता और दोनों पुत्रियों को मृत्यु की पदचाप सुनाई देती है और वहां उस माँ के और उस पूरे परिवार के भाग्य से सम्बंधित एक रहस्य का भाव भी मौजूद है. परिवार के सदस्य मौसी के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं. इस विशेष शाम को कुछ विचित्र और असामान्य-सा घट रहा है. हर चरित्र अलग-अलग तरीके से इसका अनुभव लेता है और शाम के दौरान एक भिन्न बिंदु पर कोई व्यक्ति या कोई चीज़ घर की ओर आ रही है और इसके पास आने का एहसास और उसकी अदृश्य उपस्थिति उनलोगों को उत्तरोत्तर बेचैनी का आभास करा रही है. दरअसल यह नाटक एक दुखप्रद सामान्य स्थिति और हमसे अभिन्नता से जुड़े व्यक्ति की बीमारी के बारे में है. नाटक परिवार के सदस्यों के भीतरी संसार में झांकता है. भावनात्मक स्थिति और अंतर्द्वंद्व जिनसे वे गुज़र रहे हैं और साथ ही साथ उनके मध्य के सम्बन्ध खोने के उस भय से हर कोई किस तरह जूझता है…कौन हठपूर्वक आशाओं से चिपका पड़ा है और कौन अधिक यथार्थवादी है, कौन-सी स्मृतियाँ उनके मस्तिष्कों में  रही हैं. मुद्राओं, गतियों, प्रकाश, ध्वनि और साथ ही साथ पाठ के माध्यम से निर्देशक ने इन भावनाओं और तीन अलग-अलग व्यक्तियों के माध्यमों से तीन प्रकार के मनोविश्लेषणों को समझने और व्याख्यायित करने का एक ईमानदार और प्रामाणिक प्रयास अभिनेताओं और निर्देशक ने किया है. इस नाटक का सेट से लेकर साइलेंस तक शानदार था. एक ऐसी चुप्पी तारी थी प्रस्तुति के दौरान कि नाटक ख़त्म होने तक पूरी दर्शक दीर्घा में मौत की सी मनहूसियत और मातमी सन्नाटा छा गया था, यहाँ तक कि दर्शक स्तब्ध थे और मृत्युगंध और उस अदृश्य उपस्थिति को महसूस करते हुए मृत्युबोध से भर गए थे और यह एहसास इतना हावी था कि नाटक ख़त्म होने पर दर्शक ताली बजाना तक भूल गए थे. मंच पर अमिचई पार्दो, शाकेद सबग और हदस वीसमैन ने शानदार अभिनय किया. अलेक्सांद्र  एल्हारर के प्रकाश-परिकल्पना और अलेक्सांद्र नोहाम के प्रकाश संचालन ने इस सायकोलोजिकल हॉरर को सस्पेंस से भर दिया था. और ध्वनि अभिकल्पना देखिये ज़रा कि रसोई के नल से पानी की एक बूँद के निरंतर टपकने से इस सस्पेंस में एक अजीब सा हॉरर भर दिया था ध्वनि अभिकल्पक ओसिफ़ उन्गेर ने.

 
      

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