कुफ़्र कुछ हुआ चाहिये
यहाँ एक नदी बहती थी अब रेगिस्तान है
गौर से देखिये ये नदी का कब्रिस्तान है- कुछ ऐसी शायरी करने वाले और हम सबको फूटी आँख न सुहाने वाले श्री कमलकांत “हमसफ़र” चल बसे महज पचपन बरस के थे तमाखू ने मार ही डाला आखिरकार – हम तो यूं भी दुनिया तक से दफ़ा कर ही देना चाहते थे सब रेगिस्तान कब्रिस्तान वालों को.
आख़िरी ख़्वाहिश की कद्र जैसे-तैसे करते हुए मुक्तिबोध सम्मान, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार और बिड़ला फाउन्डेशन से सम्मानित शहर के सबसे बड़े कवि हमसफ़र के पुराने चायकचौड़ीमित्र भद्रकुमार सिंह आये बोले एक जिंदादिल खुले भरे पूरे मनुष्य थे ठेठ देसी ठाठ वाली ऐसी मनुष्यता का पराभव हमारे समय और मेरी कविता की सबसे बड़ी चिंता और चुनौती है मैं उनकी आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना करता हूँ मैं ना सही वे तो मेरे ख़याल से करते ही थे आत्मा आदि में विश्वास
हमसफ़रजी के सिरहाने पिछली कई रातों से रोते रहे उनके अभिन्न अख़्तर अली ‘बेनूर’ ने कहा तू सच कहता था मेरे हमसफ़र यहाँ एक नदी बहती थी अब रेगिस्तान है ग़ौर से देखिये ये नदी का कब्रिस्तान है
2.
अस्पृश्यता
(पीयूष दईया के लिये)
छूना मना है लिखा था परसबावरी निरच्छर उंगलियाँ लेकिन छू आयी उसे – उंगलियों पर अच्छर चिपके हैं परस छूट गया है वहीं जहाँ थी लिखावट
परस को घर मिल गया
बाँचती हैं उंगलियाँ कि अब उन्हें छूना मना है
3.
बाणभट्ट ना हुआ कीजिये सब संतन से डरा कीजिये
सुनो निउनिया उस कवि बाण से उस अंड बंड से डरा करो, अपने विगत से डरा करो, जिसने लिखी कथा तुम्हारी उस निर्लज्ज से डरा करो पान रगड़ते पान बेचते बच कर सबसे रहा करो हर रसिक से डरा करो
मन अभिनेता जो ना कराये अपने अभिनय से डरा करो उस कवि बाण से उस अंड बंड से डरा करो.
बात कहने का अनोखा अंदाज़ ……………लगता है कविता कोई करवट बदल रही है !
बहुत क्रांतिकारी बद्लाव आया है लिखने के मुहावरे में..कविताएं पढते हुए उदयन वाजपेयी और नवनीता सेन का स्मरण हो आया..अच्छी लगी गिरिराजिय कविताएं
behad achchhi rachnaen…
achchaa lagee rachanaayen