शिव कृष्ण बिस्सा मशहूर शायर शीन काफ निजाम के नाम से जाने जाते हैं. सूफियाना अंदाज़ के इस शायर की कुछ गज़लें प्रस्तुत हैं- जानकी पुल.
1.
पहले ज़मीन बांटी थी फिर घर भी बंट गया
इंसान अपने आप में कितना सिमट गया.
अब क्या हुआ कि खुद को मैं पहचानता नहीं
मुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छंट गया
हम मुन्तजिर थे शाम से सूरज के दोस्तों
लेकिन वो आया सर पे तो कद अपना घट गया
गांव को छोड़कर तो चले आए शहर में
जाएँ किधर कि शहर से भी जी उचट गया
किससे पनाह मांगें कहाँ जाएँ, क्या करें
फिर आफताब रात का घूंघट उलट गया
सैलाबे-नूर में जो रहा मुझसे दूर-दूर
वो शख्स फिर अँधेरे में मुझसे लिपट गया.
छत लिखते हैं दर दरवाज़े लिखते हैं
हम भी किस्से कैसे-कैसे लिखते हैं.
पेशानी पर, बैठे सजदे लिखते हैं
सारे रस्ते तेरे घर के लिखते हैं.
जबसे तुमको देखा हमने ख़्वाबों में
अक्षर तुमसे मिलते-जुलते लिखते हैं.
कोई इनको समझे तो कैसे समझे
हम लफ्जों में तेरे लहजे लिखते हैं.
छोटी-सी ख्वाहिश है पूरी कब होगी
वैसे लिखें जैसे बच्चे लिखते हैं.
फुर्सत किसको है जों परखे इनको भी
मानी हम ज़ख्मों से गहरे लिखते हैं.
3.
मौजे-हवा तो अबके अजब काम कर गई
उड़ते हुए परिंदों के पर भी कतर गई.
निकले कभी न घर से मगर इसके बावजूद
अपनी तमाम उम्र सफर में निकल गई.
आँखें कहीं, दिमाग कहीं, दस्तो-पा कहीं
रस्तों की भीड़-भाड़ में दुनिया बिखर गई.
कुछ लोग धूप पीते हैं साहिल पे लेटकर
तूफ़ान तक अगर कभी इसकी खबर गई.
देखा उन्हें तो देखने से जी नहीं भरा,
और आँख है कि कितने ही ख़्वाबों से भर गई.
मौजे-हवा ने चुपके से कानों में क्या कहा
कुछ तो है क्यूँ पहाड़ से नद्दी उतर गई.
सूरज समझ सका न उसे उम्र भर निजाम
तहरीर रेत पर जो हवा छोड़ कर गई.
4.
आँखों में रात ख्वाब का खंज़र उतर गया
यानी सहर से पहले चिरागे-सहर गया.
इस फ़िक्र में ही अपनी तो गुजरी तमाम उम्र
मैं उसकी था पसंद तो क्यों छोड़ के गया.
आंसू मिरे तो मेरे ही दामन में आए थे
आकाश कैसे इतने सितारों से भर गया.
कोई दुआ हमारी कभी तो कुबूल कर
वर्ना कहेंगे लोग दुआ से असर गया.
पिछले बरस हवेली हमारी खंडर हुई
बरसा जो अबके अब्र तो समझो खंडर गया.
मैं पूछता हूँ तुझको ज़रूरत थी क्या निजाम
तू क्यूँ चिराग ले के अँधेरे के घर गया.
5.
वो कहाँ चश्मे-तर में रहते हैं
ख़्वाब ख़ुशबू के घर में रहते हैं
ख़्वाब ख़ुशबू के घर में रहते हैं
शहर का हाल जा के उनसे पूछ
हम तो अक्सर सफ़र में रहते हैं
हम तो अक्सर सफ़र में रहते हैं
मौसमों के मकान सूने हैं
लोग दीवारो-दर में रहते हैं
लोग दीवारो-दर में रहते हैं
अक्स हैं उनके आस्मानों पर
चाँद तारे तो घर में रहते हैं
चाँद तारे तो घर में रहते हैं
हमने देखा है दोस्तों को ‘निज़ाम’
दुश्मनों के असर में रहते हैं
दुश्मनों के असर में रहते हैं
छत लिखते हैं दर दरवाज़े लिखते हैं
हम भी किस्से कैसे कैसे लिखते हैं
कोई दुआ हमारी कभी तो कबूल कर
वर्ना लोग कहेंगे दुआओं का असर गया
वाह! निज़ाम साहब क्या असरवाले शेर कहे हैं..प्रभात जी! आभार जानकी पुल का हमारे अज़ीज़ निज़ाम साहब से यहां ऎसे रुबरु कराने के लिए
Bahut hi pasand aaya. Hamesha aapke post ka intajar rahega.