आज महावीर जयंती है. उनके बारे में ओशो के विचार प्रस्तुत हैं- मॉडरेटर
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महावीर के जन्म से लेकर उनके साधना के शुरू होने के काल तक कोई स्पष्ट घटनाओं का उल्लेख उपलब्ध नहीं है. ये बड़ी महत्वपूर्ण बात है. जीसस के जीवन के भी शुरुआती तीस वर्षो का कोई ज़िक्र नहीं है. इसके पीछे बड़ा महत्वपूर्ण कारण है. महावीर जैसी आत्मायें अपनी यात्रा पिछले जन्म में ही पूरी कर चुकी होती हैं. बिगनिंग का समय पिछले जन्म में ही पूरा हो चूका होता है. इस जनम में उनकी आने की जो इस संसार आने की प्रेरणा है उसमें उनकी अपनी कोई वासना नहीं है. सिर्फ़ करुणा कारण है. जो उन्होंने जाना है उसे बाँटने के अतिरिक्त उनके पास कोई उद्देश्य नहीं है. वास्तव में तीर्थंकर का यही अर्थ है, वह आत्मा जो राह दिखने को पैदा हुई है. साधारण आत्मा तीर्थंकर नहीं हो सकती क्योंकि जो स्वयं मार्ग खोज रहा हो वह मार्ग नहीं दिखा सकता क्योंकि मार्ग क्या है पूरा यह मंज़िल पर पहुँच कर ही पता चलता है. मंज़िल पर पहुँच जाना इतना कठिन नहीं है जितना मंज़िल पे पहुँच के मार्ग पे वापस लौटना। ऐसी आत्मायें जो मंज़िल पे पहुँच के अँधेरे मार्ग पे लौट आती हैं तीर्थंकर कहलाती हैं. तीर्थंकर का अर्थ है वह मल्लाह जो घाट से पार होने का रास्ता बता सके.
सच में जो विशिष्ट होता है उसका प्रारंभिक जीवन घटना शून्य होता है. इसलिए क्योंकि वह लौटा है औरों के लिए, अपने लिए नहीं. उसके बढ़ने की कोई घटना नहीं होती, बस वह चुपचाप बढ़ता चलता जाता है. चारों तरफ़ चुप्पी होती है और वह बड़ा होता जाता है. उस क्षण की प्रतीक्षा में जो वो देने आया है वह दे दे. मेरी दृष्टि में उनको वर्धमान नाम ही इसलिए मिला कि जो चुपचाप बढ़ने लगा. जिसके आस-पास कोई घटना ही न घटी. यानी जिसका बढ़ना इतना चुपचाप था जैसे पौधे चुपचाप बड़े होते हैं, कलियाँ फूल बनती है. कहीं कोई शोर नहीं होता. ऐसा जीवन जिसके आस-पास समय में, क्षेत्र में घटनाओ का कोई वर्तुल न बनता हो, अनूठा ही हो सकता है. इसलिए शिक्षक पढ़ाने आये तो उसने मना कर दिया और शिक्षकों ने भी पाया कि जो पढ़ाया जा सकता है वह उसे पहले से ज्ञात है.
दूसरी बात ध्यान में रख लेने जैसी है, अर्थपूर्ण है. जो मिथ, जो कहानी है वह तो ये है कि वे ब्राह्मणी के गर्भ में थे और देवताओ ने गर्भ बदल कर क्षत्रिय गर्भ में पहुँचा दिया. मेरी नज़र में महावीर का पथ जीतने वाले का यानी क्षत्रिय का था. इसलिए वो जिन कहलाये अर्थात जीतने वाला, इसलिए पूरी परंपरा जैन हो गयी. कहानी ये कहती है कि महावीर का व्यक्तित्व ही ब्राह्मण का नहीं है इसलिए देवताओ को गर्भ बदलना पड़ा क्योंकि उनका व्यक्त्तिव माँगने का, भिक्षा का नहीं बल्कि जीतने वाले का है.
महावीर अपने आप में इतने पूर्ण थे कि संन्यास के लिए भी पिता से आज्ञा माँगी. संन्यास के लिए भी कभी आज्ञाएं दी गयी हैं? जैसे कोई आत्महत्या के लिए अनुमति माँगे, क्या इसके लिए भी कोई पिता आज्ञा देगा, ये बड़ी अद्भुत बात है. संन्यास का तो अर्थ ही है कि जिसने मोह बन्धन त्याग दिए पर महवीर ने आज्ञा माँगी. इससे भी बड़ी अद्भुत बात ये हुई कि पिता ने कहा “मेरे जीवित रहते तो तुम संन्यास नहीं लोगे” और महावीर राजी भी हो गए. यानी वे स्वयं में इतने पूर्ण थे कि तन संन्यासी न भी रहे तो मन से थे इसलिए पिता के मरने तक संन्यास नहीं लिया. पिता के अंतिम संस्कार से लौटते हुए रास्ते में ही अपने भाई से संन्यास की आज्ञा माँगी. भाई ने भी आज्ञा नहीं दी और महावीर फिर रुक गए पर परिवार वालों ने पाया कि महावीर तो जैसे भवन में थे ही नहीं केवल तन ही था. इसलिए कुटुंब ने उन्हें जाने की इजाज़त दे ही दी.
यहाँ मुझे एक कहानी याद आती है. एक बार एक नगर के बाहर एक नंग मुनि ठहरे हुए थे. राजा की अनेक रानियों ने उन्हें भोजन कराने की सोची. कई तरह के पकवान बना वे जाने को उद्यत हुईं तो देखा कि नदी पूर पर थी. पार जाएं तो जाएं कैसे. राजा ने कहा कि नदी से कहना कि यदि मुनि जीवन भर के उपासे हैं तो हमें मार्ग दे दो, मार्ग मिल जायेगा. रानियों ने यही किया और आश्चर्य कि नदी ने मार्ग दे दिया. मुनि के पास जा के उन्हें सब पकवान खिला जब वे लौटने को हुई तो मुश्किल में पड़ गयीं. आते वक़्त तो नदी ने मार्ग दे दिया था पर अब तो मुनि खा चुके और उपासे नहीं रहे अब नदी से क्या कहेंगी. उन्होंने मुनि से पूछा तो मुनि ने कहा कि वही कहना मार्ग मिल जायेगा. रानियों ने नदी से कहा और हैरत की बात कि नदी ने फिर मार्ग दे दिया. राजा के पास आ रानियों ने प्रश्न किया कि जब यहाँ से गयीं थी तो चमत्कार हुआ पर लौटीं तो पहले वाला चमत्कार छोटा पड़ गया. सब हमारे सामने खा लेने पर भी मुनि उपासे कैसे हुए? राजा ने कहा कि भोजन से उपवास का कोई सम्बन्ध ही नहीं. असल में भोजन करने की तृष्णा एक बात है और भोजन करने की ज़रूरत बिलकुल दूसरी बात है. भोजन करने की तृष्णा भोजन करने पर भी हो सकती है और भोजन न करने पर भी तृष्णा न हो. यहाँ भेद तृष्णा और आवश्यकता का है. जब तृष्णा की डोर टूट जाती है तो केवल ज़रूरत रह जाती है शरीर की, तो आदमी उपवासा है. ख़ुद कभी भी उसने भोजन नहीं किया वह केवल शरीर ने किया.
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