साहित्य में क्रांति-क्रांति करने वाले हिन्दी लेखक अक्सर सामाजिक क्रांतियों से दूर ही रहते आए हैं। आज ‘प्रभात खबर’ में प्रकाशित मेरा लेख- प्रभात रंजन
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‘वह (साहित्य) देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है’– प्रेमचंद द्वारा 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में कहे गए इस वाक्य को हिन्दी लेखक ब्रह्मवाक्य की तरह देखते रहे हैं। स्वयं प्रेमचंद के लेखन विशेषकर उनके उपन्यासों को स्वाधीनता संग्राम से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। यहाँ तक कि उस दौर में प्रेमचंद की सामाजिकता से सर्वथा विपरीत समझे जाने वाले लेखक जयशंकर प्रसाद की कहानियों, उनके नाटकों, उनकी अनेक कविताओं को स्वाधीनता संग्राम से अलगा कर नहीं देखा जा सकता है। यह बात अलग है कि उनके साहित्य में वह राजनीति जरा सूक्ष्म रूप में आया है।
हिन्दी में एक तरह से आधुनिक गद्य, कविता का व्यवस्थित रूप से लेखन 20 वीं शताब्दी में ही आरंभ हुआ और यह कहते हुए अक्सर गर्व का अनुभव होता रहा है कि हिन्दी साहित्य के केंद्र में आरंभ से आम आदमी, उसकी मशक्कत रही है, उसका समाज रहा है। इसका खास तौर पर इसलिए आजकल ध्यान आ रहा है कि ऐसे समय में जब आम आदमी राजनीति और पत्रकारिता के केंद्र में है हिन्दी साहित्य के केंद्र से खिसककर वह कहाँ खिसक गया है? नयी शताब्दी में हिन्दी साहित्य के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि अपने समाज से उसका रिश्ता किस तरह का रह गया है?
हिन्दी साहित्य के संदर्भ में यह सवाल और गहरा हो जाता है क्योंकि हिन्दी में लंबे समय तक सामाजिक यथार्थ को साहित्य की श्रेष्ठता का पैमाना माना जाता रहा है। आजादी के बाद साहित्य में जितने भी आंदोलन हुए उनके केंद्र में आम आदमी और उसका समाज रहा है। पहले अज्ञेय और बाद में निर्मल वर्मा के लेखन में इसी के अभाव को ढूंढा गया और उनको एक तरह से हिन्दी के ‘विलेन’ लेखकों के रूप में बताने की कोशिश की जाती रही। कहने का मतलब है कि आजादी के बाद भी सामाजिक सरोकार, जनपक्षधरता जैसे पद श्रेष्ठता के मानक माने जाते रहे हैं। हिन्दी के बारे में एक विद्वान कुछ विनोद में अक्सर यह कहते रहे हैं कि हिन्दी को खड़ी बोली हिन्दी कहा ही इसलिए जाता है क्योंकि यह हमेशा से सत्ता के विरोध में खड़ी रही है। सामाजिक आंदोलनों के दौरान कई बार इसने वास्तव में राजनीति के आगे चलने वाली मशाल की भूमिका निभाई। सन 1974 के जेपी आंदोलन का उदाहरण इस संदर्भ में लिया जा सकता है।
इस आंदोलन के दौरान दिनकर की कविताओं का रचनात्मक उपयोग किया गया। ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ या ‘सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है/ भावी इतिहास तुम्हारा है’ जैसी कविताएं ऐसा लगता था जैसे कि ‘सम्पूर्ण क्रांति’ आंदोलन के लिए ही लिखी गई थी। पटना में जब जयप्रकाश नारायण पर लाठी चार्ज हुआ था तो प्रसिद्ध लेखक धर्मवीर भारती ने कविता लिखी थी- ‘यह सड़क बादशाह ने बनवाई है’। फणीश्वरनाथ रेणु समेत कई लेखकों ने इस आंदोलन में खुलकर हिस्सा लिया था। हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इस आंदोलन के बाद सरकार ने जब इमरजेंसी लगाई तो उसके खिलाफ हिन्दी के लेखकों-कवियों ने कुछ भी ऐसा नहीं लिखा जिसे याद किया जा सके।
1990 के बाद के आर्थिक उदारीकरण एक दौर में बाजारवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ कविताएं, कहानियाँ, उपन्यास अनेक लिखे गए लेकिन यह भी अजीब विडम्बना है कि इसी दौर में हिन्दी साहित्य अपने समाज से भी दूर होता गया। समाज में तेजी से हो रहे बदलावों के वह दूर होता गया, गांवों-कस्बों से वह दूर होता गया। हिन्दी के युगांतकारी लेखक प्रेमचंद ने जिस साहित्य से राजनीति से आगे चलने वाली मशाल होने की कामना की थी वह अपने समय की राजनीति से कटता गए, उस समाज से कटता गया जहां ये राजनीतिक परिवर्तन घटित हो रहे थे। यह एक अजीब विडम्बना लगती है कि हिन्दी साहित्य में ‘पोलिटिकली करेक्ट’ होने की आकांक्षा बढ़ी है, लेकिन वह अपने समय की परिवर्तनकारी राजनीति की आहट को समझने में असफल रही है। स्त्री विमर्श, सांप्रदायिकता, बाजारवाद का विरोध जैसे कुछ विषयों के इर्द-गिर्द सफलता के फॉर्मूले गढ़े जाते रहे। साहित्य राजनीति के आगे चलने के बजाय उसके पीछे चलने लगा। समकालीन राजनीति ने जो मुहावरे गढ़े साहित्य में उसकी अभिव्यक्ति दिखाई देने लगी।
सच में अगर देखें तो समकालीन हिन्दी साहित्य मध्यवर्गीय लेखन बनकर रह गया है। आज अधिकांश लेखक एक तरह का मध्यवर्गीय जीवन जीते हैं, मध्यर्गीय सुख-सुविधाओं के बीच राजनीति के नाम पर अपने लेखन में एक तरह की यथास्थितिवाद को जगह देते हैं। वास्तव में नई शताब्दी के हिन्दी साहित्य की कि अगर एक विशेषता देखी जाये तो वह उसका समाज विमुख होते जाना है। क्या यह मगर इत्तेफाक है कि पिछले करीब दो सालों के दौरान समाज में परिवर्तनकारी राजनीति की इतनी बड़ी भूमिका तैयार होती रही और हिन्दी साहित्य में उसकी आहट तक नहीं सुनाई देती है? यह भी एक विरोधाभास है कि इस दौरान हिन्दी साहित्य की व्याप्ति पहले से बढ़ी है,ब्लॉग-वेबसाइटों के माध्यम से हिन्दी साहित्य बड़े पाठक समाज से जुड़ा है, लेकिन इसी दौरान वह अपनी सामाजिक जमीन से कटता गया है जो किसी जमाने में उसकी ऊर्वर भूमि रही है।
हिन्दी की सबसे बड़ी विशिष्टता उसकी सामाजिकता ही मानी जाती रही है। उसकी प्रासंगिकता का यह बहुत बड़ा कारण रही है। अपने समाज से कटा साहित्य हो सकता है बाजार, लोकप्रियता के मानकों पर बेहतर साबित होता हो लेकिन जमीन के अभाव में वह अधिक समय तक ठहर नहीं पाते। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि साहित्य में लोकरुचियों,लोकरंजन के लिए भी स्पेस होना चाहिए, लेकिन जिस साहित्य में लोक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति नहीं होती है वह अपने समाज का प्रतिनिधि साहित्य नहीं हो सकता, अपने समय की राजनीति को दिशा नहीं दिखा सकता।
सुंदर आलेख !
भाई प्रभात रंजन का यह है अपने समय का सच उगलता हुआ आलेख(कल बीते अगस्त की अहा ज़िंदगी के अंक में चंद्रकांत देवताले जी का एक इंटरव्यू पढ़ा वे कहते हैं 'अब इस नयी सदी में आदमी होने की जगह कम होती जा रही है और ग्राहक या दर्शक होने जगह फैलती जा रही हैं.)
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