युवा कवि देवेश पथ सारिया का कविता संग्रह ‘नूह की नाव‘ प्रकाशन के बाद से ही लगातार चर्चा में है। उसी संग्रह से कुछ कविताएँ पढ़िए–
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तारबंदी
जालियों के छेद
इतने बड़े तो हों ही
कि एक ओर की ज़मीन में उगी
घास का दूसरा सिरा
छेद से पार होकर
सांस ले सके
दूजी हवा में
तारों की
इतनी भर रखना ऊंचाई
कि हिबिस्कुस के फूल गिराते रहें
परागकण, दोनों की ज़मीन पर
ठीक है,
तुम अलग हो
पर ख़ून बहाने के बारे में सोचना भी मत
बल्कि अगर चोटिल दिखे कोई
उस ओर भी
तो देर न करना
रूई का बण्डल और मरहम
उसकी तरफ फेंकने में
बहुत कसकर मत बांधना तारों को
यदि खोलना पड़े उन्हें कभी
तो किसी के चोट न लगे
गांठों की जकड़न सुलझाते हुए
दोनों सरहदों के बीच
‘नो मेन्स लैंड‘ की बनिस्बत
बनाना ‘एवेरीवंस लैंड‘
और बढ़ाते जाना उसका दायरा
धर्म में मत बांधना ईश्वर को
नेकनीयत को मान लेना रब
भेजना सकारात्मक तरंगों के तोहफे
बाज़वक़्त
तारबंदी के आरपार
आवाजाही करती रहने पाएं
सबसे नर्म दुआएं ।
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मॉस्को की लड़की
मॉस्को में एक लड़की से
मेट्रो रेल की आपाधापी में
छू गया था मेरा पैर
जैसी कि आदत डाली गयी है
‘लड़कियों से पैर नही छुआते‘
तत्क्षण, उसके साथ से अपनी हथेली छुआकर
माथे से लगा ली थी मैंने
यह बस अपने आप हुआ,
एक आदत के तहत
सोच सकने से भी पहले
बहरहाल, अब सोचता हूँ
उसके देश में क्या ऐसा करता होगा कोई
वह मुझे अजीब समझती होगी
या शायद अवसरवादी बदनीयत
ना उसे मेरी भाषा आती थी
ना ही मैं रूसी जानता था
तो हम दोनो मौन रहे
बस इतना याद है
वह मुझ पर हँसी नही थी
और अपना स्टेशन आने तक
देखती रही थी मुझे।
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प्रेम को झुर्रियां नहीं आतीं
बुढ़िया ने गोद में रखा
अपने बुड्ढे का सर
और मालिश करने लगी
सर के उस हिस्से में भी जहां से
बरसों पहले विदा ले चुके थे बाल
दोनों को याद आया
कि शैतान बच्चे टकला कहते हैं बुड्ढे को
और मन ही मन टिकोला मारना चाहते हैं
उसके गंजे सर पर
दोनों हँसे अपने बचे हुए दांत दिखाते हुए
बुढ़िया ने हँसते हुए टिकाना चाहा
(जितना वह झुक पाई)
झुर्रियों भरा अपना गाल बुड्ढे के माथे पर
बैलगाड़ी के एक बहुत पुराने पहिए ने
याददाश्त संभालते हुए गर्व से बताया –
“मैं ही लेकर आया था इनकी बारात” ।
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क्रय शक्ति
दुनिया के सबसे अमीर आदमी की
क्रय–शक्ति की भी
एक अधिकतम सीमा होती है
जिसके बाद कोई फ़र्क़ नहीं रह जाता
उसमें और मुझमें
एक सीमा के बाद वह नहीं खरीद सकता
एक समय का राशन तक
यह जानकर, मुझे पर्याप्त लगा
अपनी जेब में पड़ा सौ रुपए का नोट।
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सबसे ख़ुश दो लोग
लड़के और लड़की की
अपने–अपने घरों में
इतनी भी नहीं चलती थी
कि पर्दों का रंग चुनने तक में
उनकी राय ली जाती
उनकी ज़ेबों की हालत ऐसी थी
कि आधी–आधी बांटते थे पाव भाजी
अतिरिक्त पाव के बारे में सोच भी नहीं सकते थे
अभिजात्य सपने देखने के मामले में
बहुत संकरी थी
उनकी पुतलियां
फिर भी
वे शहर के
सबसे ख़ुश दो लोग थे
क्योंकि वे
घास के एक विस्तृत मैदान में
धूप सेंकते हुए
आँखों पर किताब की ओट कर
कह सकते थे
कि उन्हें प्रेम है एक–दूसरे से।
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