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आज राहुल सांकृत्यायन को याद करने का दिन है

आज महापंडित राहुल सांकृत्यायन की 125 वीं जयंती है. उन्होंने 148 किताबें लिखीं, दुनिया भर में घूमते रहे, बौद्ध धर्म सम्बन्धी अनेक दुर्लभ पांडुलिपियाँ लेकर भारत आये. वे इंसान नहीं मिशन थे. आज उनके मिशन, उनके विचारों को याद करने का दिन है. प्रसिद्ध विद्वान सुधीश पचौरी का यह लेख आज के ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में आया है. साभार आपके लिए- मॉडरेटर

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यह बरस महापंडित राहुल सांकृत्यायन का 125वां जयंती वर्ष है। 1893 में आज के दिन अपने ननिहाल, ग्राम पंदहा, आजमगढ़ में उनका जन्म हुआ था। वह 70 बरस तक जिए। 148 पुस्तकें लिखीं, मार्क्सवाद तक वैचारिक यात्रा की, संस्कृत, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी, पाली, प्राकृत पर अबाध पांडित्य रहा। राष्ट्रभाषा कोश तैयार किया। तिब्बती-हिंदी कोश तैयार किया। बौद्ध धर्म संबंधी अनके दुर्लभ पांडुलिपियां खच्चरों पर लादकर लाए और श्रीलंका के विद्यालंकार में दान दी बहुत पांडुलिपियां पटना विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में रखीं। पैसे की परवाह न की। दुनिया भर घूमे और घुमक्कड़ाचार्य कहलाए। घुमक्कड़ शास्त्र जैसा नायाब ग्रंथ लिखा। कहानियां, उपन्यास लिखे। बाईसवीं सदी अगर भविष्यमूलक कहानी है, तोवोल्गा से गंगा  मानव इतिहास के छह हजार वर्षों के अतीत की कथा है। क्या करें?, भागो नहीं, दुनिया को बदलो, साम्यवाद ही क्यों?, तुम्हारी क्षय, कम्युनिस्ट क्या चाहते हैं?, रामराज्य और माक्र्सवाद  जैसी प्रसिद्ध विचारपरक पुस्तकें लिखीं, जिनको पढ़-पढ़कर न जाने कितने युवा माक्र्सवाद की ओर आकृष्ट हुए।

राहुल सांकृत्यायन ने बौद्ध धर्म के अनेक ग्रंथ न केवल मूल रूप में रक्षित किए, बल्कि त्रिपिटक  की टीका लिखकर त्रिपिटकाचार्य कहलाए। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में इनका नाम त्रिपिटकाचार्य के रूप में बड़े आदर से लिया है। सांकृत्यायन ने सरहपा के दोहों का छायानुवाद प्रकाशित किया, जिससे हिंदी साहित्य के आदिकाल का स्वरूप बदल गया। हिंदी साहित्य का वृहद् इतिहास (भाग सोलह) का संपादन, इस्लाम धर्म की रूपरेखा, ऋग्वैदिक आर्यों के बारे में लिखा। हिमालय मानो उनका घर-आंगन बन गया। नेहरू तक उनके प्रशंसक रहे। राजनीतिक आंदोलन किए, जेल गए। कम्युनिस्ट बने, नाम कमाया, लेकिन अपने विचारों के लिए अपनी प्रिय कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़ने से भी न हिचके।

एक ऐसा आदमी, जो किसी एक जगह नहीं टिकता। नए-नए ज्ञान की भूख उसे दुनिया भर में चक्कर लगवाती है। निरंतर अस्थिरता में भी उसकी कलम एक पल नहीं रुकती। वह लेखक नहीं थे, सचमुच के लिक्खाड़ थे। रेनेसां कालीन लेखकों की तरह बहुज्ञ और कर्मठ। तब लोग उनको विश्वकोशीय प्रतिभा का धनी मानते थे। आज भी उनके जोड़ का कोई नहीं है। पुरातत्व से आधुनिकता तक के ज्ञान से संवलित मेधा, बेधड़क, दोटूक और कुशाग्र रचनाशील और उतने ही कल्पनाशील। आज अगर हिंदी क्षेत्र और बिहार में खासकर कम्युनिस्ट विचारधारा का जो कुछ प्रभाव बचा हुआ है, उसमें कहीं न कहीं सांकृत्यायन की भागो नहीं, दुनिया को बदलो  से लेकर उनकी तमाम किताबों का बहुत बड़ा हाथ है।

इतनी प्रतिभा अपने शत्रु साथ लाती है, सांकृत्यायन के भी थे। कम्युनिस्टों के सबसे अच्छे शत्रु कम्युनिस्टों में ही होते हैं, इसलिए उन्हें भी यहीं मिले। उनसे जुड़ा एक प्रसंग अक्सर छोड़ दिया जाता है, पर अब भी मौजूं है।

राहुल सांकृत्यायन बहुत पहले बिहार साहित्य सम्मेलन के लिए लिपि संबंधी सवालों को उठा चुके थे और अपनी समझ के अनुसार हिंदी के लिए नागरी की जगह रोमन लिपि की वकालत कर रक्षात्मक हो चुके थे। बाद में उन्होंने हिंदी के लिए रोमन लिपि के आग्रह को स्वयं ही निरस्त कर दिया था। हिंदी साहित्य सम्मेलन वालों ने राहुल के सकल हिंदी योगदान को देखते हुए उनको मुंबई के सम्मेलन (1947) के लिए अपना सभापति बनाना चाहा। इसके लिए राहुलजी ने अपनी स्वीकृति दे दी थी। तब वह कम्युनिस्ट पार्टी के एक आम सदस्य मात्र नहीं थे, बल्कि पार्टी नेतृत्व के बीच उनकी खासी प्रतिष्ठा थी और वह शायद प्रगतिशील लेखक संघ में भी महत्वपूर्ण थे। राहुलजी को सम्मेलन में सभापति पद से भाषण देना था, इसके लिए उन्होंने एक लंबा लेख लिखा और कायदे के अनुसार पहले पार्टी के नेताओं को उसे पढ़ने को दिया। पार्टी नेता उर्दू और इस्लाम को लेकर उनके नजरिए से सहमत न थे, इसलिए उनसे कहा गया कि वह सम्मेलन में जाएं, तो उर्दू और इस्लाम वाले हिस्सों को वहां न पढें़। राहुलजी ने कहा कि लेख तो छप चुका है, अब कुछ भी छोड़ा तो नहीं जा सकता। कम्युनिस्ट पार्टी को उनकी पोजीशन पर ऐतराज था, जो बना रहा।

इसके बाद इतिहास दो कहानी कहता है- एक कि पार्टी ने उनको गलत लाइन लेने के कारण निकाल दिया। दूसरी कहानी कहती है कि राहुुलजी ने पार्टी लाइन से असहमत होते हुए इस्तीफा दे दिया। हमें पहली कहानी सच लगती है, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी लाइन तोड़ने वालों को कभी माफ नहीं किया करती। कहते हैं, उनको निकलवाने में तब के प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव की भूमिका भी रही।

अपने भाषण की जिन ‘आपत्तिजनक’ स्थापनाओं के कारण राहुलजी पार्टी से निकाले गए, वे क्या थीं? हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति को लेकर राहुलजी की दो स्थापनाएं थीं, जो इस प्रकार थीं- पहली यह कि ‘सारे देश की राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि हिंदी होनी चाहिए। उर्दू भाषा और लिपि के लिए अब वहां कोई स्थान नहीं है’।

दूसरी स्थापना यह थी कि इस्लाम को भारतीय बनाना चाहिए। उसका भारतीयता के प्रति विद्वेष सदियों से चला आया है। किंतु नवीन भारत में कोई भी धर्म भारतीयता को पूर्णतया स्वीकार किए बिना फल-फूल नहीं सकता। ईसाइयों, पारसियों और बौद्धों को भारतीयता से एतराज नहीं, तो फिर इस्लाम को ही क्यों? इस्लाम की आत्मरक्षा के लिए भी आवश्यक है कि वह उसी तरह से हिन्दुस्तान की सभ्यता, साहित्य, इतिहास, वेशभूषा, मनोभाव के साथ समझौता करे, जैसे उसने तुर्की, ईरान और सोवियत मध्य एशिया के प्रजातंत्रों में किया। ये दोनों उद्धरण गुणाकर मूले की पुस्तक महापंडित राहुल सांकृत्यायन में मय विवरण उपलब्ध हैं।

हो सकता है कि इन अंशों को पढ़कर कई लोग परम प्रसन्न हों, लेकिन यहां यह भी कह दिया जाए कि राहुलजी ब्राह्मणवाद और हिंदुत्ववादी विचारों के प्रति भी अपने लेखन में कोई रहम नहीं बरतते। आप सहमत हों या असहमत, वे अपने विचारों को दोटूक रखते हैं। वह आज के प्रगतिशीलों की तरह ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ रहने के चक्कर में नहीं रहते। जाहिर है, वह एक जीवंत और साहसी बुद्धिजीवी थे, जो किसी की सहमति या असहमति की परवाह किए बिना सिर्फ विचार के लिए जीते थे और उसी के लिए मरते थे। आज कौन है ऐसा, जो अपने विचार के लिए अपना नाखून तक खुरचवाए?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 
      

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