श्री के नाम से लिखने वाली पूनम अरोड़ा अपनी कहानियों में एक ऐसा लोक रचती हैं जो बार बार अपनी ओर खींचता है। कई कहानियाँ अपने परिवेश, अपनी भाषा के लिए भी पढ़ने का मन करता है। इस लिहाज से पूनम अपने दौर की सबसे अलग लेखिका हैं- मॉडरेटर
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“कभी-कभी बेवजह ही तुमसे बात करने को मन नहीं करता”
‘गुनाहों के देवता’ पढ़ते हुए तारा के भीतर अतीत की परछाइयों का जो अर्द्ध चित्र बन रहा था वो एक तीक्ष्ण वेग से ज़मीन पर बिखर रहा था. सारी उकताहट, ग्लानियां और दर्द की बेहिसाब नसें जिन्होंने उसे कई-कई दिन कई-कई बार नयी औरत बनाया वे थक कर तारा के पुरातन जिस्म से बाहर चले जाना चाहती थीं. जैसे कभी किसी पुराने और घने जंगल में किसी प्राचीन वृक्ष की जड़ द्वारा अपना विध्वंस कर देना.
उसने फिर दोहराया ” कभी-कभी बेवजह ही तुमसे बात करने को मन नहीं करता” और शून्य को ताकती रही. ऐसे कितनी ही दोपहरें बीत जाती थीं. अक्सर एक नीरस और सीलन भरी स्मृति उसके आस-पास घेरा बना कर चक्कर लगाती थी. उसमें डूबना तारा को अच्छा भी लगता था और बचकाना सा भी. उसने किताब बन्द की और अचानक उसे लगा कि उसके बिस्तर पर बिछी चादर मैली है. उसने दराज खोला उसमे से चादर और लिहाफ निकाले और कमरे को ताज़ा गुलाबी रंग दे दिया. उसने कुछ क्षण कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ाई तो पाया कि एक धुँधली परत हर अमूर्त चीज को ओढ़े हुए है और एक सन्नाटा हर कोने में अपनी जड़ जमाये, बिना अपनी उपस्थिति जताये तारा को घूर रहा है. यहाँ तक की उसकी नर्म स्मृतियों को भी.
और स्मृति, वो भी तो एक छल एक स्वांग समान होती है. इस पल यहाँ और उस पल कहीं और. उसके जीवन की नीरसता में कुछ ऐसी भी आकृतियां थीं जिनके चेहरे चांदनी में नहाये लगते थे. उन स्मृतियों में भाभू माँ थीं. बूढी, सफेद और बातों की जादूगरनी. वह उम्र से टूटा स्पर्श था और जिसकी बची हुई, चोटिल निशानियां हमेशा एक अदृश्य संदूक में उसके कमरे में पड़ी रहती थी. भाभू माँ का बनाया क्रोशिया का मेजपोश, झालर लगा हाथ पंखा, गरम मसाले और मिठाइयों के पुश्तैनी राज़ सब थे उस संदूक में. वो कहती थीं सब कुछ छूट गया था वहाँ से आते हुए. किकली, गिद्दे, परांदे, तिल्ले वाली जूतियाँ, सब के सब. और कहती हुईं रुआंसी हो जाया करती थीं. और यहाँ तक की स्मृति यात्रा में तारा खुद भी वही बच्ची बन जाती जब भाभू माँ उसे कस्बाई कहानियां सुनाया करती थी. लेकिन कितनी अजीब बात है कि घटती हुई घटनाएं घट जाने के बाद भी अपने मोह से दूर नहीं कर पाती. उन्हें इंसान की देह पर कहीं भी देखा जा सकता है.
घड़ी में ग्यारह बज रहे थे और खिड़की पर धूप अपने भ्रम की रिक्ति को भरने के लिए कभी दीवार पर रेंग रही थी तो कभी तारा की नीरस आँखों के भूरे रंग पर. वह उठी और उसने एक झटके से धूप की लुका-छिपी पर परदा गिरा दिया. लेकिन वह तो शशि से नाराज़ थी. उसकी आँखों के कॉर्निया फैल गए जब उसने यह सोचा. फिर उसे लगा शशि तो खुद एक मौन अर्थ है. जिसमे वह अपने होने के अर्थ तलाशती आ रही थी. एक रेशम की तरह है जिसका कोई भी किनारा पानी सा नीला और असीम रोशनी से आलोकित है. उसकी छाया, उसके पसीने की गंध और उसका यहाँ-वहाँ बिखरा सामान उसे हर पल उसके होने का अहसास दिलाता है. उसे याद आया एक दिन वे दोनों खान मार्केट की गलियों में हाथ पकड़ कर घूम रहे थे. वो पत्थर बिछी गलियां और उनके दोनों तरफ लगे बाज़ार शाम की आभा में सरोजिनी नायडू की कविता ‘स्ट्रीट क्राइज़’ की तरह आवाज़ों के शोर में छोटी-छोटी कलाओं से भरे हुए लग रहे थे. उन्हें चाहे कुछ खरीदना हो या नहीं लेकिन वे उस बाज़ार में अक्सर जाया करते थे. वहां से उठने वाली आवाज़ें बड़ी पेचीदगी भरी सच्चाइयों वाली होती थी. हर चेहरे की अपनी स्थाई गहराई और हर आवाज़ का अपना घनत्व.
उस दिन पहली बार शशि ने कहा था “तारा क्या हम एक बच्चे को गोद ले लें?
तारा सहम सी गई थी. इसलिए नही कि बच्चे को गोद लेना उनके जीवन में एक अलग तरह की घटना होती. इसलिए भी नहीं कि इस सपने को देखते हुए तारा ने चार साल डॉक्टरों के पास चक्कर लगाते हुए बिता दिए. बल्कि इसलिए कि अब एक साथ दो लोग उसकी उपस्थिति को हर पल स्थाई तौर पर भरने वाले होंगे. आने वाला बच्चा और भाभू माँ.
तारा को थकान घेरने लगी. उसके शरीर में सूखी सी उदासी ने अपना अदृश्य हाथ रख लिया हो जैसे और कभी-कभी किसी बात को बिना निष्कर्ष के छोड़ देने जैसी बेचैनी उसे सताने लगी. ऐसा हो भी क्या गया अगर वो शशि से नाराज़ है तो? और क्या शशि के प्रेम ने उसकी दुनिया नहीं भरी? शशि के पास न होने पर वह उसकी ही बातों को सोचा करती थी. एक बार शशि ने कहा था “तारा तुम रूसो को ज़रूर पढ़ना. उनका एक वाक्य अपनी परिभाषा में मनुष्यता की जड़ो तक दृष्टि डालता है कि ‘मनुष्य एक बीमार जानवर है’.
सन्नाटा बहुत देर तक उसकी बच्चे सी आत्मा के हर हिस्से में था. और ये सन्नाटा उसकी देह के पोर-पोर से बिखर रहा था.
अपने सत्यापन में
अपनी नष्ट हुई वास्तविकताओं में
निर्वात
मृत
तारा पीठ के बल बिस्तर पर लेट गई और छत पर चलता हुआ पंखा जैसे समय के चक्र को फिर उसी दिशा में ले जाने लगा जहाँ भाभू माँ की स्मृतियाँ थीं. भाभू माँ ने तारा के जवान होने तक उसे भारत- पाकिस्तान के बंटवारे की कहानियां सुनाई. उसे याद है कि किस तरह भाभू माँ के मरने के बाद हवा की तरह वो हर रात उसके कमरे में होती थी और कहानियों की धीमी गूंज से उसे फिर कभी भी ठीक से नींद नही आई. भाभू माँ ने एक बार उससे कहा था “तुझे एक बात बताती हूँ तारा. इस बात को हम सब जानते थे कि ज़रूरी नहीं कि सब के सब सही सलामत दिल्ली पहुँच जाएंगे. क्योंकि दंगो ने आग भड़का रखी थी. भूखे प्यासे बच्चे रोते हुए अपने माँ-बाप से चिपके हुए थे. उस समय मैं सत्रह साल की थी और तेरे नाना के पास केवल अपनी ज़मीनों के कागज़. जो होना था सो हुआ लेकिन इसके बाद भी ऐसा होता रहा जिसे याद करते आत्मा शिथिल हो जाती है”
लेकिन तारा जानती थी कि ये स्मृतियाँ अब कभी उसे उदासी के गर्म और तपते हुए कक्षों से बाहर नहीं आने देंगी इसलिए वो चाहती थी कि शशि और वो एक बच्ची गोद ले लें. लेकिन उन स्मृतियों में ऐसा कुछ था जिसे भूलना भी उसके वश का नहीं था. लगता था जैसे विपदाएं जब आती हैं तो ऐसी शाश्वत सांकेतिक भाषा के साथ आती हैं कि जीवन का कोई भी गलियारा सुनिश्चित होकर अपनी निजी ऋतुओं और मौसम में अपने जीवित होने के क्षण को याद नहीं रख पाता.
लेटे हुए जब बहुत देर हो गई और नींद आँखों में सिवाय सूखे सुख के कुछ नही दे रही थीं तो वह उठ खड़ी हुई और उसने खिड़की से परदा हटा दिया. दिल्ली में जून का महीना नम, उदास और यादों की सीलन से भरा होता है. मन के काल्पनिक संगीत का पीछा करने वाला महीना. वह तारा का अपना समय होता है जिसमे वो जून की आंधियों के किनारे अपने सीमान्त तलाश रही होती है. वो रोना चाहती है पर रोती नहीं. वो पीड़ा की ज़र्द धारियों को देर रात तक कनॉट प्लेस में अपने साथ ले कर चलती रहती थी. कभी अकेले तो कभी शशि की बादलों सी चाहत के साथ. वहाँ देर रात तक बैठे रहना उन दोनों को बहुत अच्छा लगता था. उनके साथ में जीवन के कई ऊँचे-नीचे उतार चढ़ाव थे जिनका हिसाब भी नहीं रखा जा सकता.
बचपन में जब भाभू माँ उसे बालों में तेल लगाया करती थी तब अंतहीन और निश्छल लाड करते हुए उसे जीवन की सीख भी देती थी. वो कहती थी कि अपमान को बारिश समझना तारा और पुराने अपमानों को ऐसे भूलना चाहिए जैसे उन्हें सुनार ने गला दिया हो और वो एक ऐसी धातु बन गई हो जिसके बने बुँदे हम कानों में पहन सकते हो. फिर देखना तुम पर एक नयी परत चढ़ आएगी. जो छूने भर से भूर्भुरायगी नहीं. ये एक नया जीवन होगा तुम्हारा.
तारा रो पड़ी. यूँ उसे रोना भी आत्मिक सुख जैसा लगता था लेकिन वह इस दोपहर रोना नहीं चाहती थी. उसे लगा दोपहरें हमेशा यादों से भरी होती हैं. बीथोवन के संगीत की तरह जो ख़ामोशी की लय को पकडे हुए उस ऊंचाई पर ला कर खड़ा कर देती हैं जहाँ से कोई भी शब्द होंठो का सहारा लेकर नहीं कहा जा सकता. जहाँ होना इतना असली सा नहीं लगता जितना दरअसल वो होता है. यादें जो दिल्ली में हर जगह थीं उसके साथ. भाभू माँ की यादें और उनसे छूटने की पीड़ाएँ अभी तक उसकी पीली काया में जमी हुई थीं. ठीक उसी तरह दरवाज़ा रोक कर खड़ी हुईं जैसे कोई आधा हुआ काम पूरा होना चाहता है. इसे प्रतीक्षा कहें या विदा. तय करना आसान नहीं. देखा जाए तो कुछ भी सही समय पर रोक देना या शुरू करना कभी भी आसान नहीं होता.
आकाश अपनी चमक उतार चुका था जैसे हर वो चीज अपनी चमक उतार देती है जो अपनी तीव्र कल्पनाओं में कभी एक पल के लिए भी खुद को जीवित महसूस कर पाई. जिसने घने कोहरे में एक बार भी अपने बीते हुए आत्मीय जनों की हल्की सी भी परछाईं देखी हो. तारा ने खिड़की से शशि को आते देखा. उसके एक हाथ में ऑफिस का बैग था और एक हाथ में कमल के फूल. उसे ख़ुशी होती है इस बात की कि शशि को इस्कॉन टेम्पल से लौटते हुए उसके लिए कमल के फूल लाना हमेशा याद रहता है. एक छोटा सा सुख क्या मायने रखता है ये शशि अच्छी तरह से जानता था. शशि के लौटने पर बीती दोपहर का मर्म अब तारा की आँखों में से एक स्वप्न की तरह बह रहा था. जैसे कई आवाज़े एक साथ अनायास बन्द हो गईं हो. और जैसे कभी वो थीं ही नहीं.
उसे पता था कि कभी भी किसी भी छोटी सी बहस पर जब वे दोनों रात को मुँह फेर कर सोते तो उसकी सुबह ऐसे ढलान पर सबसे अकेले और सबसे रेतीले किनारों पर खड़ी होती थी. और बहुत धीमी गति से उससे पूछते हुए भाभू माँ की स्मृतियों उसमे शामिल होने लगती. मेट्रो की छोटी और रूमानी यात्राएं, विश्व पुस्तक मेले में सारा दिन बिताने की उसकी ज़िदे सब किसी मासूम चाह की तरह शशि पूरी करता था. किसी वेग की तरह महसूस होता वो दोपहर का समय अब दोहरी गति से उस कमरे से अपनी उपस्थिति को समेट रहा था. यह समय ऐसा था जिसमे जानी-पहचानी चुप्पियाँ अपनी प्रेतों के आवरण में कुकुरमुत्ते की तरह हर ओर उग आई थीं. और शशि के आने की गंध पाकर वे लोप हो जाना चाहती थीं. तारा ने एक भारीपन अपनी छातियों में महसूस किया. उसे लगा कि अपनी चाहना को कोई एक नाम देना कितना मुश्किल है. और ये भी कि प्रेम की कल्पनाएं प्रेम से कहीं ज्यादा धुली होती हैं. उनमे दूरियों की न सुनाई दी जा सकने वाली एक धुन हमेशा बजती रहती है और एक उम्मीद उन्हें कभी थकने नहीं देती.
बीच बात में हँसने से शशि उसे अक्सर रोक देता था. कहता था ऐसे हंसोगी तो सब जान जाएंगे कि हम प्यार में हैं. वो उसे लोगो से छुपाना चाहता था और मिलने पर ‘थ्री लिटिल फ्लावर्स’ कहानी हर बार एक अलग अंत के साथ सुनाता था. कहता था “कहानी में मुस्कुराया करो तारा क्योंकि कहानियों में मुस्कुराने का अर्थ है कि हक़ीक़त का कोई शीशा कभी नहीं टूटेगा”
आवाज़ें और दोपहर बीत चुकी थी तारा की आँखों में. शशि को घर आता देख उसे लगा कि अब बीतने के सुख में संवाद अपरिचित नहीं होंगे न ही कमरे के हर कोने में फैली पहेली दिल्ली की आबो हवा में उसके साथ चलेगी. तारा ने रंगों में घुलती हुई अभी-अभी आई रात के आकाश में स्मृति-आकारों को धीरे-धीरे जाते हुए देखा. सब धुँधली परछाइयां बन आकारहीन होने लगीं. और उसने जाना कि जीवन के हर रहस्य की पीड़ा अतीत की छाया में गुथी होती है.
मन अपने विराम में मुक्त था!
मन को छू गये भाव। बधाई।