अशोक कुमार पाण्डेय की कविता का पाठ प्रस्तुत है। पिता पर लिखी अशोक कुमार पाण्डेय की इस कविता का यह पाठ किया है जानी-मानी कवयित्री सुमन केसरी ने। पढ़कर राय दीजिएगा- जानकी पुल
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तो पहले कविता पढ़ें फिर पाठ…लौट लौट कविता पर आएँ, बस यही मकसद है इस पाठ का…
(एक)
जूतों की माप भले हो जाये एक सी
पिता के चश्मों का नम्बर अमूमन अलग होता है पुत्र से
जब उन्हें दूर की चीज़ें नहीं दिखतीं थीं साफ़
बिलकुल चौकस थीं मेरी आँखें
जब मुझे दूर के दृश्य लगने लगे धुंधले
उन्हें क़रीब की चीजों में भी धब्बे दिखाई देने लगे
और हम दृश्य के अदृश्य में रहे एक-दुसरे के बरअक्स
(दो)
उनके जाने के बाद अब लगता है कि कभी उतने मज़बूत थे ही नहीं पिता जितना लगते रहे. याद करता हूँ तो मंहगे कपड़े का थान थामे ब्रांड के नाम पर लूट पर भाषण देता उनका जो चेहरा याद आता है उस पर भारी पड़ता है तीस रूपये मीटर वाली कमीज़ लिए लौटता खिचड़ी बालों वाला दागदार उदास चेहरा. स्मृतियों की चौखट पर आकर जम जाती है सुबह-सुबह स्कूटर झुकाए संशयग्रस्त गृहस्थ की आँखों के नीचे उभरती कालिख
जैसे पृथ्वी थक हार कर टिकती होगी कछुए के पीठ पर पिता की गलती देह पर टिक जाता वह स्कूटर
(तीन)
हम स्टेफी से प्यार करते थे और नवरातिलोवा के हारने की मनौती माँगते थे काली माई से. भारतीय टीम सिर्फ इसलिए नहीं थी दुलारी कि हम भारतीय थे. मोटरसाइकल पर बैठते ही एक राजा श्रद्धेय फकीर में बदल गया. त्रासदियाँ हमें राहत देती रहीं पुरुषत्व के सद्यप्राप्त दंश से. हम जितने शक्तिशाली हुए उतने ही मुखालिफ़ हुए.
हमारे प्रेम के लिए पिता को दयनीय होने की प्रतीक्षा करनी पड़ी.
(चार)
इसकी देह पर उम्र के दाग हैं. इसकी स्मृतियों में दर्ज है सन बयासी…चौरासी… इक्यानवे के बाद ख़ामोश हो गया यह और फिर इस सदी में उसका आना न आने की तरह था होना न होने की तरह.
घर में रखा फिलिप्स का यह पुराना ट्रांजिस्टर देख कर पिता का चेहरा याद आता है.
(पाँच)
भीतर उतर रहा है नाद निराला.
दियारे की पगडडंडियों पर चलता यह मैं हूँ उंगलिया थामें पिता की देखता अवाक गन्ने के खेतों की तरह शांत सरसराती आवाज़ में कविताओं से गूँजते उन्हें. आँखें रोहू मछली की तरह मासूम और जेठ की धूप में चमकते बालू सी चमकती पसीने की बूँदों के बीच यह कोई और मनुष्य था. सबसे सुन्दर-सबसे शांत-सबसे प्रिय-सबसे आश्वस्तिकारक.
वही नदी है. वही तट. निराला नहीं हैं न वह आवाज़. बासी मन्त्र गूँज रहे हैं और सुन रही है पिता की देह शांत…सिर्फ शांत.
मेरे हाथों में उनके लिए कोई आश्वस्ति नहीं अग्नि है
(छः)
यह एक शाम का दृश्य है जब एक आधा बूढ़ा आदमी एक आधे जवान लड़के को पीट रहा है अधबने घर के दालान में
यह समय आकाशगंगा में गंगा के आकार का है प्रकाश वर्ष में वर्ष जितना और प्रलय में लय जितना. दो जोड़ी आँखे जिनमें बराबर का क्षोभ और क्रोध भरा है. दो जोड़ी थके हाथ प्रहार और बचाव में तत्पर बराबर. यह भूकंप के बाद की पृथ्वी है बाढ़ के बाद की नदी चक्रवात के बाद का आकाश.
और ….
एक शाम यह है कुहरे और ओस में डूबी. एक देह की अग्नि मिल रही है अग्नि से वायु, जल, आकाश अपने-अपने घरों में लौट रहे हैं नतशिर. अकेली हैं एक जोड़ी आँखें बादल जितने जल से भरी.
उपमाएं धुएँ की तरह बहुत ऊपर जाकर नष्ट होती हुईं शून्य के आकार में.
(सात)
कुछ नहीं गया साथ में
गन्ध रह गयी लगाए फूलों में स्वाद रह गया रोपे फलों में. शब्द रह गये ब्रह्मांड में ही नहीं हम सबमें भी कितने सारे. मान रह गए अपमान भी. स्मृतियाँ तो रह ही जाती हैं विस्मृतियाँ भी रह गयीं यहीं. रह गयीं किताबें अपराध रह गए किए-अनकिए. कामनाएं न जाने कितनी.
जाने को बस एक देह गयी जिस पर सारी दुनिया के घावों के निशान थे और एक स्त्री के प्रेम के
बेटी के जीवन में पिता की उपस्थिति और बेटे के जीवन में पिता का होना लगभग दो ध्रुवों से एक संबंध को देखना है। सदियों की परंपराओं ने बेटियों के मन में कहीं न कहीं यह बात कील की तरह ठोक दी है कि पिता यहाँ तक कि जननी के साथ भी उनके संबंध अस्थायी हैं…वे चिड़ियों का चंबा हैं, जिन्हें बाबुल के घर से उड़ जाना है। किंतु लड़कों के साथ एक स्थायित्व का भाव हमारे पारिवारिक-सामाजिक जीवन की सोच का, संस्कारों का हिस्सा है। भले ही यह बात निन्यानवे फ़ीसदी घरों में गलत सिद्ध हुई हो और लड़के घरों को छोड़ कर बाहर चले गए हों, किंतु हमारा मानस यही मानता रहता है कि लड़कों पर हमारा हक है और हम उनके यहाँ जा सकते हैं, रह सकते हैं।
संभवतः यही सोच-संस्कार लड़के और लड़की के अपने पिता के प्रति भावना को निर्धारित करते हैं। और अक्सर लड़कों का पिता के साथ संबंध “होना न होने की तरह” जैसा हो जाता है। इस कविता की खासियत यह है कि जब पिता नहीं रहे, तो जिंदगी में उनकी मौजूदगी “न होने पर होने की तरह ” हो गई!
जब पिता थे तो “ हम दृश्य के अदृश्य में रहे एक दूसरे के बरअक्स” और आज जब वे नहीं हैं तो वे मेरे जीवन के प्रलय में लय की तरह हैं…
कविता सात खंडों में है…एक नैरन्तर्य लिए हुए।
कविता की शुरुआत इतने पहचाने मुहावरे / कहन से होती है कि आप यह पढ़ते ही कि “ जूतों की माप भले ही हो जाए एक सी” आप मन ही मन कहन को पूरा करने लगते हैं कि जब बेटे के जूते का माप, पिता के जूतों के माप जितना हो जाता है तो रिश्ते बदल जाते हैं, बेटा दोस्त हो जाता है! किंतु वह कवि ही क्या जो कहन को दुहरा दे और उसे ही कविता समझ ले! अशोक की कविता हमें बताती है कि जूतों का माप एक हो तो भी दोनों के चश्मों का नंबर अलग अलग होता है।अब आप देखिए कविता की चाल। हम अपने अब तक के अनुभवों के आधार पर – कि जवानी में दूर की आँख कमजोर होती है और बुढ़ापे में नजदीक का धुंधला दिखाई पड़ने लगता है- इसे ऐसे पढ़ने लग सकते हैं- कि जवानी में हम अपना वर्तमान देखते हैं, बहुत दूर तक भविष्य के बारे में नहीं सोचते। पिता अपने अनुभवों से आने वाले कल को देखता है और हर पिता/ अभिभावक चाहता है कि बच्चा उसकी निगाह से आगत को देखे, उसके प्रति सचेत भाव से तैयारी करे। वह पिता तो खासकर, जो न खुद चांदी का चम्मच मुँह में लिए पैदा हुआ है, न अपनी संतति को दे पाया है।
किंतु अशोक की कविता यह नहीं कह रही जो मैंने ऊपर बताया बल्कि वह तो ठीक इसकी उलट बात कहती है। कविता कहती है कि जब पिता को उनकी प्रौढ़ावस्था में दूर की चीजें साफ़ नहीं दिखती थीं, तब बेटे की आँखें बिलकुल चौकस थीं। “चौकस” शब्द पर ध्यान देना जरूरी है। चौकस यानी चौकन्नी- वे निगाहें तो आगे-पीछे, दूर पास सबको देख ले, देख ही न ले बल्कि सुन ले- चक्षुश्रवा! एक क्रांतिकारी युवा भविष्य को बदल देने के लिए बहुत दूर तक देखता है, बहुत दूर तक सोचता है और समझता है कि जो लोग सत्ता की मशीन के कलपुर्जों में ढल गए हैं, वे चुक गए हैं। अब क्रांति का सारा भार युवाओं के ही कंधों पर है। यानि कवि कहता है कि पिता नहीं समझ रहे कि बेटा कितनी जरूरी चीजों में उलझा हुआ है। वह समाज को बदल कर बेहतर बनाना चाहता है। अगली पंक्ति बताती है कि कालांतर में जब बेटे को ‘दूर के दृश्य धुंधले लगने लगे तो उन्हें करीब की चीजों में भी धब्बे दिखाई पड़ने लगे।’ करीब की चीजों में धब्बे को हम पिता की आँखों में आए मोतियाबिंद की तरह भी पढ़ सकते हैं, किंतु मैं इसे पढ़ना चाहूंगी, आजादी के इतने सालों बाद भी स्थितियों के निरंतर बदतर होते जाने से उत्पन्न होने वाले नाउम्मीदी के तौर पर और सिनिसिज़म के तौर पर। बेटे की दूर वाली दृष्टि में आए धुंधलेपन को मैं हिंसा-प्रेरित क्रांति की प्रचलित अवधारणा के प्रति संदेह के रूप में पढ़ूंगी।
और यह पहला अंश खत्म होता है बाप-बेटा दोनों के बीच एक दूरी..एक दूसरे को समय पर न समझ पाने का क्षोभ और वेदना ।
कविता का दूसरा खंड स्वीकृति है पिता के न होने की। उनकी मृत्यु के बाद पीछे मुड़ कर देखने का उपक्रम।
पिता मजबूती का दूसरा नाम है। हम सब समझते हैं कि दुनिया में निराले पिता बेहद मजबूत हैं, कोई भी हालात हों, वे छत की तरह हैं, जिसके नीचे हम सब सुरक्षित हैं। लेकिन क्या सच में? क्या सच में जिंदगी संभव करते पिता खुद तिल तिल मरते नहीं…दीए में स्नेह की तरह जलते नहीं। हम सब दीए का उजियारा देखते हैं, उसका तिल तिल जलना नहीं। जब वह बुझ जाता है तो पाते हैं कि तेल खत्म हो गया। कवि अपने पिता को कुछ इसी तरह देखता है। और कविता का पल है- “जैसे पृथ्वी थक हार कर टिकती होगी कछुए की पीठ पर पिता की गलती देह पर टिक जाता वह स्कूटर”
पृथ्वी नामालूम-सी चलती रहती है अहर्णिश। उसी तरह स्कूटर चलता है और जीविका के अर्जन का माध्यम बनता है, ठीक मंदराचल की तरह, जिससे सागर को बिलो कर अमृत, रत्न व लक्ष्मी को प्राप्त किया था देवताओं ने। किंतु यही मंदराचल जब रसातल में धंसने लगा तो विष्णु ने कच्छप के रूप में उसे अपनी पीठ पर संभाला। पुराने स्कूटरों को स्टार्ट करने के लिए चालक उसे अपने दमखम पर टेढ़ा करता था। कवि के ऑबजर्वेशन की गहराई और उसके अर्थान्वेषण की क्षमता को सराहें।यहाँ एक पौराणिक मिथ को कितने नए संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है। यहाँ पिता एक व्यक्ति भर नहीं रह जाते बल्कि उन सब पिताओं के प्रतीक हो जाते हैं, जो ईमानदारी से अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं तथा बाजार के खतरे को देख रहे हैं। यह ब्रांड क्या है। कैसे एक मुहर भर लगा देने से कोई माल कई गुणा ज्यादा कीमत का हो जाता है। यह पिता सातवें दशक के अंतिम सालों में उद्योग व व्यापार-नीति में धीरे धीरे आ रहे परिवर्तन को देख समझ रहा है। वह बाजार के बढ़ते प्रभाव को, उसके आतंक को बूझ रहा है। वह ब्रांड के लिए अपनी जमीर नहीं बेच रहा बल्कि लोगों को शिक्षित करने का, उन्हें आगाह करने का जोखिम उठाता हुआ खुद तीस रुपये मीटर वाली कमीज खरीदता-पहनता है, स्कूटर पर चलता है।
कविता का तीसरा खंड किशोर से जवान होते व्यक्ति के लिए है, जिसे टेनिस और अन्य खेलों से प्रेम है। यह युवादल पुरुषत्व से बाखबर है। और चुंकि वह एक नूतन शक्ति से ओतप्रोत हैं, इसीलिए विरोध इनके स्वभाव का हिस्सा है। व्यक्तित्व विकास का तात्पर्य ही है न कहने का माद्दा। अपने पर विश्वास।
पिता पितृसत्ता का जीवंत प्रतीक है। पिता की सत्ता सबसे प्रत्यक्ष अनुभव है अतः किसी भी स्वतंत्रचेता के लिए पहले विरोध का लक्ष्य भी। कहते हैं क्रांति की शुरुआत परिवार सत्ता के विरोध से ही होती है। देर रात तक घूमना, सिगरेट पीना, सिनेमा देखना और प्रेम करना व्यक्तित्व निर्माण के आधारस्तंभ हैं। चूंकि ऐसा करने से मना करता चेहरा अक्सर पिता का होता है, या ऐसा मान लिया जाता है, अतः पिता के प्रति मुख्य भाव विरोध का होता है, आज्ञानिषेध का होता है, वह संवाद और दोस्ती का रिश्ता नहीं होता।और इसीलिए जब तक पिता तिल तिल कमजोर और दयनीय नहीं हो जाते, वे प्रेम के, संवाद के पात्र नहीं बन पाते।
यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि यह कविता 1975 में जन्मे और गोरखपुर आदि में रहे-पढ़े, बड़े हुए कवि की कविता है। क्या ऐसी बात उदारीकरण के दौर में पैदा हुए और महानगरों में रहने वाले युवकों में भी देखने को मिलेगी? यह सवाल मुझे बेचैन किए हुए है। क्या ऐसे युवा भी “स्टेफ़ी की जीत के लिए किसी काली माई की मनौती मांगते” या उन्हें यह बात इतने साफ़ तौर पर कहने की जरूरत महसूस होती कि “भारतीय टीम सिर्फ़ इसलिए नहीं थी दुलारी कि हम भारतीय थे।” दरअसल मेरी समझ में तो उन्हें काली माई याद भी नहीं आती। वे काली माई को काली माता भी मुश्किल से ही बोलते और भारतीय होने के नाते ही भरतीय टीम से प्यार करते। अगर उन्हें कोई और टीम अच्छी भी लगती तो वे उसे भरसक छिपाने की कोशिश करते। क्योंकि ऐसा अच्छा लगना उनके देशप्रेम में संदेह पैदा कर सकता है। किंतु इस कविता में ऐसा नहीं है। इसका देशकाल आठवें और शुरुआती नौंवे दशक का छोटा शहर है, गाँव है। बहरहाल इतना सही है कि चाहे वह स्टेफ़ी हो या भारतीय टीम, दोनों की ही शक्ति रही- हारने पर हार न मानना बल्कि जीत्ने का प्रयास करना और अंत में जीत हासिल करना।
हम देखते हैं कि जीवनीनुमा इस कविता में अशोक पांडेय अपने समय को अभिव्यक्त करते हैं, वे आज-वर्तमान से प्रभावित नहीं होते। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अक्सर लोग वर्तमान का प्रक्षेपण अतीत में कर देते हैं।
खंड चार बूढ़े होते पिता को याद करती है। यहाँ ध्यान देने योग्य हैं 21वीं सदी तक चले आए पिता की यादों में दर्ज घटनाएँ। अक्सर ही बूढ़े लोगों को पुरानी बातें याद रहती हैं, और वर्तमान उन्हें छू कर भी नहीं छूता। वे वर्तमान के प्रति गोया निस्संग हो चुके होते हैं या उनके अनुभव बताते हैं कि यह वर्तमान उन्हीं अतीतों से बना है, जिसे वे जब तब (उनके लिए प्रासंगिक और सुनने वाले के लिए अधिकतर ऊबाऊ दुहराव भऱ) सुनाते हैं। इस कविता में पिता की यादों में 1982 है। वह साल जिसमें भारत की शान ऊँचाइयाँ छू रही थीं। एशियाड हुआ था। पहली बार रंगीन टेलीविज़न आया था,इन्सैट वन-ए का लॉन्च हुआ था, भले ही बाद में उसे डी-एक्टिवेट कर दिया गया हो। और गोरखपुर देवरिया वालों के लिए उनका सूरज अस्त हुआ था, क्योंकि उसी वर्ष फ़िराक गोरखपुरी का इन्तकाल भी हुआ था। भला 1982 की यादें पिता को क्यों न सतातीं। इसी तरह बूढ़े होते पिता को 1984 का साल याद रहता है। इंदिरा गांधी की हत्या और सिक्खों का कत्लेआम। भारतीय राजनीति को सदा-सदा के लिए बदल देने वाला साल। हिंसा के नॉर्मेलाइजेशन का साल, जब कानून को अपने हाथों में लेकर दरिंदों ने आम नागरिकों की हत्या करके “इंसाफ़” के नए रूप को समाज के सामने रखा। आज की हिंसा में क्या ’84 की प्रतिध्वनि नहीं है?
इक्यानवे के बाद पिता की खामोशी को बड़े दर्द के साथ देखा है कवि ने। सन् 91 यानि कि राजीव गांधी की हत्या का वर्ष और उसके बाद सन् 92 में बाबरी मस्जिद का बिखंडन मानो भारतीय लोकतंत्र और समाज का ऐसा विघटन, जो कभी जुड़ कर वैसा न हो सकेगा, जैसा पहले हुआ करता था।
यह खंड फिलिप्स के ट्रांजिस्टर को देखते ही पिता के चेहरे की याद दिहानी से खत्म होता है। कविता के इस वाक्य को फ़िलिप्स व पिता के चेहरे में मिलान की कविताई के लिए तो रुक कर पढ़ना ही चाहिए, किंतु इसे पढ़ते हुए नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के उदारीकरण के बिंब के तौर पर भी पढ़ने की जरूरत है। टेलीविज़न के प्रकोप के बढ़ने की बात इसमें सुनें। ट्रांजिस्टर-रेडियो को चलते-फिरते काम करते सुना जा सकता था। घर में एक रेडियो सबकी जरूरतों को पूरा कर देता था।किंतु टेलीविज़न और उसमें दिखाए जाने वाले अनगिनत कार्यक्रम। अब तो कमरे कमरे में एक टेलीविजन की जरूरत है। साथ ही टेलीविजन तो एक जगह बैठने को बाध्य करने वाली मशीन है। आपकी आँखें उसकी चकाचौंध के सामने हतप्रभ हो जाती हैं। टेलीविजन टोटल सरेंडर का रूपक है। वह जो दिखाए वही सही, वह जो बतलाए उसमें शक क्या? आज हम उसके परिणाम देख रहे हैं। अशोक की कविता इसे बहुत मानीखेज ढंग से रख देती है। छोटी छोटी चीजों से जुड़ी ऐसी यादें जो संवेदना के साथ साथ समय बोध को भी विकसित करती हैं।
आह! पाँचवे खंड में कवि अतीत के साथ वर्तमान में भी है, जिसमें सामने पिता की चिता है और मन में उसका बचपन! यह मन-मस्तिष्क में निराले नाद उतरने का समय है। एक ही समय में एक लंबे कालखंड को देखने का प्रयत्न जो आमतौर पर मृत्यु के बैकड्रॉप में अपनी पूरी संवेदना और निर्ममता से उपजता है। बचपन में दियारे की पगडंडियों में गन्ने के खेत के बीच पिता द्वारा सुनाई गईं निराला की रचनाओं के साथ। हम सब जानते हैं कि निराला के काव्य में नाद का अप्रतिम सौन्दर्य है। यदि उन कविताओं का पाठ उचित ढंग से किया जाए तो वे अद्भुत अर्थ-छटाएँ संभव करती हैं। यह पिता की आवाज़ का भी नाद है। यहाँ जरा पिता के चित्र को देखें- बेटे की उंगलियाँ थामे पिता निराला को अपने निराले अंदाज में पढ़ते हुए, बच्चे के मन में काव्य का जो संस्कार रच रहे हैं, वह अद्भुत है। इस आवाज की शांति को सुनिए। यह ओज का स्वर नहीं है, बल्कि गन्ने के खेतों की शांत सरसराती हवा की तरह की आवाज है। कवि पिता को कविताओं से गूंजता हुआ देख रहा है. व्यक्ति का नाद में बदलना, अद्भुत बिंब है यह। जरा अंतिम खंड को पढ़िए, वहाँ भी शब्दों की बात की गई है।कैसा संतरण है, उसे सराहिए। यहाँ कवि अपना बचपन याद कर रहा है, जिसमें वह पिता कोएक दूसरे ही मनुष्य के रूप में देख रहा है। गोया उत्तम कविता मनुष्य का रूपांतरण कर देती है। मनुष्य शब्द ध्यान देने योग्य है यहाँ- मनुष्यत्व के साथ! ऐसी आदमीयत जिसमें आँखें रोहू की मछली की तरह मासूम हों- कोई दुनियादारी नहीं…कोई छल-कपट नहीं और देह मेहनत के पसीने से चमकती हुई। कविता पढ़ता व्यक्ति सचमुच ज्यादा मनुष्य होता व्यक्ति है।उसका मन -मस्तिष्क बहुत खुला, बहुत समावेशी।अशोक के लिए पिता की यह छवि अत्यंत शांत, प्रिय और आश्वस्तिदायक है।दियारे में गन्नों की मिठास के बीच में बालक की उंगली थामे कविता कहते पिता बिल्कुल वर्तमान के सौन्दर्य और आनंद में हैं, इसीलिए आश्वस्तिदायक भी!आश्वस्ति शब्द का प्रयोग यहाँ बहुत मानीखेज है। पिता की छत्रछाया बच्चों के लिए बहुत आश्वस्तिदायक होती है। पिता उस पेड़ की तरह लगते हैं, जिसकी नीचे छाया ही छाया महसूस होती है। इस खंड का महत्त्व और पिता की शांत आश्वस्तिदायक छवि का महत्त्व अगले खंड की नाटकीयता में और मुखर होकर उभरता है।
लेकिन उससे पहले इस खंड का अगला हिस्सा तो पढ़ें।
अब कवि उस दृष्य को देख रहा है जब वह उसी नदी तट पर खड़ा है, पर इस बार प्राणतत्त्व जो संभव करता था नाद वह शांत हो गया है। बासी मंत्र गूंज रहे हैं…निराला के गीत नहीं- ध्यान दें, जिसे गाने वाला गोया पुनः रचता जाता था, वह नहीं तो नव गति नव लय ताल छंद नव..की बात कैसे हो।कर्मकांड के लिए जाप किए जाने वाले मंत्रों को इतने मशीनी अंदाज में दुहराया जाता है कि वे अपने प्राणहीन प्रतीत होते हैं। सो, अशोक मंत्र के साथ बासी विशेषण लगा कर निराला की पिता द्वारा पढ़ी गई कविताओं की ताजगी से उसे कन्ट्रास्ट कर देते हैं।
इस खंड का अंतिम वाक्य “ मेरे हाथों में उनके लिए कोई आश्वस्ति नहीं अग्नि है” पढ़ते ही पाठक थर्रा जाता है। कितना निर्मम सत्य। शांत पड़ी देह को केवल अग्नि के सुपुर्द किया जाता है।उसे अब किसी आश्वासन की जरूरत नहीं।
अब आप इसी खंड में दो दो बार प्रयुक्त इन दो शब्दों को देखिए। पहला आश्वस्ति। जब बालक पुत्र दियारे में पिता की उंगली थामें चल रहा है तब पिता का होना आश्वस्तिकारक है। और जब पिता शांत पड़े हैं मात्र देह के रूप में तो पुत्र के हाथों में आश्वस्ति नहीं केवल अाग है। पिता के लिए पुत्र की ओर से आश्वस्तिदायक क्या हो सकता था- अच्छी नौकरी, सुखी गृहस्थ जीवन आदि…किंतु जिन पिताओं के पुत्रों को ये हासिल हैं, क्या उन पिताओं की अपने पुत्रों के संदर्भ में और कोई ख्वाहिश नहीं होती? क्या कभी भी, किसी काल में भी, कहीं भी कोई पुत्र प्रश्नातीत आश्वस्ति दे पाया है? क्या मरता व्यक्ति आश्वस्त हो सकता है पूरी तरह…यदि होता तो मरना दुःख क्यों देता, कष्ट क्यों देता मरने वाले को भी और पीछे जो छूट जाते हैं उन्हें भी!
दूसरा शब्द है शांत, पुत्र का हाथ थामें पिता शांत हैं, सुंदर हैं। किंतु नदी तट पर पड़ी देह शांत है…सिर्फ़ शांत…वह सुंदर नहीं है। यह मृत्युजनित स्तब्धकारी शांति है। देह शांत होना माने देह में दौड़ते लहू का रुक जाना है, जिव्हा का शांत होना है- सबकुछ गतिहीन हो जाना है, और यह शांत होना सुंदर नहीं हो सकता क्योंकि वह अवरुद्ध हो गया है। बासी हो गया है…नष्ट हो गया है। विनाश में सौन्दर्य की कल्पना कोई मतिहीन ही कर सकता है।
एक और शब्द की तरफ ध्यान देना होगा और वह है “दियारा”- दो नदियों के जलप्लावन से बना उपजाऊ भूभाग। तो बचपन में दियारा भी है और गन्ने की लहलहाती फसल भी।इसे जीवन की तरह देखा जाए। और मृत्यु- शवदाह के समय वही नदी है वही तट- पर दियारा नहीं दूर दूर भी कहीं नहीं! गौर करें इस कविताई पर। शब्दों का कितना सजग प्रयोग।अशोक एक शब्द को हटाते ही कितना करुण दृश्य उत्पन्न कर देते हैं। कविता इसे ही कहते हैं। न एक शब्द ज्यादा न कम। शब्दविन्यास से अर्थों को ध्वनित करना ही कविता है। एक पाठक उसमें कितने अर्थ संभव कर पाता है, कविता कितनी गूंजती है उसके मन में। यही तो हैं कविता के प्रतिमान।
छठा खंड पाँचवें खंड की वेदना को संदर्भ भी देता है और उसे सघन भी करता है। पाँचवें खंड में पुत्र बालक के रूप में पिता की आश्वस्ति की छाया तले विचर रहा है तो छठे खंड में वह आधे जवान की तरह पिता के प्रहारों से खुद का बचाव कर रहा है। यह दो पीढ़ीयों के टकराव के क्षण हैं। बालक से व्यक्ति बनने के क्षण और पिता का क्षोभ कि वह अपने पुत्र को वैसा नहीं गढ़ पाया, जैसा कि वह चाहता था, या उसे चाहना चाहिए था। यह संभवतः पिता के मन में बसे आदर्शों के टूट-बिखरने का भी समय है! यह वेदना कि जैसे नए स्वतंत्र भारत को होना चाहिए था, वैसी वह हुआ नहीं और उसने तो अपने बेटे को ऐसे देश में,ऐसे समाज में रहने की ट्रेनिंग ही नहीं दी, वह तो कविताओं में बसा रह गया और दुनिया बहुत भौतिकतावादी हो गई। बेटा दुनिया बदलने के सपनों में डूबा है। यह दृश्य कवि के मन में अमिट होकर रह गया है- “आकाश गंगा में गंगा की तरह और प्रकाश वर्ष में वर्ष जितना।” दरअसल यह पिता-पुत्र के संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने वाली घटना है, जिसके बाद बचपन की आश्वस्ति वाला संबंध विरोध व सतत विरोध में तब्दील हो जाता है। यहाँ दो जोड़ी आँख और दो जोड़ी हाथ पर ध्यान देना जरूरी है। पहले दृश्य में दो जोड़ी बराबर के क्षोभ व क्रोध से भरी आँखें एक दूसरे को घूर रही हैं। यह बेटे का बड़ा होना है, अपना अलग व्यक्तित्व व जीवनशैली को पिता के बरअक्स रेखांकित करना है। और दो जोड़ी हाथ, जिनमें एक प्रहार कर रहा है और एक अपना बचाव।
यही आँखें और हाथ आप वर्तमान के अगले ही दृश्य में फिर देखते हैं। पर इस बार वे दो जोड़ी नहीं बस एक जोड़ी हैं। यह फाइनल बिलगाव है। जिससे विरोध था, जिसके सामने खुद को स्थापित कर, अपना स्वतंत्र वजूद रेखांकित करना था, वह जा चुका था और ऐसे में एक जोड़ी हाथ अग्नि लिए पिता को विदा कर रहे हैं और एक जोड़ी आँखें जिनमें कभी बराबर का क्षोभ व क्रोध हुआ करता था, अब बादल जितने जल से भरी हुई हैं।
शाम दोनों ही दृश्यों में है। यह दृश्य भी अमिट हो जाएगा, पुत्र के मन में।पहले दृश्य को आखों में बसी क्रोधाग्नि प्रकाशित किए हुए है, दूसरे दृश्य में आँखों के आकाश में छाई बदली कुहरीला बनाए हुए है। एक सर्द आह!
गद्य में लिखे ये सारे वाक्य गजब की कविता निर्मित करते हैं। जीवन का कोई भी निर्णायक समय, जीवन की आकाश गंगा का स्थायी भाव हो जाता है, जिसे कवि गंगा कहता है। क्रोध भी बहता है और आँसू भी। ध्यान देने की बात यह है कि इसी खंड से संकलन का शीर्षक लिया गया है- “प्रलय में लय जितना”, जिसकी आखिरी कविता को हम पढ़ रहे हैं। चाहें तो पढ़ सकते हैं कि पिता की मार वाली घटना (प्रलय) के बाद बेटे के जीवन का मार्ग निर्धारण (लय) हो गया। बेटे ने अपनी तरह से जीवन जीने की बात न केवल कह दी, बल्कि उस राह चल पड़ा।
कहते हैं कि यह शरीर जिन पंचतत्त्वों से बना है- क्षिति जल पावक गगन समीर- वे मृत्यु के बाद यहीं रह जाते हैं। कविता में इसकी अभिव्यक्ति का लावण्य देखें- “एक देह की अग्नि मिल रही है अग्नि से वायु, जल, आकाश अपने अपने घरों में लौट रहे हैं नतशिर।” घरों में लौटना नतशिर, जैसे कि यौद्धा लौटते हैं युद्ध में हारने के बाद। सचमुच देश की वह पीढ़ी जिसने देश की स्वतंत्रता में योगदान किया था और सपने संजोए थे, उनका जीवन से यूँ हार जाना बहुत सहज है। वे कैसे खुद को लुटा हुआ महसूस करते होंगे। पिता इस कविता में उनका प्रतीक बन कर उभरते हैं।इस “नतशिर” में मुझे निराला की “राम की शक्तिपूजा” के ये अंश सहज याद आ रहे हैं-
लौटे युग – दल – राक्षस – पदतल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार – बार आकाश विकल।
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज – पति – चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।
एक और बात पर ध्यान दें। अशोक की कविता की उपरोक्त पंक्तियों को एक बार फिर पढ़ें- हम पाते हैं कि उनमें मंत्र का सा नाद है- “एक देह की अग्नि मिल रही है अग्नि से वायु, जल, आकाश अपने अपने घरों में लौट रहे हैं नतशिर।” वैदिक मंत्रों की अनुगूंज सुनाई पड़ती है, इन्हें पढ़ते हुए। कोई भी कवि, यदि वह काव्य-परंपरा से गहरे में जुड़ा है, एक कन्टीन्यूटी का सृजन वह करता चलता है- सायास भी और अनायास भी। भाषा व रचनाशीलता की यही ताकत है। देखना यह चाहिए कि वह किन मूल्यबोधों को वाणी दे रहा है। अशोक की कविता निःसंदेह प्रगतिशील और लोकतांत्रिक मूल्यबोध की पक्षधर है।
जब कवि इस खंड को समाप्त करते हुए कहता है कि “उपमाएँ धुएँ की तरह बहुत ऊपर जाकर नष्ट हुईं शून्य के आकार में” तो वह एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात कह रहा है- अपनी शैली के बरअक्स । यह कविता बिंब-प्रधान, उपमाओं-रूपकों आदि अलंकारों से अलंकृत कविता नहीं है, बल्कि लगभग सारी कविता गद्यात्मक है और कई अंशों में बात को सीधा कहती प्रतीत भी होती है- ध्यान दें प्रतीत होती है पर, क्योंकि बात उतनी सीधी-सपाट नहीं है, बल्कि अर्थगंभीरत्व से सिद्ध है। धुआँ विलीन होता है आकाश में – उसे शून्य का आकार कहना मृत्यु की ओर इंगित करने के साथ साथ शून्य के एक अन्य पर्याय- दार्शनिक पर्याय की ओर भी हमारा ध्यान ले जाता है। शून्य-पूर्ण भी है। पूर्ण से पूर्ण को निकालें तो भी पूर्ण ही बचता है- मैटर की अक्षुणता का वाचक है कवि का यह वाक्य! मैं इसे इस रूप में भी पढ़ने का अनुरोध करती हूँ ।
कविता का अंतिम और सातवाँ (ध्यान दें सातवाँ- शरीर के चक्रों की तरह, सात समंदर की तरह, सतखंडे महल की तरह, सातवें आसमान की तरह, सात जन्मों की तरह आदि आदि) खंड छठे खंड का विस्तार है- कुछ नहीं गया साथ में- सच में मरने के बाद सब कुछ यही धरा रह जाता है। किंतु कहन के ढंग में ही तो कविता का निवास होता है। तो कवि पीछे छूटा हुआ किन चीजों को देख रहा है- रोपे गए फूलों के गंध फलों में बसा स्वाद। कवि है तो शब्द पर उसका ध्यान जाना स्वाभाविक ही है (वैसे इतना स्वाभाविक भी नहीं, क्यों कि शब्दों की सर्वाधिक हत्या कवि-लेखक ही करते हैं !) शब्द रह गए ब्रह्मांड में ही नहीं हम सबमें भी कितने सारे। सचमुच तमाम संबंधों की रचना शब्दों के माध्यम से ही होती है। संसार का सारा ताना बाना। हममें शब्दों का बचा रह जाना, उसी का द्योतक है। मान और अपमान का बचा रहना-पुनः अशोक के ऑबजर्वेशन को रेखांकित करता है, अन्यथा लोग उसे स्मृतियों के खाते में डालकर संतुष्ट हो जाते हैं। किंतु जिस कवि के लिए जवानी की दहलीज पर पिता से मार खाना आकाशगंगा में गंगा-सा प्रतीत होता है और प्रलय में लय सा, उसके द्वारा मान-अपमान को अलग से याद करना मायने रखता है।गोया कवि यह बताना चाहता है कि एक जीवंत रिश्ता, व्यक्ति के काल-कलवित हो जाने के बाद भी अपनी पूर्णता में कहीं न कहीं बचा रहता है।स्मृति और विस्मृति को कहना पुनः एक गहरी संवेदनशीलता का रेखांकन है, और कवि की सावधानी का भी।
लेकिन अंतिम वाक्य तो कविता का चरम है- “जाने को बस एक देह गयी जिस पर सारी दुनिया के घावों के निशान थे और एक स्त्री के प्रेम के”- वाह! अपनी माँ के अपने पिता के साथ संबंध को यह आधा वाक्य- “एक स्त्री के प्रेम का”- कितनी करूणा और खूबसूरती से व्यक्त कर देता है।अर्थों की कितनी ध्वनियाँ है इस अर्द्धाली में! यह है एक बालिग व्यक्ति (पुत्र नहीं!) परिपक्व कवि की पहचान का क्षण। स्त्री-पुरुष के आदिम संबंधों को अभिव्यक्त करती कितनी मांसल और कितनी संयत अभिव्यक्ति!
कविता इसे कहते हैं!
अशोक की कविता को पढ़ते हुए पिता पर लिखीं अनेक कवियों की कविताओं की ओर स्वतः ध्यान चला गया।बेटी के लिए पिता की ओर से लिखी चंद्रकांत देवताले की यह पंक्ति मन में कौंध रही है-
प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता
ईथर की तरह होता है
ज़रूर दिखाई देती होंगी नसीहतें
नुकीले पत्थरों-सी ..
यह पिता की कविता के पिता के लिए नहीं। और फिर याद आती है समीर बरण नंदी की कविता “ ओवरकोट” जिसमें पिता की दयनीयता एक भूखे-नंगे राष्ट्र की दयनीयता का प्रतीक बन जाती है। इसी तरह निरंजन श्रोत्रिय की कविता में इन दिनों स्त्री-जाति पर हो रही दरिंदगी के चलते पिता में आ गया अचानक बदलाव मन में धंस कर रह जाता है और अशोक वाजपेयी की कविता पिता को एक मूर्ति सा स्थापित करती लगती है। किंतु इन सभी पिता संबंधी कविताओं और अशोक पांडेय की इस कविता में बहुत मूलभूत अंतर है। ये कविता पिता की संकल्पना को प्रस्तुत करती कविताएँ है, जबकि अशोक की कविता पिता-पुत्र के बदलते संबंधों को घटनाओं के माध्यम से देखने-बूझने का प्रयास करती कविता है।यह एक अनुभवजनित कविता है, जिसमें हम मन और संबंध का “पल पल परिवर्तित रूप” देखते हैं- होने न होने की विडंबना और त्रासदी से गुजरते हुए। यह बहुत ही जमीनी कविता है। अशोक एक तरह से पिता के साथ अपने संबंध की पुनर्सर्जना करते हुए उसे आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक ले जाते हैं और साधारणीकरण के धरातल तक भी।पिता-पुत्र के संबंधों में उतार-चढ़ाव इसी का द्योतक हैं।यही इस कविता का वैशिष्ट्य भी है। इसीलिए गद्य और पद्य में लिखी यह एक बेहद महत्त्वपूर्ण रचना है।
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