किसी के विरोध में खड़े हो जाना अत्यंत सरल है. बहुत संभव है कि बड़े से बड़ा व्यक्ति भी किसी बिंदु पर आकर स्वार्थ के वशीभूत होकर गलत निर्णय ले परन्तु एक व्यक्ति के तौर पर उसकी अच्छाइयों की अवहेलना नहीं की जा सकती. भीष्म साहनी ने अपनी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में नेहरूजी से पहली मुलाक़ात का वाक़या लिखा है. देखिये कैसा सरल व्यक्तित्व है- दिव्या विजय
पंडित नेहरू काश्मीर यात्रा पर आए थे जहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ था. शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में, झेलम नदी पर, शहर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक, सातवें पुल से अमीराकदल तक, नावों में उनकी शोभायात्रा देखने को मिली थी जब नदी के दोनों ओर हज़ारों-हज़ार काश्मीर निवासी अदम्य उत्साह के साथ उनका स्वागत कर रहे थे. अद्भुत दृश्य था.
इस अवसर पर नेहरू जी को जिस बंगले में ठहराया गया था, वह मेरे फुफेरे भाई का था और भाई के आग्रह पर कि मैं पंडित जी की देखभाल में उनका हाथ बटाऊँ, मैं भी उस बँगले में पहुँच गया था.
दिनभर तो पंडित जी स्थानीय नेताओं के साथ जगह-जगह घूमते, विचार-विमर्श करते, बड़े व्यस्त रहते पर शाम को जब बँगले में खाने पर बैठते और लोगों के साथ मैं भी जा बैठता. उनका वार्तालाप सुनता. नेहरू जी को नज़दीक से देख पाने का मेरे लिए यह सुनहरा मौक़ा था.
उस रोज़ खाने की मेज़ पर बड़े लब्धप्रतिष्ठित लोग बैठे थे- शेख़ अब्दुल्ला, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान, श्रीमती रामेश्वरी नेहरू, उनके पति आदि. बातों-बातों में कहीं धर्म की बात चली तो रामेश्वरी नेहरू और जवाहरलाल जी के बीच बहस-सी छिड़ गयी. एक बार तो जवाहरलाल बड़ी गरमजोशी के साथ तनिक तुनककर बोले, “मैं भी धर्म के बारे में कुछ जानता हूँ”. रामेश्वरी चुप रहीं. शीघ्र ही जवाहरलाल ठंडे पड़ गये और धीरे से बोले, “आप लोगों को एक क़िस्सा सुनाता हूँ.”
और उन्होंने फ़्रांस के विख्यात लेखक, अनातोले द्वारा लिखित एक मार्मिक कहानी कह सुनाई. कहानी इस तरह है कि पेरिस शहर में एक ग़रीब बाज़ीगर रहा करता था जो तरह-तरह के क़रतब दिखा कर अपना पेट पालता था और इसी व्यवसाय में उसकी जवानी निकल गयी थी और अब बड़ी उम्र का हो चला था.
क्रिसमस का पर्व था, पेरिस के बड़े गिरजे में पेरिस निवासी, सजे-धजे, हाथों में फूलों के गुच्छे और तरह-तरह के उपहार लिए माता मरियम को श्रद्धांजलि अर्पित करने गिरजे में जा रहे थे. गिरजे के बाहर ग़रीब बाज़ीगर हताश-सा खड़ा है क्योंकि वह इस पर्व में भाग नहीं ले सकता. न तो उसके पास माता मरियम के चरणों में रखने के लिए कोई तोहफ़ा है और न ही उस फटेहाल को कोई गिरजे के अंदर जाने देगा-
सहसा ही उसके मन में यह विचार कौंध गया- मैं उपहार तो नहीं दे सकता पर मैं माता मरियम को अपने क़रतब दिखाकर उनकी अभ्यर्थना कर सकता हूँ. यही कुछ है जो मैं भेंट कर सकता हूँ.
जब श्रद्धालु चले जाते हैं और गिरजा ख़ाली हो जाता है तो बाज़ीगर चुपके से अंदर घुस जाता है, कपड़े उतारकर पूरे उत्साह के साथ अपने क़रतब दिखाने लगता है. गिरजे में अँधेरा है, श्रद्धालु जा चुके हैं, दरवाज़े बंद हैं. कभी सिर के बल खड़े होकर, कभी तरह-तरह अंगचालन करते हुए बड़ी तन्मयता के साथ एक के बाद एक क़रतब दिखाता हैयहाँ तक कि हाँफने लगता है.
उसके हाँफने की आवाज़ कहीं बड़े पादरी के कान में पड़ जाती है और वह यह समझ कर कि कोई जानवर गिरजे के अंदर घुस गया है और गिरजे को दूषित कर रहा है , भागता हुआ गिरजे के अंदर आता है.
उस वक़्त बाज़ीगर सिर के बल खड़ा अपना सबसे चहेता क़रतब बड़ी तन्मयता से दिखा रहा था. यह दृश्य देखते ही पादरी तिलमिला उठता है. माता मरियम का इससे बड़ा अपमान क्या होगा? आगबबूला वह नट की ओर बढ़ता है कि उसे लात जमाकर गिरजे के बाहर निकाल दे.
वह नट की ओर ग़ुस्से से बढ़ ही रहा है तो क्या देखता है कि माता मरियम की मूर्ति अपनी जगह से हिली है, माता मरियम अपने मंच से उतर आई हैं और धीरे-धीरे आगे बढ़ती हुई नट के पास जा पहुँची हैं और अपने आँचल से हाँफते नट के माथे का पसीना पोंछती हुई उसके सिर को सहलाने लगी हैं.
यह कहानी नेहरू जी के मुँह से सुनी. मेज़ पर बैठे सभी व्यक्ति दत्तचित्त होकर सुन रहे थे.
नेहरू जी का कमरा ऊपरवाली मंज़िल पर था जिसके बग़लवाले कमरे में मैं और मेरे फुफेरे भाई टिके हुए थे. उस रात देर तक नेहरू जी चिट्ठियाँ लिखवाते रहे थे. सुबह-सवेरे जब मैं उठकर नीचे जा रहा था तो नेहरू जी के कमरे के सामने से गुज़रते हुए मैंने देखा कि नेहरूजी फ़र्श पर चरखा कात रहे हैं, उनकी पीठ दरवाज़े की ओर थी.
मैं अभी अख़बार देख ही रहा था कि सीढ़ियों पर किसी के उतरने की आवाज़ आई. मैं समझ गया कि नेहरू जी उतर रहे हैं. उन्हें उस रोज़ अपने साथियों के साथ पहलगाम के लिए रवाना हो जाना था.
अख़बार मेरे हाथ में था, तभी मुझे एक बचकानी-सी हरक़त सूझी. मैंने फ़ैसला किया कि मैं अख़बार पढ़ता रहूँगा और तभी नेहरूजी के हाथ में दूँगा जब वे माँगेंगे. कम-से-कम छोटा-सा वार्तालाप तो इस बहाने हो जाएगा.
नेहरू जी आए, मेरे हाथ में अख़बार देखकर एक ओर को खड़े रहे. वह शायद इस इंतज़ार में खड़े रहे कि मैं स्वयम् अख़बार उनके हाथ में दे दूँगा. मैं अख़बार की नज़रसानी क्या करता, मेरी तो टाँगें लरज़नी लगी थीं, डर रहा था कि कहीं नेहरूजी बिगड़ न बैठें. फिर भी अख़बार को थामे रहा.
कुछ देर बाद नेहरूजी धीरे-से बोले–
“आपने देख लिया हो तो क्या मैं एक नज़र देख सकता हूँ?”
सुनते ही मैं पानी-पानी हो गया और अख़बार उनके हाथ में दे दिया.
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