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प्रदीपिका सारस्वत की कहानी ’14 फ़रवरी’

युवा लेखिका प्रदीपिका सारस्वत को किसी परिचय की दरकार नहीं है. कहानियां जरूर उन्होंने हाल में लिखना शुरू किया है. आज उनकी नई कहानी पढ़िए- मॉडरेटर

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मैं आज एक नए मकान में पहुँचा हूँ. नया मकान, हुँह! मकान बहुत पुराना है. कुछ नहीं तो 100 से ऊपर का तो है ही. अजीब सी बू है यहाँ, धूल की, नमी की, किसी की पुरानी यादों की. कुछ-कुछ वैसी ही जैसी गाँव के पुराने घर में मिलती थी, जब मैं माँ, बाबा और भैया के साथ महीनों, और फिर सालों बाद वहाँ जाया करते था. सोचता हूँ कि चलो कुछ तो अब भी एक सा बाक़ी है इन दो मुल्कों में.

मैंने एक कमरा थोड़ा-बहुत साफ़ कर लिया है. हाँ, यहाँ मेरे पास कोई घनश्याम नहीं है मेरे काम करने के लिए. एक तहख़ाना मिलाकर कुल आठ कमरे हैं इस मकान में. मैंने पहले माले पर पीछे की तरफ़ का एक कमरा अपने लिए चुना है. पीछे की तरफ़ ख़ाली मैदान है. मैदान क्या, कभी खेत रहे होंगे, अब कोई प्लॉट है, जिस पर चाचा-भतीजे झगड़ रहे होंगे. बाक़ी के कमरे वापस बंद कर दिए हैं. इनमें भी शायद कुछ लोग रहने आएँ, पर फ़िलहाल तो बस मैं ही हूँ. कहाँ बस मैं ही हूँ! तुम्हें यक़ीन नहीं आएगा यहाँ कितनी मकड़ियाँ हैं. कुर्सियों के कोनों से लेकर ताकों पर पड़ी अधजली मोमबत्तियों तक, हर चीज़ को मकड़ियों ने एक दूसरे से जोड़ दिया था. ऐसा कम्युनिकेशन सेंस कि कोई बड़ा इंजीनियर भी चकरा जाए. हम हैं कि यहाँ अब भी एक क़िस्से के तार दूसरे से जोड़ने के लिए इंसानों की दौड़ के भरोसे हैं, और इनकी तकनीक देखो, कुछ भी कहीं बाक़ी नहीं जिसे जोड़ा नहीं गया है.

बहुत काम बाक़ी है मुझे. दरबारा सिंह काग़ज़ों का पूरा ढेर इधर ही छोड़ गया है. जो खाना लाया था वो भी ठंडा हो चुका है और यहाँ गरम करने के लिए कोई स्टोव तक नहीं. ये सब शिकायत के मुद्दे हैं भी नहीं अब, पहले भी नहीं थे शायद. पर काम बहुत है. वक़्त बहुत होने के बावजूद भी कम ही लगता है. लगता है जितना वक़्त हाथ में है कुछ और देख लेना चाहिए, सुन लेना चाहिए. समझने की शायद ज़रूरत ख़त्म हो गई है. तस्वीरों और आवाज़ों को अब प्रोसेस किया जाता है, दिमाग में, मशीन में. दिमाग भी तो मशीन ही है. ठंड लग रही है थोड़ी. मतलब शरीर अब भी मशीन नहीं बन पाया है. पिछले दिनों कमर में इंजुरी हुई थी. ठंड ने फिर से उसका दर्द बढ़ा दिया है. अब शरीर उतना ताज़ा नहीं रह गया है.

इस कमरे में भारी लकड़ी की एक अलमारी है, कपड़ों से भरी हुई. तमाम चादरें, कंबंल और मेज़पोश रखे हैं इसमें. बेलबूटों वाले. फूलों वाले. किसी ने बड़े मन से काम किया होगा इन पर. लेकिन अब सब यहाँ पड़े हैं, अनक्लेम्ड. क़ैद में मर जाने वाले की लाश की तरह. उन हाथों में कितनी सुइयाँ चुभी होंगी वो सब फूल सींते हुए जो अब किसी के नहीं हैं. दरअसल किसी के कभी हो ही नहीं पाए. कमाल है, मैं अब चादर पर सिले फूलों की भी तफ्तीश करने लगा हूँ. सरदारा ठीक कह रहा था कि सब चादरें कोरी हैं, कभी इस्तेमाल नहीं हुईं. पर देखो, हर चादर पर दाग पड़े हुए हैं. बिना इस्तेमाल किए कोई चीज़ कैसे मैली हो सकती है? पर होती है. मैं देख रहा हूँ. हाँ, देख रहा हूँ.

इस तरफ़ जाने से मुझ जैसों को बचना चाहिए, पर… यह भी तो मुझ जैसे ही कहते हैं न, क़ायदे तोड़ने के लिए बनते हैं. मैं देख रहा हूँ, मेरा एक हिस्सा इन चादरों जैसा हो गया है. मैला. बिना इस्तेमाल में आए भी मैला. रात गहरी हो रही है और सर्दी भी. पाँवों की अंगुलियाँ कब से ठंडी पड़ी हुई हैं. बदन थका हुआ है. पिछली तीन रातें मैं और सरदारा जागते रहे हैं. वो तो अब तक अपने बशीर मियाँ के बरामदे में खर्राटे लेने लग गया होगा. पर मैं, बिस्तर से बचने के बहाने ढ़ूँढ रहा हूँ. इससे पहले कितने घरों में, कितने बिस्तरों में सोया हूँ. पर यहाँ कुछ तो अलग है. शायद चीज़ों का इस्तेमाल न होना, उनका किसी का न हो पाना और फिर बस ख़त्म हो जाना… ये डरा देने वाली बात है. है न?

मैं ये सब नहीं सोचता. ये सब कमज़ोरियाँ हैं दिमाग की. इन सब ख़यालों के ज़रिए तुम्हारा अपना दिमाग तुम पर क़ाबू पाने की कोशिश करता है. तुम्हें हराने की कोशिश करता है. हाँ, हमें हर वक़्त बाहरी नहीं, भीतरी दुश्मनों से भी लड़ते रहना होता है. बाहरी जंगें जीतना उतना मुश्किल नहीं जितना भीतर की. बाहर क्या चाहिए? बदन की ताक़त, हथियार और हिम्मत. भीतर के दुश्मन आपके अपने की शक्ल में आते हैं. आप उन पर हथियार नहीं उठा पाते. आप मानने को तैयार ही नहीं होते कि वो आपके दुश्मन हो सकते हैं. हाँ, उन्हें पहचान लेना ही जंग जीत लेने के बराबर है. देखो तो, बाहर मैं किसी और का दुश्मन हूँ. और भीतर खुद अपना. पिछले दिनों सड़कों पर रातें जागते हुए भी उतनी ठंड नहीं लगी, जितनी आज कमरे के भीतर बिस्तर के सामने लग रही है.

बिस्तर पर चादर नहीं डाली है. डाल ही नहीं पा रहा हूँ. तीन चादरें निकाल कर वापिस रख चुका हूँ. इनमें एक अजीब सी महक है. वक़्त के बीत जाने की, कोरे अनछुएपन की और… और शायद इंतिज़ार की. मैं इन चादरों में अपना वो चेहरा देख रहा हूँ जो तुम देखने की कोशिश करती रही हो. जब भी तुम उस चेहरे के क़रीब आकर रुक गई हो, मैं आँखें बचाकर कर दूर निकल गया हूँ. यह जानते हुए भी कि तुम्हारे क़रीब आते ही मुझ में अपने उस चेहरे को तुम्हारी आँखों में देखने की ख़्वाहिश सर उठाने लगती है. लग रहा है जैसे कोई जादू है इन सफ़ेद चादरों में, वैसा ही जैसा तुम्हारी नज़्मों में, तुम्हारी चिट्ठियों में होता था. तुम्हारी उन बातों में, सवालों में होता था, जिनसे मैं जितनी दूर रहने की कोशिश करता हूँ, उतना ही उनमें डूब जाना चाहता हूँ.

एक अरसे से मैं सोचता रहा हूँ कि तुम इन दिनों क्या लिखती होगी. जानता हूँ कि मेरे पते के बग़ैर भी मुझे चिट्ठियाँ लिखी होंगी तुमने. पर आज मुझसे इजाज़त लिए बिना इस महक ने किसी मकड़ी की तरह समंदर के इस छोर से उस छोर तक एक जाल बना दिया है. वर्ल्ड वाइड वेब का कनेक्शन. ना, मैं खुद अपने ख़िलाफ़ इस साज़िश में शामिल हूँ. मैं यहाँ होते हुए हुए भी तुम्हारी मेज़ के दूसरे छोर पर बैठा तुम्हें लिखते हुए देख रहा हूँ. तुम्हारे नए कंप्यूटर के कैमरे से झाँकते हुए. तुम अब भी वैसी ही हो, जैसा आख़िरी बार देखा था. ये कहना कितना फ़िल्मी और किताबी है, जानता हूँ. पर सच है. मैं भी वैसा ही हूँ जैसा तुमने आख़िरी बार देखा था. मेरे आस-पास सब कुछ बदल जाने के बावजूद. बाहर सब कुछ बदल जाने के बाद भी भीतर कुछ होता है जो कभी नहीं बदलता. जो कभी नहीं बदलेगा. उन चादरों पर दाग लग जाने के बाद भी उनमें कुछ तो वैसा ही बाक़ी है जैसा पहले दिन रहा होगा. तुम मुझे सुनतीं तो कहतीं मैं शाइरों की तरह बातें कर रहा हूँ.

मैं तुम्हें चिट्ठी लिखना चाहता हूँ. इससे पहले कि मेरे भीतर की बेल-बूटों वाली इस चादर का ताना-बाना किसी हादसे में खुल कर बिखर जाए, या उसे उठा कर कहीं ऐसी जगह डाल दिया जाए जहाँ से उसे फिर से देखे जाने, छुए जाने का कोई रास्ता ही न बचे, मैं उसे इस्तेमाल होते देखना चाहता हूँ. इस बात के बावजूद कि जिस तरह तुमने हमेशा मुझे देखा है, मैंने कभी तुम्हें नहीं देखा, मैं चाहता हूँ कि जैसे मैं तुम्हें अभी देख रहा हूँ, तुम भी मुझे देखो. मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि मेरे भीतर का एक हिस्सा बिलकुल कोरा है, जिसे कभी छुआ नहीं गया, इस्तेमाल नहीं किया गया. मैं चाहता हूँ कि तुम उसे क्लेम करो, इससे पहले कि उस पर पड़े दाग उसे ख़त्म कर दें. आज मैं खुद को नहीं रोकूँगा, तुम्हें भी नहीं.

कल शायद मैं इस जादू से बाहर निकल चुका होउंगा. तब मैं फिर तुमसे, तुम्हारे ख़याल से दूर भागूँगा. पर उससे पहले, आज, मैं चाहता हूँ कि तुम आकर मुझसे कहो कि बाक़ी सब झूठ है, सिवाय मेरे और तुम्हारे यहाँ इस पल में एक-साथ होने के. मैं चाहता हूँ कि तुम एक चादर चुन कर बिस्तर पर डाल दो, और हम उसे क्लेम कर लें. तुमसे यह सब कहते हुए मैं खुद को कमज़ोर नहीं जान रहा हूँ. नहीं, मेरा दिमाग मुझसे किसी तरह के झगड़े में नहीं है. मैं किसी से हार या जीत नहीं रहा हूँ. मैं बस अपने भीतर खुद की शिनाख्त कर रहा हूँ. मेरा दिमाग मेरे कंधे पर हाथ रखकर मेरे बाज़ू में खड़ा है. मैं देख रहा हूँ कि जिन्हें हम दुश्मन समझते हैं, वो कई बार दोस्त होते हैं. और कई बार दुश्मन ही सबसे अच्छे दोस्त होते हैं.

बाहर दरवाज़े पर आहट हो रही है. ओह, दरबारा आ पहुँचा है. रात कब बीत गई मैं देख ही नहीं पाया. ये अनलिखी चिट्ठी अधूरी छोड़नी होगी मुझे. बाहर के तमाम काम पूरे करते हुए मैं अपने आप को अपने भीतर यूँ ही अधूरा छोड़ता रहा हूँ. पर जानता हूँ कि तुम सब संभाल लोगी, मेरा और अपना दोनों का अधूरापन. तुम कहती हो ना, जीना तुम्हारे हिस्से और महसूस करना मेरे हिस्से. इस तरह तो हम अधूरे जीते हुए भी पूरा ही जिएँगे. तारीख़ याद है मुझे आज की, 14 फ़रवरी है, मगर बाकी प्यार करने वालों की तरह तुम्हारा दिन किसी ख़ूबसूरत शाम के इंतज़ार में नहीं बीतेगा. मुझे भी कुछ देर में काम पर निकलना है, पर मैं आज दिन भर तुम्हारे साथ रहूँगा. मेरा काम बहुत ज़रूरी है. पर मिरी जान, कोई भी चादर अनक्लेम्ड नहीं रहनी चाहिए.

 
      

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