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 इरशाद ख़ान सिकन्दर की व्यंग्य कहानी ‘सिलवट भोजपुरिया’

इरशाद खान सिकंदर मूलतः शायर हैं। लेकिन लेकिन वे उन दुर्लभ शायरों में हैं जो गद्य भी बाकमाल लिखते हैं। अब यह व्यंग्य ही पढ़िए- मॉडरेटर

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बात पुरानी है मगर इतनी भी पुरानी नहीं कि बच्चन साहब से वॉयस ओवर करवाना पड़े। हुआ यूँ कि सुबह-सुबह ‘’सिलवट भोजपुरिया’’ साहब मुँह उठाये हमारे घर आ धमके। हालाँकि वो रोज़ सुबह-सुबह सिर्फ़ मुँह नहीं अपने दोनों बच्चों को भी उठाये आ धमकते थे और कोने के सोफ़े में पसरकर घंटों बैठे रहते हाँ अगर चाय-नाश्ते का जल्द इन्तिज़ाम हो जाय तो कई बार मिनटों में भी जान छोड़ देते।अक्सर होता यूँ था कि वो
बैठे-बैठे अपनी तशरीफ़ का एक सिरा ज़रा सा ऊपर उठाकर एक लम्बी तान छोड़ते और बच्चे ज़ोर-ज़ोर से हँसना शुरु कर देते। मेरे बच्चे नहीं! उनके अपने बच्चे।
मेरे तो उस वक़्त तक बच्चे ही नहीं थे। उनकी लम्बी तान कई बार मेरे या मेरी बेगम के सामने ही शुरू हो जाती तो झेंपते हुए भोजपुरी में कहते-
‘’हें हें हें …निकल गइल हs का कइल जाव’’
हम दोनों ही इसका कोई जवाब न देते। देते भी कैसे? मुआमला ही लाजवाब था।
ख़ैर…चाय-नाश्ते के बाद वो तम्बाकू निकालकर पहले अपनी हथेली पर रखते फिर उसमें से कोई चीज़ चुन-चुनकर घर की चारों दिशाओं में फेंका करते।कई बार तम्बाकू के बजाय अपनी नाक से भी कुछ चुन-चुनकर वो घर के फ़र्श पर निशाना लगाते रहते। इन सारी कसरतों के बाद जब वो चलने को होते तो अपनी भोजपुरीनुमा हिन्दी में मुझे ये ज्ञान देना न भूलते –
‘’देखिये मियाँ साहब हम तs एके बात जानता हूँ कि जदि दीली सहर में आपको
गुजर-बसर करना है तs दोसरा के इहाँ चाह पी लो, नासता कs लो अ मोका मिले तs भोजनवो। तबे जी पायेगा अदमी नहीं त बोरिया-बिस्तर बन्हा जाएगा…समझे?’’
उनकी ये बात एक दिन मैं समझ गया यानी उनके हाज़िर होने से पहले मैं ही उनके यहाँ चला गया। अन्जाम ये हुआ कि मेरे आवाज़ लगाते ही वो फ़ुर्ती से अपने घर से बाहर निकले और मेरा हाथ पकड़कर ज्ञान देते हुए। चलते-चलते मेरे घर आकर रुके। फिर सोफ़े में पसरकर मुझसे बड़े ही जोशीले अन्दाज़ में मुहब्बत से कहने लगे-
‘’मियाँ साहब! चाह में अदरक तनिका बढ़वा दीजियेगा जोखाम हो गया है ससुरा! रातिये से नेकुरा नाबदान बना हुआ है’’।  
ये कहकर उन्होंने अपनी नाक की एक साइड पर अंगूठा रखा और साँसों के  ज़ोरदार झटके से कमरे की दीवार पर डिज़ाइन बना दिया। अब यहाँ ये भी बताता चलूँ कि वो मुझे ‘मियाँ’ क्यों कहते थे।इसमें कोई ख़ास बात नहीं है दरअस्ल वो किसी भी मुस्लिम शख़्स को ‘मियाँ’ ही कहते थे। एक बात और, मैं इसे ख़ुशनसीबी कहूँ या बदनसीबी कि किसी ज़िन्दा शायर के तौर पर वो सिर्फ़ मुझे ही जानते थे और शायरी को बहुत बेकार चीज़ समझते थे। ख़ासतौर से मेरी शायरी को।किताबों की प्रूफ़ रीडिंग,तर्जुमा जैसे काम के सिलसिले में अक्सर पब्लिकेशन हाउसेज़ में मेरा आना-जाना होता रहता था । मेरे इन कामों से सिलवट साहब को न जाने क्यों बहुत चिढ़ थी बल्कि वो इसे काम नहीं वक़्त की बरबादी समझते थे।मेरी भागदौड़ के लिये वो एक मुहावरा इस्तेमाल करते हुए समझाते-
‘’एगो कहावत है कुत्ता को काम नहीं अ दौड़ने से फुरसत नहीं देखिये मियाँ साहब कुछ नहीं धरा है ई सायरी-वायरी में ई सब किताब-सिताब कागज और दिमाग खराब करने का चीज है।अन्त में दीमक ही चाटता है इन सबको। जीवन में कुछ करना है तो कलम का धारा बदलिए अ भजपूरी चटखार गीत लिखिए इसी का मार्किट है आजकल..समझे?’’
भोजपुरी गीतकारों से वे बड़े ख़ुश रहते और उन्हें ससम्मान ‘’कोवी जी’’ कहते थे। भोजपुरी गीतकार का ज़िक्र इसलिए आया कि ‘’सिलवट भोजपुरिया’’ साहब ख़ुद भोजपुरी के माशाअल्लाह सुपरफ्लॉप गायक थे। यहाँ यह भी ध्यान रहे कि ये ‘’सिलवट’’ लफ़्ज़ उर्दू वाला नहीं बल्कि भोजपुरी वाला है।
उनका असली नाम ‘’कुमार कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणं’’ था। एक दिन मैंने इस अद्भुत नाम का मतलब और कारण पूछा तो बताने लगे-
‘’अ देखिये मतलब तो हमको नहीं पता बाकी कारण सुन लीजिये। बात ई है कि हमरे पिता जी को संस्कृत से बहुत प्रेम था माने कि बहुतै…अथाह..। त ऊ एगो पंडी जी लगे गये संस्कृत सीखने। झूठ नहीं बोलेंगे पंडी जी त बेचारे बड़ी कोसिस किये लेकिन हमरे पिता जी सीखिए नहीं पाये…अब अइसा भी नहीं है कि एकदम्मै नहीं सीखे,एगो सबद त सीखे, अ ऊ यही था समझ गये ना? ‘’कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणं’’ । अ ऊहो सीखे कइसे कि पंडी जी एक रोज पूजा कर रहे थे और पूजा में ई सबद जइसहीं बोले हमरे पिता जी की जुबान पर ओही घड़ी सरसती बिराजमान हो गयीं अ सरसती किरपा से तड़ देना पिता जी ई सबद कैच कर लिए, ओकरे बाद सरसती दोबारा अइबे नहीं कीं त पिता जी ई सबद सरसती परसाद समझ के रटते रहे। अ जब हम जनम लिए त पिता जी का परसाद हमरा नाम बन गया बस उसमें कुमार अलग से जोड़ दिया गया था। सबकुछ त ठीक था पिता जी की परसादी हमको भी पसन्द था बाकिर लोग हमरा नमवे नहीं बोल पाता था। ‘’कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणं’’ में से जम्बू निकालकर सब हमको जम्बू जम्बू बोलाने लगा इहाँ तक भी ठीक था लेकिन बाद में जब लोग हमको जम्बू सर्कस कहकर चिढ़ाने लगा तब हमरा माथा ठनका! हम भी गायक बनना चाह रहे थे सो इसलिए भी एगो उपनाम खोजना जरूरी था। अब देखिये खेला कि खोज पूरा कैसे हुआ।
एक दिन जब माई सिलवट पर चटनी पीस रही थी त वहीं से हमरा दिमाग काम किया अ हम फौरन ‘’कुमार कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणं’’ से ‘’सिलवट भोजपुरिया’’ हो गये।‘’

तो हज़रात! ‘मीर’ ‘ग़ालिब’ ‘रुस्वा’ ‘बेदिल’ ‘दिनकर’ ‘बच्चन’ वग़ैरह अदीबों के तख़ल्लुस  और उनकी तख़्लीक़ से तो आप अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं। लेकिन अगर आप भोजपुरी गीतकारों के तख़ल्लुस और उनके कलाम से अभी तक महरूम रहे हैं तो समझिये आपने अब तक अपनी साँसें ज़ाया की हैं। ख़ुदा जाने आपकी क़िस्मत कब आप पर मेहरबान हो और आप इन अज़ीम फ़नकारों को सुन पायें। लेकिन मेरा एक दावा है जिस दिन आपने इन गीतों को सुन लिया उस दिन के बाद से आप कुछ सुनने के क़ाबिल नहीं रहेंगे।लम्बी बात को मुख़्तसर करते हुए अगर कहूँ तो सिर्फ़ आपके कानों से ख़ून नहीं बल्कि बदन के सभी निकलने वाले हिस्सों से जो जो निकल सकता है निकल पड़ेगा मसलन आँखें,ज़बान,ग़ुस्सा, मुमकिन है रूह भी निकल जाए । अब बात आती है इनके तख़ल्लुस की तो उसकी भी दो चार बानगी देखिये ‘’बोकापण्डित’’ ‘’निष्ठुर प्रेमी’’ ‘’मौलाना मतलबी’’ ‘’बिल्ला जापानी’’ ‘’रोहित मनमाना’’ ‘’सन्तू लाखैरा’’ वग़ैरह-वग़ैरह।ऐसा नहीं कि सिर्फ़ गीतकारों में ही तख़ल्लुस का चलन है।गायक और गायिकायें भी तख़ल्लुस न सिर्फ़ रखते हैं बल्कि कामयाबी न मिलने पर इसे बदलते भी रहते हैं।गायिकायें अपने नाम के आगे कुछ इस तरह का तख़ल्लुस लगाया करती हैं ‘’रंगीली’’ ‘’रसीली’’ ‘’छप्पन छूरी’’ ‘’तहलका’’ ‘’भूकम्प’’ वग़ैरह।मैं चाहता तो ये भी था कि कि इनके कुछ अल्बमों का उन्वान भी आपको बताऊँ लेकिन नहीं बताऊँगा ये मुझसे न हो पायेगा। अच्छा! ये भी है कि ये सारे गायक/गायिकायें जुबली स्टार, डायमण्ड स्टार,मेगास्टार,सुपर स्टार से ही अपना कैरियर शुरू करते हैं।इस कड़ी में आख़िरी बात ये है कि जनाब ‘’सिलवट भोजपुरिया’’ चाहते थे कि मैं भी अपना तख़ल्लुस ‘’मियाँ मनमौजी’’ रख लूँ और उनके लिए ‘’ईख में चीख’’ टाइप कोई ऐतिहासिक गीत रचूँ। लेकिन अफ़सोस मैं उनकी ख़्वाहिश पूरी न कर सका और आगे चलकर उनसे
तर्के-तअल्लुक़ की कई वजहों में एक अहम वजह ये भी साबित हुई। मैं सोचता हूँ कि जब जनाब सिलवट भोजपुरिया उर्फ़ ‘’कुमार कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणं’’
की इतनी बात हो ही रही है तो आपको थोड़ा सा उनका हुलिया और स्वाभाव भी बताता चलूँ ….ताकि सनद रहे। उनके शारीरिक ढाँचे की बात करूँ तो वो क़द-काठी से बिल्कुल वनमानुष लगते चेहरे के लिये मेरा ख़याल है दरियाई घोड़े की तश्बीह ज़ियादा मुनासिब है। अगर बैकसाइड से उनपर नज़र पड़ जाए तो कुछ-कुछ दुम्बे जैसे दीखते। बात अगर उनकी चाल की करें तो इस एहतियात से चलते जैसे खतना करवा रखा हो और अगर बात चाल-चलन की हो तो किस ज़बान में समझाऊँ? यूँ समझ लीजिये धारा 377 हटने की दिन-रात दुआ माँगते थे। उनकी तमाम ख़ूबियों में एक ख़ूबी ये भी थी कि उनके बाल, तिल और दिल तीनों का रंग एक जैसा था यानी काला। इनमें बाल को छोड़कर बाक़ी चीज़ें ज़िन्दगी भर यूँ ही रहेंगी इसमें ज़र्रा बराबर भी शक की गुन्जाइश कम-अज़-कम मुझे तो कभी महसूस नहीं हुई। अलबत्ता वो कपड़े ज़रूर सफ़ेद पहनते इसका कारण भी मुझे इन दिनों समझ में आया।आप सब भी थोड़ी देर में समझ जायेंगे। बात रिश्तों को निभाने की करें तो इस फ़ार्मूले को वो अपनी ज़िन्दगी बना चुके थे ‘ऐसा कोई सगा नहीं जिसको हमने ठगा नहीं’। एक छोटी सी मिसाल मुलाहज़ा फ़रमाइए। हुआ यूँ कि एक मर्तबा मुझे ख़बर मिली कि मेरी वालिदा की तबीयत बहुत ख़राब है तो हम मियाँ बीवी दोनों को एक साथ अपने गाँव लौटना पड़ा मैंने मकान मालिक और सिलवट भोजपुरिया साहब से अपना हाल बयाँ करके जल्द लौट आने का यक़ीन दिलाकर इजाज़त ली। इत्तेफ़ाक़न उस वक़्त पैसे की तंगी के सबब मैं कमरे का किराया नहीं दे पाया था सो मैंने सिलवट साहब से गुज़ारिश की-  
‘’किराया आप दे दीजियेगा मैं आते ही लौटा दूँगा’’
हालाँकि सिलवट साहब पर मेरे कितने पैसे बक़ाया थे सिलवट साहब तो क्या मैंने भी इसका हिसाब रखना छोड़ दिया था। ऐसी चीज़ का मोह क्या करना जो कभी वापस नहीं आ सकती। कोफ़्त तो तब होती है कि अब भी सिलवट साहब आये दिन उधार लेने आ जाते हैं आप सोच रहे होंगे मैं दे क्यों देता हूँ इसका जवाब तो आपको तभी मिल सकता है जब वो कभी आपसे उधार लेने पहुँच जाएँ।अच्छा! मज़े की बात ये है कि वो ‘’मात्र एक सप्ताह’’ या ‘’विद इन वन वीक’’ के लिए ही उधार लिया करते थे। ख़ैर.. मैं ये अर्ज़ कर रहा था कि हम गाँव पहुँचे मगर गाँव पहुँचकर मुआमला उलझता चला गया। वालिदा की तबीयत बद से बदतर होती गयी और आख़िरश वो हमारा साथ छोड़ गयीं। इन्हीं हालात के सबब गाँव में पूरे चार महीने बीत गये। उस वक़्त हमारे और मकान मालिक के दरमियान राब्ता क़ायम करने का कोई ज़रिया नहीं था सो हम अपने हालात से उन्हें आगाह नहीं कर पाये। फिर भी हम मुतमइन थे बल्कि मुझसे ज़ियादा मेरी बेगम कि ‘’सिलवट भाई सँभाल लेंगे’’। अब ये भी सुनिए कि सिलवट भाई ने हमारी छोटी सी गृहस्थी को सँभाला कैसे? जब हम दिल्ली पहुँचे तो हमें मालूम हुआ कि मकान मालिक ने तीन महीने इन्तिज़ार के बाद जब सिलवट साहब से मश्वरा किया कि क्या किया जाय किराया बढ़ता जा रहा है अगर कमरा ख़ाली होता तो हम कोई और किरायेदार रख लेते। तो सिलवट साहब ने भी फ़ौरन हल सुझा दिया उनका कहना था कि घर में कोई क़ीमती सामान तो है नहीं वही बिस्तर तकिया बर्तन भांडे हैं आप समाज के कुछ ख़ास लोगों को बुलाकर उन्हें समस्या समझा दीजिये और उनके सामने ही ताला तोड़कर कमरा ख़ाली कर लीजिये। रहा सवाल आपका किराया तो सामान बेचकर कुछ रिकवरी हो जायेगा। कुछ आपको सब्र करना पड़ेगा। बात रही मियाँ जी की तो वो  तो अब आने से रहे। मकान मालिक को बात जँच गयी और उसने यही किया।
सिलवट साहब ने इस पूरे मुआमले में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और जब घर का सामान बिकने की नौबत आई तो इसमें भी वो अव्वल रहे। ख़रीददार का रोल उन्होंने ख़ुद प्ले किया। हाँ उन्होंने उस अलमारी में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई जिसमें मेरी ग़ज़लें और  किताबें थीं सो मकान मालिक को उन्होंने मश्वरा दिया कि ये सब कबाड़ी में तौल दीजिये। हमने मकान मालिक से और मकान मालिक ने हमसे जब पूरा वाक़या सुना तो दोनों ही बहुत दुखी हुए। हमने मकान मालिक से और मकान मालिक ने हमसे मुआफ़ी माँगी।इस मुआफ़ीनामे के बाद हम अपना थैला उठाये ज्यों ही चलने को हुए तो मकान मालिक की शराफ़त और हमदर्दी दोनों जाग पड़ी उसने हमें हमारे कमरे की चाभी सौंप दी जो कि अभी तक किराये पर नहीं लगा था।
दो-चार दिन की कोशिशों के बाद मैंने फिर से गृहस्थी के ज़रूरी सामान किसी तरह जुटा लिए और दोबारा ज़िन्दगी बहाल करने के लिये कुछ पब्लिकेशन हाउस से काम की तलाश करने लगा।अब उस बात पर आते हैं जहाँ से बात शुरू हुई थी।हमें दोबारा गृहस्थी जमाये मुश्किल से एक हफ़्ता बीता होगा कि सुबह-सुबह सिलवट भोजपुरिया साहब अपनी तमाम बेशर्मियों के साथ मुँह उठाये फिर हमारे घर आ धमके। उन्हें देखते ही बेगम का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया लेकिन तहज़ीब की बेड़ियाँ पाँव में होने की वजह से वो घर आये मेहमान पर बरसीं नहीं। उनका ज़ब्त देखिये कि थोड़ी देर में चुपचाप ग़ुस्से से भरपूर चाय बनाकर भी रख गयीं। सिलवट साहब चाय पीने अपनी लम्बी तान छोड़ने और तम्बाकू वाली हरकत के बाद कुछ हरकत में आये और इस बार मेरी उम्मीद के ख़िलाफ़ उन्होंने एक नया काम किया यानी निदा फ़ाज़ली साहब का मशहूर शे’र-
हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना
अपने अन्दाज़ में कुछ इस्लाह के साथ सुनाया। मैंने उन्हें टोका जनाब ‘’जिसका’’ लफ़्ज़ नहीं है बल्कि ‘’जिसको’’ है। कहने लगे ‘
’मियाँ साहब जिसको रहे चाहे जिसका का फरक पड़ता है’’। मैंने अर्ज़ किया-
‘’हुज़ूर आपकी ज़रूरतें अपनी जगह और शे’र अपनी जगह आप अपनी ज़रुरत के लिये शे’र की आबरू से तो मत खेलिये’’।
सिलवट साहब ख़ामोश हो गये मुझे यक़ीन है मेरा जुमला उनके भेजे के ऊपर से गुज़र गया होगा। थोड़ी देर चुप्पी के बाद फिर बोले-
‘’देखिये मियाँ साहब बुरा मत मानियेगा आपका सब सामान बिक रहा था और पड़ते में मिल रहा था तो हम सोचे कि हमीं ले लेते हैं समझे?आपको कोई आवस्यकता हो तो बताइयेगा झिझकियेगा नहीं बाकिर माता जी के देहान्त का सुनकर बहुत दुःख हुआ’’।

मैंने उस लम्हे ज़िन्दगी में पहली बार महसूस किया कि बेहद शराफ़त और चूतियापे में कोई फ़र्क़ नहीं। दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं जैसे कि मैं। मैंने सिलवट को घर से धक्का देने के बजाय उससे शराफ़त और नर्मी से कहा-
‘’लेकिन जनाब मेरी ग़ज़लें और किताबें… ।‘’मेरी बात बीच में काटते हुए वो बोले-
‘’अ जाने दीजिये महराज! उनको जहाँ जाना था पहुँच गयीं। हम तो पहिले भी आपसे कहे थे कि ई सब चक्कर छोड़िये अ अपना कला को पहचानिए भजपूरी गीत लिखिए अ फिर देखिये हम दूनों भाई मार्किट में कैसे गर्दा उड़ाते हैं। भगवान जो करता है अच्छे के लिए करता है। अच्छा हुआ आपका जंजाल कट गया’’।
ये बातें सुनकर मैं उनका क़त्ल तो कर नहीं सकता था जी में आया कि अपना ही क़त्ल कर डालूँ। सर्द अफ़सोस! कि मैं ये भी न कर पाया।
इस पूरे मुआमले के बाद मुझपर निदा फ़ाज़ली साहब का वो शेर जिसका ऊपर ज़िक्र हो चुका है पूरी तरह खुल गया। जिसका नतीजा ये निकला कि अब दूसरों को तो छोड़िये मैं ख़ुद को भी दिन में कई-कई बार देख लेता हूँ।  
ऐसा नहीं कि इसके बाद सिलवट भोजपुरिया हमारे घर नहीं आये वो बिलानाग़ा आते रहे। रोज़ाना नयी-नयी खबरों के साथ।हाँ मुझमें तब्दीली ये आई कि मैं उनकी हर आमद पर उन्हें कई-कई बार ग़ौर से देखने लगा नतीजतन उनमें मुझे दस-बीस नहीं अनगिनत आदमी मिलने लगे। एक दिन कहने लगे-
‘’मियाँ ज़ी उर्दू ग़ज़बे भासा है महराज़!आज़ हम ज़ान पाये कि बिन्दी लगाकर बोलने से सबद ज़ानदार हो ज़ाता है आज़ से हमने तय कर लिया है कि हम ज़ो भी बोलेंगे बिन्दी लगाकर  बोलेंगे ।‘’
अपने मख़सूस अन्दाज़ में जब वो ज को ज़ बोलते तो इतना ज़ोर लगाते कि अक्सर मुँह से थूक बाहर आ जाता और मुझे ये डर सताता कि इस कोशिश में वो कहीं मुँह से ख़ून न थूकने लगें।उनकी लाख कोशिशों  के बाद जब उर्दू की क़िस्मत नहीं सँवरी तो उन्होंने उसे उसके हाल पर छोड़ अपनी राह ली।
एक रोज़ बड़े उदास मूड में एक ख़बर और अपना दुखड़ा लेकर हाज़िर हुए। पहले ख़बर सुनाई कि एक भोजपुरी गायक जो अभी नया-नया स्टार बना था ज़हर खाकर परिवार सहित मर गया। कारण ये बताया कि उसने अपने म्युज़िक अल्बम के लिए लगातार ब्याज पर पैसा लिया और लगातार फ्लॉप होता रहा क़र्ज़ बढ़ता गया लेकिन वो सबको भरोसा दिलाता रहा कि एक अल्बम हिट होने दीजिये तीन गुना ब्याज समेत सबका पैसा चुकता कर देगा।अब जब अल्बम हिट हुआ तो सब क़र्ज़ देने वाले तुरन्त अपने-अपने पैसे की डिमाण्ड करने लगे।उसने बहुत भरोसा दिलाया कि बहुत जल्द  पैसा आना शुरू हो जाएगा अभी पैसा नहीं है।क़र्ज़ देने वालों को लगा कि वो धोखा दे रहा है। वाद-विवाद इतना बढ़ा कि कल रात पूरा परिवार ज़हर खाकर मर गया। इस दुखभरी ख़बर के बाद अपना दुखड़ा लेकर बैठ गये।
‘’देखिये मियाँ जी हमरा स्थिति उतना खराब तो नहीं है फिर भी खराब तो हइए है। इस कैसेट के चक्कर में अब तक हमरा एगो भैंस एक बिगहा जमीन अ मेहरारू का कुछ गहना लपेटा चुका है।आपको तो पते है एतना साल से हम भी जूता सिलाई से लेकर चंडीपाठ तक सब किये लेकिन हासिल आया जीरो।हमको काल्हे से डर सता रहा है कि अगर हम इसी तरह फलाप रहे तो हमरा का होगा’’?
मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि उन्हें कैसे तसल्ली दूँ। जाते-जाते उन्होंने मुझे फिर भोजपुरी गीत लिखने के फ़ायदे गिनवाए।
इस वारदात के बाद बहुत दिनों तक वो सन्जीदा रहे बल्कि घबराये रहे कहना चहिये।  इस घबराहट में रोज़ एक मन्सूबा बनाते।कभी मुझसे अचार का बिजनेस शुरू करने की बात करते, कभी देहाती दिये वाले काजल के धन्धे की सोचते तो कभी कहते-
‘’का करें ससुरा सिक्यूरटी गाड ही बन जाएँ का?जहर खाकर मरने से तो ई अधिक ठीक काम लगता है हमको’’।
अब बात को थोड़ा फ़ारवर्ड करके आगे ले चलता हूँ एक रोज़ हुआ ये कि वो चहकते हुए मेरे घर आये और कहने लगे कि-
‘’मियाँ जी भगवान को आखिर हमपर तरस आ ही गया। हमरा कैसेट ‘’चोली में बिस्तुइया’’ गजबे हिट हो गया है। अ हमरे पास चार गो इसटेज परगुराम का बयाना भी आ गया है’’।
मैंने उन्हें मुबारकबाद पेश की। उनकी कामयाबी का सबसे बड़ा फ़ायदा मुझे ये पहुँचा कि अब वो रोज़ नहीं कभी-कभार मौक़ा मिलने पर ही मेरे घर आते। उन्हें लगातार भोजपुरी के प्रोग्राम मिलने लगे। गाड़ी चल पड़ी।कुछ ही दिनों बाद सुनने में आया कि अपने फूहड़ गीतों के लिए उनकी जमकर धुलाई हुई है।वो भी एक महीने के अन्दर-अन्दर चार बार।और इसका उन्हें ज़बरदस्त फ़ायदा भी मिल चुका है । सिलवट साहब ने ही मुझे बातचीत के दौरान  एक बार बताया था –
’’मियाँ जी जो कलाकार पब्लिक में एक बार जमकर थुरा गया तs समझ लीजिये कि उसका बेड़ा पार हो गया’’।
यहाँ तो सिलवट साहब चार बार पिट चुके थे। अब तो यक़ीनन उनका बेड़ा पार होना था। हुआ भी। उनको भोजपुरी के एक प्रोड्यूसर ने अपनी फ़िल्म में हीरो ले लिया और इस तरह जल्द ही वो भोजपुरी गायक से नायक हो गये। फ़िल्म मिलने के बाद बॉम्बे जाने से पहले वो मेरे पास आये और मुझसे चुटकी बजाते हुए रोबीले अन्दाज़ में बोले-
‘’मियाँ जी हई सब डेरा-डम्पर उठाइये अ चलिए हमरे साथ बम्मे…देखिये हम कइसे आपको स्टार बनाते हैं। आपकी लेखनी का इहाँ कोई कदर नहीं है महराज’’
मैं आज तक नहीं समझ पाया कि वो मुझपर ही इतने मेहरबान क्यों थे।ख़ुदा बेहतर जाने कि उन्हें मेरी लेखनी पसन्द थी या कुछ और मुआमला था।मैंने उनका शुक्रिया अदा करते हुए मुआफ़ी माँगी-
‘’मुझे मुआफ़ कीजियेगा हुज़ूर मैं जहाँ हूँ ठीक हूँ आप मेरी फ़िक्र न कीजिए’’। मुझे हाथ से निकलता देख वो हत्थे से उखड़ गये-
‘’बुझा नहीं रहा है आपको? सिलवट भोजपुरिया खुद आपसे कह रहा है कि आप हमरे साथ चलिए। पुराना नाता है नहीं तो आज के डेट में कोई किसी को मोका देता है जी? छमा कीजियेगा महराज!हमको लगता है आप ही जैसे लोग के लिए कहावत बना होगा कि नाली का कीड़ा नाली में ही रहेगा…हम जा रहे हैं अ अभियो कहके जा रहे हैं कि आपका मन बदल जाए त आ जाइएगा हम पुराना नाता अब पर भी निभायेंगे। ई जुबान है सिलवट भोजपुरिया की। परनाम।‘’ ये मेरी उनसे आख़िरी बात और मुलाक़ात थी।
और इस तरह आख़िरश सिलवट भोजपुरिया से मेरा और दिल्ली का पिण्ड छूट गया।
उनके जाने के बाद मुहल्ले का राशनवाला, प्रेसवाला, सब्ज़ीवाला, कूड़ेवाली,दूधवाला और उनके न जाने कितने रिश्तेदारों ने ‘’मुझे रोक-रोक पूछा तेरा हमसफ़र कहाँ है’’
सबब था वही मुहावरा ‘’ऐसा कोई सगा नहीं जिसको हमने ठगा नहीं’’।
सिलवट साहब फ़िल्मों में कामयाब हो गये।मौजूदा भोजपुरी सिनेमा में काम करने के लिए जो ख़ूबियाँ दरकार हैं वो सब उनमें कूट-कूट कर भरी थीं।सो कामयाब तो होना ही था।कामयाबी मिल जाए तो उसे पचाना भी एक मुसीबत ही है। सिलवट साहब का हाजमा यूँ भी ज़ियादातर ख़राब ही रहता था सो उनके लिए और मुश्किल थी। उनकी तमामतर बेहतरीन बदतरीन ख़बरें किसी न किसी ज़रीये से मुझतक पहुँचती रहीं सबका ज़िक्र तो मुमकिन नहीं लेकिन वो ख़बर जो मैं आपसे साझा करना चाहूँगा वो ये है कि उनकी बीवी दोनों बच्चों समेत उनसे रूठकर चली गयीं।इसका कारण सेंसरशिप की मजबूरी के तहत मैं खुले तौर पर तो आपको नहीं बता सकता बँधे तौर पर आप समझ सकें तो समझ लीजिये कि सिलवट साहब ने अपनी पड़ोसन के शौहर को अपना बना लिया था और उनकी बीवी ने एक दिन अपनी आँखों से ये मन्ज़र देख भी लिया था। अब भला कौन हिन्दुस्तानी औरत ये बर्दाश्त कर पाएगी कि उसके शौहर का भी एक शौहर हो और वो भी पड़ोसन का। बहरहाल बातें तो बहुत हैं ‘’बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी….’’।ज़ियादा दूर निकल गये तो भटकाव का ख़तरा हो सकता है इसलिए इस आख़िरी बात पर बात ख़त्म करता हूँ।ताज़ा ख़बर ये है कि भोजपुरी सिनेमा की क़िस्मत सँवारने के बाद अब वो सियासत की क़िस्मत सँवारने वाले हैं।अल्लाह ख़ैर करे।

 
      

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5 comments

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