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    जूठन : अनुभव और अनुभूतियाँ

युवा आलोचक सुरेश कुमार के लेख हम सब पढ़ते रहे हैं। उनकी आलोचना दृष्टि के हम सब क़ायल रहे हैं। यह उनका नया लेख है जो ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ पर है-

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  ओमप्रकाश वाल्मीकि,मोहनदास नैमिशराय, श्यौराज सिंह बेचैन, सूरजपाल चौहान और तुलसीरम की आत्मकथाएं इस बात की तसदीक़ करती हैं कि जाति-प्रथा चलते दलितों को कितना अपमान और दुख झेलना पड़ा है।  प्रसिद्ध लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि (1950-2013) की आत्मकथा ‘जूठन’ बीसवीं सदी के उत्तरार्ध वाले भारत की सामाजिक, राजनैतिक और जातिवादी गतिविधियों की तस्वीर को अनुभव के साथ प्रस्तुत करती हैं। इस आत्मकथा का प्रकाशन पहली बार सन 1997 में राधाकृष्ण प्रकाशन,दिल्ली से हुआ था। सन1993 की बात है कि जब प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार राजकिशोर ‘आज के प्रश्न’ सीरीज के अंतर्गत ‘हरिजन से दलित’ पुस्तक संपादन की योजना पर काम कर रहे थे। उन्होंने इस किताब के लिए ओमप्रकाश वाल्मीकि से आत्मकथ्य लिखने का आग्रह किया था। जूठन आत्मकथा का पहला अंश राजकिशोर के संपादन में ‘एक दलित की आत्मकथा’ शीर्षक से ‘हरिजन से दलित’ किताब में प्रकाशित हुआ था। यहाँ से ही ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ‘जूठन’ लिखने का विधिवत सिलसिला शुरू किया था। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने आत्मकथा पूरी करने के बाद उसकी  पाण्डुलिपि विलक्षण बुद्धिजीवी और दलित लेखन के पक्षधर राजेन्द्र यादव को सौंप दी। राजेंद्र यादव ने इस आत्मकथा की पाण्डुलिपि पढ़कर ‘जूठन’ शीर्षक से छपवाने का सुझाव ओमप्रकाश वाल्मीकि को दिया। इस तरह ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा के नामकरण का श्रेय राजेंद्र यादव को जाता है।

ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित जीवन की अनुभव परक मीमांसा के प्रख्यात लेखक हैं। उनकी आत्मकथा ‘जूठन’ अनुभव और अनुभूतियों का एक नायाब उदाहरण हैं। इस लेखक की रचनाशीलता की ज़मीन में अनुभव मीमांशा का तत्व समाहित है। वह आर्जित अनुभूतियों के आधार पर ही दलित जीवन की दुशवारियों और उसकी पीड़ा को बड़ी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से सवर्ण पृष्ठभूमि के लोगों का आचरण दलित समाज के साथ कैसा रहा और जाति-प्रथा के चलते कितना अपमान सहना पड़ा है, इसे बड़ी शिद्दत के साथ रेखांकित किया है। लेखक अपने गाँव के सामाजिक परिवेश के  बारे में बताते हैं कि जोहड़ी के किनारे दलितों के मकान थे। चारों तरफ इतनी दुर्गंध और बदबू थी कि मिनट भर में सांस घुट जाए। ऐसे माहौल में ओमप्रकाश वाल्मीकि और उनका परिवार रहता था। ओमप्रकाश वाल्मीकि का कहना था कि ऐसे वातावरण में यदि वर्ण-व्यवस्था को आदर्श-व्यवस्था को कहने वालों को दो दिन गुज़रना पढ़ जाए तो निश्चित उनकी राय बदल जाएगी। आजादी के दौर में जिन्हें केंद्र में लाना का वादा हुआ था, उस वंचित समाज को सवर्णवादी ताकते लगातार हाशिये पर ढकेलती आ रही हैं। देखा गया है कि भारत के किसे भी कोने का दलित समाज हो, उनकी बस्तियाँ गाँव और शहर की परिधि के बाहर किसी दुर्गंध भरे नालों के पास होती हैं। आधुनिकता का दावा पेश करने वाला यह सवर्ण समाज अपने आचरण में छुआछूत और अस्पृस्यता की गिरिफ़्त में किस कदर धंसा हुआ है। इसकाअंदाजा ओमप्रकाश वाल्मीकि के इन शब्दों से लगाया जा सकता है-‘अस्पृस्यता का ऐसा माहौल कि कुत्ते-बिल्ली,गाय-भैंस को छूना बुरा नहीं था,लेकिन यदि चूहड़े का स्पर्श हो जाए तो पाप लग जाता था। सामाजिक स्तरपर इनसानी दर्जा नहीं थी।’

 किसी भी सभ्य समाज की प्रगतिशीलता का अंदाजा इस बात से भी लगया जा सकता है कि वहाँ के शिक्षकों का आचरण और नज़रिया सर्वसमावेशी मूल्यों है या नहीं। यदि शिक्षक समानता की पैरोकारी करने के बजाय जातिवाद की पैरोकारी करता है तो वह समाज भी उसकी मानसिकता का अनुशरण करने लगता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ इस बात की तसदीक़ करती है कि सवर्ण शिक्षकों का आचरण सर्वसमावेशी मूल्यों वाला नहीं रहा है। वह अपने आचरण और वसूलों में जातिवाद का परचम लहराते नज़र आते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने एक सवर्ण शिक्षक के आचरण के संबंध में बताते हैं कि मास्टर हम लोगों को देखकर लगातार गालिया बक रहा था। ऐसी गलियाँ जिन्हें यदि शब्द बद्ध करूँ तो हिन्दी कि अभिजात्यता पर धब्बा लग जाएगा। जब ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कक्षा में गए तो उनके अध्यापक ने  पढ़ाने के बजाए उन्हें झाड़ू थमाकर स्कूल की सफाई करने के काम पर लगा दिया। आत्मकथाकार ने बताया कि मेरी कक्षा में बाकी बच्चे पढ़ रहे थे और मैं झाड़ू लगा रहा था। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने इस हेडमास्टर से काफी डरते  थे। उन्होंने अपने इस शिक्षक के संबंध में एक जगह लिखा है कि हेडमास्टर को देखते ही मेरी रूह काँप जाती थी। लगता,जैसे सामने से मास्टर नहीं कोई जंगली सूअर थूथनी उठाए चिंचियाता चला आ रहा है। लेखक इसके बाद अपने एक अध्यापक के पिता के आचरण के बारे में बताते हैं कि अपने दोस्त के साथ अध्यापक के गाँव उसके लिए गेहूं लाने के लिए गए थे। वहाँ अध्यापक के पिता ने उन्हें अपने यहाँ खाना खिलाया। इसके बाद उसने हमारी जाति पूछी और उन्होंने चूहड़ा बता दिया। यह सुनते ही अध्यापक के पिता ने उनको गालिया देते हुए , घर को अपवित्र करने के  अपराध में उन्हें और उनके सहपाठी को लट्ठी से पीटा। इस में कोई दो राय नहीं है कि आजादी के दौर से शैक्षिक संस्थाओं पर कब्जा सवर्ण अध्यपकों का रहा है। यह अध्यापक अपनी श्रेष्ठता के बोध में दलित छात्रों को बड़ी हिकारत भरी नज़रों से देखते हैं। ऐसे अध्यापक दलित छात्रों से कहते हैं कि अरे तू है तो चूहड़ा-चमार ही पढ़कर क्या करेगा,आखिर तुझे झाड़ूँ ही लगाने का काम करना है। इस तरह की जातिवादी टिप्पणियों का दलित छात्रों पर प्रतिकूल असर पढ़ता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने एक अध्यापक की भाषा का जिक्र इन शब्दों में करते हैं कि ‘अबे,साले,चूहड़े की औलाद,जब मर जाएगा बता देना।’ शिक्षकों के इस जातिवादी व्यवहार का नतीजा यह हुआ कि सभी विषयों में अच्छे अंक लाने के बाद उनके विज्ञान शिक्षक ने उन्हें प्रैक्टिकल में फेल कर दिया था। इस जातिवादी व्यवहार के चलते ओमप्रकाश वाल्मीकि इंटर की परीक्षा में फेल हो गए थे। ऐसे शिक्षकों के चलते न जाने कितने छात्र आगे नहीं पढ़ पाते हैं। इस तरह ओमप्रकाश वाल्मीकि की पढ़ाई छूट गयी। इसके बाद वे अप्रेंटिस बनकर आर्डनेंस फैक्ट्री,देहारादून में ट्रेनिग के लिए चले गए।

सवर्ण इतिहासकार और शिक्षविदों ने दलित-बहुजन नायकों और सुधारकों को पाठय-पुस्तकों में स्थान नहीं दिया। इसका नुकसान यह हुआ कि दलित समाज के बुद्धिजीवी और नायक हाशिए पर चले गए। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि डॉ.आंबेडकर से उनका परिचय इंटर में हुआ । वह भी पाठय-पुस्तकों से नहीं बल्कि उनके एक मित्र ने उन्हें पुस्तकालय में चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु द्वारा लिखित बाबा साहब की जीवनी पढ़ने को दी। वह इस संबंध में बताते हैं कि एक दिन जब मैं पुस्तकालय में बैठा पुस्तक देख रहा था तो हेमलाल ने एक छोटी-सी पुस्तक मेरे हाथ में दी जिसे उलट-पलट के मैं देख ही रहा था, वह बोला, “इसे पढ़ो’’। पुस्तक का नाम था, ‘डॉ.आंबेडकर : जीवन-परिचय’,लेखक चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु। यहाँ  ओमप्रकाश वाल्मीकि चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु की जिस किताब का जिक्र किया है, उसके नाम से सहमत होने में दुविधा हो रही है।  ओमप्रकाश वाल्मीकि जिज्ञासु  की जिस किताब की बात कर रहे हैं, उसका सही नाम ‘बाबा साहेब का जीवन संघर्ष’ है। बड़ी मज़े की बात यह है कि मेरे पास जूठन का पंद्रहवाँ संस्करण है उसमें भी चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु की इस किताब का नाम सही नहीं लिखा है। चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु की किताब ‘बाबा साहेब का जीवन संघर्ष’ पढ़कर ही  चेतना का प्रवाह हुआ था। यदि वाल्मीकि जी के मित्र हेमलाल उन्हें जिज्ञासु जी की किताब पढ़ने के लिए नहीं कहते तो शायद उनकी छटपटाहट और चुप्पी को मुखर होने में देर लगती। चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु की पुस्तक के असर के संबंध में ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि जैसे-जैसे मैं इस पुस्तक के पृष्ठ पलटता गया, मुझे लगा, जैसे जीवन का एक अध्याय मेरे सामने उघड गया।  ऐसा अध्याय जिससे मैं अंजान था। डॉ. आंबेडकर के जीवन-संघर्ष ने मुझे झकझोर दिया था। बड़ी दिलचस्प बात यह की जिस किताब ने ओमप्रकाश वाल्मीकि को इतना झकझोरा और उनका नज़रिया बदला, उसी पुस्तक का नाम सही नहीं बताया। चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु (1885-1974) उत्तर भारत के बड़े बहुजन चिंतक थे। उन्होंने उत्तर भारत में दलित वैचारिकी की पहलकदमियों को व्यापक स्तर पर अंजाम दिया था। वह वैचारिक तौर पर स्वामी अछूतानन्द के  ‘आदि-हिन्दू’ आंदोलन से भी जुड़े थे। इस बहुजन चिंतक ने केवल बाबा साहेब की ही जीवनी नहीं लिखी थी बल्कि दलित विचारक स्वामी अछूतानन्द की जीवनी ‘आदिहिन्दू आन्दोलन के प्रवर्तक श्री 108 स्वामी अछूतानन्द जी ‘हरिहर’(1960) शीर्षक से लिखी थी। इस चिंतक ने बहुजन वैचारिकी को विस्तार देने के लिए  बहुजन कल्याण प्रकाशन, लखनऊ  की स्थापना भी की थी। डॉ.आंबेडकर और स्वामी अछूतानंद के विचारों से उत्तर भारत को परिचित करवाने में चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने बड़ी अहम भूमिका निभायी थी। खैर ।

ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में वैचारिक तौर पर एक बड़ा अहम सवाल उठाते हैं कि वह और उनका समाज  हिन्दू दायरे में नहीं आता है। उनके अनुसार  हिन्दू-धर्म के अंतर्गत आने वालों उत्सवों के दिन उनके घर में लक्ष्मी का पूजा-पाठ नहीं किया जाता था। लेखक इस बात का भी खुलासा करते हैं कि उनके समुदाय के देवी-देवता अलग हैं। वह बताते हैं कि त्योहार के अवसर पर माई मदारन की पुजा की जाती थी। वह आगे यह भी बताते हैं कि उनके समुदाय में जिन देवताओं की पुजा की जाती थी, उन्हें  पौन कहा जाता था। ओमप्रकाश वाल्मीकि के अनुसार यह देवता  हिन्दू देवी-देवताओं से अलग होते थे, जिनके नाम किसी भी पोथी-पुराण में नहीं मिलेगे। यह बात ज़ोर देकर कहते हैं कि उनके वाल्मीकि समाज में हिन्दू-देवी देवताओं की पूजा नहीं की जाती थी। उत्सव से लेकर शादी-ब्याह तक के सभी मांगलिक कार्यक्रम में पौन देवताओं की पूजा की जाती थी। माई मदारन और पौन की पूजा के बिना सारे काम अधूरे समझे जाते थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी आत्मकथा में इस बात को तो साफ कर देते हैं कि वैचारिक और धार्मिक तौर पर हिन्दू नहीं हैं लेकिन इस सवाल का जवाब तो तलाशना ही होगा कि जब हिन्दू नहीं हैं तो फिर क्या हैं ?

 ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी आत्मकथा में आत्म सम्मान को ठेस पहुँचने वाली ‘सलाम’ जैसी दलित विरोधी प्रथा का विरोध करते हैं। देखा जाए तो ‘सलाम’ की प्रथा दलितों को नीचा दिखाने के लिए और सामंती मनसिकता को संतुस्ट करने के लिए ब्राह्मणों द्वारा चलाया गया उपक्रम था। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने मित्र हिरम सिंह को ‘सलाम’ के लिए रोकने की कोशिश करते हैं पर उनकी बात समझने के लिए कोई तैयार नहीं है। दरअसल, सलाम-प्रथा की रस्म में दूल्हे को  द्वार-द्वार जाकर सवर्णों को सलामी देनी  होती थी। ओमप्रकाश वाल्मीकि को इस सलाम प्रथा के दौरान जो अनुभव हुआ, वह बहुत अपमानित करने वाला था। उन्हें सलाम के दौरान सुनना पड़ा कि कोई-कोई अजीब मुद्रा में मुँह बनाकर कहते कि इन चूहड़ों का तो कभी पेट ही नहीं भरता। एक उच्च श्रेणी की महिला सलाम के दौरान कहती है कि, ‘कितना बी पढ़ लो… रहोगे ते चूहड़े ही।’ इन सब बातों का उन पर गहरा असर पड़ा। इसके बाद उन्होंने ठान लिया कि इस सलाम-प्रथा को कम से कम घर से तो ख़त्म कर डालेंगे। ओमप्रकाश वाल्मीकि की जब बहन की शादी हुई तो उन्होंने अपने बहनोई को ‘सलाम’ करने के लिए नहीं जाने दिया। इसके बाद उन्होंने इस ब्राह्मणवादी प्रथा पर चोट करने के लिए ‘सलाम’ शीर्षक से एक कहानी भी लिखी जो हंस, अगस्त 1993 के अंक में छ्पी थी। इस कहानी की साहित्य हलक़ों में काफी चर्चा हुयी थी। इस कहानी की शिनाख़्त  ब्राह्मणवाद और कुप्रथाओं  को चुनौती देने वाली कहानी के तौर पर की गयी थी।

ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ‘जूठन’ में अपने परिवार की दुश्वारियों को खुलकर बताया है। वह अपनी माँ के बारे में लिखते है कि मेरी माँ  इन सब मेहनत-मज़दूरियों के साथ-साथ आठ-दस तगाओं (हिन्दू, मुसलमान) के घर तथा घेर (मर्दों का बैठक खाना तथा मवेशियों को बाँधने कि जगह) में साफ सफाई का काम करती थी। इस काम में मेरी बहन,बड़ी भाभी तथा जसबीर और जनेसर(दो भाई) माँ का हाथ बताते थे। एक तरह लेखक का पूरा परिवार गाँव के सवर्णों के यहाँ बंधुवा मजदूर था। ओमप्रकाश वाल्मीकि के व्यक्तित्व निर्माण में सबसे अहम भूमिका उनके पिता की रही है। वह ओमप्रकाश वाल्मीकि की पढ़ाई के लिए उनके शिक्षक से लड़ तक गए थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि के पिता हमेशा जाति-सुधारों पर ज़ोर देते रहे थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने संबंध में बताते हैं कि दोपहर बाद मेरी ज़िम्मेदारी सूअर चराने की थी। यह सूअर उनके परिवार के शादी-ब्याह से लेकर तमाम शुभ कार्य में अहम हिस्सा होते थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि यहाँ तक बताते हैं कि इन सूअर के बिना कोई भी पुजा-अर्चना अधूरी मानी जाती थी। यह जानवर ही उनके परिवार की आय के स्रोत भी थे। इधर,पौराणिकों ने दलित के जानवरों को भी कमतर बताकर उनके विरुद्ध खूब प्रचार किया। इन वैदिकों और पौराणिकों की दृष्टि में सुअर को सबसे नीच और गंदा जानवर बताने का खेल खेला जाता रहा है। वे नहीं चाहते हैं कि दलितों से संबंधित किसी भी वस्तु को सम्मान से देखा जाए। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि गाँव के बहुत सारे ऐसे सवर्ण थे जो चोरी छिपे सूअर का मांश खाते थे। सवाल यह है कि ऐसे लोगों को तो कोई अछूत नहीं कहता था? बता सिर्फ इतनी है कि  वैदिकों ने अपने-आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए उन्होंने दलित के खान-पान और पेशे को ‘नीच’ सिद्ध कर डाला। क्या दलित के कहने पर वर्णधारी जातिवादी आचरण का बर्ताव करना छोड़ देता है। यदि नहीं तो दलित उनके कहने पर अपने आपको नीच और अछूत क्यों मान लेता है।

 ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी आत्मकथा के भीतर यह दिखते हैं कि आजादी के दौर से जातिवादी गतिविधियां का उभार बड़ी ज़ोर से हुआ है। इस आत्मकथा में तमाम ऐसी घटनाएँ दर्ज हैं जो जातिवाद के बीहड़ इलाकों की शिनाख़्त करती हैं। वर्णधारियों की जातिवादी मानसिकता ने ओमप्रकाश वाल्मीकि  को बड़ा अपमानित किया। ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं कि जाति के नाम पर जो घाव मिले,उन्हें भरने के लिए युग भी कम पड़ जाएगा। ओमप्रकाश वाल्मीकि बताते हैं कि उनके शिक्षक हर समय उन्हें भंगी होने का अहसास कराते रहते थे। वह जूठन में एक जगह पर लिखते हैं कि ग़रीबी और अभाव से पर पाया जा सकता है लेकिन  जाति से पार पाना बहुत कठिन है। इस आत्मकथा में कुलकर्णी जैसे पढे-लिखे लोग भी जातिवाद के घाट के पार नहीं जा सके हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि का निष्कर्ष है कि आज ‘जाति’ एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण घाटक है। जब तक यह पता नहीं होता कि आप दलित हैं  तो सब कुछ ठीक रहता है, जाति मालूम होते ही सब कुछ बदल जाता है। देश की आजादी और लोकतन्त्र की पहलकदमियों को अंजाम देने वाले रहनुमाओं का ख़्वाब था कि जाति-प्रथा का समूल नाश कर दिया जाए। ऐसे सुधारकों का मानना था कि यह जाति-व्यवस्था आजादी और लोकतन्त्र के माथे पर कलंक का टीका है। उनकी तमाम कवायदों  के बावजूद भारतीय समाज का उच्च श्रेणी तबक़ा अपने आचरण और सामाजिक व्यवहार में जाति की परिधि से दूर जाता नहीं दिखायी दे रहा है। जब इक्कीसवीं शताब्दी का तीसरा दशक अंगड़ाई ले रहा है, उसी समय सामाजिक और राजनैतिक सरगर्मी के बीच उच्च श्रेणी का तबक़ा जाति-प्रथा में अपनी आस्था की जड़े गहरी कर रहा है।

[सुरेश कुमार युया आलोचक और अध्येता हैं। इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोधकार्य  कर रहें है। इनके लेख हंस, तद्भव,पाखी, कथाक्रम, समकालीन भारतीय साहित्य,आजकल आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुंके हैं।]

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